Saturday, 2 November 2013

सेक्यूलर कन्वेंशन ः कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानुमती ने कुनबा जोड़ा

कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानुमती ने कुनबा जोड़ा। यह कहावत तथाकथित तीसरे मोर्चे पर फिट बैठती है। चुनाव नजदीक आते ही छोटे-छोटे सूबेदारों ने फिर अपना तमाशा शुरू कर दिया है। वामपंथी जो कि अब सारी दुनिया के सिर्प भारत में वह भी एक-दो राज्यों में बचे हैं ने एक बार फिर केंद्र में सत्ता के विकल्प की कवायद की है। कहने को तो यह तीसरा मोर्चा है पर वास्तविकता में यह महज भाजपा-रोको मोर्चा है। इन सबको न तो देश की फिक्र है और न ही इतिहास की। इतिहास गवाह है कि जब-जब यह तीसरा मोर्चा सत्ता में आया है तब-तब देश कई साल पीछे चला गया है। इसका प्रमुख कारण है कि यह गठबंधन किसी कॉमन मिनिमम प्रोग्राम पर तो बनता नहीं, यह या तो केंद्र में सत्ता सुख भोगने के लिए या फिर सत्ता की सौदेबाजी के लिए बनता है। इन 17 पार्टियों की न तो नीतियां ही मिलती हैं और न ही भविष्य के भारत का विजन। कुछ नेता तो इसलिए एक साझा मोर्चा बनाने के चक्कर में हैं ताकि वह इस स्थिति में आ जाएं कि अगर त्रिशंकु संसद बनती है तो यह इस स्थिति में आ जाएं कि यह प्रधानमंत्री बन सकें जैसे एचडी देवेगौड़ा और इन्द्रकुमार गुजराल बने थे। इस श्रेणी में दो नाम उभर कर सामने आते हैं, मुलायम सिंह यादव और नीतीश कुमार। दोनों अगला पीएम बनना चाहते हैं। श्री मुलायम सिंह ने तो अपनी मंशा को सार्वजनिक भी कर दिया है। वामपंथियों का अपना ही खेल है। सारी दुनिया में साफ हो चुके वामपंथी अब अपने अस्तित्व की लड़ाई दो-तीन राज्यों में लड़ रहे हैं। मायावती की बीएसपी के साथ यह लोकसभा में कई राज्यों से अपने उम्मीदवार उतारते हैं ताकि चुनाव आयोग के नियमों के अनुसार यह अपनी पार्टी की राष्ट्रीय पहचान बरकरार रख सकें। ऐसा नहीं कि भारत में गैर कांग्रेस-गैर भाजपा मोर्चा की जरूरत नहीं है पर यह तभी सम्भव हो सकता है जब यह 17 राजनीतिक दल मिलकर चुनाव से पहले चुनावी गठबंधन करें जो कॉमन मिनिमम प्रोग्राम पर आधारित हो। ऐसा तो होता नहीं है। विकल्प शब्द बड़ा सुहावना लगता है क्योंकि इसमें इंसान को स्वतंत्रता का एहसास होता है। एक रास्ते पर चलने की मजबूरी हो तो वह ऊब जाता है, उसका अहम विद्रोह पर उतारू हो जाता है। लेकिन दूसरे रास्तों का विकल्प मिलते ही उसकी कल्पना उड़ान भरने लगती है। दिल्ली में वाम पार्टियों की सांप्रदायिकता विरोधी रैली भी राजनीतिक विकल्पों की तलाश की पहल है। दरअसल पिछले कुछ महीनों से नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में ऐसी तेजी से उभरे हैं कि यह तमाम दल बौखला गए हैं। इन्हें अपने-अपने वोट बैंकों की चिंता लगने लगी है। अपने अस्तित्व को यह दल सबसे बड़ी चुनौती नरेन्द्र मोदी की बढ़ती ताकत मानते हैं, इसीलिए कटु सत्य तो यह है कि यह कथाकथित मोर्चा और कुछ नहीं नरेन्द्र मोदी विरोधी मोर्चा है। इनमें कितना एका है या हो सकता है इसका अनुमान हम किसी बात से लगा सकते हैं कि मंच पर मुलायम सिंह और नीतीश कुमार दोनों अपने आपको मोर्चा का लीडर साबित करने पर तुले थे। राजधानी के तालकटोरा स्टेडियम में बेशक वामपंथियों ने सांप्रदायिकता के खिलाफ एकता दिखाने के लिए सम्मेलन का आयोजन किया हो लेकिन मंच सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने हाइजैक कर लिया। आलम यह रहा कि मुलायम के बोलने के बाद स्टेडियम खाली होने लगा। मुलायम सिंह यादव ने बड़े जोरशोर से घोषणा की उत्तर प्रदेश में जहां भी सांप्रदायिक शक्तियां सिर उठाएंगी उन्हें वहीं खत्म कर दिया जाएगा। जिस समय मुलायम सिंह यह घोषणा कर रहे थे ठीक उसी समय मुजफ्फरनगर में फिर हत्याओं का सिलसिला आरम्भ हो गया। वह कितना कंट्रोल कर पाए यह सर्वविदित है। मंच पर ही सीपीएम नेता प्रकाश करात ने मुलायम सिंह के मुजफ्फरनगर में दंगों को रोकने में फेल होने का आरोप जड़ दिया। खुद मुलायम  थर्ड फ्रंट की सबसे ज्यादा वकालत करने वाले कन्वेंशन में साफ संकेत देने से बचते रहे। कन्वेंशन में नीतीश ने तो कहा कि लोग पूछ रहे हैं कि क्या यह सम्मेलन नया फ्रंट बनाने के लिए आयोजित किया गया है? ऐसे में सांप्रदायिकतावाद को हराने के लिए समान विचारधारा वाले दलों को एक मंच पर आना होगा। मुलायम ने ऐसी कोई बात नहीं की जबकि पिछले दिनों कहा था कि अगले आम चुनाव में शरद पवार और नीतीश के साथ नया फ्रंट बनाएंगे। चर्चा तो इस बात की भी थी कि एनसीपी नेता शरद पवार भी इस कन्वेंशन में भाग लेंगे पर महाराष्ट्र के यह शातिर सियासी खिलाड़ी इन छोटे-छोटे सूबेदारों की आदतों और तौर-तरीकों से चिर-परिचित हैं, इसलिए उन्होंने फिलहाल इसमें शामिल न होना बेहतर समझा रह सही समय पर अपने पत्ते खोलेंगे। हालांकि एनसीपी नेता प्रफुल्ल पटेल ने यह जरूर कहा कि मौजूदा राजनीति में समान विचारधारा के लोगों के मिलने के विकल्प खुले रहने चाहिए लेकिन अभी थर्ड फ्रंट जैसी बात करना जल्दबाजी होगी। हमारी सियासत की सबसे बड़ी बदकिस्मती यह है कि कांग्रेस पार्टी जिसका सही मायनों में राष्ट्रीय स्वरूप था, हर राज्य में मौजूदगी थी वह बिखरती जा रही है। भारतीय जनता पार्टी की तो कभी भी पूरे देश में मौजूदगी नहीं रही। उत्तर भारत में बेशक वह एक ताकत रही पर पूरे देश में उसकी प्रेजेंस भी नहीं रही। कांग्रेस के बिखरने से विभिन्न राज्यों की प्रमुख सियासी पार्टियों की ताकत बढ़ती चली गई और आज यह स्थिति है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों की लगभग एक ही तरह की हो गई है। दोनों अपने दम-खम पर केंद्र में सरकार बनाने की स्थिति में नहीं हैं। गठबंधन तो दोनों को ही करना पड़ेगा। यह कथाकथित थर्ड फ्रंट और कुछ नहीं है यह कांग्रेस का बैकअप प्लान है जिसे कांग्रेस की बी टीम भी कहा जा सकता है। इस कन्वेंशन के पीछे भी कांग्रेस की कवायद है जिसका उद्देश्य एक है नरेन्द्र मोदी और भाजपा की बढ़ती ताकत को रोकना। भाजपा और उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के लिए चुनाव के महज छह महीने बचे हैं और सर्वेक्षणों में कांग्रेस की बुरी गत हो रही है जबकि भाजपा बढ़त बनाती जा रही है। लेकिन भाजपा की मुश्किल भी कांग्रेस की तरह लगती है कि बढ़त के बावजूद भाजपा बहुमत के जादुई आंकड़े तक पहुंच पाएगी या नहीं यह आज कहना मुश्किल है। भाजपा को भी गठबंधन करना होगा। उसके हक में यह जरूर जाता है कि राज्यों की सियासत ऐसी है कि ममता व वामदल एक साथ नहीं हो सकते, अन्नाद्रमुक और द्रमुक एक साथ नहीं हो सकते, सपा और बसपा एक साथ नहीं हो सकते। राकांपा, बीजू जनता दल जैसों का कोई भरोसा नहीं कि वह अंत में किस ओर झुकें। कुल मिलाकर यह एक सियासी कसरत है जिसे फिलहाल गम्भीरता से नहीं लिया जा सकता।

-अनिल नरेन्द्र

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