Tuesday, 30 April 2019

चौथे चरण में एनडीए को चाहिए 79 प्रतिशत स्ट्राइक रेट

भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता एवं केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने दावा किया है कि देश में भाजपा की आंधी चल रही है, जिसमें विपक्ष तिनके की तरह उड़ जाएगी। राजनाथ Eिसह ने बस्ती में एक चुनावी सभा में कहा कि तीन चरणों में हुए मतदान के रूझान से विपक्षी दल घबरा गए हैं और उनमें निराशा फैल गई है। देश में भाजपा की सुनामी चल रही है। लोकसभा चुनाव के तीन चरण पूरे हो चुके हैं और चौथे चरण में भी 14 राज्यों की 71 सीटों पर मत पड़ गए हैं। चौथे चरण में जिन 71 सीटों पर वोट डाले गए हैं वहां, पिछले चुनाव में इन्हीं सीटों के दम पर भाजपा को अपने दम पर बहुमत और एनडीए को प्रचंड बहुमत मिला था। तब राजग ने इन 71 सीटों में से 56 यानि 79 प्रतिशत सीटों पर कब्जा किया था। इनमें से 45 सीटें भाजपा ने जीती थीं। चौथे चरण में कई दिलचस्प मुकाबले हुए हैं। मुंबई उत्तर-मध्य लोकसभा सीट पर मराठी और मुस्लिम वोट निर्णायक साबित हो सकते हैं, जहां भाजपा की मौजूदा सांसद पूनम महाजन और कांग्रेस की स्वर्गीय सुनील दत्त की बेटी प्रिया दत्त के बीच मुकाबला है। वर्ष 2014 के चुनाव में पूनम महाजन ने प्रिया दत्त को पराजित किया था। भाजपा के दिवंगत नेता प्रमोद महाजन की बेटी पूनम पिछले पांच सालों में किए गए अपने कामों पर मतदाताओं से वोट मांग रही हैं जबकि दिवंगत सुनील दत्त की बेटी का कहना है कि उनकी लड़ाई लोकतंत्र को बचाने के लिए है। मतदाता जनसांख्यिकी के अनुसार निर्वाचन क्षेत्र में मराठी भाषी निवासियों का वर्चस्व है, इसके बाद मुस्लिम, उत्तर भारतीय, गुजराती और मारवाड़ी, ईसाई और दक्षिण भारतीय आते हैं। 2014 में महाजन ने उस समय की सांसद दत्त को 1,86,000 मतों से हराया था। देखें क्या प्रिया पूनम से इस बार यह सीट छीन सकती हैं। मुंबई उत्तर लोकसभा सीट ऐसा क्षेत्र हैं जहां भाजपा के मौजूदा सांसद गोपाल शेट्टी के खिलाफ कांग्रेस कोई उम्मीदवार तय नहीं कर पा रही थी, लेकिन फिल्म स्टार उर्मिला मातोंडकर को इस सीट से उम्मीदवार बनाए जाने से कांग्रेस अब मुकाबले में आती दिख रही है। यह राज्य में भाजपा की सबसे पुख्ता सीटों में से एक है और पूर्व निगम पार्षद, कई बार विधायक रहे शेट्टी ने 2014 के आम चुनावों में मुंबई कांग्रेस प्रमुख संजय निरूपम को 4.46 लाख मतों से शिकस्त दी थी। निरूपम के इस सीट से इस बार चुनाव न लड़ने की इच्छा व्यक्त करने के बाद कांग्रेस कार्यकर्ताओं में थोड़ी हताशा थी। उन्होंने कहा कि मातोंडकर ने सियासी मुद्दों को लेकर अपनी स्पष्टता से कई लोगों को चौंका दिया और यह भी साफ कर दिया कि भाजपा को यहां चुनौती का सामना करना पड़ेगा और यह सीट उसके लिए आसान होने वाली नहीं। मुंबई की छह लोकसभा सीटों की अगर बात करें तो दक्षिणी मुंबई सबसे हॉट सीट है। यहां कांग्रेस अध्यक्ष मिलिंद देवड़ा मैदान में हैं। उनकी टक्कर है शिवसेना के मौजूदा सांसद अरविन्द सावंत से। इस बार मिलिंद देवड़ा मजबूत दिख रहे हैं। मनसे इस बार कांग्रेस-एनसीपी के समर्थन में मैदान से बाहर है। अब एक और फिल्मी सितारे की बात करते हैं। चंडीगढ़ की सीट पर भाजपा ने एक बार फिर किरण खेर को मैदान में उतारा है। उनका मुकाबला कर रहे हैं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री पवन कुमार बंसल। बंसल के साथ-साथ आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी पूर्व केंद्रीय मंत्री हरमोहन धवन भी मैदान में डटे हुए हैं। भाजपा की किरण खेर को पार्टी की भीतर से ही विरोध का सामना करना पड़ रहा है। पार्टी में टिकट को लेकर खींचतान चल रही थी। चंडीगढ़ में भाजपा की टिकट के लिए कई मजबूत दावेदार थे। किरण खेर को जहां एक तरफ पवन कुमार बंसल और हरमोहन धवन से मुकाबला करना होगा वहीं पार्टी के भीतर नाराजगी को झेलना पड़ेगा। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने फिल्म स्टार गुल पनाग को मैदान में उतारकर चुनौती पेश की थी। गुल पनाग को लगभग एक लाख वोट मिले थे। वह तीसरे स्थान पर रही थीं। इस बार चंडीगढ़ का मुकाबला कड़ा होगा। किरण खेर को जीतने के लिए पूरा दमखम लगाना होगा। अब हटकर हम एक और बहुचर्चित मुकाबले की ओर मुड़ते हैं। यह है उत्तर प्रदेश के उन्नाव का मुकाबला। भाजपा और कांग्रेस के बीच मानी जा रही चुनावी लड़ाई को गठबंधन ने त्रिकोणीय मुकाबले में बदल दिया है। मोदी लहर में 2014 में जीती भाजपा वोट बैंक में बिखराव से जूझ रही है तो 2009 में रिकॉर्ड मतों से जीतने वाली कांग्रेस फिर मोदी फैक्टर और गठबंधन से। नतीजे कुछ भी हों लेकिन इस बार एकतरफा मतदान के आसार नहीं हैं। पिछले चुनाव में सपा-बसपा अलग-अलग लड़े थे और चार लाख से अधिक मत हासिल किए। इस बार दोनों साथ हैं। इससे चुनावी समीकरण बदल भी सकते हैं। गठबंधन ने यहां अरुण शंकर शुक्ल उर्प अन्ना महाराज को चुनाव मैदान में उतारा है। प्रमुख दलों में अकेले ब्राह्मण प्रत्याशी होने और सपा-बसपा के वोट बैंक के सहारे वह कड़ी चुनौती बनते नजर आ रहे हैं। वहीं भाजपा ने मौजूदा सांसद साक्षी महाराज पर ही भरोसा जताया। साक्षी महाराज पिछड़े वर्ग से अकेले प्रत्याशी हैं। भाजपा मोदी लहर और राष्ट्रवाद के मुद्दे के सहारे चुनावी लड़ाई आसान मान रही है। हालांकि भाजपा का परंपरागत सवर्ण वोट बैंक गठबंधन प्रत्याशी की सेंधमारी और मुस्लिम मतदाताओं में गठबंधन को लेकर रूझान उसकी चिन्ता बढ़ाए हुए हैं। कांग्रेस ने अन्नू टंडन को चुनाव में उतारा है। कांग्रेस अन्नू के ट्रस्ट के माध्यम से गरीबों, बीमारों व अग्नि पीड़ितों की सहायता को देखते हुए जीत की उम्मीद कर रही है। हालांकि मुस्लिम व सवर्ण वोटरों में बिखराव से चिन्ता बढ़ी हुई है। पिछली बार भी इन्हीं तीनों प्रमुख प्रत्याशियों में लड़ाई थी। बीते चुनाव में चौथे चरण में भाजपा ओडिशा में खाली हाथ रही थी। पश्चिम बंगाल में महज एक सीट मिली थी। पार्टी को इन दोनों राज्यों में सीटें बढ़ाने की चुनौती होगी। पार्टी के लिए सुखद स्थिति इन राज्यों में उसका निर्विवाद रूप से दूसरी ताकत बन जाना है। हालांकि दूसरी ओर बीते चुनाव के उलट पार्टी को बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में मजबूत गठबंधन का सामना करना पड़ेगा। इसके अलावा पार्टी को राजस्थान, मध्यप्रदेश जैसे उन राज्यों में कांग्रेस से सीधी चुनौती मिलेगी, जहां अब वह सत्ता में नहीं है।

-अनिल नरेन्द्र

Monday, 29 April 2019

पिता-पुत्र की पार्टी एक-चुनाव अलग-अलग

छिंदवाड़ा देश की प्राय अकेला ऐसा संसदीय क्षेत्र है, जहां पिता-पुत्र एक साथ एक ही पार्टी से चुनाव लड़ रहे हैं। पिता विधानसभा के लिए और पुत्र लोकसभा के लिए। मैं बात कर रहा हूं मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ की जो विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं और उनके बेटे नकुल नाथ जो लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं। दोनों साथ-साथ प्रचार कर रहे हैं और विकास ही दोनों का चुनावी मुद्दा है। छिंदवाड़ा संसदीय क्षेत्र का बीते 40 साल से कमलनाथ अथवा उनका परिवार का सदस्य प्रतिनिधित्व करता आ रहा है। कमलनाथ मुख्यमंत्री बनने से पहले नौ बार इस संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीत चुके हैं। सिर्प एक बार 1977 में हुए उपचुनाव में भाजपा नेता और पूर्व मुख्यमंत्री सुंदर लाल पटवा को जीत मिली थी। पिछले साल नवम्बर में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने विकास के छिंदवाड़ा मॉडल को मुद्दा बनाया था। लोकसभा चुनाव में इस मॉडल की कोई चर्चा तो नहीं हुई, मगर छिंदवाड़ा संसदीय क्षेत्र में चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा जा रहा है। कमलनाथ यूं तो पूरे राज्य में कांग्रेस के लोकसभा उम्मीदवारों के लिए प्रचार कर रहे हैं, मगर बीच-बीच में छिंदवाड़ा भी जाते हैं। वह एक दिन में कम से कम तीन और उससे ज्यादा सभाएं भी करते हैं। कमलनाथ को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के छह माह के भीतर विधायक चुना जाना है, इसलिए छिंदवाड़ा में विधानसभा, उपचुनाव हो रहा है। कांग्रेस विधायक दीपक सक्सेना ने पद से इस्तीफा देकर कमलनाथ के लिए यह सीट खाली की है। कांग्रेस की ओर से छिंदवाड़ा संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवार नकुल नाथ अब तक हुए विकास को और आगे बढ़ाने का मुद्दा बनाए हुए हैं। मुख्यमंत्री कमलनाथ के पुत्र नकुल नाथ छिंदवाड़ा लोकसभा चुनाव में अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत कर रहे हैं। वह चुनावी रैलियों में कहते हैं कि उनके पिता कमलनाथ की सीट का प्रतिनिधित्व करना बड़ी चुनौती है। विकास की जो यात्रा चल रही है, उसे जारी रखेंगे। कांग्रेस जहां छिंदवाड़ा मॉडल का जिक्र कर रही है, वहीं भाजपा मोदी के विकास मॉडल की चर्चा में लगी है। कुल मिलाकर यहां चुनाव में दो नेताओं के विकास मॉडल आमने-सामने हैं।

-अनिल नरेन्द्र

बिहार में पूर्व मुख्यमंत्रियों-उपप्रधानमंत्री के परिवारों की साख दांव पर

बिहार में कभी मुख्यमंत्री के रूप में राज्य की सेवा करने वाले परिवारों के साथ पूर्व उपप्रधानमंत्री के परिवार की साख भी इस लोकसभा चुनाव में दांव पर है। जनता की नजरों में इनकी कितनी साख बची है, यह तो नतीजों के बाद ही पता चलेगा। देखना है कि इस चुनाव में अपनी पारिवारिक विरासत को कौन बचा पाता है? राष्ट्रीय राजनीति के महत्वपूर्ण नेता पूर्व उपप्रधानमंत्री स्वर्गीय जगजीवन राम की पुत्री मीरा कुमार फिर सासाराम लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस की उम्मीदवार हैं। मीरा कुमार खुद राष्ट्रीय स्तर की नेता हैं और 15वीं लोकसभा की स्पीकर रह चुकी हैं। उनके पास पारिवारिक लंबा राजनीतिक अनुभव भी है। सासाराम क्षेत्र उनके पारिवारिक क्षेत्र के रूप में पहचाना जाता है। इस क्षेत्र के विकास में बाबू जगजीवन राम के साथ मीरा कुमार की भी बड़ी भूमिका रही है। पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी इस लोकसभा चुनाव में गया संसदीय क्षेत्र से महागठबंधन के प्रत्याशी हैं। इससे पहले 2014 में वो जदयू के प्रत्याशी के रूप में थे। उस चुनाव में हारने के  बाद ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाकर राज्य की कमान सौंप दी थी। बाद में पार्टी ने उनसे नीतीश के लिए पद छोड़ने को कहा तो उन्होंने इंकार कर दिया। तब मांझी को पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। बहुमत साबित न कर पाने पर उन्हें 20 फरवरी 2015 को इस्तीफा देना पड़ा। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव व पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के परिवार की भी इस लोकसभा चुनाव में कड़ी परीक्षा है। राजद ने पाटलिपुत्र से लालू की बेटी मीसा भारती को मैदान में उतारा है। लालू यहां से चुनाव लड़ चुके हैं। लोकसभा चुनाव 2014 में राजद प्रत्याशी मीसा भारती को लालू परिवार के खास रहे रामकृपाल यादव और मीसा भारती के बीच आमने-सामने की टक्कर है। दरभंगा से तीन बार सांसद रह चुके कीर्ति झा आजाद पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय भागवत झा आजाद के पुत्र हैं। भागवत भागलपुर से राजनीति करते थे। कीर्ति को इसके बाद भाजपा से मतभेदों के चलते अपना लोकसभा क्षेत्र भी बिहार छोड़कर झारखंड में बनाना पड़ा। भाजपा से कांग्रेस में आने वाले कीर्ति आजाद इस बार धनबाद लोकसभा क्षेत्र से चुनावी मैदान में हैं। इनका मूल जन्म स्थान झारखंड के गोड्डा जिले में है। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय केदार पांडे के पौत्र शाश्वत केदार को कांग्रेस ने बाल्मीकि नगर लोकसभा क्षेत्र से प्रत्याशी बनाया है। केदार पांडे चंपारण क्षेत्र के एक कद्दावर नेता थे। उनके समय में चंपारण दो भागों में बंटा। केदार के पुत्र स्वर्गीय मनोज पांडे के बाद पहली बार उनके पौत्र शाश्वत केदार ने राजनीति में कदम रखा है। देखें, यह अपने परिवारों की साख बचाने में कितने सफल होते हैं?

क्या भोपाल में 35 साल का कांग्रेसी सूखा खत्म कर पाएंगे?

35 साल। जी हां... पूरे 35 साल हो गए हैं, भोपाल से किसी कांग्रेसी उम्मीदवार को लोकसभा चुनाव में विजयी हुए। इस दृष्टि से मध्यप्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री रह चुके दिग्विजय सिंह कांग्रेस के लिए संभावना की किरण के रूप में हैं, देखना यह होगा कि तीन दशकों का सूखा मिटाकर वह कांग्रेस के लिए लगभग बंजर हो चुकी भोपाल संसदीय सीट की जमीन पर वोटों की फसल लहलहा पाते हैं या नहीं? एक दशक तक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री और दो बार कांग्रेस अध्यक्ष के नाते दिग्विजय को प्रदेश के मुद्दों की गहरी समझ भी है और पकड़ भी। विवाद उन्हें ताकत देते हैं। खासतौर पर आरएसएस, हिन्दुत्व और भाजपा को लेकर उनके विवादित ट्वीट्स को लेकर सोशल मीडिया पर जितनी आलोचना उनकी हुई है शायद ही किसी दूसरे कांग्रेसी नेता की हुई हो। दिग्विजय की लोकप्रियता, जनसम्पर्प और भीतरघात के खतरे से वंचित दिग्विजय सिंह ने शायद यह कभी नहीं सोचा होगा कि भाजपा उनके सामने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को उतारकर एक चुनौती के रूप में पेश करेगी। प्रज्ञा ठाकुर को इस सीट से उतारने के पीछे भाजपा का वोटों का ध्रुवीकरण करना है। दिग्विजय सिंह भाजपा की चाल को समझ गए और उन्होंने साध्वी के मैदान में आते ही भगवा आतंकवाद, हिन्दुत्व जैसे विषयों को छूना बंद कर दिया। दिग्विजय भाजपा के दांव में तो नहीं आए अलबत्ता साध्वी खुद चूक कर बैठीं। आतंकवादी हमले में शहीद हुए महाराष्ट्र के एटीएस के अफसर हेमंत करकरे के बारे में दिए उनके बयान ने पूरे देश में भूचाल ला दिया। भाजपा को जब लगा कि वह बेवजह कठघरे में आ रही हैं, जिसका खामियाजा महाराष्ट्र समेत दूसरी सीटों पर भी भुगतना पड़ेगा तो उन्होंने साध्वी से माफी मांगने को कहा और साध्वी ने बेशक अपना बयान वापस ले लिया पर जो नुकसान होना था वह तो हो गया। साध्वी के साथ जो कुछ भी उनकी कैद होने पर हुआ हो पर उन्हें समझ नहीं कि राजनीति कितना खतरनाक खेल है और चुनाव में हर बात का असर होता है। हेमंत करकरे का श्राप, उसके बाद बाबरी मस्जिद ढहाने पर दिए बयानों के बाद अब प्रज्ञा ठाकुर ने कांग्रेस प्रत्याशी दिग्विजय सिंह को आतंकी तक कह दिया। दिग्विजय पर निशाना साधते हुए कहाö16 साल पहले उमा दीदी (उमा भारती) ने उसे हराया था और वह 16 साल तक मुंह नहीं उठा पाया। अब फिर से सिर उठा रहा है तो दूसरी संन्यासी सामने आ गई है, जो उसके कर्मों का प्रत्यक्ष प्रमाण है। एक बार फिर ऐसे आतंकी का समापन करने के लिए संन्यासी को खड़ा होना पड़ा है। हालांकि बाद में प्रज्ञा ठाकुर ने कहा कि मैंने दिग्विजय को आतंकी नहीं कहा।

Saturday, 27 April 2019

भाजपा के दुर्ग हिमाचल को क्या कांग्रेस भेद पाएगी?

लोकसभा चुनावों में हिमाचल प्रदेश की कुल चार सीटों के लिए दोनों भाजपा और कांग्रेस पूरी ताकत लगा रही हैं। बात करते हैं प्रदेश के तमाम बड़े नेताओं और उनके पुत्रों की इस चुनाव में भागीदारी की। कांग्रेस के प्रत्याशी जीतें या न जीतें लेकिन प्रदेश के तमाम बड़े नेताओं ने अपने पुत्रों को पार्टी में जगह जरूर दिला दी है। सवाल यह है कि यह पुत्र प्रदेश की चारों सीटों पर अपने पिताओं का सम्मान बरकरार रख भी पाएंगे या नहीं? पुत्र ही नहीं, पूर्व केंद्रीय मंत्री सुखराम ने तो अपने पौत्र तक का पार्टी से टिकट दिलवा दिया है, बेशक इसके लिए उन्हें इस उम्र में अपनी निष्ठाएं बदलने के आरोप भी झेलने पड़ रहे हैं। वह भाजपा में थे, अपने पौत्र की खातिर वह कांग्रेस के हो लिए। सुखराम के पुत्र अनिल शर्मा जयराम सरकार में बिजली मंत्री हैं। उन्होंने मंत्रिपद से इस्तीफा देने से इंकार कर दिया है। भाजपा के लिए अब वह न उगले जाते हैं और न ही निगले जा रहे हैं। इस बार लोकसभा चुनावों से पहले कांग्रेस पार्टी ने परिवारवाद को जम कर हवा दी। लोकसभा की चार सीटें जीतें या न जीतें लेकिन इन नेताओं ने अपने पुत्रों के लिए 2022 के विधानसभा चुनावों के लिए लांचिंग पैड का इंतजाम जरूर किया है। चूंकि मामला राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का है तो आलाकमान ने भी कोई
-नुकुर नहीं की। फरवरी महीने में आलाकमान ने प्रदेश कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष सुखविन्दर सिंह सुक्खू को पद से हटाकर उनकी जगह पूर्व केंद्रीय मंत्री आनंद शर्मा के करीबी कुलदीप सिंह राठौर को पार्टी अध्यक्ष बना दिया। ऐसे में वीरभद्र सिंह समेत पार्टी के बड़े नेताओं को अपने-अपने पुत्रों को पार्टी में जगह दिलाने का मौका मिल गया। पार्टी के बिखरे कुनबे को एक करने के लिए कुलदीप सिंह राठौर ने भी इन पुत्रों को पार्टी में जगह देने में कंजूसी नहीं बरती। हिमाचल प्रदेश में चुनाव की बात करें तो सबसे अहम सीट हमीरपुर की है। यहां से अखिल भारतीय युवा मोर्चा के पूर्व अध्यक्ष, बीसीसीआई के पूर्व अध्यक्ष और भाजपा के मुख्य संयोजक अनुराग ठाकुर तीन बार भाजपा को जितवा चुके हैं और इस बार भी भाजपा ने उन पर ही भरोसा जताया है। ऐसे में यदि इसे भाजपा की परंपरागत या हॉट सीट कहा जाए तो भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। भाजपा के केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा, पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल इसी चुनावी क्षेत्र से ताल्लुक रखते हैं। यह सीट प्रदेश का ऐसा दुर्ग है जिसे पिछले कई चुनावों में कांग्रेस फतेह नहीं कर पाई। अंतिम बार नादौन के प्रो. नारायण चन्द पराशर 1980-84 में तो ऊना के विक्रम सिंह 1996 में कांग्रेस के सांसद बने थे। सन 1967 से अब तक हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पांच बार, एक बार जनता पार्टी तो नौ बार भाजपा यहां से काबिज हुई। कांग्रेस पार्टी यहां से प्रयोग के तौर पर प्रत्याशी बदलती रहती है लेकिन इसके बावजूद उसे सफलता नहीं मिली है। इस सीट पर जातीय समीकरण हमेशा से हावी रहा है। इसी के मद्देनजर चुनावों में पार्टियां टिकट भी बांटती रही हैं। यह क्षेत्र राजपूत बाहुल्य क्षेत्र माना जाता है। भाजपा के अनुराग ठाकुर शायद इसी वजह से यहां से तीन बार चुने गए हैं। इससे पहले बिलासपुर के सुरेश चन्देल भी तीन बार इस हलके का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। प्रेम कुमार धूमल भी यहां से सांसद रहे हैं। देखना होगा कि भाजपा के इस दुर्ग को क्या इस बार कांग्रेस भेद पाएगी?


-अनिल नरेन्द्र

भगवाधारी मोदी के निशाने पर शेष 241 सीटें

बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी में बृहस्पतिवार और शुक्रवार को मोदी का ऐसा स्वागत हुआ जो अभूतपूर्व है। ऐसा शो पहले कभी नहीं देखा गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नामांकन के दौरान एनडीए के दिग्गज नेताओं को वाराणसी में एक साथ लाकर मोदी ने एक साथ कई संदेश दिए। सबसे अहम एनडीए की एकता का संदेश था। 2014 में मोदी के नामांकन में भी ऐसा जमावड़ा नहीं दिखा। जानकारों का कहना है कि नेताओं के मेगा-शो में आज से ज्यादा आने वाले `कल' की चिन्ता दिखाई दी। भाजपा अपने बूते पर बहुमत हासिल नहीं कर पाती तो दावा कर सकती है कि वह पहले से ही एनडीए को साथ लेकर चल रही थी। सहयोगियों की अपेक्षा के आरोप झेल रहे मोदी-शाह का मकसद यह दिखाना भी था कि उनमें अहंकार के आरोप गलत हैं। प्रकाश सिंह बादल, नीतीश कुमार, उद्धव ठाकरे, रामविलास पासवान, अनुप्रिया पटेल, . पन्नीर सेल्वम के अलावा पूर्वोत्तर के संगी नेताओं से पहले अमित शाह ने बैठक की, फिर मोदी उनसे मिले। बाबा विश्वनाथ की नगरी में भगवा वस्त्र धारण करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की बाकी बची लोकसभा की 241 सीटों के मतदाताओं को भी एक संदेश दिया। 2014 के लोकसभा चुनाव में इन सीटों में से भाजपा ने 161 सीटें जीती थीं। 161 सीटों के अलावा बची बाकी की सीटों में से ज्यादा से ज्यादा सीटें भाजपा अपनी झोली में डालना चाहेगी, क्योंकि यही सीटें केंद्र में बनने वाली सरकार का भविष्य तय करेंगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वाराणसी से दूसरी बार लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए यहां पहुंचे। शुक्रवार सुबह उन्होंने अपना नामांकन दाखिल किया। पर्चा दाखिल करने की आखिरी तारीख 29 अप्रैल है, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने 26 अप्रैल को ही नामांकन दाखिल करने का इसलिए फैसला किया, ताकि 29 अप्रैल को 71 सीटों के लिए होने वाले मतदान के लिए एक संदेश जाए। दरअसल चौथे, पांचवें, छठे और सातवें चरण में अब 241 सीटों के लिए मतदान होगा। और यह सारी सीटें अब उत्तर की तरफ हैं। दक्षिण भारत में मतदान पूरा हो चुका है, जहां भाजपा कमजोर दिखी। अब महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हिमाचल, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, बिहार व असम के लिए मतदान होना है। इस पूरे क्षेत्र में भाजपा का प्रभाव है। यदि इस क्षेत्र में भाजपा की सीटें कम हुईं तो केंद्र की सत्ता में लौटना मुश्किल होगा। इसलिए प्रधानमंत्री ने वाराणसी में शक्ति प्रदर्शन करके 241 सीटों के मतदाताओं को संदेश देने की कोशिश की। अपने रोड शो और गंगा आरती के दौरान भगवा वस्त्र पहने और एक मई को अयोध्या भी जाएंगे। अपने प्रधानमंत्रित्वकाल में वह पहली बार अयोध्या जा रहे हैं। इन दोनों प्रयासों का मकसद सीधे तौर पर हिन्दू वोट को एकजुट करना है।

कैप्टन और बादल दोनों की प्रतिष्ठा दांव पर

पंजाब की सभी 13 लोकसभा सीटों पर चुनावी शतरंज की बिसात बिछ गई है तथा इस चुनाव में पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह तथा पूर्व मुख्यमंत्री और शिरोमणि अकाली दल प्रमुख प्रकाश सिंह बादल की प्रतिष्ठा दांव पर है। शिअद और कांग्रेस प्रत्याशियों की सूची आ जाने के बाद अब चुनावी परिदृश्य साफ हो गया है कि बेशक आम आदमी पार्टी मैदान में है पर मुख्य मुकाबला शिअद और कांग्रेस के बीच है। कैप्टन इस चुनाव को लेकर इतने गंभीर हैं कि उन्होंने अपने मंत्रियों तक को चेतावनी दे डाली कि लोकसभा चुनाव में अगर मंत्री अपने-अपने क्षेत्रों में पार्टी उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित करने में विफल होते हैं तो उन्हें कैबिनेट से हटा दिया जाएगा। कैप्टन ने कहा कि इसके अलावा उन विधायकों को भी आगामी विधानसभा चुनावों में टिकट नहीं दिया जाएगा जो अपने विधानसभा क्षेत्रों में पार्टी उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित नहीं कर पाएंगे। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में पार्टी आलाकमान ने यह लक्ष्य प्रदेश में मिशन 13 को हासिल करना है। कांग्रेस आलाकमान के निर्णय के अनुसार पंजाब के मौजूदा मंत्री अगर पार्टी उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित करने में विफल रहते हैं, खासतौर से अपने निर्वाचन क्षेत्र में, तो उन्हें मंत्री पद से हटा दिया जाएगा। पिछली बार कांग्रेस ने कुछ युवाओं को टिकट दी थी लेकिन इस बार दो नौजवान विधायकों को टिकट दिया है। पटियाला सीट पर आप पार्टी के डॉ. धर्मवीर गांधी से पिछले चुनाव में हारी परनीत कौर को कांग्रेस ने इस बार फिर टिकट दिया है। इस बार आप पार्टी को अपनों से जितना खतरा है उतना दूसरों से नहीं। कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष सुनील जाखड़ तथा मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह का कहना है कि राज्य की सभी 13 सीटों पर कांग्रेस जीतेगी तथा केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनाने में राहुल गांधी के हाथ मजबूत करेगी। उधर अकाली दल का चुनाव प्रचार लंबे समय से चल रहा है और उसने अपने उम्मीदवार पहले ही तय कर लिए थे। उसे कुछ नुक्सान इसलिए हो सकता है कि उससे अलग हुए गुट के चुनाव मैदान में आने से पंथक वोटों के बंटने की आशंका है। पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल भी मुक्तसर जिले में लोगों से सम्पर्प कर रहे हैं। हालांकि अब उनकी उम्र धुआंधार प्रचार की इजाजत नहीं देती, फिर भी वह अपनी पुत्रवधू हरसिमरत कौर के प्रचार में लगे हुए हैं। बादल का कहना है कि कांग्रेस सरकार ने अपने घोषणा पत्र में किए वादे पूरे नहीं किए। किसानों की हालत जस की तस है। केंद्र सरकार ने राज्य में अनेक विकास कार्य किए और मोदी सरकार की वापसी तय है।
-अनिल नरेन्द्र


लाइट, कैमरा, एक्शन के कलाकार फंसे चुनावी दंगल में

पश्चिम बंगाल के औद्योगिक-व्यापारिक केंद्र आसनसोल में इस बार के लोकसभा चुनाव में दो सितारे जमीन पर उतर आए हैंöआमने-सामने। युवा दिलों की चाहत सिंगर बाबुल सुप्रीयो वर्तमान में सांसद और केंद्रीय मंत्री हैं तो उनके सामने खड़ी हैं प्रख्यात अदाकारा मुनमुन सेन। यहां चौथे चरण यानि 29 अप्रैल को वोट पड़ेंगे। बंगाल में इन दोनों कलाकारों की लोकप्रियता किसी से छिपी नहीं है। दोनों के अपने-अपने फैन और मुद्दे रहे हैं। कांग्रेस और वामपंथियों की इस सीट पर भाजपा ने सेंधमारी की है तो तृणमूल कांग्रेस इस सीट पर पहली बार कब्जा जमाने के लिए पूरी ताकत लगा रही है। लाइट, कैमरा, एक्शन जैसे शब्दों के इर्दगिर्द दोनों कलाकारों का समय जीत के पोस्ट तक पहुंचने के लिए कम होता जा रहा है लेकिन अब इनके सामने एक अलग टेंशन हैं इसीलिए दोनों की टीमें दिन-रात सक्रिय हैं। बाबुल को जिताने के लिए भाजपा कार्यकर्ता दिन-रात एक किए हैं। तृणमूल उम्मीदवार मुनमुन सेन की ओर से भी मोर्चाबंदी कमजोर नहीं है। तृणमूल विधायक रहे सह-मेयर जितेन्द्र तिवारी अपनी रणनीति भी बताते हैं। पिछले चुनाव में हम धार्मिक मोर्चे पर हार गए थे। इस  बार पार्टी इस मोर्चे पर पूरी तरह मुस्तैद है और क्षेत्र में धार्मिक उन्माद रोकने की जिम्मेदारी हमने उठाई है। धार्मिक कार्यक्रम तय किए गए हैं। क्षेत्र में चार दर्जन मंदिरों में शिवमयी का आयोजन किया जा रहा है। मकसद साफ है कि धर्म के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर दिखाकर पार्टी इस सीट को भाजपा के कब्जे से मुक्त कराना चाहती है। भाजपा भी धार्मिक कार्यक्रमों के आयोजनों में कोई कमी नहीं छोड़ रही है। वामपंथियों के गढ़ से यह सीट भाजपा की झोली में दिलाने पर बाबुल सुप्रीमो को इनाम भी मिला और उन्हें केंद्रीय मंत्री बनाया गया। यहां उनके साथ-साथ भाजपा की प्रतिष्ठा भी दांव पर है सो वह स्वयं और पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा मेहनत में कहीं कोई कंजूसी नहीं कर रहे। वामपंथियों के लिए भी यह सीट प्रतिष्ठा से जुड़ी है, लेकिन फिलहाल यहां लाल झंडा दूर ही दिख रहा है। वामपंथी विचारधारा से प्रभावित सुदीप्तो मंत्री पर चोट करते हुए सवाल उठाते हैं कि जब से वह भारी उद्योग मंत्री बने हैं तब से क्षेत्र की दो बड़ी कंपनियां केबल्स लिमिटेड और बर्न स्टैंडर्ड कंपनी बंद हो गई हैं। सैकड़ों लोग बेरोजगार हो गए हैं। तृणमूल कांग्रेस भी इसे मुद्दा बना रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष दोनों ने ही पश्चिम बंगाल में इस बार पूरी ताकत लगा दी है। देखें कि दीदी के गढ़ में क्या कमल खिलेगा?

बिहार में वामपंथ का भविष्य कन्हैया पर टिका हुआ है

बिहार के चौथे चरण में 29 अप्रैल को पांच संसदीय सीटों पर हो रहे चुनाव में सबसे ज्यादा फोकस इस समय बेगूसराय पर लगा हुआ है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जन्मभूमि बिहार की बेगूसराय में इस बार चुनाव नहीं बल्कि दो विचारधाराओं की जबरदस्त टक्कर है। एक के सामने फिर से खड़े होने की चुनौती है तो दूसरे के सामने अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का मौका है। माकपा के के उम्मीदवार और जेएनयू छात्र नेता कन्हैया कुमार और भाजपा के फायर ब्रांड नेता गिरिराज सिंह आमने-सामने हैं। चौथे चरण में 29 अप्रैल को 19 लाख 58 हजार मतदाता जब अपने मताधिकार का प्रयोग करने जाएंगे तो उनके सामने तीसरा विकल्प भी होगा। राजद के तनवीर हसन को दोबारा उतारकर कन्हैया की सियासी रफ्तर पर ब्रेक लगाने की कोशिश की है, ताकि लालू प्रसाद यादव के उत्तराधिकारी का भविष्य महफूज रहे। बेगूसराय में कन्हैया कुमार के आने से देश में वामपंथी विचारधारा को एक बार फिर प्रासंगिक होने का मौका मिला है। कम्युनिस्ट पार्टी की चूलें पश्चिम बंगाल के बाद त्रिपुरा में भी हिल चुकी हैं। केरल एकमात्र एक राज्य बचा है जहां आज भी वाम विचारधारा चल रही है। बिहार के लेलिनग्राड के नाम से मशहूर बेगूसराय में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कन्हैया कुमार का प्रचार करने के लिए कई मशहूर हस्तियां आ रही हैं। इसके साथ-साथ भूमिहार बहुल बेगूसराय में चारों तरफ बिरादरी की बात भी उछाली जा रही है। गिरिराज और कन्हैया दोनों भूमिहार हैं। तनवीर मुस्लिम। लिहाजा जाति-धर्म के आधार पर समीकरण बनाए-बिगाड़े जा रहे हैं। भाजपा के परंपरागत वोटर और जातीय समीकरण गिरिराज के काम आ सकता है। ऐसा ही संयोग कन्हैया के साथ भी है। राजद के मजबूत माय (मुस्लिम-यादव) समीकरण के सहारे खड़े हैं तनवीर हसन। तीनों ही अपने-अपने एक तरह से अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। कन्हैया की जीत बिहार में वामपंथ को पुनर्जीवन दे सकता है। हार गए तो गिरिराज की हनक बढ़ने से इंकार नहीं किया जा सकता है। बेगूसराय में आम जनमानस में दो तरह के विचारों के बीच ही मुकाबला है। गिरिराज सिंह जिस तरीके की सियासत के प्रतीक माने जाते हैं, कन्हैया की प्रसिद्धि उसके विपरीत है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के परिसर में तीन साल पहले कन्हैया की मौजूदगी में जो कुछ भी हुआ, उसकी धमक बेगूसराय की गली-मोहल्ले में सुनाई देती है। कन्हैया को कई जगह विरोध का सामना भी करना पड़ रहा है। उन्हें घर का बच्चा मानने वालों के सामने उन पर देशद्रोह का आरोप लगाने वालों की संख्या भी कम नहीं है। भाजपा और राजद के  लोग इसे जमकर भुना भी रहे हैं। कन्हैया को कठघरे में खड़ा करने की कवायद में न गिरिराज के लोग पीछे हैं और न ही तनवीर के। बात छिड़ते ही दोनों खेमों पर देशभक्ति हावी हो जाती है। जाहिर है कि दोनों में से कोई कामयाब हुआ तो खामियाजा वामपंथ को ही भुगतना पड़ेगा। भाजपा समर्थकों का मानना है कि बेगूसराय में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आकर्षण बना हुआ है, जबकि विपक्षी  गठबंधन को उम्मीद है कि वह अपने सामाजिक अंकगणित से कई स्थानों पर इसकी काट कर सकते हैं। कन्हैया अगर जीत जाते हैं तो अगली संसद में एक जोरदार वक्ता पहुंच जाएगा। अगर मोदी जीतते हैं तो उन्हें संसद में कन्हैया का जबरदस्त सामना करना पड़ सकता है। सीट बदलने के कारण गिरिराज सिंह का प्रचार-प्रसार धीमा शुरू हुआ है और भाजपा के अंदर भी उन्हें नाकाम होने के प्रयासों से इंकार नहीं किया जा सकता।

Friday, 26 April 2019

हरियाणा में चार लालों की प्रतिष्ठा दांव पर है

हरियाणा की राजनीति में अहम योगदान दे चुके तीन प्रमुख लालों की तीसरी और चौथी पीढ़ी इस लोकसभा चुनाव में राज्य के चौथे लाल की टीम से इस बार टकराएगी। प्रदेश के पहले लाल व देश के पूर्व उपप्रधानमंत्री स्वर्गीय चौधरी देवी लाल की चौथी पीढ़ी से दुष्यंत चौटाला, दिग्विजय चौटाला और करण चौटाला मैदान में ताल ठोंक रहे हैं। दूसरे लाल एवं राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री रहे स्वर्गीय भजन लाल के दोनों बेटेöचन्द्रमोहन एवं कुलदीप बिश्नोई अपने पिता की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। इस कड़ी में भजन लाल के छोटे बेटे कुलदीप बिश्नोई खुद हिसार से चुनाव लड़ना चाहते थे, लेकिन उनकी जगह तीसरी पीढ़ी से उनके बेटे भव्य बिश्नोई को कांग्रेस से टिकट मिला है। हरियाणा के तीसरे लाल एवं पूर्व मुख्यमंत्री चौधरी बंसी लाल की विरासत को उनके छोटे बेटे स्वर्गीय सुरेंद्र सिंह की पत्नी किरण चौधरी कांग्रेस विधायक होने के साथ ही विधानसभा में सीएलपी नेता हैं जबकि तीसरी पीढ़ी के रूप में किरण की बेटी श्रुति चौधरी अपने दादा की विरासत सहेजने को भिवानी से चुनाव लड़ रही हैं। अब बात करते हैं हरियाणा के चौथे लाल के रूप में उभरते मुख्यमंत्री मनोहर लाल की, जिन्होंने खुद अपनी वंश बेल नहीं बढ़ाई लेकिन प्रदेश की जनता को ही परिवार माना हुआ है। इस चुनाव में उनकी टीम के रूप में भाजपा के 10 उम्मीदवार राज्य के अलग-अलग लोकसभा क्षेत्रों में राजनीति के तीनों लालों की तीसरी और चौथी पीढ़ी को टक्कर देने वाले हैं। लालों की धरती के नाम से मशहूर हरियाणा में सत्ता की चाबी वर्तमान समय में मनोहर लाल के हाथों में है। हालांकि 15 बरस पहले तक प्रदेश की सत्ता पर तीनों लालों या उनकी पीढ़ियों का हक बना रहा है। जिस पर तब कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने अधिकार जमा लिया था। एक बार फिर से लोकसभा चुनाव के दौरान हरियाणा के तीनों लालों की तीसरी और चौथी पीढ़ी मुकाबले को तैयार है। खास बात यह है कि पूर्व उपप्रधानमंत्री चौधरी देवी लाल के दोनों पोतों अजय सिंह और अभय सिंह बीते कुछ महीनों के दौरान मनमुटाव के चलते अलग-अलग हो गए थे। पूर्व उपप्रधानमंत्री के बड़े बेटे अजय सिंह के बेटे दुष्यंत चौटाला ने इनेलो से अलग होकर जननायक पार्टी बना ली और अब चप्पल चुनाव चिन्ह पर हिसार से लड़ रहे हैं जबकि चौधरी देवी लाल के छोटे पोते अभय सिंह ने अपने बेटे करण को कुरुक्षेत्र से इनेलो का उम्मीदवार घोषित किया है। अजय सिंह के छोटे बेटे दिग्विजय चौटाला जेजो के प्रत्याशी के रूप में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री कांग्रेस के भूपेंद्र सिंह हुड्डा के खिलाफ सोनीपत से ताल ठोंक रहे हैं। कुल मिलाकर हरियाणा का लोकसभा चुनाव दिलचस्प होने वाला है। हरियाणा की 10 सीटों पर 2014 के चुनाव में भाजपा ने सात सीटें जीती थी जबकि इनेलो के हाथ दो सीटें लगी थी और कांग्रेस इस चुनाव में केवल एक सीट ही जीत सकी थी। लालों के इस (पानीपत के) युद्ध में देखें, किस लाल का पलड़ा भारी रहता है?

-अनिल नरेन्द्र

राजस्थान में दो मुख्यमंत्री पुत्रों की लड़ाई

राजस्थान की 25 सीटों को बरकरार रखना भाजपा के लिए कड़ी चुनौती है। 29 अप्रैल यानि चौथे चरण के मतदान में यहां की 13 सीटों पर मतदान होना है। राजस्थान में जोधपुर और झालावाड़ लोकसभा सीटें सबसे ज्यादा आकर्षण वाली सीटें इसलिए बन गई हैं क्योंकि इन दोनों सीटों पर एक मौजूदा मुख्यमंत्री और एक पूर्व मुख्यमंत्री के बेटों की लड़ाई है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बेटे वैभव गहलोत और झालावाड़ से पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के पुत्र दुष्यंत Eिसह चुनाव मैदान में हैं। दुष्यंत सिंह चौथी बार सांसद बनने के लिए मैदान में उतरे हैं जबकि वैभव गहलोत पहली बार सियासी पारी खेलेंगे। दोनों को ही इस बार कड़े मुकाबले का सामना करना पड़ रहा है। जोधपुर में वैभव का मुकाबला केंद्रीय कृषि राज्यमंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत से होगा। दुष्यंत के सामने कांग्रेस ने भाजपा से जुड़े रहे युवा नेता प्रमोद शर्मा को पार्टी में शामिल कर चुनावी मैदान में उतारा है। जोधपुर सीट से पहली बार चुनावी मैदान में उतरे वैभव यूं तो कांग्रेस की राजनीति में 2003 से ही सक्रिय हैं। उन्होंने युवक कांग्रेस से होते हुए प्रदेश कांग्रेस में मौजूदा समय में महासचिव पद की जिममेदारी भी संभाली है। जोधपुर सीट से उनके पिता अशोक गहलोत पांच बार सांसद रहे और प्रदेश में अभी तीसरी बार मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। वहीं शेखावत का कहना है कि देश की जनता नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाना चाहती है और राष्ट्रवाद की पक्षधर जनता उनके साथ है। उधर झालावाड़ की सीट पर लड़ रहे वसुंधरा राजे के पुत्र दुष्यंत सिंह का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में ही देश तरक्की कर सकता है। इसके साथ ही सेना के हवाई हमले और राष्ट्रवाद की गूंज भी इस संसदीय क्षेत्र में खूब है। यह सीट झालावाड़ और बारां जिले की आठ विधानसभा सीटों को मिलाकर बनी है। वसुंधरा राजे इस सीट पर पांच बार सांसद बनी हैं और झालावाड़ से विधायक बनती आ रही हैं। कांग्रेस के प्रमोद शर्मा ने भाजपा छोड़कर कांग्रेस का दामन थाम लिया था। प्रदेश के खनिज मंत्री प्रमोद जैन इस संसदीय क्षेत्र के बारां जिले में तगड़ा प्रभाव रखते हैं। उनकी सिफारिश पर ही कांग्रेस ने युवा प्रमोद शर्मा को इस कठिन सीट पर उतारा है। खनिज मंत्री प्रमोद जैन का कहना है कि इस बार बदलाव की लहर चलेगी। इस सीट पर 30 साल से एक ही परिवार का कब्जा चला आ रहा है। जनता इसमें बदलाव लाएगी। प्रदेश की अशोक गहलोत सरकार ने छह महीने के अपने कार्यकाल में कई कल्याणकारी योजनाएं शुरू की हैं जिनकी बदौलत कांग्रेस मजबूत हो गई। देखें, ईवीएम क्या रिजल्ट निकालती है?

13 राज्यों की 353 सीटों का महत्व

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) इस बार लोकसभा चुनावों में कितनी सीटें जीतने जा रही है इसके दावे तो आए दिन आते रहते हैं, लेकिन चुनावी भविष्यवाणियां हमेशा खतरनाक होती हैं। किसी भी पार्टी को कितनी सीटें मिलेंगी यह दो फैक्टरों पर निर्भर होता है। इनमें वोट शेयर में बदलाव और विपक्षी मतों का एकजुट होना शामिल है।  देखा जाए तो भारत की विविधता के चलते ऐसे कारक राज्य स्तर पर काफी भिन्न हैं। एक विश्लेषण के मुताबिक 2019 लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत में एक बार फिर 13 राज्यों की 353 लोकसभा सीटें अहम साबित होंगी। 2014 में एनडीए ने इन राज्यों में 74 प्रतिशत सीटों पर जीत दर्ज की थी। इन सीटों पर भाजपा की राजनीतिक चुनौती को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। पहली श्रेणी में आठ राज्य शामिल हैं। यहां पर भाजपा और सहयोगी दलों के साथ या बिना उनके सीधी प्रतिस्पर्धा में हैं। इनमें हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, महाराष्ट्र और झारखंड शामिल हैं। 2014 के लोकसभा चुनावों में इन 162 सीटों में से 151 सीटों पर एनडीए को जीत मिली थी। यहां भाजपा की मुख्य चुनौती 2014 के मतदाताओं को अपने साथ रखना और कांग्रेस और उसके सहयोगियों के पास जाने से रोकना है। महाराष्ट्र को छोड़कर 2014 में भाजपा इन राज्यों में अपने दमखम पर लड़ी थी। जबकि कांग्रेस के पास महाराष्ट्र, गुजरात और झारखंड में गठबंधन था। 2014 में इन राज्यों में एनडीए का वोट प्रतिशत यूपीए से काफी ज्यादा था। दूसरी श्रेणी में तीन राज्य हैं। इनमें उत्तर प्रदेश, बिहार और कर्नाटक शामिल हैं। 2014 में एनडीए ने यहां 148 सीटों में से 121 पर जीत हासिल की थी। उत्तर प्रदेश में 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा-बसपा का कुल वोट प्रतिशत और भाजपा का वोट प्रतिशत लगभग बराबर रहा। दोनों के वोट प्रतिशत को जोड़ें तो उत्तर प्रदेश में एनडीए की सीटें 73 से 37 हो जाएंगी। बिहार में जदयू 2014 में 22 सीटों पर लड़ी और दो ही जीत सकी, जबकि एनडीए को इनमें से 17 सीटें मिली। जदयू इस बार एनडीए के साथ है। देखना है कि जदयू 2014 में मिले 16 प्रतिशत वोट प्रतिशत को एनडीए में ला पाती है या नहीं। कर्नाटक में अगर कांग्रेस और जेडीएस 2014 में लोकसभा का चुनाव एक साथ लड़ती है तो भी भाजपा को सिर्प दो सीटों का नुकसान होता। भाजपा ने 2014 में यहां 17 सीटें जीती थीं। तीसरी श्रेणी में उन दो राज्यों को शामिल किया गया है, जहां भाजपा को इस बार बड़ा लाभ मिलने की उम्मीद है। यह दो राज्य पश्चिम बंगाल और ओडिशा हैं। यहां 2014 में भाजपा को 63 में से सिर्प तीन सीटें ही मिली थीं। ओडिशा में बीजद और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस शामिल हैं। यहां पर अन्य विपक्षी दलों में पश्चिम बंगाल में वामपंथी और ओडिशा में कांग्रेस हैं। पश्चिम बंगाल के वोट शेयर का उपयोग करके भाजपा के महत्व को यहां समझा जा सकता है। यदि 2014 में पश्चिम बंगाल में भाजपा और वामपंथी पार्टी को मिले वोटों का पूर्ण हस्तांतरण होता है तो राज्य की 42 सीटों में से भाजपा को 32 सीटों पर जीत मिल सकती है। ओडिशा में इसी तरह 2014 में भाजपा को कांग्रेस को मिले वोट मिल जाते हैं तो वह राज्य की 21 सीटों में से 13 पर जीतती। यदि भाजपा को कांग्रेस का आधा वोट शेयर मिलता है तो वह यहां से पांच सीटें जीत जाती।

Thursday, 25 April 2019

ईस्टर पर ईसाइयों का कत्लेआम, लहूलुहान श्रीलंका

रविवार की सुबह श्रीलंका की राजधानी कोलंबो सहित कई जगह चर्चों और पांच सितारा होटलों में हुए बम विस्फोटों में, जिनमें से कुछ को आत्मघाती हमलावरों ने अंजाम दिया, सिर्प हताहतों का आंकड़ा ही चौंकाने वाला नहीं है बल्कि ईस्टर जैसे पवित्र पर्व पर सुनियोजित तरीके से जगह-जगह ईसाइयों को जिस तरह निशाना बनाया गया, वह और भी दुखद है। 10 वर्ष पूर्व तमिलों के आतंकवादी संगठन लिट्टे के खात्मे के बाद श्रीलंका में शांति और स्थिरता के दौर में रविवार जैसा भीषण आतंकी हमले की जितनी भी निन्दा की जाए कम है। जिस तरीके से इन हमलों को अंजाम दिया गया यह बताता है कि यह हमले किसी बड़ी सुनियोजित साजिश का हिस्सा थे। अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों से भरे रहने वाले पांच सितारा होटलों के साथ जिस तरह चर्चों को खासतौर पर निशाना बनाया गया उससे साफ है कि आतंकी ईसाई समुदाय के लोगों को निशाना बनाना चाह रहे थे। इसीलिए चर्चों में तब विस्फोट किए गए जब वहां ईस्टर की विशेष प्रार्थना हो रही थी। यह सचमुच बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि 21वीं सदी के इस आधुनिक समय में समाज में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में होने वाले कट्टर मजहबी हमले अपनी भीषणता के साथ-साथ हमारी असुरक्षा की भी याद दिला जाते हैं। ईस्टर के अवसर पर ईसाइयों को निशाना बनाया गया है। चर्च और ऐसे होटलों पर हमले किए गए हैं, जहां धर्मविशेष के लोगों का जमघट था। वह धार्मिक कार्य के लिए जुटे थे, खुशी मना रहे थे, आपस में मिलजुल रहे थे, लेकिन आतंकियों को यह पसंद नहीं आया। उनकी शैतानी मानसिकता इस कायराना हमले से पता चलती है। इसकी जितनी निन्दा की जाए कम है। यह हमले मानवता पर ठीक उसी तरह से हमला है जैसे हाल ही में न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च में मस्जिद पर हुआ हमला था। दोनों ही जगह धार्मिक कृत्य में लगे लोगों को निशाना बनाया गया। तत्काल इस नतीजे पर पहुंचना मुश्किल है कि यह भयावह हमले किसने अंजाम दिए? अगर इन हमलों के पीछे किसी बाहरी आतंकी समूह का हाथ है तो भी सवाल है कि आखिर श्रीलंका को ही क्यों चुना गया? यह देश अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में होने के बजाय बीते कुछ समय से अपनी ही राजनीतिक उठापटक से त्रस्त है। कहीं ऐसा तो नहीं कि इसी उठापटक का फायदा किसी नए-पुराने आतंकी समूह ने उठा  लिया? जो भी हो, कटु सत्य तो यह है कि जब किसी देश में शासन व्यवस्था सुदृढ़ न हो और राजनीतिक अस्थिरता का अंदेशा हो तो अराजक, अतिवादी और आतंकी ताकतों को सिर उठाने का मौका मिल जाता है। हालांकि औपचारिक रूप से किसी आतंकी संगठन ने इन हमलों की जिम्मेदारी तो नहीं ली है पर फिलहाल इन विस्फोटों के पीछे एनटीजी यानि नेशनल तौहिद जमात जैसे कट्टरवादी मुस्लिम संगठन का हाथ होने की आशंका है। यह संगठन पिछले साल कुछ बुद्ध प्रतिमाओं को तोड़ने के बाद चर्चा में आया था। यह विडंबना ही है कि 10 दिन पहले चर्चों पर हमले की चेतावनी के बावजूद इन हमलों और विनाश को नहीं रोका जा सका। यहां तक कि ईस्टर रविवार को देखते हुए भी चर्चों को समुचित सुरक्षित प्रदान करने की जरूरत नहीं समझी गई। आतंकवाद का लंबे समय से सामना कर रहे भारत का श्रीलंका की पीड़ा के साथ खड़े होना स्वाभाविक है, अलबत्ता पड़ोस में हुई यह हिंसा खुद हमें भी सजग रहने की मांग करती है। भगवान पीड़ितों को इतनी शक्ति दे कि वह अपने खोए परिजनों के सदमे को बर्दाश्त कर सकें। हम उन्हें अपनी श्रद्धांजलि देते हैं।
-अनिल नरेन्द्र
size:12.5pt;font-family:"Mangal","serif"'> 

बिहार में लालटेन की लौ बनाए रखने की चुनौती

बिहार की 40 लोकसभा सीटों पर हो रहे चुनाव में इस बार भी आरजेडी केंद्र बिंदु में है। पार्टी के लिए यह चुनाव अगर हम कहें कि उनके अस्तित्व की लड़ाई है तो शायद गलत न हो। इस बार आरजेडी कांग्रेस के अलावा राज्य के चार क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है। आरजेडी ने एनडीए के मुकाबले के लिए एक व्यापक गठबंधन किया है। बड़ा समझौता करते हुए अपने कोटे की सीट छोटे दलों को दी। इसे सोशल इंजीनियरिंग कहा जा रहा है। इसमें कई जातियों को समेटने की मंशा है। आज भी आरजेडी की सबसे बड़ी मजबूती उसका ठोस वोट बैंक बना हुआ है। आरजेडी ने अपने इसी वोट बैंक के दम पर अपनी ताकत बनाई। मुस्लिम और यादव (माई फैक्टर) उनके साथ बने हुए है। राज्य की कई सीटों पर यह निर्णायक क्षमता रखते हैं। राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) नेता व बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने इस बार के लोकसभा चुनाव को धर्म की लड़ाई बताई और कहा कि लोग धर्म की नाव पर सवार होकर अधर्म की नैया को डुबो दें ताकि समाज और देश की रक्षा हो सके। तेजस्वी यादव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर जमकर हमला बोला और कहा कि श्री मोदी जुमलेबाज हैं। उन्होंने लोगों से अपील करते हुए कहा कि इस बार चुनाव देश के संविधान को बचाने का संघर्ष भी है। देश का विकास पूरी तरह ठप हो गया है। लालू यादव से जेल में न मिलने देने पर उनके बेटे तेजस्वी यादव ने इसे राजनीतिक साजिश करार दिया है। वहीं लालू की पत्नी और पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने आरोप लगाया है कि लालू प्रसाद यादव को जेल में जहर देकर मारने की साजिश की जा रही है। तेजस्वी ने कहा कि इस राजनीतिक साजिश के पीछे सुशील मोदी और नीतीश कुमार हैं और यह नरेंद्र मोदी के इशारे पर हो रहा है। बिहार के इस लोकसभा चुनाव में राजद की प्रचार सामग्रियों में मैं भी चौकीदार टीशर्ट की धूम मची हुई है। वहीं लालू प्रसाद यादव, तेजस्वी यादव के साथ ही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की टोपी की अच्छी-खासी मांग है। जहां नमो समर्थक नमो टीशर्ट ले रहे हैं तो वहीं कांग्रेसी राहुल की कैप। राज्य में चुनाव के बढ़ते तेवर के साथ आरजेडी गठबंधन चुनाव को अगड़ा बनाम पिछड़ा का मुद्दा बनाकर आगे बढ़ने के मूड में है तो भाजपा की अगुवाई में गठबंधन राष्ट्रवाद के मुद्दे से इसे काउंटर करने की कोशिश कर रहा है। विपक्षी गठबंधन के नेताओं का मानना है कि चूंकि भाजपा ने अपनी अधिकतर सीटों पर सवर्ण समुदाय के उम्मीदवारों को जगह दी है। ऐसे में अब यह मुद्दा सामने आने से एनडीए को परेशान कर सकता है। आरजेडी अपने चुनावी प्रचार में सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने के मोदी सरकार के कदम को पिछड़ों को आरक्षण समाप्त किए जाने की दिशा में एक कदम मान रही है। संसद में इससे जुड़े बिल का विरोध करने वालों में आरजेडी अकेली पार्टी थी। हालांकि इस मुद्दे पर पार्टी का कांग्रेस से मतभेद भी हुआ था। गठबंधन के पिछड़े कार्ड को काउंटर करने के लिए भाजपा नीतीश को आगे कर रही है। उन्हें लगता है कि नीतीश के साथ रहने से अति पिछड़े वोट पर इसका असर नहीं होगा। प्रधानमंत्री मोदी ने अररिया में अपनी रैली में गठबंधन की इस कोशिश पर हमला करते हुए साफ किया कि आरक्षण से किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं की जाएगी? भाजपा को विश्वास है कि मोदी फैक्टर से गठबंधन की कोशिश किसी भी सूरत में सफल नहीं होगी।
करती है। भगवान पीड़ितों को इतनी शक्ति दे कि वह अपने खोए परिजनों के सदमे को बर्दाश्त कर सकें। हम उन्हें अपनी श्रद्धांजलि देते हैं।

-अनिल नरेन्द्र


Wednesday, 24 April 2019

पुरी संसदीय सीट पर प्रवक्ताओं की टक्कर

भगवान जगन्नाथ ने भी कभी नहीं सोचा होगा कि उनके साथ रहने वाले दो चिन्ह यूं आपस में टकराएंगे। लेकिन इस लोकसभा चुनाव में ऐसा हो रहा है। भगवान जगन्नाथ की पुरी नगरी में शंख और पदम के बीच लड़ाई है। दरअसल बीजू जनता दल (बीजेडी) के प्रतीक शंख और भाजपा के प्रतीक कमल (पदम) के बीच इस बार मुकाबला है। यही नहीं तीनों प्रमुख दलों बीजेडी, भाजपा और कांग्रेस ने अपने प्रवक्ताओं को यहां मैदान में उतारा है। मूल रूप से बीजद की मजबूत जनाधार वाली सीट पर पिछले दो चुनावों में जीत हासिल कर रहे पिनाकी मिश्रा फिर मैदान में हैं। पिनाकी मिश्रा 2009 में कांग्रेस छोड़कर बीजद में आए थे। दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी ने इस बार अपने राष्ट्रीय प्रवक्ता संबित पात्रा को टिकट दिया है जो अनूठे तरीकों से इस सीट पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। वहीं कांग्रेस ने सत्य प्रकाश नायक को टिकट दिया है। खास बात यह है कि प्रवक्ताओं की लड़ाई में मतदाता तय नहीं कर पा रहे हैं कि किसको अपना कीमती वोट दें? सत्य प्रकाश नायक कांग्रेस प्रदेश कमेटी मीडिया सेल के प्रमुख हैं। लगभग 14 लाख वोटर इस लोकसभा सीट पर आमतौर पर 50 प्रतिशत वोट बीजद को मिलते आए हैं। पुरी लोकसभा सीट के तहत आने वाली सात विधानसभा सीटों में पांच बीजद के पास हैं। संबित पात्रा की उम्मीदवारी के जरिये भाजपा ने इस बार शेष चार विधानसभा सीटों पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराई है। मतदाताओं के बीच कभी गीत गाकर तो कभी स्थानीय लोगों में घुल मिलकर पात्रा ने अपने प्रचार को धार देने की कोशिश की है। बावजूद इसके भाजपा का पूरा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के इर्दगिर्द केंद्रित रहा। भाजपा के पक्ष में बेहतर माहौल के पीछे संबित पात्रा को मोदी के प्रतिनिधि के तौर पर देखा जा रहा है। वेद की पढ़ाई कर रहे आशीष दूबे का कहना था कि प्रधानमंत्री मोदी को एक बार मौका जरूर मिलना चाहिए। वहीं दो बार सांसद रह चुके पिनाकी मिश्रा के प्रति मतदाताओं में नाराजगी है। पुरी की जनता कहती है कि पिनाकी हमारे प्रतिनिधि हैं, लेकिन वह यहां सिर्प चुनाव के वक्त आते हैं। जनता में नाराजगी की सबसे बड़ी वजह पिनाकी का उपलब्ध न होना है। मंदिरों के इस शहर के चुनावी संघर्ष से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का लिटमस टेस्ट भी होगा। 2014 की मोदी लहर में ओडिशा में भाजपा महज एक सीट जीत पाई थी। 21 सीटों के इस राज्य में बाकी 20 सीटें बीजद जीती थी। धोती-कुर्त्ता पहने व माथे पर चन्दन लगाए पात्रा मोदी के नाम पर वोट मांगते दिखे। बालाकोट एयर स्ट्राइक के बाद यहां प्रधानमंत्री की लोकप्रियता बढ़ी है। भाजपा के बढ़ते अपराध, पर्यटन की अनदेखी और मछुआरों के वित्तीय संकट के मुद्दे यहां प्रमुख हैं। यहां प्रवक्ताओं की लड़ाई तो है ही पर ऊपरी स्तर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री व बीजू जनता दल प्रमुख नवीन पटनायक की लोकप्रियता का भी एक टेस्ट है। पुरी में अनुभवी सांसद पिनाकी मिश्रा राजनीति के पुराने खिलाड़ी हैं और इतनी आसानी से हार मानने वाले नहीं हैं। प्रधानमंत्री मोदी की छवि और उपलब्धियों के बावजूद पहली बार पुरी से चुनाव लड़ रहे डॉ. संबित पात्रा खारे पानी में कमल खिलाने की पूरी कोशिश करेंगे।

कम वोटिंग से किसका घाटा? सारा जोर अब अगले चरणों पर

लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण में गत शुक्रवार को जारी संशोधित आंकड़ों के मुताबिक 11 राज्यों एवं केंद्रशासित पुडुचेरी की 95 सीटों पर 69.13 प्रतिशत मतदान हुआ। जबकि पहले चरण में 69.43 प्रतिशत मतदान हुआ था। 2014 की बात करें तो लोकसभा चुनाव के पहले चरण में 69.62 प्रतिशत मतदान हुआ था। क्या पहले दो चरणों के वोटिंग प्रतिशत गिरने का ट्रेंड अगले चरणों में भी जारी रहेगा? पहले दो चरणों में हुई सुस्त वोटिंग के बाद अब सियासी दलों की सबसे बड़ी चिन्ता यही है। 11 अप्रैल के बाद 18 अप्रैल को खत्म हुए दूसरे चरण की 95 सीटों पर भी 2014 के मुकाबले कम वोटिंग हुई। 186 लोकसभा सीटों पर लगभग 68.63 प्रतिशत वोटिंग दर्ज हुई। तीसरा चरण 23 अप्रैल को हुआ, जिसमें 116 लोकसभा सीटों पर मतदान हुआ। इसके साथ ही पूरे देश के आधे से ज्यादा सीटों पर चुनाव खत्म हो गया। अब तक के आंकड़ों के अनुसार शहरी सीटों पर वोटिंग कम हुई। खासकर बेंगलुरु और तमिलनाडु के बाकी शहरों में। माना जाता था कि सामान्यता से बहुत अधिक वोटिंग होने से ऐसा संदेश जाता है कि यह परिवर्तन की भीड़ उमड़ी है। जबकि उदासीन वोट से संदेश जाता है कि वोटरों में इसके प्रति उत्साह नहीं, जिसे सत्तापक्ष अपने लिए उम्मीद के रूप में देखता है। लेकिन यह मिथ्य भी हाल के दौरान कई चुनावों के दौरान टूटा है। सबकी नजर तीसरे चरण की 116 सीटों पर टिकी हुई थी। 23 अप्रैल को 14 राज्यों की 116 सीटों पर मतदान के चलते कांटे की लड़ाई हुई। इस हिसाब से 23 अप्रैल की शाम तक 303 सीटों का मतदान पूरा हो गया। भाजपा-राजग को जहां अपना किला बचाना होगा, साथ ही जहां कुछ घाटा नजर आया तो उसकी पूर्ति भी करनी होगी। तीसरे चरण में छत्तीसगढ़ की सात सीटों पर चुनाव हुआ। यहां कांग्रेस कुछ माह पूर्व विधानसभा में मिली जीत से उत्साहित है हालांकि 2014 में भाजपा ने यहां कांग्रेस का सूपड़ा साफ किया था। इसी तारीख में कर्नाटक की शेष 14 लोकसभा सीटों पर भी मतदान हुआ। इसमें कांग्रेस-जनता दल (एस) गठबंधन को विधानसभा चुनाव की तर्ज पर जीत के लिए समूची ताकत लगानी पड़ी जबकि भाजपा को मोदी लहर पर भरोसा है। महाराष्ट्र व कर्नाटक की 14-14 सीटों पर पिछले चुनाव में राजग का पलड़ा भारी रहा था। दोनों जगहों पर पक्ष तथा विपक्ष को औसत बस अंतर भर था। इसी कड़ी के चलते बिहार व अन्य जगहों पर राजग को पिछली सीटों को बचाना बड़ी चुनौती है। वर्ष 2014 में तब बिहार की 26 में से 25 पर राजग जीती थी। जबकि जनता दल (यू) एक सीट जीती थी। इस बार राजग के घटक दल बदल गए हैं। जनता दल (यू) भाजपा के साथ जुड़ गया है। मोदी की टीम का प्रयास होगा कि पिछले 26 में से ज्यादा से ज्यादा सीटें जीते जबकि विपक्ष भी कसर बाकी नहीं रखेगा। अंतिम चार चरणों में बिहार में जहां मतदान होगा उसमें दरभंगा, उजियापुर, हाजीपुर, मुजफ्फरपुर, सारण, बाल्मीकि नगर, पटना साहिब प्रमुख होंगी। तीसरे चरण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के गृह राज्य गुजरात की 26 सीटों पर मतदान हुआ। 2014 में भाजपा सभी 26 सीटों पर विजयी रही थी। राजस्थान की 25 सीटों पर चौथे और पांचवें चरण में वोटिंग होगी। उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में से 26 सीटों पर चुनाव हो चुके हैं, बाकी बची 54 सीटों पर आगामी चरणों में वोटिंग होगी। 2014 में भाजपा इन 54 सीटों में से 47 सीटों पर जीत दर्ज करने में सफल रही थी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 16 सीटों के बाद तीसरे चरण में गठबंधन को उन 10 सीटों पर जोर-आजमाइश करनी पड़ी है जहां मुलायम परिवार की साख दांव पर है। वर्ष 2014 में सपा को प्रदेश में अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिहाज से यह इलाका मददगार साबित हुआ है। कुल मिलाकर एक तरफ मोदी और दूसरी तरफ कांग्रेस-सपा-बसपा गठबंधन की साख दांव पर होगी।

-अनिल नरेन्द्र

Tuesday, 23 April 2019

24 साल की कटुता भुलाकर मायावती-मुलायम एक मंच पर

24 साल पुरानी दुश्मनी भूलकर बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती और समाजवादी पार्टी संरक्षक मुलायम सिंह यादव ने मैनपुरी में शुक्रवार को चुनावी रैली के दौरान मंच साझा किया और मायावती ने बाकायदा मुलायम को जिताने की अपील करते हुए उन्हें असली नेता करार दिया। 1995 में हुए बहुचर्चित गेस्ट हाउस कांड के बाद सपा से रिश्ते तोड़ चुकी मायावती जब रैली के लिए मैनपुरी के क्रिश्चियन कॉलेज के मैदान में पहुंची तो उनका जोरदार स्वागत किया गया। बड़ी संख्या में आए सपा-बसपा कार्यकर्ताओं को सपा प्रत्याशी मुलायम सिंह यादव को जिताने की अपील करते हुए कहा कि इस गठबंधन के तहत मैनपुरी में खुद मुलायम के समर्थन में वोट मांगने आई हूं। जनहित में कभी-कभी कुछ कठिन फैसले लेने पड़ते हैं। देश के वर्तमान हालात को देखते हुए यह फैसला लिया गया है। उन्होंने कहा कि आप मुझसे जानना चाहेंगे कि दो जून 1995 के गेस्ट हाउस कांड के बाद भी सपा-बसपा गठबंधन चुनाव क्यों लड़ रहा है? इस गठबंधन के तहत ही आज मैं यहां आई हूं। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा की सामूहिक ताकत का प्रयोग कई अरसे बाद जमीन पर आंका जाना है। दो चरण बीतने के बाद सत्तारूढ़ दल के समर्थकों को लग रहा है कि जमीन पर ध्रुवीकरण चल रहा है। किसी का दावा है कि मोदी का नाम चल गया तो इसके उलटे विपक्ष की जमीन हरीभरी देख रहे लोगों का दावा है कि ध्रुवीकरण की कोशिश पर उनका समीकरण हावी है। पाकिस्तान से लेकर प्रज्ञा ठाकुर तक ध्रुवीकरण कार्ड के पत्ते हैं। इनका असर नकारा नहीं जा सकता, लेकिन दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यकों का समीकरण का गठबंधन का दांव भी कमजोर नहीं है। दोनों तरफ से पूरा जोर लगाया जा रहा है। केवल मतदाता ही राजनीतिक दलों और उनके समर्थकों के दावों की पड़ताल कर सकते हैं। भाजपा ने करीब ढाई दशक बाद मुलायम-मायावती की संयुक्त रैली पर कटाक्ष करते हुए कहा कि इस रैली से साफ हो गया है कि उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आंधी चल रही है और उनका जनता से गठबंधन बहुत ज्यादा मजबूत है। शाहनवाज हुसैन ने कहा कि मोदी की आंधी से बदहवास लोग खोखले पेड़ से लिपट रहे हैं। न सपा में दम बचा है और न ही बसपा में। उन्होंने कहा कि सपा और बसपा दोनों के कार्यकाल में भ्रष्टाचार हुआ है, दोनों ही परिवारवादी और भाई-भतीजावादी हैं। मैनपुरी की यह रैली सपा-बसपा के साथ मंच पर होने के कारण ही महत्वपूर्ण नहीं थी, बल्कि सूबे में गठबंधन को स्वीकार्यता दिलाने के लिहाज से भी इस रैली का महत्व है, ऐसा हमारा मानना है। सपा और बसपा का व्यापक जातिगत आधार ही नहीं, उत्तर प्रदेश में उनका व्यापक नेटवर्प भी प्रतिद्वंद्वियों के लिए चुनौती है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इस बार निशाने पर हैं नरेंद्र मोदी। सपा-बसपा गठबंधन यह तो साबित कर ही चुका है कि उनका गठबंधन मजबूत है। इसी वजह से इस गठबंधन ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ही घर की सीट गोरखपुर और फूलपुर पर लोकसभा उपचुनाव जीतकर दिखा दिया है। सपा और बसपा के कार्यकर्ताओं में अगर वाकई ही दिल मिल जाते हैं तो भाजपा को उत्तर प्रदेश में भारी नुकसान हो सकता है। तीसरे चरण में सपा की साख दांव पर है। तीसरे चरण में मुलायम परिवार की गढ़ कही जाने वाली मैनपुरी, फिरोजाबाद और बदायूं सीटों पर मतदान है। यह तो मतपेटियों के खुलने पर ही पता चलेगा कि किसका पलड़ा भारी है।
किया था और भाजपा को इसका खामियाजा भी भुगताना पड़ा था। कांग्रेस को खोने के लिए कुछ भी नहीं है। भाजपा अगर एक भी सीट हारती है तो उसी को नुकसान होगा।

त्रिकोणीय संघर्ष में फंसे शरद यादव

बिहार में हो रहे तीसरे चरण के चुनाव में सबसे रोमांचक मुकाबला मधेपुरा लोकसभा सीट के लिए होने जा रहा है। राम पोप का, मधेपुरा गोप का नारे के बीच का सबसे बड़ा सच यह है कि त्रिकोणात्मक इस संघर्ष में फंसा मधेपुरा का चुनावी संघर्ष भी तीन यादवों के बीच ही फंसा है। हालांकि इस चुनाव में जदयू के दिनेश चन्द्र यादव का मुकाबला राजद के शरद यादव से है। यहां संघर्ष का तीसरा कोण जन अधिकार पार्टी (लोकतांत्रिक) के उम्मीदवार राजेश रंजन उर्प पप्पू यादव बना रहे हैं। लेकिन अपरोक्ष रूप से मधेपुरा के लोकसभा संघर्ष में मौजूदा राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव व जनता दल (यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार की प्रतिष्ठा भी दांव पर लग गई है। राजद उम्मीदवार शरद यादव ने जनता दल (यू) से नाराज होकर कई दिग्गज नेताओं को लेकर अलग पार्टी बनाई थी। लेकिन बाद में लालू प्रसाद यादव ने राजद की सदस्यता दिला मधेपुरा की जंग में शामिल कराकर नीतीश कुमार के सामने एक चुनौती रख दी थी। मधेपुरा लोकसभा का चुनाव शरद यादव के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इस बार चुनाव जीत जाते हैं तो मधेपुरा लोकसभा से पांचवीं बार सांसद बनने का गौरव प्राप्त होगा। मधेपुरा लोकसभा से शरद यादव पहली बार चुनाव 1991 में जनता दल से लड़े थे। उनकी टक्कर जब जनता पार्टी के आनंद मोहन से हुई थी। इस चुनाव में जनता दल के उम्मीदवार शरद यादव ने आनंद मोहन को हराया था। तब जनता दल उम्मीदवार यादव को 4,37,483 मत मिले थे और आनंद मोहन को मात्र 1,52,106 मत मिले थे। मधेपुरा लोकसभा सीट पर तीसरे चरण में 23 अप्रैल को वोट पड़ेंगे। 2019 के लोकसभा चुनाव में इस बार एक बार फिर राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के प्रभामंडल में शरद यादव राजद के उम्मीदवार बने हैं। यह जब तय है कि 2019 के इस त्रिकोणीय संघर्ष में तीनों उम्मीदवार यादव बिरादरी के हैं तो गैर-यादव मत इस लोकसभा चुनाव में जीत की पुंजी साबित हो सकते हैं। यह तो अब समय के गर्भ में है कि कौन उम्मीदवार गैर-यादव मतों को ज्यादा से ज्यादा अपने पक्ष में कर सकता है? आरजेडी-कांग्रेस के बीच तकरार के पीछे सबसे बड़ा मुद्दा पप्पू यादव को लेकर था। पप्पू यादव गठबंधन का हिस्सा बनकर मधेपुरा से सीट चाहते थे। लेकिन आरजेडी ने उन्हें सीट नहीं देकर शरद यादव को वहां से उतारने का फैसला किया। अब पप्पू यादव निर्दलीय उम्मीदवार बनकर शरद यादव की नींद हराम करने उतरे हैं। अगर शरद यादव यह चुनाव भी जीतते हैं तो उन्हें पांचवीं बार सांसद बनने का गौरव प्राप्त होगा। असल लड़ाई लालू प्रसाद यादव व तेजस्वी यादव व नीतीश कुमार की है। नीतीश की उपलब्धियों व नरेंद्र मोदी की छवि पर शरद यादव के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।

-अनिल नरेन्द्र

गुजरात में कांग्रेस बनाम भाजपा लड़ाई अहम क्यों है?

गुजरात में 23 अप्रैल को राज्य की सभी 25 सीटों के  लिए मतदान होना है। प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह दोनों का गृह राज्य है और करीब 20 साल से भाजपा यहां सत्ता में हैं। हालांकि 2017 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और युवा नेताओं की तिकड़ी (हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकोर) से मिली कड़ी टक्कर के बाद अब गुजरात लोकसभा चुनाव भाजपा के लिए बेहद अहम बन गया है। 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा की 22 साल पुरानी सत्ता को चुनौती देने वाली कांग्रेस भले ही सरकार न बना पाई हो लेकिन न केवल उसने भाजपा को 100 का आंकड़ा छूने से रोका बल्कि अपनी सीटों में इजाफा कर 78 सीटें जीतीं। अगर हम लोकसभा चुनावों की बात करें तो 1991 के बाद से ज्यादा सीटें भाजपा के खाते पर गई हैं। भाजपा ने 1991 में 20, 1996 में 16, 1998 में 19, 1999 में 20, 2004 में 14, 2009 में 15 और 2014 में लोकसभा की सभी 26 सीटें जीतीं। 2014 लोकसभा चुनावों के बाद नरेंद्र मोदी ने रुख दिल्ली का कर लिया। 2017 में भाजपा के लिए स्थिति काफी बेहतर हो गई थी। अमित शाह ने छाती ठोक कर कहा था कि वो 150 से 182 तक सीटें लाएंगे, लेकिन मोदी के सीएम बनने के बाद (2001 में मोदी मुख्यमंत्री बने थे) पहली बार पार्टी 100 सीटों से नीचे खिसक गई। आज के परिदृश्य में कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी शहरी इलाकों में है। बेशक यह भाजपा का गढ़ रहे हैं और 2017 में कांग्रेस इन्हें भेद नहीं पाई लेकिन ग्रामीण इलाके में भाजपा कमजोर दिख रही है। यहां के लोग बातचीत में राज्य सरकार के काम से संतुष्ट नहीं दिखते। कहीं पानी की समस्या है तो कहीं रोजगार और किसान के मुद्दे। कहीं भेदभाव की बातें हैं तो कहीं नेताओं का घमंड। रूपाणी सरकार को लेकर जितनी नाराजगी है, उतना ही सॉफ्ट कॉर्नर नरेंद्र मोदी के प्रति है। राहुल गांधी में बदलाव को लोग स्वीकार कर रहे हैं। प्रियंका के राजनीति में आने से और फर्प पड़ सकता है। भाजपा के पक्ष में सबसे बड़ा मुद्दा एयर स्ट्राइक है तो कांग्रेस के पक्ष में न्याय और किसानों की कर्जमाफी। नीरव मोदी, मेहुल चोकसी, माल्या के भागने की नाकामी भी कांग्रेस मुद्दा बना रही है। जबकि भाजपा समर्थक कहते हैं कि भागता वही है जिसे डर होता है। मोदी का डर था, इसलिए वो भागे। संकेत साफ हैöमोदी आज भी गुजरात का मुद्दा हैं। सौराष्ट्र में पांच सीटेंöजूनागढ़, जामनगर, पोरबंदर, अमरेली, सुरेन्द्र नगर और उत्तर गुजरात में चार सीटें, साबरकांठा, बनासकांठा, पाटण और मेहसाणा और आदिवासी बहुल इलाके की पांच सीटें भाजपा के लिए चुनौतीपूर्ण हैं। कांग्रेस 26 सीटों पर फोकस नहीं कर रही है, उसकी रणनीति है कि 13 सीटों पर ध्यान केंद्रित करो और कम से कम 8 या 10 सीटें जीतने की कोशिश करो। पानी की किल्लत और किसानों को पानी मुहैया न हो पाना बड़ा मुद्दा है। तीन युवा नेता बड़ी भूमिका निभाते नजर आ रहे हैं। पाटीदार अनामत आंदोलन समिति के नेता हार्दिक पटेल, ऊना कांड से उभरे दलित नेता जिग्नेश मेवाणी और ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर ने भाजपा को काफी परेशान किया हुआ था। इन युवा नेताओं ने बेरोजगारी, भाजपा की सांप्रदायिक नीतियों का विरोध किया था और भाजपा को इसका खामियाजा भी भुगताना पड़ा था। कांग्रेस को खोने के लिए कुछ भी नहीं है। भाजपा अगर एक भी सीट हारती है तो उसी को नुकसान होगा।

Sunday, 21 April 2019

पाकिस्तान में दूध 120-180 रुपए किलो

पुलवामा हमले के बाद से बदले हुए हालात में समझ नहीं आ रहा कि महंगाई दर चार गुना आखिर क्यों बढ़ गई। आतंकी हमला 14 फरवरी को हुआ था और इसके परिणामस्वरूप भारत ने एयर स्ट्राइक की थी। क्या इसका पाकिस्तान में महंगाई से कोई संबंध हो सकता है? यह हम इसलिए कह रहे हैं कि पुलवामा आतंकी हमले से पहले पाकिस्तान में महंगाई दर 2.2 प्रतिशत थी जबकि 60 दिन बाद अब 9.4 प्रतिशत है। महंगाई के कारण वहां की अवाम परेशान है। खाने-पीने की चीजों के साथ ही पाकिस्तानी अखबार द डॉन के मुताबिक प्रशासन ने दूध के दाम 94 रुपए तय किए हैं, पर ज्यादातर विकेता 120-180 रुपए प्रति लीटर बेच रहे हैं। यहां पहले 70 रुपए प्रति लीटर दूध बिक रहा था। डेयरी एसोसिएशन के मुताबिक सरकार से दाम बढ़ाने का आग्रह किया गया था। सरकार जब नहीं मानी तो उन्होंने खुद ही दूध के दाम बढ़ा दिए। प्रशासन छापेमारी कर रहा है और 11 लाख रुपए जुर्माने का वसूल अब तक कर चुका है। टमाटर जैसी सब्जियां 150 रुपए किलो बिक रही हैं। भारत ने पुलवामा हमले के बाद पाकिस्तान से मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा छीन लिया था। पाकिस्तानी वस्तुओं पर 200 प्रतिशत ड्यूटी लगा दी थी। इससे पहले दोनों देशों के बीच जुलाई 2018 से जनवरी 2019 तक 7800 करोड़ रुपए का द्विपक्षीय व्यापार हुआ था। पाकिस्तान ने भारत से 6100 करोड़ रुपए का आयात किया था, जबकि भारत ने पाकिस्तान से 1700 करोड़ रुपए का। हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान को साफ्टा से भी हटाने की तैयारी कर ली थी। खाने-पीने की चीजों के साथ ही दवाइयां भी महंगी हो गई हैं। इसे देखते हुए ड्रग रेग्यूलेटरी अथारिटी ने कराची, लाहौर और पेशावर में 28 दवा कंपनियों के ठिकानों पर छापे मारे। इन कंपनियों पर केस भी दर्ज किए गए हैं। इनके गोदामों से 83 तरह की दवाइयां जब्त की हैं। यह कंपनियां भारी कीमत पर दवाइयां बेच रही थीं। पाकिस्तानी मीडिया ने यह रिपोर्ट दी है। पाकिस्तान के स्वास्थ्य मंत्री आमिर महमूद कियानी ने कहा कि सरकार देशभर में मुनाफाखोरी के खिलाफ कार्रवाई जारी रखेगी। सरकार ने ऑडिटर जनरल को ड्रग रेग्यूलेटरी अथारिटी के खातों को ऑडिट करने को कहा है। पाकिस्तान में दवा उद्योग 90 लाख करोड़ रुपए का है। हाल ही में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने अपने एक भाषण में कहा था कि पाकिस्तान निहायत खतरनाक दौर से गुजर रहा है, देश कंगाली के कगार पर है और बाहरी मदद पर निर्भर है। सऊदी अरब, चीन, यूएई ने पाकिस्तान की माली मदद भी की है पर जब तक पाकिस्तानी इकोनॉमी अपने पैरों पर खड़ी नहीं होती तब तक यह समस्या हल होने वाली नहीं। इसके चलते पाकिस्तानी अवाम महंगाई के बोझ से दबती चली जा रही है।
-अनिल नरेन्द्र

द हो सकती है।

जेट एयरवेज के कैश होने से हजारों सपने टूटे

अंतत वही हुआ जिसकी आशंका पिछले कई महीनों से चल रही थी। जेट एयरवेज ने बुधवार को अपनी आखिरी उड़ान अमृतसर से रात 10.30 बजे मुंबई के लिए भरी। हालांकि जेट ने कहा है कि उड़ानें अस्थायी तौर पर बंद की जा रही हैं। अब उड़ानें कब शुरू होंगी, यह नीलामी पर निर्भर है। नीलामी में भाग लेने वाली कंपनियों के पास 10 मई तक का समय है। मौजूदा सरकार यानि मोदी सरकार के पांच साल के कार्यकाल में बंद होने वाली जेट एयरवेज सातवीं एयरलाइन है। इससे पहले एयर बिगेसस, एयर कोस्टा, एयर कार्निवल, एयर डेक्कन, एयर ओडिशा और जूम एयर भी बंद हुई। एक समय देश की सबसे बड़ी विमान कंपनी रही जेट के बंद होने की वजह जो भी रही है पर गाज उसके 20 हजार कर्मचारियों पर पड़ेगी। इसकी वजह से 20 हजार कर्मचारी सड़क पर आ गए हैं। होम लोन की ईएमआई, बच्चों के स्कूल की फीस यहीं तक नहीं, जिन्दगी के सारे सपने मानो एक पल में उनके कैश हो गए हों। करीब दो दशक से जेट के कर्मचारियों की जिन्दगी अच्छी तरह उड़ान भर रही थी, अचानक वह ऐसा टर्बुलेंस झेल रहे हैं जिसके खत्म होने के अभी आसार नहीं नजर आ रहे। कुल मिलाकर जेट पर भविष्य में यकीन रखने वाले कम लोग हैं, हालांकि इसके 20 हजार कर्मियों को उम्मीद है कि यह एयरलाइंस बेहतर दिन देखेगी। चुनावी सीजन में 20 हजार नौकरियों के खतरे में आने से एक हद तक राजनीतिक तौर पर संवेदनशील भी हो सकता है। पर देखने की बात यह भी है कि सिर्प नौकरियां बचाने के लिए सरकारी बैंकों को इस बात के लिए विवश नहीं किया जा सकता है कि वो जेट एयरवेज में अपनी रकम लगाएं। सरकारी बैंकों या निजी निवेशकों को अपने आंकलन के हिसाब से यह तय करने का हक है कि उन्हें इस कारोबार में निवेश करना है या नहीं। जेट एयरवेज की इस दुर्दशा के लिए बहुत हद तक उसके कर्ताधर्ता नरेश गोयल जिम्मेदार हैं। नरेश गोयल बरसों से इस जिद पर अड़े रहे कि वह कंपनी के प्रबंधकीय अधिकार नहीं छोड़ेंगे। इस बार ऐसे प्रस्ताव आए जिनमें निवेशक नरेश गोयल की जगह अपने हिसाब की प्रबंधकीय टीम लगाना चाहते थे। पर गोयल की जिद के आगे सारे प्रस्ताव व्यर्थ गए। हैरानी की बात यह है कि 2012 में ऐसी ही हालात में विजय माल्या की किंगफिशर एयरलाइंस बंद हो गई थी, इसके बावजूद कोई सबक नहीं लिया गया। जहां इसके बंद होने से हजारों कर्मचारी सड़क पर आ गए हैं, वहीं जेट की उड़ानें बंद होने से अचानक विमानन क्षेत्र में मांग और आपूर्ति का संतुलन बिगड़ गया है, जिसका असर हवाई यात्रा पर दिखने लगा है। सरकार को देखना चाहिए कि चुनावी आचार संहिता के बीच वह इस संकट को दूर करने में किस तरह से हस्तक्षेप कर सकती है और एयरलाइंस को रिवाइव कर सकती है? यह मुद्दा एक कंपनी और उसके कर्मचारियों के हितों से ही नहीं जुड़ा है, बल्कि इसका संबंध पूरे विमानन क्षेत्र के निवेशकों के विश्वास से भी है। अब सब नीलामी पर निर्भर है। एसबीआई के अधिकारी ने बताया कि जेट का रिवाइवल इस पर निर्भर करेगा कि खरीददार कितना पैसा लगा रहे हैं? इतिहाद जैसी अनुभवी एयरलाइंस इसके लिए मुफीद हो सकती है।

Friday, 19 April 2019

एनडीए को 263-283, यूपीए को 115-135 सीटें

चुनाव का समय है। अपनी पार्टी की हवा बनाने के लिए हर सियासी दल अपनी ऐड़ी-चोटी का जोर लगा रहा है। अपनी दावेदारी मजबूत करने के लिए कई पार्टियों के नेता तरह-तरह के फंडे लगा रहे हैं। इनमें सर्वे का फंडा भी शामिल है। इसके लिए न तो उन्हें कार्यकर्ताओं की टीम चाहिए और न ही उन्हें कहीं जाना होगा। बस ऑफिस में बैठकर मनचाहा सर्वे रिपोर्ट तैयार हो जाती है। बस नेताजी को इस फर्जी सर्वे को बेचना आना चाहिए। जो बेच लिया, उसकी बल्ले-बल्ले। कुछ नेता यह काम करने में माहिर भी हैं। पार्टियां अपना मनपसंद सर्वे करवाती हैं और मतदाताओं को इसके माध्यम से प्रभावित भी करना चाहती हैं। ऐसा नहीं कि सभी सर्वे फर्जी होते हैं। कुछ संगठन ऐसे जरूर है जो अपनी तरफ से मेहनत करके, कुछ सैम्पल सर्वे करते हैं। पर इनकी कमी यह रहती है कि यह कुछ चुनिन्दा संसदीय क्षेत्रों में, गिने-चुने मतदाताओं से सवाल पूछते हैं। उससे उन क्षेत्रों का अंदाजा जरूर हो जाता है पर भारत  जैसे विशाल फैले हुए देश की हवा बताने में वह कभी-कभी असफल हो जाते हैं। यही वजह है कि सर्वे और फाइनल रिजल्ट मेल नहीं खाते। इन चुनावों के बारे में एक चीज तो स्पष्ट लगती है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में न तो कोई हवा है और न ही कोई विशेष राष्ट्रीय मुद्दा। कोई राष्ट्रीय मुद्दा प्रमुख भूमिका नहीं निभा रहा है। कोई ऐसी लहर या मुद्दा नहीं है जो सभी राज्यों में प्रभावी हो। 2014 में जरूर मोदी समर्थक और कांग्रेस विरोधी लहर थी। इसी वजह से भाजपा ने 11 राज्योंöउत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, दिल्ली, गुजरात, हरियाणा, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और झारखंड की 216 सीटें यानि 90 प्रतिशत सीटें जीती थीं। लेकिन इस बार संकेत है कि भाजपा ने उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, दिल्ली और झारखंड में जमीन गंवा दी है। अगर हम यह कहें कि भाजपा इन राज्यों में अपनी 50 प्रतिशत सीटें दोबारा जीत ले तो भी उसकी 85 सीटें कम हो सकती हैं। कई आर्थिक कारणों, (नोटबंदी-जीएसटी) को मिलाकर एंटी इनकम्बेंसी और जातियों के गठबंधन ने नई राजनीतिक स्थिति उत्पन्न कर दी है। मोदी इससे निपटने के लिए आतंकवाद के खिलाफ बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक और राष्ट्रवाद को सामने रखकर अपनी वकालत कर रहे हैं। भाजपा की बौखलाहट इससे भी पता चलती है कि हर ऐरी-गैरी सियासी दल से किसी भी कीमत पर गठबंधन कर रही है। इससे लगता है कि भाजपा नेतृत्व को भी लग रहा है कि शायद वह अपने दम-खम पर सरकार न बना सकें। ऐसी स्थिति में अपने सहयोगियों की मदद लेनी पड़ सकती है। भाजपा की सबसे बड़ी चिन्ता सपा-बसपा का गठजोड़ है। दूसरी ओर जिस तरह से पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी उच्च जाति के वोटरों को आकर्षित कर रही हैं, उसने भी भाजपा की चिन्ता बढ़ाई है। डॉ. मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं की नाराजगी से कुछ ब्राह्मण वोटर कांग्रेस के पास लौट सकता है। मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड और दिल्ली में भाजपा 2014 की तुलना में कई सीटें गंवा सकती है। दिल्ली में आप और कांग्रेस के बीच गठबंधन पर लगभग सहमति बन चुकी है और भाजपा सभी सात सीटें हार सकती है। गुजरात की सभी सीटें जीतने वाली भाजपा से इस बार कांग्रेस पांच से छह सीटें छीन सकती है। हाल ही में सीएसडी-लोकनीति दैनिक भास्कर और द हिन्दू का चुनाव पूर्व सर्वे आया था। वोट शेयर बढ़ने के बावजूद कई सीटों पर विपक्ष के गठबंधन की वजह से भाजपा की सीटों में कमी आ रही है। 2014 में कांग्रेस को 44 सीटें, सहयोगियों को 15, भाजपा-सहयोगियों को 283+53, लेफ्ट को 12 और अन्य को 136 सीटें मिली थीं। चुनाव पूर्व 2019 में सीटेंöकांग्रेस 74-84, सहयोगियों को 41-51 सीटें, भाजपा को 222-232 सीटें सहयोगियों को 41-51, लेफ्ट को 5-15 और अन्य को 88-98 सीटें मिलने की संभावना दिखाई गई है। सर्वे में एक रोचक तथ्य और निकलकर आया है। 40 प्रतिशत भारतीय मानते हैं कि देश सही दिशा में है। लेकिन दक्षिणी राज्यों में स्थिति उलट है। 45 प्रतिशत लोग कहते हैं कि देश गलत दिशा में जा रहा है। पहली बार के वोटर्स की पहली पसंद के रूप में प्रधानमंत्री मोदी (45 प्रतिशत) उभरकर आए हैं। इस सर्वे से यह स्पष्ट संकेत मिल रहा है कि एनडीए का वोट शेयर 2014 से लगातार घटता जा रहा है और यूपीए का बढ़ता जा रहा है। बाकी तो डिब्बे खुलने पर ही पता लगेगा।

-अनिल नरेन्द्र

दिग्गी राजा पर भाजपा का साध्वी हमला

भाजपा ने कई दिनों की माथापच्ची के बाद चौंकाते हुए भोपाल में अपने प्रत्याशी का चयन कर लिया है। भाजपा भोपाल सीट से लगातार 30 साल से जीतती आ रही है। लेकिन इस बार 10 साल मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह मैदान में हैं। उनसे टक्कर लेने के लिए भाजपा ने मालेगांव ब्लास्ट की आरोपी साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को मैदान में उतारा है। प्रज्ञा ने बुधवार को ही भाजपा की सदस्यता ली और कुछ घंटे बाद ही पार्टी ने उन्हें टिकट दे दिया। प्रज्ञा और दिग्विजय सिंह एक-दूसरे के धुरविरोधी माने जाते हैं। दिग्विजय कांग्रेस के उन चुनिन्दा नेताओं में से हैं, जिन्होंने यूपीए सरकार के दौर में भगवा आतंकवाद का मुद्दा उठाया था। दिग्विजय सिंह के खिलाफ ताल ठोकने वाली प्रज्ञा ठाकुर कट्टर हिन्दुवादी नेता मानी जाती हैं। वह राजपूत परिवार से आती हैं। 2008 में 29 सितम्बर को महाराष्ट्र के मालेगांव में बम धमाका हुआ था जिसमें सात लोगों की मौत हो गई थी। इस मामले में 23 अक्तूबर 2008 को साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर की गिरफ्तारी हुई तब उनका नाम पहली बार चर्चा में आया। प्रज्ञा ठाकुर मालेगांव धमाके मामले में नौ साल तक जेल में रहीं। उन पर आरोप था कि धमाके में जिस मोटरबाइक में विस्फोटक लगाकर मस्जिद के पास रखा गया था वह प्रज्ञा ठाकुर की थी। हालांकि प्रज्ञा का कहना था कि वह इस बाइक को बेच चुकी थीं। 2017 में 25 अप्रैल को कोई सुबूत नहीं मिलने पर मालेगांव धमाके केस में प्रज्ञा सिंह को पांच लाख के निजी मुचलके पर जमानत मिली। प्रज्ञा ठाकुर ने आरोप लगाया है कि पूछताछ के दौरान एटीएस ने 23 दिनों तक उन्हें काफी प्रताड़ित किया। वह उन दिनों की प्रताड़ना को याद करके आज भी रो देती हैं, उन्हें इतनी बुरी तरह से पीटा गया, प्रताड़ित किया गया। प्रज्ञा आरएसएस के प्रचारक सुनील जोशी हत्याकांड में भी आरोपी थीं। सुनील जोशी की 2007 में देवास के पास गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। इस मामले में प्रज्ञा की फरवरी 2011 में गिरफ्तारी हुई थी। पर इस मामले में प्रज्ञा समेत आठ आरोपियों को 2017 में बरी कर दिया गया था। हमें प्रज्ञा ठाकुर से पूरी हमदर्दी है क्योंकि जो उनके साथ हुआ वह किसी के साथ नहीं होना चाहिए था। पर चुनाव में खड़ा होना अलग मुद्दा है। कांग्रेस सहित कई विपक्षी नेता प्रज्ञा को उम्मीदवार बनाने पर आपत्ति कर रहे हैं। उनका कहना है कि बेशक प्रज्ञा को जमानत मिल गई हो पर आज भी वह आरोपी तो हैं ही। एक बम ब्लास्ट केस के आरोपी को टिकट देकर भाजपा क्या संदेश देना चाहती है? दरअसल मालेगांव में 2008 में हुए धमाके की आरोपी साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को भोपाल से उम्मीदवार बनाकर भाजपा ने अपने हिन्दुत्व के एजेंडे का संदेश कोर वोटरों को देने की कोशिश की है। विवाद और चर्चा का विषय बन रहीं साध्वी की उम्मीदवारी से पार्टी न सिर्प भोपाल में कांग्रेस दिग्गज दिग्विजय सिंह को बड़ी टक्कर पेश करेगी, बल्कि इससे मध्यप्रदेश सहित 100 सीटों से ज्यादा पर असर डालने का प्रयास करती दिख रही हैं। बेशक भोपाल तीन दशक तक भाजपा का गढ़ माना जाता रहा हो, पर पिछले विधानसभा में कांग्रेस ने यहां शानदार प्रदर्शन किया था। सीट पर करीब साढ़े चार लाख मुस्लिम वोटर की मौजूदगी के मद्देनजर कांग्रेस ने अपने दिग्गज दिग्विजय को उतारा है। 16 साल बाद कोई चुनाव लड़ रहे दिग्विजय को बाकी वोट मिलने की भी उम्मीद है। चार लाख ओबीसी, 4.75 लाख ब्राह्मण, 1.75 लाख कायस्थ और 1.50 लाख राजपूत वोटों में विभाजन होने की संभावना है। साध्वी प्रज्ञा ने कहा है कि मैं लड़ूंगी और जीतूंगी भी। मैं भगवा को सम्मान दिलाकर रहूंगी।

Thursday, 18 April 2019

पैसा इकट्ठा करने का नया तरीका चुनावी बाँड

ऐन चुनावों के बीच चुनावी बाँड को लेकर विवाद तेजी से बढ़ता जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने एक एनजीओ की याचिका पर सभी राजनीतिक पार्टियों को चुनावी बाँड और चन्दे की जानकारी देने के लिए 30 मई की डेडलाइन तय कर दी है। वर्ष 2017-18 में कुछ 231 करोड़ रुपए के चुनावी बाँड में से अकेले 210 करोड़ रुपए पाने वाली भाजपा केंद्र सरकार में है और इस बाँड का पूरा समर्थन कर रही है। बाँड को लेकर एनजीओ व चुनाव आयोग ने आशंकाएं जताई हैं कि यह भारत की स्वायत्तता के लिए खतरा है और इससे लोकतंत्र को नुकसान पहुंच सकता है। सबसे पहले जानते हैं कि क्या है चुनावी बाँड। केंद्र सरकार ने 2017 में एक वित्त विधेयक पास किया, जिसमें चुनावी बाँड शुरू किए गए। ये बाँड एसबीआई की निर्धारित शाखाओं से लिए जा सकते थे। इनकी कीमत एक हजार से एक करोड़ रुपए तक रखी गई थी। आम नागरिकों से लेकर कारपोरेट घराने तक अपनी पसंद की पार्टी को दान के लिए एक हजार, एक लाख, 10 लाख और एक करोड़ रुपए के बाँड्स खरीद सकते थे। बाँड्स खरीदते समय बैंक केवाईसी यानि ग्राहक की जानकारी लेता है, लेकिन जिस दल को यह दिए जा रहे हैं, उसके लिए अनिवार्य नहीं है कि वह बाँड देने वाले का नाम उजागर करे। बाँड हर समय बिकते भी नहीं हैं। इन्हें हर तिमाही में 10 दिन के लिए शाखाओं पर बेचा जाता है। एक बार खरीदने के बाद 15 दिन में इनमें संबंधित पार्टी के नाम भुगतान करना होता है वरना ये निरस्त हो जाते हैं। चुनावी बाँड पर सख्त रुख अपनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सभी दलों को 15 मई तक मिलने वाले चन्दे की जानकारी सीलबंद लिफाफे में चुनाव आयोग को देने को कहा है। चन्दा देने वाले की पूरी जानकारी इसमें मांगी गई है। शुक्रवार को कोर्ट ने इस चर्चित और विवादित बाँड पर तत्काल रोक तो नहीं लगाई लेकिन इसकी गोपनीयता को अंधेरे से उजाले में लाने का संकेत जरूर दे दिया है। हालांकि गोपनीयता के नाम पर यह अंधेरा जनता के लिए अभी भी कायम रहने वाला है, लेकिन तमाम सियासी पार्टियों को बंद लिफाफे में बाँड से प्राप्त दान और दानदाता दोनों की सूचना चुनाव आयोग को 30 मई तक देनी पड़ेगी। गौर करने की बात है कि इन बंद लिफाफों को खोलने का हक सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को भी नहीं दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर ध्यान दिया है कि सत्ताधारी पार्टी इस बाँड से ज्यादा फायदा उठा रही है। अनुमान इशारा करते हैं कि कुल इलैक्ट्रोल बाँड का 95.5 प्रतिशत से 97 प्रतिशत हिस्सा केवल सत्ताधारी पार्टी के खाते में गया है। बाँड प्रयोग के पहले ही यह सिद्ध हो जाता है कि जो भी सत्ता में रहेगा, वह इसके फायदे ज्यादा लेगा। अदालत में सरकार का पक्ष रखते हुए अटार्नी जनरल ने जो तर्प दिए, वे बताते हैं कि राजनीतिक पार्टियां चन्दे में पारदर्शिता लाने की पक्षधर नहीं है। पहले तो सरकार की तरफ से कहा गया कि शीर्ष अदालत चुनाव तक इस पर फैसला न दे। फिर अटार्नी जनरल ने यहां तक कहा कि मतदाताओं को इससे कोई मतलब नहीं होना चाहिए कि पार्टियों के पास पैसा आता कहां से है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कम से कम इतना तो होगा कि यह बाँड कितने के खरीदे गए और किसने खरीदे।
-अनिल नरेन्द्र
��के प्रयास क्या रंग लाते हैं?

दीदी के दर पर मोदी की दस्तक

पश्चिम बंगाल की 42 सीटों पर लोकसभा चुनाव दोनों के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री व तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी के लिए नाक का सवाल बन गया है। यहां सात चरणों में मतदान होगा। 11 अप्रैल पहला चरण, 18 अप्रैल दूसरा चरण, 23 अप्रैल तीसरा चरण, 29 अप्रैल चौथा चरण, छह मई पांचवां चरण, 12 मई छठा चरण और अंतिम सातवां चरण 19 मई। 2014 लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने 34 प्रतिशत वोटें और 34 सीटें जीती थीं। माकपा को 29.71 प्रतिशत वोट मिले पर सिर्प दो सीटों पर ही जीत मिल पाई थी। भाजपा को 17.02 प्रतिशत वोट और दो सीटें मिली थीं जबकि कांग्रेस को 9.58 प्रतिशत और चार सीटें मिली थीं। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा वोट प्रतिशत की कसौटी पर तीसरे नम्बर पर थी। मोदी लहर में 10.88 प्रतिशत के इजाफे के साथ उसके वोटों का प्रतिशत 17.02 प्रतिशत पहुंच गया था। इस बार तृणमूल कांग्रेस के लिए सबसे सुकून की बात यह है कि कहीं भी सरकार विरोधी जैसा माहौल नजर नहीं आ रहा, जिसे लहर कहा जा सके। सड़क, बिजली, सिंचाई और गांवों तक जल पहुंचाने के क्षेत्र में हुए काम ममता सरकार की ताकत है। इस बार राष्ट्रीय नागरिक पंजीकरण पश्चिम बंगाल में बड़ा मुद्दा है। बांग्लादेश से राज्य में घुसपैठ कर आए लोगों ने अब वर्षों से यहां पूरी तरह अपने आपको सुरक्षित कर लिया है। केंद्र सरकार और भाजपा नागरिकता संशोधन विधेयक के तहत घुसपैठियों को वापस भेजना चाहती है। दोनों भाजपा अध्यक्ष और प्रधानमंत्री ने अपनी सभाओं में हर घुसपैठी को राज्य से निकालने का वादा किया है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह अपनी चुनावी रैलियों में कई बार कह चुके हैं कि सत्ता में आने पर राज्य में एनआरसी लागू करेंगे। वहीं ममता इसका जमकर विरोध कर रही हैं। रोजगार सृजन अल्पसंख्यकों को रिझाना, भ्रष्टाचार, केंद्र में अगली सरकार बनाने में तृणमूल कांग्रेस की भूमिका, बालाकोट हवाई हमले की सच्चाई भी महत्वपूर्ण मुद्दे बनकर सामने आए हैं। पश्चिम बंगाल में भाजपा ने मुद्दा खड़ा करने की अपनी महारथ से ममता बनर्जी को घेरने की जमीन तैयार कर ली है। पंचायत चुनाव में हिंसा और तृणमूल कांग्रेस पर जोर-जबरदस्ती का आरोप भाजपा का बड़ा मुद्दा है। इसे बाकी बचे चरणों में भाजपा भुनाने में जुटी हुई है। स्टालों पर चाय बनाने और परोसने का काम कर रहे युवकों की अब भी पहली पसंद नरेंद्र मोदी हैं। खड़गपुर हाइवे हो या कोटई का बस अड्डा, दोनों जगहों पर ऐसे युवाओं ने साफ कहा कि मोदी को फिर आना चाहिए। खड़गपुर में नौकरी करने वाले एक युवक का तर्प है कि पश्चिम बंगाल में बदलाव की बयार आंधी में बदलने के लिए वक्त लेती है। कांग्रेस ने आजादी के बाद करीब ढाई दशक तो वामदल ने करीब साढ़े तीन दशक तक यहां राज किया। आज दोनों वामदल और कांग्रेस हाशिये पर हैं। ममता का अभी एक दशक हुआ है और अब भाजपा की आहट सुनाई दे रही है। हालांकि तृणमूल ने काफी काम किया है। यहां लोग बदलाव की बात क्यों करें? अच्छा काम हो रहा है। अगर ममता अगला प्रधानमंत्री बनने का सपना ले रही हैं तो उन्हें पश्चिम बंगाल की अधिकतर सीटें जीतनी होंगी। भाजपा भी बहुत जोर लगा रही है। देखें, इनके प्रयास क्या रंग लाते हैं?

बढ़ती असहिष्णुता अभिव्यक्ति की आजादी पर गंभीर खतरा

कला का उद्देश्य `सवाल उठाना और ललकारना' होता है, लेकिन समाज में असहिष्णुता बढ़ रही है और संग"ित समूह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के लिए गंभीर खतरा पैदा कर रहे हैं। यह सख्त टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने चिन्ता जताते हुए कहा कि कला-साहित्य, असहिष्णुता का शिकार होते रहेंगे, अगर राज्य कलाकारों के अधिकारों का संरक्षण न करें। जस्टिस डीवाई चन्द्रचूड़ और जस्टिस हेमंत गुप्ता की पीठ एक बंगला फिल्म `भविष्योत्तर भूत' पर लगे प्रतिबंध के खिलाफ सुनवाई कर रही थी। पीठ ने कहा कि समकालीन घटनाओं से पता चलता है कि समाज में एक तरह की असहिष्णुता बढ़ रही है। यह असहिष्णुता समाज में दूसरों के अधिकारों को अस्वीकार कर रही है, उनके विचारों को स्वतंत्र रूप से चित्रित करने और उन्हें प्रिन्ट, थियेटर या सेल्यूलाइड मीडिया में पेश करने के अधिकार को खारिज कर रही है। स्वतंत्र भाषण और अभिव्यक्ति के अधिकार के अस्तित्व के लिए संगठित समूहों और हितों ने एक गंभीर खतरा पैदा कर दिया है। पीठ ने यह भी कहा कि सत्ता शक्ति को यह ध्यान रखना चाहिए कि हम लोकतंत्र में महज इसलिए रहते हैं, क्योंकि हमारा संविधान हर नागरिक की बृहद स्वतंत्रता को मान्यता देता है। पीठ ने कहा कि पुलिस नैतिकता की ठेकेदार नहीं है। कानून व्यवस्था का हवाला देकर फिल्म की क्रीनिंग नहीं रोक सकते। यह कृत्य घातक है। राज्य अपने अधिकारों का मनमाने तरीके से इस्तेमाल नहीं कर सकती। पीठ ने यह भी कहा कि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से प्रमाणित फिल्म को किसी अन्य अथारिटी से अनुमति लेने की दरकार नहीं है। बहुमत तय नहीं कर सकता कि कलाकारों का नजरिया क्या होना चाहिए और क्या नहीं। अभिव्यक्ति के अधिकार का संरक्षण करना राज्य की जिम्मेदारी है। कटु सत्य तो यह है कि एक  लोकतांत्रिक प्रणाली में कोई सरकार, राजनीतिक पार्टी या अन्य सियासी-धार्मिक समूह सिर्प इसलिए किसी कलाकृति के प्रदर्शन को बाधित करते हैं कि किसी राजनीति की हकीकत पर चोट पहुंचती है, यह चिन्ता की बात है। खासतौर पर जब हमारे देश के संविधान में अपनी बात करने, रखने और दिखाने के अधिकार मिले हुए हैं। यह समझना मुश्किल है कि पश्चिम बंगाल सरकार ने इस फिल्म को रिलीज करने में बाधा आखिर क्यों डाली? क्या राज्य सरकार ने फिल्म के प्रदर्शन में इसलिए अड़चन खड़ी की, क्योंकि इसमें राजनीतिक व्यंग्य का सहारा लेकर, अलग-अलग पार्टियों को कठघरे में खड़ा किया गया है और इनमें तृणमूल कांग्रेस भी शामिल है? कायदे से फिल्म पर हमला करने या इसे रोकने के बजाय तृणमूल कांग्रेस और राज्य में उसकी सरकार को यह सोचना चाहिए था कि लोकतांत्रिक दायित्व को पूरा करने में कहां कमी रह गई। सीधे उसके प्रदर्शन पर रोक लगाकर उसने यह साबित किया कि देश की लोकतांत्रिक परंपराओं और कानूनी व्यवस्था की उसे परवाह नहीं है। यह तो हमारा सौभाग्य है कि हमारा सुप्रीम कोर्ट मजबूत है और ऐसी अलोकतांत्रिक पाबंदियों को रद्द करने की क्षमता रखता है। पर इसमें संदेह है कि अब भी कुछ स्वार्थी समूह व सियासी दल संभलेंगे?

निप्रभावी चुनाव आयोग ः आचार संहिता की धज्जियां उड़ीं

नेताओं की बिगड़ी जुबान अब कोई नई बात नहीं है। आए दिन देश के अलग-अलग हिस्सों से चुनाव प्रचार के दौरान ऐसी खबरें आती रहती हैं कि फ्लां नेता ने फ्लानी आपत्तिजनक बात कही तो फ्लां नेता ने मर्यादा का ध्यान नहीं रखा और फ्लां नेता ने तो फूहड़ता की सारी हदें पार कर दी हैं। अफसोस तो इस बात का है कि हमारा चुनाव आयोग चुप कर तमाशा देखता रहता है। ऐसा कोई सियासी दल नहीं है जिसने आचार संहिता को तमाशा बनाकर नहीं रखा है। चुनाव आयोग की भले किसको परवाह है। यह तो धन्य हो सुप्रीम कोर्ट का जिसने धर्म और जाति के आधार पर लोगों को बांट रहे नेताओं पर कार्रवाई नहीं करने पर चुनाव आयोग को सोमवार सुबह फटकार लगाई। सुबह 11 बजे सुप्रीम कोर्ट ने फटकार लगाई और दोपहर तीन बजे चुनाव आयोग ने कार्रवाई शुरू कर दी। आयोग ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को 72 घंटे, बसपा प्रमुख मायावती को 48 घंटे, भाजपा नेता मेनका गांधी को 48 घंटे और सपा के आजम खान को 72 घंटे तक प्रचार नहीं करने के निर्देश दिए। योगी और मायावती का समय मंगलवार सुबह छह बजे शुरू हो गया, जबकि आजम खान और मेनका गांधी का समय सुबह 10 बजे से शुरू हुआ। चारों नेता न सियासी ट्वीट कर पाएंगे, न ही इंटरव्यू दे सकते हैं। योगी की तीन दिन में पांच रैलियां थीं, मायावती की 16 और 17 अप्रैल को चुनावी सभाएं थीं जिनमें अब वह भाग नहीं ले पाएंगी। बता दें कि योगी आदित्यनाथ ने नौ अप्रैल को मेरठ में कहाöअगर सपा-बसपा-कांग्रेस को अली पर भरोसा है तो हमें बजरंग बली पर भरोसा है। वहीं सात अप्रैल को मायावती ने देवबंद में कहा कि मुस्लिम समाज के लोगों से यह कहना चाहती हूं कि वोट नहीं बंटने दें। 13 अप्रैल को मायावती ने कहा कि बजरंग बली भी दलित हैं। अब तो बजरंग बली भी हमारे हैं और अली भी। वहीं बदजुबान आजम खान ने सारी हदें पार करते हुए 14 अप्रैल की टिप्पणी हम लिखना नहीं चाहते। उन्होंने जय प्रदा पर ऐसी टिप्पणी की कि उन पर 15 दिन में बदजुबानी के आठ केस दर्ज हो चुके हैं। भाजपा नेता भी कम नहीं हैं। हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की टिप्पणियों का जिक्र नहीं करना चाहते पर उन्हीं की सांसद मेनका गांधी ने 11 अप्रैल को सुल्तानपुर में मुस्लिम बहुल इलाके में सभा में कहा थाöमैं तो जीत ही रही हूं। आपने वोट नहीं दिया तो फिर देखना मैं क्या करती हूं। मैं कोई महात्मा गांधी की संतान नहीं हूं। महाराष्ट्र के नेता का बयान गौर करने लायक है। एक चुनावी सभा में उन्होंने स्वीकार किया कि चुनाव के दौरान आचार संहिता को मानने का दबाव रहता है, लेकिन भाड़ में गया कानून, आचार संहिता को भी हम देख लेंगे, जो बात हमारे मन में है, वह बात अगर मन से नहीं निकले तो घुटन-सी महसूस होती है। सोमवार को एक साथ ऐसी कई खबरें आईं जिनमें नेताओं के मन की ऐसी सोच का निचला स्तर सामने आ गया। आजम खान का तो हमने जिक्र किया ही है, पर हिमाचल प्रदेश के प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ने मंच से बाकायदा कांग्रेस अध्यक्ष को गाली ही दे दी। इसी के साथ खबर आई कि चौकीदार चोर है, के नारे पर सुप्रीम कोर्ट ने राहुल गांधी को नोटिस जारी कर दिया है। चुनाव आयोग के समक्ष नेताओं के बिगड़ते बोल तो चुनौती हैं ही पर ईवीएम मशीनों में पहले दौर में आई खराबी का भी वह सही हल नहीं ढूंढ पा रहा है। 21 विपक्षी दलों ने एक बार फिर ईवीएम के साथ वीवीपैट का मेल करने की मांग की है। चुनाव आयोग का कर्तव्य है कि वह देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराए। इस मामले में चुनाव आयोग का ट्रैक रिकॉर्ड मिलाजुला है। चुनाव आयोग यह दलील देता है कि उसके हाथ बंधे हुए हैं और उसके पास ऐसी पॉवर नहीं है कि वह इन धांधलियों को पूरी तरह से रोक सके और दोषियों को सख्त सजा दे सके? यह कुछ हद तक सही भी है क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल चुनाव आयोग को ज्यादा सख्ती करने की छूट नहीं देता। पर चुनाव आयोग के पास यह पॉवर तो है कि वह किसी दोषी का चुनाव रद्द कर दे। अगर एक भी नेता का चुनाव रद्द कर दिया जाए तो बाकी सबको संदेश मिल जाएगा। चुनाव आयोग पर यह भी आरोप लग रहा है कि वह सत्तारूढ़ दल का पिछलग्गू बन गया है, उसके हाथ में तोता बन गया है। यही बात सीबीआई, आयकर विभाग पर भी लागू होती है जो चुन-चुनकर विपक्षी नेताओं पर रेड डाल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट भी इस मामले में सख्त है और चुनाव आयोग को फटकार लगाता रहता है। उम्मीद की जाए कि चुनाव के बाकी चरणों पर इन बदजुबानी पर अंकुश लगेगा।

-अनिल नरेन्द्र