Saturday 1 February 2020

जदयू से प्रशांत किशोर और पवन वर्मा की विदाई

जनता दल (यू) ने अपने राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर और राष्ट्रीय महासचिव पवन वर्मा को पार्टी से बर्खास्त कर दिया है। बुधवार को जदयू के राष्ट्रीय महासचिव केसी त्यागी ने दोनों की तमाम जिम्मेदारियां वापस लेकर उन्हें जदयू की प्राथमिक सदस्यता से हटाए जाने का आदेश जारी कर दिया है। चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर जब जदयू में शामिल हुए थे तो उन्हें पार्टी उपाध्यक्ष का ओहदा देकर सम्मानित किया गया था। लेकिन नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और एनआरसी पर लगातार विरोध की वजह से दोनों के बीच खाई बढ़ती चली गई। हाल के दिनों में कई मुद्दों को लेकर दोनों (नीतीश और प्रशांत) के बीच जुबानी जंग हुई और आखिरकार यह जोड़ी टूट गई। पार्टी महासचिव पवन वर्मा को भी इन्हीं वजहों से पार्टी से बाहर होना पड़ा। बता दें कि पवन वर्मा ने दिल्ली में जदयू-भाजपा गठबंधन पर सवाल उठाए थे। उन्होंने पत्र लिखकर इस फैसले पर नीतीश से सवाल पूछे थे। उन्होंने पत्र को सार्वजनिक कर दिया था, जिसे लेकर नीतीश ने नाराजगी जताई थी। इससे पहले भी पवन वर्मा ने सीएए पर मुख्यमंत्री से कई सवाल पूछे थे। प्रशांत किशोर सीएए, एनआरसी और एनपीआर का विरोध कर रहे हैं। उन्होंने सीएए का विरोध करने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी को शुक्रिया कहा था। उन्होंने कहा कि बिहार में एनआरसी और सीएए लागू नहीं होगा। एक दिन पहले ही नीतीश ने कहा था कि किसी को हम थोड़ी ही पार्टी में लाए थे। अमित शाह के कहने पर प्रशांत किशोर को पार्टी में शामिल किया गया था। अब वह जाना चाहते हैं तो जा सकते हैं। इस पर प्रशांत ने ट्वीट कियाöआप मुझे पार्टी में क्यों और कैसे लाए, इस पर इतना गिरा हुआ झूठ बोल रहे हैं। प्रशांत किशोर का जदयू के साथ सफर 501 दिनों का रहा जबकि पवन वर्मा लगभग छह साल तक जदयू के सदस्य रहे। अगर प्रशांत और वर्मा का विरोध सिर्प मुद्दों पर केंद्रित होता तब भी अलग बात थी, लेकिन इन दोनों से सीधे-सीधे नीतीश कुमार पर हमला बोला जो पार्टी के अनुशासन के खिलाफ था। यह दोनों न तो जनाधार वाले नेता हैं और न ही इनके जाने से जदयू को बहुत नुकसान ही होने वाला है। तब तो और नहीं, जब प्रशांत की कम समय में ही नम्बर दो की हैसियत बन जाने से पुराने वरिष्ठ पार्टी नेता उनसे खार खाए बैठे थे। इसके बावजूद इन दोनों को बाहर करने का नीतीश कुमार के बारे में यह धारणा मजबूत होगी कि वह अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर सकते। नीतीश ने पार्टी में सीएए के आलोचकों को तो खामोश कर दिया, पर संसद में सीएए का समर्थन करने के बावजूद एनआरसी और एनपीआर पर खुद वह भी भाजपा से पूरी तरह सहमत नहीं हैं। ऐसे ही अगर अमित शाह के कहने पर नीतीश ने प्रशांत को पार्टी में शामिल करते ही सीधे उपाध्यक्ष बना दिया था तो यह खुद उनकी समझ पर भी सवाल है। कुछ साल पहले आम आदमी पार्टी (आप) में भी नेतृत्व पर सवाल करने वाले योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की इसी तरह विदाई हुई थी। यह पार्टी अनुशासन के उल्लंघन के उदाहरण के साथ-साथ राजनीतिक पार्टियों में लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण का दृष्टांत भी है, जहां नेतृत्व पर सवाल करना भारी पड़ता है।

-अनिल नरेन्द्र

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