Wednesday, 30 November 2011

मेडिकल पोफेशन में नैतिक मूल्यों में आई गिरावट


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 1st December 2011
अनिल नरेन्द्र
मेरी राय में जितनी मूल्यों में गिरावट मेडिकल प्रोफेशन में आई है शायद इतनी किसी और प्रोफेशन में नहीं आई। आज पैसा ही कुछ डाक्टरों और अस्पतालों के लिए ही सब कुछ रह गया है। एक समय था कि मानव सेवा करना एक बहुत बड़ा पुण्य का काम होता था और बीमार को सही करना हर डाक्टर या अस्पताल का कर्तव्य। इनके हाथों में शिफा भी तभी थी। आज तो कुछ डाक्टरों और अस्पतालों के चक्कर में एक बार आदमी फंस जाए तो उसका तो इलाज कराते-कराते घर-बार सब कुछ बिक सकता है। मुझे याद है कि जब हमारे पिता श्री स्वर्गीय श्री के. नरेन्द्र पिछले साल बीमार हुए थे तो उन्हें हमने पूर्वी दिल्ली के एक पतिष्ठित अस्पताल में इसलिए दाखिल किया था कि निमोनिया की मामूली शिकायत जल्द ठीक हो जाएगी और वह साफ-सुथरी जगह में भले चंगे हो जाएंगे। पर उनकी तो बीमारियां बढ़ती गईं और महज दस दिनों में सारा खेल खत्म हो गया और रोज का बिल 60,000, 70,000 बनता चला गया। एक बार जाकर ऐसे फंसे कि न तो हम उन्हें वहां से किसी दूसरे अस्पताल में ले जाने की स्थिति में थे और वहां उनके सही उपचार की जगह बीमारियां बढ़ती ही जा रही थीं। आखिर दस दिन बाद उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली और हम कराने तो उन्हें ठीक गए थे, लेकर उनका शव लाए। बिल लाखों का बन गया। करते तो क्या करते? ऐसे सैकड़ों केस रोज अस्पतालों में आज हो रहे हैं। मरीज और उनके परिजन ऐसे फंसते हैं कि उन्हें समझ नहीं आता करें तो क्या करें, इधर कुआं तो उधर खाई। अगर आपके घुटने में तकलीफ हो तो आप अगर हड्डियों के कुछ डॉक्टर (आरथोपिडिक सर्जन) के पास दिखाने जाते हैं तो वह सीधा आपको कह देगा कि आपका घुटना खराब हो गया है, आपकी नी (घुटना) रिपलेसमेंट होगी। बेशक उस समय आपके घुटने की रिपलेसमेंट की शायद जरूरत न हो और वह फिजियोथैरिपी और दवाओं से ठीक हो सकता हो पर सर्जन महोदय सिर्फ पैसे बनाने के लिए आपकी नी रिपलेसमेंट करवा देंगे। ऑपरेशन के बाद वह अपनी तयशुदा फिजियोथैरिपिस्ट के पास भेज देंगे और आपकी फिजयोथैरिपी पांच-छह महीने चलेगी। फिजियोथैरिपी की फीस में सर्जन का भी हिस्सा होता है। अगर आपको मामूली खांसी-जुकाम की शिकायत है और आप किसी डाक्टर के पास जाते हैं तो वह आपको दर्जनों टेस्ट लिखवा देगा। इन टेस्टों की बेशक जरूरत न हो पर चूंकि खून चैकिंग लैब में उनकी कमीशन सेट है इसलिए वह जबरन आपका दो-तीन हजार रुपए का बिल बनवा देगा। आजकल फाइव स्टार-सेवन स्टार अस्पताल खुल गए हैं। यहां डाक्टरों को सालाना पैकेज दिया जाता है। अगर कोई डाक्टर इन अस्पतालों से जुड़ना चाहे तो उन्हें सालाना पैकेज दिया जाता है पर इसके साथ यह शर्त भी होती है कि वह डाक्टर साल के इतने पेसेंट लाएंगे यानि साल का उसके माध्यम से इतना बिजनेस होगा। आज मेडिकल प्रोफेशन पैसों का धंधा बन गया है, जितना मरीज को निचोड़ सको निचोड़ लो।
दिल्ली की सड़कों के किनारे फल, सब्जियां, कपड़े इत्यादि दिखना आम बात है लेकिन अगर फुटपाथ के किनारे दांत बिकते नजर आ जाएं तो चौंकिएगा नहीं। दिल्ली की कई सड़कों के फुटपाथ पर ऐसे डेंटिस्ट मिल जाएंगे जिनके पास न तो कोई डिग्री है और न ही सर्टिफिकेट लेकिन ये आपके दांतों का हर तरह का इलाज करने की गारंटी लेने को तैयार हैं। इतना ही नहीं ये झोलाछाप डाक्टर आपके घर आकर दांतों के इलाज की भी सुविधा आपको देते हैं। रस्ते का माल सस्ते में बोली कहावत भी यहां सही होती दिखती है। मरीजों की जान को ढाल बनाकर उनके परिजनों से पैसे एंठने वाले एक डाक्टर प्रशांत कुमार को दिल्ली की एक अदालत ने सलाखों के पीछे भेज दिया है। अदालत ने अपने फैसले में कहा कि जिस तरह से उसने अपने डाक्टरी पेशे और उसकी जिम्मेदारियों को ताक पर रखकर उगाही का यह अनूठा तरीका अपनाया उसे देखते हुए वह किसी तरह की नरमी का हकदार नहीं है। एक्सीडेंट में गंभीर रूप से जख्मी होने पर कैलाश चंद को इलाज के लिए भर्ती कराया गया था, 25 मई 2004 को डाक्टर प्रशांत कुमार ने कैलाश चंद के बेटे देवेन्द्र कुमार से बेहतर इलाज के लिए उनसे 5000 रुपए की रिश्वत मांगी थी। इसी तरह से एक अन्य संजीव बत्रा को भी अस्पताल में दाखिल कराया गया था। डाक्टर प्रशांत ने संजीव बत्रा के भाई मुकेश बत्रा से भी 3000 रुपए की रिश्वत मांगी। गवाह मुकेश बत्रा ने अदालत को बताया कि वह दिल्ली हाईकोर्ट में जॉब करते हैं। उनके भाई संजीव बत्रा का 18 मई 2004 को एक्सीडेंट हुआ था। उन्हें इलाज के लिए ट्रामा सेंटर में भर्ती कराया गया। 27 मई 2004 को उनके भाई का ऑपरेशन होना था। ऑपरेशन से पहले ही डा. प्रशांत उनसे आकर मिला और 10,000 रुपए की रिश्वत मांगी। एंटी करप्शन ब्रांच ने डा. प्रशांत के खिलाफ भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज किया। अदालत ने डा. प्रशांत को दोषी करार दिया और तिहाड़ जेल भेज दिया। सरकारी वकील ने अदालत को बताया कि उसने अपने पेशे का गलत इस्तेमाल किया। उन्होंने अदालत से कहा कि मरीज का इलाज करने के लिए एक डाक्टर न केवल सामाजिक बल्कि कानूनी तौर पर भी बाध्य होता है। डाक्टर ने अपनी भूमिका का ईमानदारी से निर्वाह नहीं किया। आज कितने डाक्टर यह दावा कर सकते हैं कि उन्होंने अपने पोफेशन से ईमानदारी का निर्वाह किया है?
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सरकार को रिटेल में एफडीआई का फैसला टाल देना चाहिए



Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 30th November 2011
अनिल नरेन्द्र
रिटेल क्षेत्र में खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की मंजूरी का मुद्दा मनमोहन सिंह सरकार के लिए बड़ा राजनीतिक सिरदर्द बन गया है। संसद से लेकर सड़कों तक सरकार को एफडीआई को लेकर तीखे विरोध का सामना करना पड़ रहा है। यूपीए सरकार के मल्टी ब्रांड रिटेल में 57 फीसदी और सिंगल ब्रांड रिटेल में 100 फीसदी की इजाजत देकर कैबिनेट ने ऐसी मुसीबत मोल ले ली है कि कांग्रेस के विरोधी तो एक तरफ इस सरकार के कुछ सहयोगी भी इसके खिलाफ लामबंद हो गए हैं। हमें तो यह समझ नहीं आया कि ऐसे समय जब यह सरकार महंगाई, ब्लैक मनी, विदेशों में जमा पैसों को वापस लाने, जन लोकपाल की समस्याओं से घिरी हुई थी तो उसे इसी समय यह एफडीआई का मसला लाना था? सरकार की टाइमिंग पर हैरानी हो रही है। पहले से भ्रष्टाचार, घोटालों, महंगाई के मोर्चे पर संप्रग सरकार की नाकामियों का असर उसकी अगुवाई कर रही कांग्रेस की सेहत पर भी पड़ने लगा है। सरकार के फैसलों के चलते एक के बाद एक नई दिक्कत के पैदा होने से कांग्रेस पार्टी के माथे पर भी बल पड़ने लगा है। पार्टी के लिए सबसे बड़ी परेशानी अगले साल पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं। पंजाब और उत्तराखंड में तो अगले दो-तीन महीने के भीतर चुनाव हैं। इसके बाद उत्तर प्रदेश जैसे देश के सबसे बड़े राज्य में चुनाव हैं, जिसमें पार्टी की हार-जीत पर महासचिव राहुल गांधी का बहुत कुछ दाव पर लगा हुआ है। हमें समझ नहीं आया कि प्रधानमंत्री ने यह कैसे सोच लिया कि बिना तैयारी के, होमवर्प किए इतने बड़े कदम को उठाया जाए? इसलिए अचरज फैसले पर नहीं बल्कि इस फैसले के टाइमिंग पर है कि विरोधियों की बारिश के बीच सरकार ने रिटेल की पतंग उड़ाने का जोखिम उठाया है। भारत का (संगठित व असंगठित) खुदरा कारोबार यकीनन बहुत बड़ा है। 2008-09 में कुल खुदरा बाजार 17,594 अरब रुपये का था। यह 2004-05 के बाद से औसतन 12 फीसदी सालाना बढ़ रहा है और 2020 तक 53,517 अरब रुपये का हो जाएगा। नाबार्ड की रिपोर्ट बताती है कि संगठित रिटेल करीब 855 अरब रुपये का है। इसमें 2000 फुट के छोटे स्टोर (सुमिक्षा मॉडल) से लेकर 25,000 फुट तक के मल्टी ब्रांड हाइपर मार्केट (बिग बाजार, स्पेंसर, ईजीडे, रिलायंस) आदि आते हैं। खुदरा कारोबार में तेज ग्रोथ के बावजूद संगठित रिटेल इस अरबों के बाजार में पिछले एक दशक में केवल पांच फीसदी हिस्सा ले पाया है। मगर इस पांच फीसदी हिस्से ने करीब एक करोड़ रोजगार पैदा किए हैं, जो 2020 तक बढ़कर 1.84 करोड़ हो जाएंगे। खुदरा बाजार में विदेशी कम्पनियों का खौफ पुराना है। छोटे देशों में, भीमकाय वॉलमार्ट, चतुर ट्रेस्को और आक्रामक कार्पू जैस रिटेल दिग्गजों के असर की कहानियों से यह डर और बढ़ जाता है क्योंकि संगठित रिटेल अगर उपभोक्ताओं की सुविधा और बेकारों को रोजगार के फूल देता है तो बदले में असंगठित व छोटे व्यापारियों के कारोबार को कांटों में घेर देता है। भारत के मामले में इस खतरे को कुछ तथ्यों के तहत रखने की जरूरत है। भारत में कुल रिटेल का करीब 61 फीसदी हिस्सा खाद्य उत्पादों (अनाज, दाल, फल-सब्जी, दूध, चाय, कॉफी, अण्डा, चिकन, मसाले) के खुदरा कारोबार का है। यह करीब 11,000 अरब रुपये बैठता है। इस कारोबार पर असंगठित क्षेत्र का राज है। रिटेल को लेकर उपभोक्ताओं के व्यवहार को नाबार्ड के एक ताजा सर्वेक्षण में करीब से पकड़ा गया है। देश के 23 शहरों में विभिन्न आयु व आय वर्ग के उपभोक्ताओं के बीच हुआ यह सर्वेक्षण बताता है कि महानगरों में करीब 68 फीसदी अनाज, दाल, मसाले (ग्रोसरी) और 80 से 90 फीसदी फल-सब्जियां, दूध, मीट, अण्डे आदि छोटी दुकानों से खरीदे जाते हैं। दूसरे दर्जे के शहरों में यह प्रतिशत 79 (ग्रोसरी) और 92 से 98 (फल-सब्जियां, दूध आदि) के बीच है अर्थात् रिलायंस, बिग बाजार, स्पेंसर ईजीडे जैसे बड़े विकेता खाद्य उत्पादों के मामले में उपभोक्ताओं का दिल नहीं जीत पाए हैं। खाद्य उत्पादों का कुल कारोबार में संगठित रिटेल दो फीसदी से भी कम है। नाबार्ड के सर्वे के मुताबिक असंगठित विकेता उपभोक्ताओं के घर से औसतन 280 मीटर की दूरी पर स्थित है जबकि संगठित क्षेत्र की दुकानों की पूरी औसतन डेढ़ किलोमीटर है। संगठित रिटेल से महंगाई घटेगी ऐसा भी नहीं लगता। बेशक कुछ मुल्कों में ऐसा हुआ हो पर हमें नहीं लगता कि भारत में इसका महंगाई पर कोई खास असर पड़ेगा। ज्यादातर रिटेलरों की खरीद स्थानीय मंडियों, थोक व्यापारियों, एजेंटों के जरिये होती है और यहां कीमतें कम करने की खास गुंजाइश नहीं होती। इसलिए खाद्य उत्पादों के मामले में संगठित व असंगठित क्षेत्र की कीमतों में कोई फर्प नहीं होता। यही वजह है कि भारतीय उपभोक्ताओं का 60 फीसदी उपयोग खर्च और इस खर्च पर हावी महंगाई को रिटेल क्रांति से कोई मदद नहीं मिली। किसानों को भी इसका कोई बड़ा फायदा नहीं हुआ, क्योंकि भंडारण व आपूर्ति का ढांचा गैर हाजिर है।
देश के मध्यम और छोटे शहरों में रेहड़ी-ठेला लगाने, फल-सब्जी बेचने वाले छोटे दुकानदार और किसान अपने भविष्य को लेकर अगर चिंतित हैं तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। विशेषज्ञों का कहना है कि भारत के खुदरा कारोबार से करीब साढ़े तीन करोड़ लोगों को रोजगार मिलता है और अगर एक परिवार में पांच सदस्य को भी आधार माना जाए तो 18 करोड़ लोग इस खुदरा कारोबार पर आधारित हैं। सरकार के लिए इनकी वैकल्पिक व्यवस्था एक बहुत बड़ा सवाल है। इन प्रश्नों के बावजूद मनमोहन सिंह की संप्रग सरकार अपने फैसले पर अडिग है। सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस के भीतर और बाहर तीखे विरोध के बावजूद सोमवार को प्रधानमंत्री निवास पर कांग्रेस कोर ग्रुप की बैठक में यह निर्णय लिया गया है कि सरकार एफडीआई पर कैबिनेट के फैसले को वापस नहीं लेगी। प्रधानमंत्री निवास पर हुई इस बैठक में सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, प्रणब मुखर्जी, आनन्द शर्मा और अहमद पटेल मौजूद थे। राजनीतिक विरोध के चलते रिटेल में विदेशी दुकानें खोलना आसान नहीं दिख रहा है। पश्चिम बंगाल, यूपी के बाद तमिलनाडु द्वारा विदेशी दुकानों की अनुमति नहीं देने की घोषणा से विरोधी राज्यों की संख्या 28 हो गई है। जिन राज्यों ने एफडीआई का खुलकर विरोध किया है उनमें प्रमुख हैंöउत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाडु, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़। भाजपा, अन्ना द्रमुक, द्रमुक, वाम दल, समाजवादी पार्टी व तृणमूल कांग्रेस सभी इसका विरोध कर रहे हैं। सरकार को चाहिए कि वह एफडीआई के मुद्दे को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाए और अपने फैसले को टाल दे। अभी इस मुद्दे पर बहस बहुत जरूरी है। इसके फायदे-नुकसान का सही आंकलन होना चाहिए तभी यह स्वीकार्य होगा। केवल संसद में ही नहीं पूरे देश में इस पर सहमति होना जरूरी है।
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Tuesday, 29 November 2011

यूपी में छिड़ा राहुल और मायावती के बीच महाभारत

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 30th November 2011
अनिल नरेन्द्र
कांग्रेस के युवा महासचिव राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में अपना सब कुछ दाव पर लगा दिया लगता है तभी तो वह अपनी भाषा पर भी नियंत्रण थोड़ा खो चुके हैं। कुशीनगर पर जिस भाषा में राहुल ने बहुजन समाज पार्टी पर हमला किया वह भाषा राहुल जैसे सभ्य, समझदार व्यक्ति को शोभा नहीं देती। पता नहीं वह किसके कहने पर इस प्रकार की भाषा बोल रहे हैं? कुशीनगर में प्रदेश के पांच दिवसीय दौरे के अंतिम दिन शनिवार को एक जनसभा में बोलते हुए राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की सरकार पर तीखा हमला करते हुए कहा कि आमतौर पर हाथी घास खाता है लेकिन लखनऊ का हाथी पैसा खा रहा है। राहुल ने कहाöमायावती ने लखनऊ में जादू कर दिया है। आमतौर पर हाथी घास खाता है लेकिन लखनऊ का हाथी पैसा खाता है। यह पैसा दिल्ली सरकार का नहीं है, लखनऊ सरकार का भी नहीं है, यह पैसा गरीबों का है, आप सबका पैसा है। राहुल ने पिछड़ेपन के लिए 20 साल से सत्ता में रही गैर कांग्रेसी सरकारों को जिम्मेदार ठहराया। भ्रष्टाचार और पिछड़ेपन के आरोप अपने में सही हो सकते हैं पर दिग्विजय सिंह की भाषा बोलना राहुल गांधी को शोभा नहीं देता। राहुल के आरोपों का बहन जी ने करारा जवाब दिया है। रविवार को लखनऊ में बोलते हुए मायावती ने राहुल गांधी को निशाने पर लेते हुए उन पर लोगों को गुमराह करने का आरोप लगाया। बसपा प्रमुख ने कहा कि जिस पार्टी ने 40 साल के एकछत्र शासन में प्रदेश का भला नहीं किया वह पांच साल या 10 साल में राज्य की तस्वीर कैसे बदल सकती है? उन्होंने कहा कि अगर कांग्रेस की सरकार बनती है तो वह पांच साल में राज्य को देश का नम्बर एक कंगाल प्रदेश बना देगी। कांग्रेस पर कटाक्ष करते हुए मायावती ने कहा, `कांग्रेस प्रदेश में अपनी दयनीय स्थिति से इतना घबरा गई है कि उसके नेताओं और उसके युवराज (राहुल) को दिल्ली में संसद छोड़कर यहां आकर किस्म-किस्म की नाटकबाजी करनी पड़ रही है।' राहुल ने अपने दौरे में कहा था कि लखनऊ में बैठा हाथी केंद्र की विकास योजनाओं के लिए भेजा गया पैसा खा जाता है। हमारी पार्टी की नीतियों और जनाधार से कांग्रेस का प्रदेश में जीना मुहाल हो गया है। मुझे लगता है कि बसपा का चुनाव चिन्ह हाथी उसे सपने में भी खदेड़ता है, सताता है। मायावती ने कहा कि कांग्रेस को हमेशा बसपा का भय रहता है। कांग्रेसियों को सपने में भी बसपा का हाथी रौंदते दिखाई देता होगा। कांग्रेसी नेता जो अनाप-शनाप बोलते हैं उस पर मैं तो संज्ञान नहीं लेती पर प्रदेशाध्यक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य को गुस्सा जरूर आता है। माया ने कहा कि बसपा के जनाधार से घबराए राहुल संसद छोड़ यूपी में नाटकबाजी कर रहे हैं। यूपी के लोगों को भिखारी कहने पर उन्होंने कहा कि उन 40 वर्षों में यूपी के लोगों ने ज्यादा पालयन किया जब यहां कांग्रेस का राज था। लोगों के पलायन के लिए कांग्रेस जिम्मेदार है, हम नहीं। उन्होंने दावा किया कि चुनाव में बसपा के इस नारे को हकीकत में बदल देगी कि `चलेगा हाथी, उड़ेगी धूल, न रहेगा पंजा न रहेगा फूल और न रहेगी साइकिल।'
Anil Narendra, Bahujan Samaj Party, Congress, Daily Pratap, Mayawati, Rahul Gandhi, Vir Arjun

किशन जी ने मरने से पहले अपनी एके-47 से 41 गोलियां चलाई थी

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 29th November 2011
अनिल नरेन्द्र
जिस दिन माओवादी नेता किशन जी की मुठभेड़ में हत्या होने की खबर आई थी उसी दिन इस बात का अन्देशा हो गया था कि उसके कुछ समर्थक जरूर यह कहेंगे कि मुठभेड़ फर्जी थी। हमें ज्यादा समय प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। किशन जी के एनकाउंटर पर सवाल उठने लगे हैं। माओवादियों और किशन जी के परिवार के अलावा कई राजनीतिक दलों ने भी इस मुठभेड़ को फर्जी करार दिया है। उन्होंने सरकार से इस मामले पर स्थिति साफ करने और घटना की जांच कराने की मांग की है। माओवादियों के प्रवक्ता आकाश ने कहा कि किशन जी को हिरासत में लेने के बाद हत्या की गई। तेलुगू कवि और माओवादियों से हमदर्दी रखने राव ने भी कहा कि किशन जी को दो दिन पहले हिरासत में लिया गया था, बाद में उसकी हत्या की गई। भाकपा नेता गुरुदास दासगुप्ता ने गृहमंत्री पी. चिदम्बरम को पत्र लिखकर पूछा है कि क्या यह सच नहीं है कि किशन जी को बृहस्पतिवार दोपहर 12 बजे ही हिरासत में ले लिया गया था और बाद में उसकी हत्या कर दी गई। दासगुप्ता ने चिदम्बरम से फोन पर भी इस सिलसिले में बात की। सपा महासचिव मोहन सिंह ने भी मुठभेड़ को फर्जी बताया। उन्होंने कहा कि शीर्ष नक्सलियों के नरसंहार से माओवाद की समस्या खत्म नहीं होगी। हकीकत तो यह है कि बूड़ीशोल के जंगल में जिस जगह सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में किशन जी की मृत्यु हुई, उस जगह मिल रहे फोरेंसिक सुबूतों से फर्जी मुठभेड़ के दावों की हवा निकल जाती है। घटनास्थल पर मिले कारतूसों के खाली खोखे, हैंड ग्रेनेड के खोल, पेड़ों पर गोलियों के निशान और गोलियों से पत्तियों में बने छेद और `ऑपरेशन' में किशन जी और उसके साथियों का सामना करने वाले कोबरा फोर्स के जवानों से स्पष्ट हो गया है कि इस जगह आमने-सामने की लड़ाई हुई होगी। बंगाल पुलिस की अपराध जांच शाखा (सीआईडी) को शनिवार से आधिकारिक रूप से मुठभेड़ की जांच सौंपी गई। शनिवार को पोस्टमार्टम में भी मुठभेड़ में मौत की प्राथमिक तौर पर पुष्टि हुई है। किशन जी के पैर और चेहरे पर गोलियों के निशान हैं। उसकी ठुड्डी को क्षत-विक्षत करते हुए तीन गोलियां गले में बिंध गई थी। पैर और हाथ के कुछ हिस्सों पर हैंड ग्रेनेड फटने से लगी चोट का प्रभाव है। मुठभेड़ के दौरान किशन जी की एके-47 राइफल से 41 गोलियां चलाई गई थी। उस राइफल से चले कारतूसों के ये खोल किशन जी के शव के आसपास पड़े मिले। किशन जी की साथी रही सुचित्रा महतो खुद को घिरते देख अपनी राइफल और बैग फेंककर भागी थी। उसे एकाधिक गोलियां लगी। अब तक उसे तलाशा नहीं जा सका है। कोबरा फोर्स के जवानों ने छह माओवादियों को गोली लगने से गिरते देखा था। किशन जी आखिरी बार जिस पेड़ के नीचे छिपकर गोलियां चला रहा था, उसका तना गोलियां लगते ही पूरी तरह छिल गया था। किशन जी को पैर और ठुड्डी पर गोलियां मारने वाले कोबरा फोर्स के कमांडो नागेन्द्र सिंह के दाहिने पंजे की ओर से चलाई गोली बिंध गई थी। किशन जी वहां अपने जोनल कमांडरों जयंत, रंजन मुंडा, आकाश, विकास, आदि के साथ बैठक करने पहुंचा था। उसके साथ 75 अन्य माओवादियों का सुरक्षा घेरा था, लेकिन आखिरी मौके पर जब बूड़ीशोल गांव में कसांवली खाल की तरफ से 45 कमांडो की टीम ने उसे घेर लिया तब साथ में सिर्प 15 लोग रह गए थे। सुरक्षा बलों के पैरों तले आए सूखे पत्ते जब खड़के तो माओवादी की टीम ने गोलियां चलानी शुरू कर दीं। जवाबी गोलियां चली तो गुलाबी रंग की सलवार-कमीज पहने एक महिला माओवादी अपनी राइफल छोड़ भाग निकली। उसके पीछे-पीछे बाकी सब अलग-अलग दिशाओं में भाग निकले। किशन जी का अंतिम संस्कार पेड्डापल्ली में होगा। इससे पहले किशन जी की भांजी दीपा राव ने मिदनापुर मेडिकल कॉलेज अस्पताल के शवगृह में रखे उसके शव की पहचान की। किशन जी की मुठभेड़ तो ऐसे हुई। अब राजनीतिक कारणों से इसे फर्जी कहें या कुछ और कहें, यह अलग बात है।
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अजमल आमिर कसाब पर अब तक 100 करोड़ खर्च हो चुका है

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Published on 29th November 2011
अनिल नरेन्द्र
26 नवम्बर को मुझे एक दोस्त ने एसएमएस भेजा कि शरद पवार को थप्पड़ मारने वाले हरविन्दर सिंह को जल्दी सजा हो जाएगी और दर्जनों निर्दोषों को मारने वाला अजमल कसाब को इतने वर्ष बीतने के बाद भी सजा नहीं हुई।
26/11 के आतंकवादी हमले के तीन साल बाद भी अजमल कसाब को फांसी नहीं हो सकी। फांसी देना तो दूर रहा उसे हम पाल-पोश रहे हैं, बिरयानियां खिला रहे हैं। खबर है कि कसाब पर भारत सरकार व महाराष्ट्र सरकार ने 100 करोड़ रुपये खर्च कर दिए हैं। उस काले दिन का एक मात्र जीवित आरोपी कसाब इस समय मुंबई की जेल में बन्द है। यह खर्च उसकी सुरक्षा, स्पेशल सेल, स्पेशल वार्ड, मेडिकल एक्सपैंस, खान-पान और वकील की फीस पर किया गया जबकि विडम्बना देखिए कि हमले के करीब 175 पीड़ितों के परिजनों को मुआवजे के रूप में 13.73 करोड़ रुपये ही दिए गए हैं। हमले में मारे गए लोगों के परिजनों ने शुक्रवार को महाराष्ट्र के राज्यपाल से मिलकर उनसे सरकार की ओर से किए वायदे पूरे करवाने की गुहार लगाई। उसी दिन 26/11 की तीसरी बरसी पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण से मिलने जा रही मृतकों की विधवाओं व परिजनों को शनिवार को हिरासत में लेकर हवालात में डाल दिया गया। यह लोग मुख्यमंत्री को वे सरकारी वायदे याद दिलाने जा रहे थे जो अब तक पूरे नहीं हुए हैं। केवल कसाब को ही अब तक फांसी नहीं दी गई बल्कि महाराष्ट्र सरकार ने मृतकों के परिजनों को जो वायदे किए थे वह भी दुःख से कहना पड़ता है, पूरे नहीं किए गए। हिरासत में लिए गए लोगों में 26/11 के अलावा मुंबई में अब तक हुए तीन आतंकी वारदातों के पीड़ित भी शामिल थे। मृतकों के परिजनों के अनुसार केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा आतंक पीड़ितों के परिवारों को दी जाने वाली तीन लाख रुपये की राशि बहुत से परिवारों को आज तक नहीं मिली है। क्योंकि राज्य सरकार ने पीड़ितों को यह राशि दिलवाने की पहल ही नहीं की। इस मोर्चे के नेतृत्व कर रहे पूर्व सांसद किरीट सोमैया के अनुसार 26/11 के हमले में मारे गए 163 लोगों में से सिर्प 61 के परिजनों को यह राशि प्राप्त हो सकी है। इसी प्रकार फरवरी 2010 में पुणे में हुए जर्मन बेकरी कांड में मारे गए 17 लोगों में से सिर्प 11 के परिजनों को अब तक मुआवजा राशि मिली है। 26/11 को हुए इस आतंकी हमले में बच निकलने में सफल रहे लोग अब भी दोषी ठहराए गए पाकिस्तानी बन्दूकधारी अजमल कसाब को फांसी पर चढ़ाए जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे सभी इस बात से हतप्रभ हैं कि आखिर सरकार कसाब को क्यों बचाने में लगी है? 13 वर्षीय देविका शेरवन ने कहा कि कसाब को अभी तक क्यों फांसी पर नहीं लटकाया गया? हमारी सरकार आखिर किस चीज का इंतजार कर रही है? क्या एक और 26/11 जैसे हमले की? देविका के पिता नटवर लाल यहां छत्रपति शिवाजी टर्मिनेस (सीएसटी) पर अपनी बेटी और बेटे के साथ ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे थे। उसी दौरान दो आतंकवादियों ने रेलवे स्टेशन पर गोली चलानी शुरू कर दी। आतंकवादियों की एक गोली देविका के दाहिने पैर में लगी जो अदालत में गवाही के दौरान सबसे युवा प्रत्यक्षदर्शी थी। देविका को लम्बे समय तक बैसाखी के सहारे चलना पड़ा है। ओबेराय होटल में अपने पति पंकज को खो देने वाली कल्पना शाह के लिए आतंकवादियों को माफ करना या भूलना आसान नहीं है। उन्होंने कहा कि मैं भी अपने पति को प्रतिदिन याद करती हूं। मुझे जीवनभर उनकी कमी खलेगी। 26/11 में मारे गए बापू साहब दूरगुडे की पत्नी अरुणा ने कहा कि मेरे पति एटीएस ऑफिसर थे। उनकी शहादत ने मुझे और मजबूत बना दिया है। मैंने वक्त के साथ जीना सीख लिया है। लेकिन हमलों के तीन साल बाद भी यह नहीं समझ पाई हूं कि अजमल कसाब अब तक क्यों जिन्दा है? शहीद पुलिसकर्मी अरुण चित्ते की पत्नी मनीषा चित्ते का कहना था कि मेरी बड़ी बेटियों को पता है कि उनके पापा शहीद हो गए हैं, लेकिन छोटी अब भी उनकी फोटो निहारती रहती है। पूछती है कि शहीद क्या होता है? मैं जानना चाहती हूं कि कसाब को फांसी कब दी जाएगी।
26/11, Anil Narendra, Daily Pratap, Qasab, Vir Arjun

Sunday, 27 November 2011

शरद पवार को थप्पड़ आखिर क्यों पड़ा?



Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 27th November 2011
अनिल नरेन्द्र
बृहस्पतिवार को नई दिल्ली के एनडीएमसी सेंटर में इफ्को के एक कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि आए केंद्रीय कृषि मंत्री ने कभी अन्दाजा नहीं लगाया होगा कि उस दिन उनसे क्या घटना घटेगी। कार्यक्रम के बाद पत्रकारों से बातचीत करते हुए पवार जब बाहर की तरफ बढ़े तभी एक सिख युवक ने आगे बढ़कर उनके मुंह पर तमाचा मार दिया। पवार को समझ नहीं आया कि क्या हुआ। वह चुपचाप आगे बढ़ गए। मंत्री के स्टाफ की धक्का-मुक्की से नाराज युवक ने अपनी कृपाण निकाल ली। विरोधस्वरूप अपने हाथ पर वार भी किया। एनडीएमसी के गार्डों ने युवक को बड़ी मुश्किल से काबू कर पुलिस को सौंपा। हमलावर युवक का नाम हरविन्दर सिंह है और वह दिल्ली के विजय विहार में रहता है। वह नारा लगा रहा था, `वह भ्रष्ट हैं।' मैं यहां मंत्री को थप्पड़ मारने ही आया था। वे सभी भ्रष्ट हैं। उसने आगे कहा कि आज गुरु तेग बहादुर की शहादत का दिन है। हालात और भी बुरे हो सकते थे। मैंने ही रोहिणी कोर्ट में सुखराम को भी मारा था। मैं सिख हूं, चप्पल नहीं मारूंगा। सिर्प भाषण देते हो। भगत सिंह को भूल गए जिसने कुर्बानी दी। मारो-मारो मुझे खूब मारो। पागल...हूं मैं। इनके पास घोटालों के अलावा कुछ नहीं है। मैं गलत नहीं हूं।
शरद पवार पर तमाचे की गूंज ने दिल्ली की सियासत को हिला दिया है। विपक्ष ने इस घटना की निन्दा तो की है, लेकिन इसे महंगाई से उपजा गुस्सा करार देकर सरकार पर दबाव बढ़ा दिया है। वहीं कांग्रेस ने इस घटना के लिए भाजपा नेता यशवंत सिन्हा के गैर जिम्मेदाराना बयान पर निशाना साधा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पवार से बातचीत कर पूरे घटनाक्रम की निन्दा की। कांग्रेस के संसदीय कार्यमंत्री हरीश रावत ने कहा कि यशवंत सिन्हा के बयान, महंगाई नहीं रुकी तो हिंसा होगी, वापस होना चाहिए। ऐसी धारणा बनाना गलत है। वहीं भाजपा नेता यशवंत सिन्हा ने कहा कि यह शख्स मेरे बयान से पहले ही सुखराम को भी थप्पड़ मार चुका है। ऐसे में इसे मुझसे जोड़ा जाना ठीक नहीं है। भाजपा की ही सुषमा स्वराज की टिप्पणी थी, भाजपा इसकी निन्दा करती है। अहिंसक तरीके से जताया जाना चाहिए अपना मतभेद। पवार उम्र के कारण आदर योग्य हैं। वहीं सबसे दिलचस्प टिप्पणी अन्ना हजारे की थी। अन्ना हजारे ने पवार पर हमले की सूचना मिलने पर पहली प्रतिक्रिया के तौर पर पूछा, `केवल एक थप्पड़?' बाद में उन्होंने इसकी आलोचना करते हुए कहा कि लोकतंत्र में हिंसा की कोई जगह नहीं है। उन्होंने कहा कि पवार को थप्पड़ पड़ा लोकतंत्र को तमाचा है। जनता में इस घटना की क्या प्रतिक्रिया हुई, कुछ टिप्पणियां प्रस्तुत हैं। केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार को पड़ा थप्पड़ किसी नेता या मंत्री पर नहीं बल्कि इनके द्वारा बनाई गई उस व्यवस्था पर है जिससे आम लोगों का पूरा बजट गड़बड़ा गया है। वह आम आदमी क्या करे, जिसकी सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया हो। दिल्ली वालों ने इसी तरह की प्रतिक्रिया दी। `महंगाई घरों की किचन के साथ लोगों के सपनों पर भी हमला कर रही है। एक इंसान अपने बच्चे को पढ़ाकर कुछ बनाने के सपने देखने से पहले यह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि उसके लिए पैसे कैसे बचाए' कोटला की एक महिला की प्रतिक्रिया थी। मयूर विहार की एक कामकाजी महिला ने कहा कि यह थप्पड़ एक आदमी का नहीं, पूरे देश की जनता का है। देश के नेताओं और मंत्रियों को यह समझ जाना चाहिए कि जनता अपने तरीके से जवाब देना सीख रही है। उसे पांच साल तक बहला-फुसलाकर बेवकूफ नहीं बना सकते हैं। कोटला फिरोजशाह की एक महिला का कहना था कि परेशानी है तभी तो लोग ऐसा करने को मजबूर हो रहे हैं। मंत्री दफ्तर में बैठकर जो नीति तैयार करते हैं, वह आम आदमी की कमर तोड़ने वाली होती है। ऐसे में लोग क्या करें? उनके पास कोई विकल्प नहीं है। सेवा नगर में एक सियासी कार्यकर्ता का कहना था कि परेशानी अपनी जगह है, लेकिन हर जगह थप्पड़ मारना ठीक नहीं है। सबक सिखाना है तो चुनाव में सिखाएं। लेकिन लोग भी क्या करें जब उनके प्रतिनिधि उम्मीद पर खरे नहीं उतरते तो वह तनाव में आ जाते हैं और यही तनाव थप्पड़ के रूप में दूर होता है। एक व्यवसायी की टिप्पणी थी, `सरकार जब सो रही हो तो उसे जगाने के लिए इससे बेहतर तरीका और कुछ नहीं हो सकता।' सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता आरके शर्मा का मानना है कि लोगों का गुस्सा जायज है। मंत्री, नेता और उनके रिश्तेदार करोड़ों-अरबों में खेल रहे हैं और आम आदमी भरपेट खाने से पहले भी सोचता है। यह स्थिति खतरनाक है और देश के नीति-निर्धारकों को अब गम्भीरता से जनता के दुःख-दर्द के बारे में सोचना ही होगा। मैक्स अस्पताल के मनोचिकित्सक डाक्टर समीर पारिख का कहना है कि अपने आक्रोश को निकालने का यह तरीका काफी कैट कहा जा सकता है, जब लोग दूसरे की नकल करते हुए किसी पर हमला करते हैं और उसे चोट पहुंचाते हैं तो वह चीप पब्लिसिटी के भूखे होते हैं। हमला करने वाला पहले की घटना से कहीं न कहीं प्रेरित होता है और उसे लगता है कि उसे भी लोगों का आकर्षण मिल सकता है।
शरद पवार पर हुए हमले से सियासी पारा भी तेज होगा। पवार की पार्टी राकांपा अन्दरखाते कांग्रेस से बेहद नाराज है। उसे लग रहा है कि जिस तरह से कांग्रेस ने पवार को महंगाई का प्रतीक बनाया, उसकी वजह से हालात यहां तक पहुंचे। यद्यपि तुरन्त कांग्रेस के नेता पवार के बचाव में जरूर उतरे, लेकिन राकांपा इस घटना से बेहद व्यथित है। भारी उद्योग मंत्री प्रफुल्ल पटेल ने कहा कि बड़े नेताओं की सुरक्षा पर संसद में चर्चा होनी चाहिए। पवार पर हमले के बाद महाराष्ट्र में कुछ इलाकों में पार्टी कार्यकर्ताओं के उग्र रवैये पर पटेल ने संयम रखने की अपील की। मामले के पीछे भाजपा का हाथ होने का खुद पवार ने ही काट किया। उन्होंने कहा, मुझे नहीं लगता कि इसमें किसी राजनीतिक दल का हाथ है। इस बारे में पार्टी इसलिए भी नाराज है कि कांग्रेस लगातार महंगाई के मसले पर शरद पवार को ही आगे करती रही है। बेशक भ्रष्टाचार और महंगाई से देश त्रस्त है और भारी गुस्से में है लेकिन इसका समाधान यह नहीं है कि हम चारों तरफ आग लगाना शुरू कर दें और जो सामने आए टूट पड़ें। इससे समाधान तो क्या निकलेगा, हां चारों ओर अराजकता जरूर फैल जाएगी। वहीं राजनीतिज्ञों को भी समझ लेना चाहिए कि पब्लिक का मूड क्या है। हमारे सामने मध्य पूर्व का उदाहरण है जहां एक छोटी-सी चिंगारी ने देश में आग लगा दी थी। सियासतदानों को इस किस्से से डरना चाहिए और सबक लेना चाहिए।
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सरकार के नक्सल विरोधी अभियान में महत्वपूर्ण उपलब्धि



Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 27th November 2011
अनिल नरेन्द्र
सरकार को अपने एंटी-नक्सली आपरेशंस में एक शानदार सफलता मिली है। सीपीआई (माओवादी) की मिलिट्री यूनिट के मुखिया और पोलित ब्यूरो सदस्य कोटेश्वर राव उर्प किशन जी को सुरक्षा बलों ने मुठभेड़ में मार गिराया है। सुरक्षा बलों के हाथों मुठभेड़ में मौत की गृह मंत्रालय द्वारा पुष्टि के साथ ही भारत में `नक्सल आंदोलन' का एक अध्याय खत्म हो गया। सीआरपीएफ की नक्सल विरोधी कमांडो बटालियन 207 कोबरा के जवानों ने किशन जी को मौत के घाट उतारा है। मूल रूप से आंध्र प्रदेश का रहने वाला कोटेश्वर राव उर्प किशन जी लम्बे समय से नक्सल आंदोलन से जुड़ा था। पिछले तीन साल से उसने पश्चिम बंगाल सरकार और केंद्र सरकार की नाक में दम कर रखा था। सूत्रों के अनुसार किशन जी ने दो नक्सली माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी और पीपुल्स वॉर ग्रुप के आपस में विलय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। करीब छह साल पहले हुए इस विलय के कारण नक्सलियों की ताकत काफी बढ़ गई थी। किशन जी के दोनों नेपाल के माओवादियों और उनके जरिये चीन से भी सम्पर्प में था। करीमगंज जिले के नाफपल्ली गांव से नक्सलवाद का सफर शुरू करने वाला किशन जी गुरिल्ला युद्ध में माहिर था। उसने सम्भाल रखी थी बंगाल से महाराष्ट्र तक की कमान। उसका मुख्य उद्देश्य था पश्चिमी मदिनापुर, बाकुड़ा व पुरुलिया बेल्ट को झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ से जोड़ना। किशन जी की मौत के बाद नक्सली हिंसा से ग्रसित राज्यों, बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ व आंध्र प्रदेश में शुक्रवार को हाई अलर्ट घोषित किया गया है। नक्सली हमले की आशंका को देखते हुए यह हाई अलर्ट घोषित किया गया है। छत्तीसगढ़ के अतिरिक्त महानिदेशक राम निवास ने बताया कि नक्सली बदले की कार्रवाई कर सकते हैं। पुलिस को डर है कि नक्सली थाना व 40,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले नक्सल प्रभावित बस्तर इलाके में आम लोगों को निशाना बना सकते हैं। बस्तर के आंतरिक इलाकों में नक्सलियों की समानांतर सरकार चलती है। किशन जी की मौत से नक्सली-माओवादी समस्या तो खत्म नहीं होगी पर यह जरूर है कि यह इनके लिए एक बहुत बड़ा झटका है जिससे उन्हें उभरने में वक्त जरूर लगेगा। सरकार की नक्सल विरोधी कार्रवाई में यह एक शानदार उपलब्धि जरूर है।
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Saturday, 26 November 2011

2जी घोटाले में कारपोरेटों को मिली जमानत


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 26th November 2011
अनिल नरेन्द्र
2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के मामले में पहली बार किसी को जमानत मिली है। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को पांच कारपोरेट आरोपियों को जमानत दे दी। सुप्रीम कोर्ट से जमानत पाने वाले हैं ः संजय चन्द्रा, विनोद गोयनका, हरि नायर, गौतम दोषी और सुरेन्द्र पिपारा। आरोपियों ने निचली अदालत और हाई कोर्ट में जमानत अर्जी खारिज होने पर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि इस मामले में आरोपियों के खिलाफ आर्थिक अपराध का आरोप है और अगर यह साबित होता है तो इससे देश की अर्थव्यवस्था को खतरा हो सकता है। लेकिन सीबीआई ने यह नहीं कहा कि जमानत पर छूटने के बाद आरोपी सुबूतों को प्रभावित कर सकते हैं। हम ऐसा कोई कारण नहीं देखते जिससे कि आरोपी को कस्टडी में रखा जाए और वह भी तब जब इस मामले में छानबीन पूरी हो चुकी है और चार्जशीट दाखिल हो चुकी है। आरोपी छह महीने से ज्यादा जेल में हैं और इस मामले में इन्हें कस्टडी में रखने का कोई मकसद पूरा नहीं होता। ऐसे में आरोपियों को 5-5 लाख रुपये की जमानत राशि पर जमानत देने का आदेश दिया जाता है। कोर्ट ने जमानत देने के साथ-साथ कुछ शर्तें भी लगाई हैं। इन्हें जमानत दिए जाने के बाद कनिमोझी समेत 6 आरोपियों को जमानत मिलने की उम्मीद हो गई है। 2जी घोटाले में अभी भी 2 फरवरी से ए. राजा बन्द हैं। कनिमोझी 20 मई से तिहाड़ में हैं। शरद कुमार (एमडी कलैंग्नार टीवी) भी 20 मई से बन्द हैं। आरके चंदोलिया (ए. राजा के प्राइवेट सचिव) 2 फरवरी को जेल गए थे। सिद्धार्थ बेहुरा, पूर्व टेलीकॉम सैकेटरी भी 2 फरवरी से ही बन्द हैं। शाहिद उस्मान बलवा, स्वान के प्रोमोटर 2 फरवरी से तिहाड़ में है। आसिफ बलवा (शाहिद के भाई) 29 मार्च से जेल में हैं। राजीव अग्रवाल डायरेक्टर कुसेगांव फूड्स एण्ड वेजिटेबल्स प्राइवेट लिमिटेड 29 मार्च को जेल गए थे। करीम मोरानी जो एक फिल्म निर्माता हैं और शाहरुख खान के दोस्त भी हैं 30 मार्च से तिहाड़ में हैं।
किसी आपराधिक मामले में आरोपी को कितनी अवधि तक न्यायिक हिरासत यानि जेल में रखा जाए और कब उसे जमानत मिलनी चाहिए, यह सवाल अक्सर उठता है। इन दिनों भी इस सवाल पर बहस जारी है। कुछ दिन पहले दिग्विजय सिंह ने भी यह सवाल उठाते हुए कहा था कि किसी आरोपी के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल होने के बाद उसे जेल में करने का कोई औचित्य नहीं है, इसलिए उसे जमानत मिलनी ही चाहिए। हालांकि उनके इस बयान की काफी आलोचना भी हुई थी। कहा गया कि वे अदालतों को निर्देशित करने की कोशिश कर रहे हैं। दिग्विजय सिंह चूंकि एक विवादित राजनेता हैं इसलिए उनके बयान पर टीका टिप्पणी स्वाभाविक ही है पर कुछ समय पहले खुद सुप्रीम कोर्ट की एक तीन सदस्यीय पीठ ने कहा था कि वह बहुचर्चित मामलों में आरोपियों को जमानत न देने की अदालतों की कथित नई प्रवृत्ति की पड़ताल करेंगे, क्योंकि यह प्रवृत्ति उस स्थापित न्यायिक सिद्धांत के खिलाफ है, जो कहता है कि `जमानत नियम है और जेल उपवाद है।' सुप्रीम कोर्ट की यह पहल निश्चित ही सराहनीय है लेकिन सवाल उठता है कि सिर्प हाई प्रोफाइल केसों पर ही क्यों। छोटे-मोटे मामलों में भी आरोपियों को अदालतों का वर्षों तक चक्कर लगाने पड़ते हैं। जब इन्हें जमानत मिलती है या केस का फैसला आता है उस वक्त तक वह सजा से ज्यादा समय तो जेल में बिता देते हैं। तिहाड़ जेल में अंडर ट्राइलों की संख्या देखें तो पाएंगे कि निचली अदालतों की बेल न देने की वजह से यह जेल में बन्द हैं। जहां तक 2जी स्पेक्ट्रम केस का संबंध है जेल भेजना तो ठीक है पर इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है पैसों की रिकवरी और इस दिशा में न तो सरकार और न ही सीबीआई कोई ठोस कदम उठा रही है। एक लाख 60-70 हजार करोड़ के इस घोटाले में आपने दर्जनों लोगों को अन्दर तो कर दिया पर जो पैसा इन्हेंने लूटा, जो देश की सम्पत्ति है उसका क्या हुआ? कनिमोझी और अन्य की अब जमानत हो जाएगी। केस वर्षों तक चलता रहेगा। अन्त में कुछ को सजा भी हो सकती है पर मूल प्रश्न वही आता है कि लूटी धनराशि की रिकवरी कैसे होगी?
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भंवरी देवी के बाद राजस्थान में एक और सेक्स स्कैंडल


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 26th November 2011
अनिल नरेन्द्र
भंवरी देवी का इतने दिन बाद भी कुछ पता नहीं चल सका। वह किस हालत में है, जिन्दा भी है या नहीं? जोधपुर जिले के नालीवाडा स्वास्थ्य केंद्र में कार्यरत नर्स भंवरी देवी गत एक सितम्बर को संदिग्ध परिस्थितियों में लापता हो गई थी। सीबीआई इस प्रकरण में राजस्थान के बर्खास्त काबीना मंत्री महिपाल मदेरणा उसकी पत्नी लीला मदेरणा, कांग्रेस विधायक मलखान सिंह, उसकी बहन इन्द्रा समेत कई लोगों से पूछताछ कर चुकी। सीबीआई ने इस केस में शहाबुद्दीन और सोहन लाल समेत तीन लोगों को गिरफ्तार भी किया है। ये तीनों न्यायिक हिरासत में हैं। 24 नवम्बर को इस केस की राजस्थान हाई कोर्ट में तारीख थी। सीबीआई को अदालत में प्रोग्रेस रिपोर्ट पेश करनी थी। सीबीआई ने अदालत से कहा कि उसे अपनी जांच रिपोर्ट पेश करने के लिए कुछ दिनों की और मौहलत चाहिए। अदालत ने उसके अनुरोध को स्वीकार करते हुए समय दे दिया है और अब अगली सुनवाई 15 दिसम्बर को होगी। न्यायाधीश गोविंद माथुर और न्यायाधीश एनके जैन की खंडपीठ ने लापता भंवरी देवी के पति की बन्दी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर बन्द कमरे में सुनवाई शुरू की। सीबीआई को इस केस में कोई उल्लेखनीय सफलता अब तक नहीं मिल सकी है। दो सौ से ज्यादा पुलिसकर्मियों ने लो हावर के खेतों में लगभग 20 किलोमीटर तक खेतों व ढाणियों में भंवरी के अवशेषों की तलाश की। साथ ही फोरेंसिक साइंस लेबोरेट्री के वैज्ञानिकों से भी पूछताछ की जिन्होंने आरोपी शहाबुद्दीन की उस बुलेरो की जांच की थी जिसमें भंवरी देवी का अपहरण हुआ था। दरअसल सीबीआई यह एंगल स्टडी कर रही है कि उसी बुलेरो में तो भंवरी के साथ अनहोनी तो नहीं हुई?
अभी भंवरी देवी मामला सुलझा नहीं कि एक और सेक्स स्कैंडल का खुलासा हुआ है। इसका खुलासा सिरसा के उपमंडल डबवाली के गांव आबू शहर की पीड़ित युवती ने किया है। इस मामले में कोर्ट के आदेश पर राजस्थान के एक पूर्व मंत्री, पूर्व सांसद और युवती के पति तथा देवर सहित 18 लोगों के खिलाफ केस जयपुर के विशाली नगर थाने में दर्ज किया गया है। आबू शहर की युवती ने 19 नवम्बर को न्यायिक मजिस्ट्रेट क्रम 11 जयपुर की अदालत में इस्तगासा देकर इस मामले में न्याय की गुहार की थी। युवती ने हनुमानगढ़ निवासी अपने पति ओम प्रकाश गोदारा पर आरोप लगाया था कि वह अपना प्रोपर्टी डीलर का कारोबार बढ़ाने के लिए उसे नशे की गोलियां खिलाकर प्रभावशाली लोगों को परोसता ता। इसके बाद अदालत के आदेश पर 21 नवम्बर की रात जयपुर थाना वैशाली नगर में मामला दर्ज किया गया। मामले की जांच कर रहे निरीक्षक ने बताया कि जिनके खिलाफ मामला दर्ज किया गया है उनमें महिला का पति ओम प्रकाश गोदारा, पूर्व मंत्री जोगेश्वर गर्ग, पूर्व सांसद निहाल चन्द मेघवाल, राजस्थान विवि छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष पुष्पेंद्र भारद्वाज, भाजपा नेताओं के निजी सहायक रहे विवेकानन्द, डीएसपी अनिल राय, पुलिस निरीक्षक महावीर सिंह समेत 18 लोग शामिल हैं। इन सबके खिलाफ धारा 376/328/343/323/506 आईपीसी तथा 120बी के तहत मामला दर्ज किया गया है। चर्चित भंवरी देवी प्रकरण की तरह इस एक और सेक्स रैकेट से राजस्थान की राजनीति में नया उफान आ सकता है। जहां तक भंवरी देवी का प्रश्न है समझ नहीं आ रहा कि उसे जमीन निगल गई या आसमान खा गया? अखबार में छपी एक खबर के अनुसार भंवरी देवी की हत्या हो चुकी है लेकिन इस तथ्य के लिए सीबीआई को अभी सुबूत जुटाने हैं। यह बात सीबीआई ने बृहस्पतिवार को जोधपुर हाई कोर्ट में पेश स्टेटस रिपोर्ट में अदालत से कही है। इसी पर अदालत ने उसे 15 दिन का समय दिया। उधर आबू शहर की युवती ने आरोप लगाया है कि उसके पति ने उसकी 34 सीडी बनाई हैं और इनके जरिये वह संबंधित नेताओं को ब्लैकमेल करता था।
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Friday, 25 November 2011

चिदम्बरम का बहिष्कार सोची-समझी रणनीति के तहत है

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 25th November 2011
अनिल नरेन्द्र
संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होते ही पहले दिन से सियासी गर्मी की आंच गरमाने लगी है। सत्र की शुरुआत महंगाई और गृहमंत्री पी. चिदम्बरम के बहिष्कार से हुई। बुधवार को लोकसभा में वामदलों के नोटिस पर महंगाई पर होने वाली बहस में भी सदन का पारा गरम रहेगा। बढ़ती महंगाई के मुद्दे पर विपक्षी दलों के स्थगन प्रस्ताव की चर्चाओं के बीच वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने स्वीकार किया कि उम्मीद के मुताबिक परिणाम हासिल नहीं हो सके। उन्होंने जैसी उनकी अब आदत-सी बन गई महंगाई का ठीकरा मांग एवं आपूर्ति में असंतुलन, डालर के मुकाबले रुपये की कीमत में गिरावट व अन्य अंतर्राष्ट्रीय कारणों को छोड़ दिया। उन्होंने उम्मीद जताई कि मुद्रास्फीति की दर मार्च 2012 के अन्त तक 6-7 प्रतिशत तक पहुंच जाएगी। प्रणब दा के बयान से विपक्ष भड़क उठा। पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा ने मुखर्जी के बयान को आंकड़ों का जाल और जनता को दिग्भ्रमित करने वाला बताते हुए चेतावनी दे डाली कि अगर महंगाई का यही हाल रहा तो लोग जल्द हिंसा पर उतर आएंगे। एनडीए ने सदन के पहले दिन ही यह संकेत भी दे दिया कि वह गृहमंत्री पी. चिदम्बरम का बहिष्कार के अपने फैसले पर पूरी तरह अमल करेंगे। हालांकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने गृहमंत्री को बचाने का पूरा प्रयास किया। मनमोहन सिंह ने कहा, जहां तक गृहमंत्री के बहिष्कार की बात है मुझे उम्मीद है कि राजनीतिक दल इस तरह के किसी कदम से बचेंगे, क्योंकि गृहमंत्री के बहिष्कार की कोई वजह नजर नहीं आती। दूसरी ओर राजग द्वारा चिदम्बरम के बहिष्कार को पूरी तरह से जायज बताते हुए भाजपा ने कहा कि यह विपक्ष का लोकतांत्रिक अधिकार है। 2जी स्पेक्ट्रम मामले में प्रधानमंत्री के नाम लिखे वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी के नोट के सार्वजनिक होने के मद्देनजर ऐसा किया जाना स्वाभाविक कदम है। भाजपा के वरिष्ठ नेता वेंकैया नायडू ने संवाददाताओं से कहा कि कांग्रेस पूर्व में जॉर्ज फर्नांडीस के साथ ऐसा कर चुकी है जब निर्दोष जॉर्ज को उन्होंने छह महीने तक बोलने नहीं दिया था। अब यह विदित है कि अगर चिदम्बरम ने पहल की होती तो यह घोटाला रोका जा सकता था। चिदम्बरम को भाजपा 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में उतना ही जिम्मेदार मानती है, जितना ए. राजा को। भाजपा का कहना है कि जब चिदम्बरम वित्तमंत्री थे उस वक्त राजा जो भी कर रहे थे उन सभी के बारे में न सिर्प चिदम्बरम को जानकारी थी बल्कि उन्होंने राजा का समर्थन भी किया। उन्होंने राजा के उठाए कदमों को अपनी सहमति दी। अगर वह चाहते तो उसी वक्त ही इस घोटाले को होने से रोक सकते थे। भाजपा ने अपने आरोपों का आधार वित्त मंत्रालय के इस साल प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजे उस नोट को भी बनाया है जो इस साल 25 मार्च को भेजा गया था। इस नोट से साफ हो जाता है कि 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन नीलामी की बजाय `पहले आओ पहले पाओ' की नीति पर बनाने के लिए भी वित्तमंत्री के रूप में चिदम्बरम ने ही अपनी मंजूरी दी थी। यही नहीं, राजा ने बाकायदा चिदम्बरम को इस बारे में पत्र भी लिखा और बैठक भी की थी। ऐसे में चिदम्बरम इस घोटाले के लिए उतने ही जिम्मेदार हैं, जितने कि राजा। दरअसल चिदम्बरम का बहिष्कार करके राजग ने एक तीर से कई निशाने साधे हैं। सरकार और चिदम्बरम के लिए एक एम्बैरिसिंग स्थिति हो गई है। वहीं चिदम्बरम को पसंद न करने वाली टीम अन्ना के लोग, बाबा रामदेव और तमिलनाडु की सीएम जयललिता तक भी एक मैसेज गया है। बहिष्कार का टाइमिंग मानना पड़ेगा कि अच्छा है। जनता पार्टी के अध्यक्ष
डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी की अपील पर यह मामला कोर्ट में है। चिदम्बरम की लोकसभा सीट भी खतरे में है। क्योंकि उनके चुनाव के खिलाफ एक याचिका का फैसला कभी भी आ सकता है। डॉ. स्वामी की डिमांड पर सीबीआई को 2जी से जुड़े कागजात भी देने पड़े हैं। स्वामी दावा कर रहे हैं कि चिदम्बरम को पूरी जानकारी थी और वह इसे दस्तावेजों के साथ साबित भी कर सकते हैं। एनडीए ने सिर्प दबाव ही नहीं बनाया बल्कि एक सियासी मैसेज भी दिया है। बाबा रामदेव और उनके साथ रामलीला मैदान में बैठे लोगों पर पुलिस कार्रवाई के पीछे गृहमंत्री के आदेश माने जा रहे थे। रामदेव समर्थकों की तरह टीम अन्ना के भी काफी लोग मानते हैं कि अन्ना और साथियों की गिरफ्तारी और उसके बाद मामले को उलझाने में गृहमंत्री और मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल का मेन रोल था। उधर तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता तो अपने ही राज्य में चिदम्बरम को एक आंख नहीं भातीं। यह भी गौरतलब है कि गत रविवार को जयललिता की पहल पर अन्नाद्रमुक के थंबुदुरई रामलीला मैदान में लाल कृष्ण आडवाणी की रैली में आए थे। इसके एक दिन बाद चिदम्बरम के बहिष्कार का फैसला हो गया। जयललिता सम्भव है कि भविष्य में एनडीए के साथ जुड़ जाएं। कुल मिलाकर भाजपा को लगता है कि उनकी बहिष्कार की नीति सही दिशा में सही कदम है।
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शराबियों को खम्भे से बांधकर पीटा जाना चाहिए ः अन्ना


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 25th November 2011
अनिल नरेन्द्र
अन्ना हजारे का एक ताजा बयान विवादों के घेरे में आ गया है। समाज सुधार अपने एजेंडे के तहत गांधीवादी अन्ना हजारे ने शराबियों की शराब की लत छुड़ाने के लिए उनकी पिटाई की हिमायत की है। एक टीवी चैनल से बात करते हुए अन्ना ने हालांकि पिटाई को अंतिम उपाय बताया है। अन्ना से जब पूछा गया कि शराबियों की लत छुड़ाने के लिए वह क्या तरीका अख्तियार करने की सलाह देते हैं तो उन्होंने कहा कि पहले शराबियों को तीन बार बातचीत से समझाओ। अगर नहीं मानते तो उसे मंदिर ले जाकर शराब नहीं पीने की शपथ दिलाओ। इसके बाद भी नहीं सुधरें तो मंदिर के सामने खम्भे से बांधकर उसकी सार्वजनिक पिटाई करो। यह पूछे जाने पर कि क्या उन्होंने यह तरीका अपने गांव में आजमाया है तो उन्होंने कहा कि हां, कभी-कभी ऐसा करना पड़ता है। उन्होंने यह भी कहा कि उनके गांव के कुछ लोग जो अब शराब छोड़ चुके हैं, अब भी उनसे कहते हैं कि यदि उन्हें खम्भे से नहीं बांधा गया होता तो वह बर्बाद हो चुके होते। हजारे के इस बयान की तीखी आलोचना हो रही है। इस बारे में प्रतिक्रिया मांगे जाने पर कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने कहा कि हजारे का सुझाव तालिबान के फरमान की तरह है, यह तालिबानी तरीके से मेल खाता है जो शरिया कानून का पालन नहीं करने वाले को दंडित करने के लिए करते थे। कांग्रेस नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी कहते हैं कि हजारे का लक्ष्य इस मामले में भी बेहद पवित्र है मगर तरीका गलत है। भाजपा प्रवक्ता निर्मला सीतारमण और शाहनवाज हुसैन ने भी अन्ना की टिप्पणी को सही नहीं माना और कहा कि उनकी पार्टी अन्ना के इस तरीके से शराब छुड़ाने का समर्थन नहीं करती। शराबखोरी से लड़ने के प्रति 74 वर्षीय गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता के इस नजरिये ने साइबर जगत में भी एक बहस की शुरुआत कर दी है। ब्लॉग पर अन्ना की टिप्पणी की निन्दा की गई है। हालांकि कुछ ब्लॉगर अन्ना के दृष्टिकोण को सही मानते हैं। कुछ ब्लॉगरों ने कहा कि गांधीवादी अन्ना हजारे अपनी हदें पार कर रहे हैं। हमारा मानना है कि शराब पीना या न पीना आदमी का व्यक्तिगत फैसला है। आप शराब पीने वालों को इससे उत्पन्न होने वाली समस्याओं से अवगत करा सकते हैं पर उसे मजबूर करना शायद ठीक नहीं होगा। सरकारों ने प्रोहिबिशन करके भी देख लिया। उल्टा जितने पाबंदी लगाओगे उतनी ही इसकी डिमांड बढ़ेगी। अन्ना का यह सुझाव उनके गांव में तो चल सकता है पर शेष दुनिया में शायद ही प्रैक्टिकल माना जाए।
Anil Narendra, Anna Hazare, Daily Pratap, Mahatma Gandhi, Taliban, Vir Arjun

Thursday, 24 November 2011

इशरत जहां मुठभेड़ फर्जी थी


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 24th November 2011
अनिल नरेन्द्र
गुजरात की नरेन्द्र मोदी सरकार को गुजरात हाई कोर्ट ने एक तगड़ा झटका लगाया है। 2004 के इशरत जहां मामले की जांच कर रही स्पेशल इनवेस्टीगेटिंग टीम (एसआईटी) ने कहा है कि इशरत को फर्जी मुठभेड़ में मारा गया था। अपनी रिपोर्ट में एसआईटी ने कहा है कि इशरत और तीन अन्य को मुठभेड़ की तारीख 15 जून 2004 से पहले मारा गया। ये तीन लोग जावेद शेख उर्प प्रंगेश, पिल्लई, अमजद अली राणा और जीशान जोहर थे। गौरतलब है कि अहमदाबाद क्राइम ब्रांच ने 15 जून 2005 को एक इंडिका कार पकड़ने का दावा किया था, बाद में उसने चार लोगों को मुठभेड़ में मार गिराया। इस मुठभेड़ को अंजाम देने वाली टीम की अगुवाई आईपीएस डीजी बंजारा कर रहे थे। जिन्होंने मारे गए लोगों को पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तोयबा से जुड़े होने का दावा किया था। उन्होंने यह भी कहा था कि ये सभी नरेन्द्र मोदी को मारने के मिशन पर थे। एसआईटी ने गुजरात हाई कोर्ट में बीते 18 नवम्बर को अपनी रिपोर्ट पेश की थी। जस्टिस जयंत पटेल और अभिलाषा कुमारी ने मुठभेड़ में शामिल पुलिसकर्मियों के खिलाफ सैक्शन 302 (हत्या) के तहत नई एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया है। हाई कोर्ट के निर्देश के साथ अब कई आईपीएस अधिकारियों समेत 24 से ज्यादा पुलिसकर्मियों के खिलाफ इस मामले में एफआईआर दर्ज होगी। विशेष जांच दल का यह निष्कर्ष खासतौर पर चौंकाने वाला है कि इन लोगों को पहले ही कहीं अन्यत्र जगह मार डाला गया था। चूंकि इस मुठभेड़ के बाद अहमदाबाद अपराध शाखा ने यह दावा किया था कि मारे गए आतंकी नरेन्द्र मोदी की हत्या करने के लिए आए थे इसलिए यदि कुछ लोग इस नतीजे पर पहुंच रहे हैं कि पुलिस ने शासन से वाहवाही पाने या मैडल लेने की खातिर चार लोगों को फर्जी मुठभेड़ में मार गिराया तो यह अस्वीकार्य स्थिति है। गुजरात पुलिस पहले से ही दंगों में व्यवहार विवादों के घेरे में आ चुका है। इस मामले में राज्य सरकार भी कठघरे में खड़ी है क्योंकि यह पहली बार नहीं जब उस पर फर्जी मुठभेड़ कराने का आरोप लगा हो। 2005 में हुई इस मुठभेड़ में गुजरात पुलिस ने कुख्यात अपराधी सोहराबुद्दीन को मार गिराने का दावा किया था। यह महज दुर्योग नहीं हो सकता कि यह दावा भी झूठा निकला। इस फर्जी मुठभेड़ के सिलसिले में तो खुद गुजरात के पूर्व गृहमंत्री सन्देह के कठघरे में खड़े हैं। उक्त मुठभेड़ों के अलावा वर्ष 2003 की भी एक मुठभेड़ सन्देहास्पद है। एसआईटी की रिपोर्ट के हवाले से पीठ ने कहा है कि एनकाउंटर 15 जून के दिन नहीं हुआ था। मामले में दायर पहली एफआईआर में एनकाउंटर की जो तारीख दर्शाई गई है, उस तारीख को एनकाउंटर नहीं हुआ था। इसके अलावा एनकाउंटर-मृत्युस्थल के समय में भी विरोधाभास है जिससे मुठभेड़ फर्जी लगती है। उल्लेखनीय है कि तमांग ने अपनी रिपोर्ट में एनकाउंटर की तारीख 14 जून 2004 बताई थी। साथ ही कहा है कि जावेद को इस दिन रात आठ से नौ बजे की अवधि में मारा गया। शेष तीन को 11 से 12 की अवधि में ठिकाने लगाया गया। अगेल दिन 15 जून को पुलिस इंडिका कार चलाकर अथवा टोइंग कर वारदात के प्रचारित स्थल पर प्लांट कर दिया। बेशक इशरत जहां के बारे में कहा जाता है कि वह लश्कर की कार्यकर्ता थी और नरेन्द्र मोदी की हत्या करने के इरादे से अहमदाबाद आई थी पर फिर भी जिस ढंग से गुजरात पुलिस ने उसको मारा वह किसी भी न्यायसंगत देश में स्वीकार्य नहीं है। इन केसों से पुलिस जांच और कार्रवाई पर भी प्रश्नचिन्ह लगता है। भले ही फिलहाल गुजरात पुलिस फर्जी मुठभेड़ों को लेकर कठघरे में खड़ी हो लेकिन हकीकत तो यह है कि इस तरह की मुठभेड़ें देश के अन्य हिस्सों में भी रह-रहकर होती रहती हैं। यह समस्या कितनी गम्भीर है, इसके प्रमाण पुलिस अत्याचार संबंधी उन आंकड़ों से मिलते हैं जिनमें अच्छी-खासी संख्या में फर्जी मुठभेड़ों का जिक्र होता है। आम धारणा तो अब यह बन गई है कि ज्यादातर मुठभेड़ फर्जी होती हैं और चूंकि इनकी जांच खुद पुलिस करती है इसलिए सच्चाई सामने नहीं आती। फर्जी मुठभेड़ें अधिकारों के दुरुपयोग का निकृष्टतम उदाहरण हैं और सभ्य समाज में इस तरह के आचरण का कोई स्थान नहीं हो सकता। वैसे पूर्व गृह सचिव जीके पिल्लई ने गुजरात सरकार के उस दावे की पुष्टि की है कि इशरत और अन्य लोग संदिग्ध गतिविधियों में लिप्त थे और लश्कर-ए-तोयबा की वेबसाइट ने इशरत को शहीद का दर्जा दिया था।
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फैसला लेने में मायावती मनमोहन सिंह से कोसों आगे


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Published on 24th November 2011
अनिल नरेन्द्र
यह तो मानना ही पड़ेगा की बहन जी जो ठान लेती हैं करके दिखा देती हैं। मायावती ने महज 15 मिनट में उत्तर प्रदेश के विभाजन का प्रस्ताव पारित कराकर यह साबित भी कर दिया। मायावती ने सोमवार को सदन में एक लाइन का प्रस्ताव रखा जिसे शोरगुल में ध्वनिमत से मंजूर कर लिया गया। विपक्ष ने बड़े लम्बे चौड़े प्लान बना रखे थे पर यह सारी प्लानिंग धरी की धरी रह गई। बहन जी ने सबसे पहले तो वित्तीय वर्ष 2012-13 के लिए लेखानुदान पारित कराया और उसके बाद विभाजन प्रस्ताव पारित करके दो दिन चलने वाली विधानसभा को 15 मिनट में ही स्थगित करवा दिया। कोई भी राजनीतिक दल यह नहीं चाह रहे थे कि विधानसभा चुनाव की पूर्व संध्या पर राज्य विभाजन का प्रस्ताव आए लेकिन मायावती को राजनीतिक रूप से यह ठीक लगा और फिर उन्होंने जितने आनन-फानन कैबिनेट से यह प्रस्ताव पारित कराया उतनी ही फुर्ती में विधानसभा से भी पारित करवा लिया। बुरी तरह बिखरा हुआ विपक्ष राज्य सरकार की घेराबंदी के तमाम मंसूबों के बावजूद कुछ नहीं कर सका। सदन में कांग्रेस, सपा और भाजपा विधायकों में एकता के बजाय श्रेय लेने की होड़ लगी रही। विपक्ष की कमजोरी भांप बसपा की कमान खुद मायावती ने सम्भाली और उत्तर प्रदेश के बंटवारे का प्रस्ताव पेश कर दिया। विपक्षी दल जब तक माया की चाल भांप पाते तब तक ध्वनिमत से प्रस्ताव पास भी कर दिया गया। विपक्ष की टिप्पणियां भी पार्टी लाइन की रहीं। मुलायम सिंह यादव का कहना था कि महज 10 सैकेंड में विधानसभा में साढ़े तीन लाइन पढ़कर नए राज्यों की तकदीर नहीं लिखी जा सकती। भ्रष्टाचार और अत्याचार के सवालों से घिरी राज्य सरकार ने ध्यान बंटाने के लिए बंटवारे का पासा फेंका है। भाजपा के उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा कि फैसला चुनावी हथकंडा है। सदन के अन्दर और बाहर यूपीए गठबंधन के घटक दलों ने मिलकर उत्तर प्रदेश को चार राज्यों में बांटने के प्रस्ताव को तैयार किया था। बसपा और कांग्रेस ने अपनी-अपनी विफलताओं से लोगों का ध्यान हटाने के लिए यह रणनीति बनाई थी। कांग्रेस के नेता प्रमोद तिवारी का कहना है कि पहले राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन किया जाना था। सपा व भाजपा ने बेल में घुसकर सदन अव्यवस्थित कर दिया। कांग्रेस चर्चा चाहती थी। बाद में एक पत्रकार ने बहन जी से पूछा कि क्या आप विधानसभा भंग करने जा रही हैं तो मायावती का जवाब था कि मेरे पास मैजोरिटी है। मैं क्यों विधानसभा भंग करूंगी। निसंदेह इस प्रस्ताव के पारित होने मात्र से उत्तर प्रदेश का विभाजन होने नहीं जा रहा है और इसे मायावती भी भलीभांति जानती होंगी, लेकिन इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि इसका राजनीतिक लाभ मायावती को ही होगा। अब वह चुनाव में इस मुद्दे को भुना सकती हैं। मायावती ने एक बार फिर साबित कर दिया कि उनमें फैसले करने की हिम्मत है। वह किसी से डरती नहीं। दुर्भाग्य से इस मामले में सबसे दयनीय स्थिति मनमोहन सरकार की है। वह समाज हित में फैसला लेना तो दूर रहा, खुद अपने हित के फैसले लेने में भी नाकाम है। इस मामले में तो मायावती सरदार मनमोहन सिंह से कहीं बेहतर साबित हो रही हैं।
बसपा पर यह आरोप जरूर लग रहा है कि उसने सोमवार को सदन के संचालन में मनमानी की सारी हदें पार कर दीं और फिर भी यह दावा किया जा रहा है कि विधानसभा अध्यक्ष ने संविधान के मुताबिक फैसले लिए और नियमानुसार सदन चलाया। सब कुछ नियमानुसार नहीं था, इसकी पुष्टि तो इससे ही हो जाती है कि विपक्ष के आरोपों का जवाब सदन से बाहर दिया गया। यह पहली बार नहीं जब सत्तापक्ष ने विधानसभा संचालन मनमाने तरीके से किया हो। यह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है और अब उसने खतरनाक रूप ले लिया है। कुछ राज्यों में तो विधायी सदनों का संचालन केवल औपचारिकता पूरी करने के लिए किया जाने लगा है। बहस के लिए तमाम मुद्दे होने के बावजूद विधानसभा सत्र छोटे होते जा रहे हैं। देखा जाए तो महज 15 मिनट में 20 करोड़ लोगों का भविष्य यूं धक्का-मुक्की में नहीं तय किया जा सकता और यह मायावती भी जानती हैं।
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Wednesday, 23 November 2011

मुस्लिम पारिवारिक कानून में सुधार की मांग


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Published on 23th November 2011
अनिल नरेन्द्र
देश में मुस्लिम पारिवारिक कानून में सुधार व मुस्लिम निजी कानून संहिताबद्ध किए जाने की मांग अब जोर पकड़ रही है। भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन से जुड़ी मुस्लिम महिला शिक्षा, सुरक्षा, रोजगार, कानून व सेहत के मुद्दों पर जागरुकता लाने व राजनीतिक चेतना विकसित करने में काम कर रही है। अब उत्तर प्रदेश के कई शहरों में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन व परचम संस्था संयुक्त रूप से महिलाओं के बीच जाकर उन्हें सशक्त करने की नई राह दिखा रही हैं। देश में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति हमेशा से बहस का विषय रही है। मुस्लिम महिलाओं की स्थिति व मुस्लिम पारिवारिक कानून में सुधार की संभावना पिछले काफी समय से भारतीय मुस्लिम आंदोलन एवं परचम संस्था जता रही है। लखनऊ, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर सहित उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरों में इस मंच की ओर से जो मुद्दे उठाए जा रहे हैं उसमें मुस्लिम महिला अब काफी रुचि लेने लगी हैं। अब वे खुद चाहती हैं कि उनकी जिन्दगी के फैसले और पारिवारिक मुद्दे पर उन्हें भी सहारा मिले ताकि अपने फैसले वे खुद कर सकें। भारतीय मुस्लिम आंदोलन अब देश के 15 राज्यों में सक्रिय है। इस आंदोलन से जुड़ी नाइस हसन ने बताया कि वे इस मुद्दों को हर जगह जाकर मुस्लिम महिलाओं में जागरुकता पैदा कर रही हैं। इस आंदोलन को गांव तक ले जाया गया है। राष्ट्रीय स्तर व संसद पर दबाव बनाने के लिए जागरुकता व राजनीतिक चेतना विकसित करने का काम कर रहा है। वह मानती हैं कि कोई भी समाज पिछड़ा नहीं रहना चाहिए। आंदोलन भारतीय संविधान के दायरे में अपने अधिकारों व विकास की मांग को आगे बढ़ाने में विश्वास रखता है। हसन ने बताया कि एक ओर भारतीय संविधान की धारा 14, 15, 21, 26, 29, 30 और 350ए भारत के सभी नागरिकों के लिए समान अवसर की उद्घोषणा करती है। एक तरफ कानूनी बराबरी की बात करती है वहीं दूसरी ओर देखा जाए तो इन धाराओं को व्यावहारिक रूप में अमल में नहीं लाया जा रहा है। किसी भी धर्म के निजी कानून महिलाओं को सुरक्षा नहीं देते। जहां तक मुस्लिम निजी कानून का सवाल है, वे एक संहिताबद्ध नहीं है। यह कानून औरतों को सुरक्षा नहीं देता। तीन तलाक की घटनाएं आए दिन सामने आती रहती हैं। मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम 1939 ने मुस्लिम महिलाओं को अधिकार तो दिया पर पुरुषों के एक तरफा जुबानी तीन तलाक के अधिकार पर अंकुश नहीं लगाया। जहां मुस्लिम पुरुष मध्यस्थता की कोई कोशिश किए बगैर अपनी बीवी को एकतरफा तलाक दे सकता है। शरीयत में क्या प्रावधान दिए गए हैं, इससे जुड़ी व्याख्याएं कई सारी जानी-मानी कानूनी हस्तियों ने की हैं। लेकिन कोई संवैधानिक कानून नहीं है। कानून की व्याख्याएं तब तक कानून नहीं बनती, जब तक कि उसे संसद पास नहीं करती। संसद में केवल 1937, 1939 व 1986 के कानून को अनुमोदित किया है। हसन ने बताया कि अल्जीरिया में पारिवारिक कानून कोड 1984, मिस्र में व्यक्तिगत स्थिति (संशोधन) कानून 1985, इराक में व्यक्तिगत स्थिति का कानून (संशोधन) 1987, जॉर्डन, व्यक्तिगत स्थिति का कानून 1976, कुवैत में 1984, लीबिया में 1984 इत्यादि कई मुस्लिम देशों में नए संशोधन हुए हैं पर भारत में ऐसा नहीं हुआ। राज्य मुस्लिम समुदाय और मुस्लिम महिलाओं की खराब स्थिति को खत्म करने में विश्वास कर रहे हैं। लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ पर चर्चा से मुस्लिम समाज के सभी वर्ग दूर भागते हैं। अब देश में मुस्लिम निजी कानून के संहिताबद्ध किए जाने की मांग हर स्तर पर उठाई जाएगी। सरकार मुस्लिम महिलाओं के लिए बात करना नहीं चाहती है।
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जन चेतना यात्रा का अत्यंत सफल समापन



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Published on 23th November 2011
अनिल नरेन्द्र
भाजपा के वरिष्ठ नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी में मानना पड़ेगा गजब का जज्बा है। इतनी उम्र होने पर भी वह नौजवानों से ज्यादा ऊर्जा रखते हैं। रविवार को आडवाणी ने अपनी 7000 किलोमीटर की 22 राज्यों और पांच केंद्र शासित प्रदेशों से होती हुई जन चेतना यात्रा पूरी की। दिल्ली में उनका क्या भव्य स्वागत हुआ। रामलीला मैदान या तो इतना अन्ना के आंदोलन के समय भरा था या फिर जन चेतना यात्रा की समाप्ति पर। हजारों की संख्या में लोग आडवाणी जी का स्वागत करने आए हुए थे। नगर निगम चुनाव से पहले श्री आडवाणी की जन चेतना यात्रा के समापन को राजधानी की भाजपा राजनीति में शक्ति परीक्षण के रूप में भी देखा जा रहा था और इस कार्यक्रम पर सभी की निगाहें लगी हुई थीं क्योंकि यहां का संदेश दूर तक जाना था। दिल्ली भाजपा अध्यक्ष विजेन्द्र गुप्ता ने लगता है कि रविवार के समापन के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी। इस सफल कार्यक्रम में उनका निजी कद भी बढ़ा है। बहुत कम भावुक होने वाले श्री आडवाणी यह कहने से अपने आपको रोक नहीं सके कि दिल्ली में इतना बड़ा जनसैलाब देखकर मैं अभिभूत हूं और दिल्ली सीमा से रामलीला मैदान तक 30 किलोमीटर के रास्ते में जो अभूतपूर्व स्वागत हुआ है उसे वह जीवनभर याद रखेंगे। आडवाणी जी का यह कहना अपने आप में कई मायनों में और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि वह इस समय पार्टी के शीर्षस्थ नेता हैं और दिल्ली के लिए अनजान नहीं हैं। उनकी स्थिति यहां तक है कि वह भाजपा के प्रदेश ही नहीं, मंडल से लेकर मोर्चों के पदाधिकारियों तक के नाम जानते हैं। किस क्षेत्र में वस्तुस्थिति क्या है उन्हें आज भी पता है। इसलिए अगर वह तैयारियों को सराहते हैं तो वह सही ही है। आडवाणी की इस लम्बी यात्रा ने तमाम देश में भाजपा के कार्यकर्ताओं को जगाने में मदद की है। जिस तरीके से देश के विभिन्न भागों में जनता उमड़ी उससे साफ है कि स्थानीय कार्यकर्ताओं और नेताओं ने बहुत मेहनत की है, जो लाखों कार्यकर्ता निराश होकर घर बैठ गए थे वह एक बार फिर सक्रिय हुए और सड़कों पर उतर आए। आडवाणी जी से मैंने राजस्थान के चुरु के सुजानगढ़ रैली के बाद पूछा कि आप इतने क्राउड का क्या आंकलन करते हैं? उन्होंने जवाब दिया कि आज पूरे देश में इस मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार के खिलाफ एक भारी रोष है, गुस्सा है और इस गुस्से को वह दर्शान के लिए यहां इकट्ठे हुए हैं। उन्होंने मुझे तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश के फोटो दिखाए। इन राज्यों में तो भाजपा की ज्यादा राजनीतिक मौजूदगी नहीं पर यहां की भीड़ देखकर मैं भी हैरान हो गया। जब मैंने उनसे पूछा कि राजनीतिक रूप से इस यात्रा का भाजपा को क्या फायदा होगा तो उनका कहना था कि यह भीड़ जरूरी नहीं हमें सब वोट दें। यह एक माहौल दर्शाता है। बाकी चुनाव में अभी समय है। हम प्रयास करेंगे कि चुनाव तक यह ढांचा बना रहे। इस यात्रा से भाजपा की एनडीए घटक दलों की संख्या बढ़ाने की कोशिश रंग लाती नजर आने लगी है। आडवाणी अपनी यात्रा के लिए एनडीए के दलों को साथ लाने में कुछ हद तक सफल भी रहे। शरद यादव, नीतीश कुमार, बादल परिवार तो यात्रा में साथ था ही रविवार के समापन समारोह में जयललिता ने अपना दूत भेजकर राजनीतिक संकेत दिया। दिल्ली में अपने भाषण में आडवाणी जी ने कहा कि यह यात्रा खत्म हुई है लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग पूरी नहीं हुई है। देश को संतोष मिलने तक यह जंग जारी रहेगी। सुबह जब मैं गाजियाबाद से चला था तो कोहरा था जो मौसम के कारण छट भी गया। लेकिन जो कोहरा आज भारत की राजनीति पर देश की अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार के भ्रष्टाचार के कारण छाया हुआ है, वह मौसम के कारण नहीं मिटेगा, वह जन चेतना और जनमत से ही दूर होगा। भ्रष्टाचार के मामले में घिरी केंद्र सरकार पर दबाव बनाने के लिए नई रणनीति के तहत उन्होंने भाजपा गठबंधन के सभी सांसदों से कहा कि राजग के सभी सांसद लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति को यह लिखकर दें कि वह यह घोषणा करते हैं कि भारत के बाहर किसी भी बैंक में उनका कोई अवैध खाता नहीं है न ही कोई अवैध सम्पत्ति ही है। मैं अपील करता हूं कि एक सप्ताह के भीतर इस तरह का पत्र सौंप दिया जाएगा।
रविवार को रामलीला मैदान में लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने भी मजा बांध दिया। अपने भाषण में सुषमा ने कहा कि जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को किसी भी मामले की कोई जानकारी नहीं है तो वह किस मर्ज की दवा हैं? और ऐसे प्रधानमंत्री की रहबरी पर हमें मलाल है। सभी मामलों में प्रधानमंत्री अपने सहयोगियों पर ठीकरा फोड़कर बरी होना चाहते हैं। घोटाला होने पर वह कहते हैं कि राजा से पूछो और महंगाई के मुद्दे पर शरद पवार से पूछो। जब प्रधानमंत्री को कुछ पता ही नहीं तो वह आखिर किस मर्ज की दवा हैं। सुषमा ने कहा कि मैंने लोकसभा में प्रधानमंत्री से एक शेर के जरिये सवाल किया था कि `तू इधर-उधर की बात न कर, यह बता कि काफिला क्यों लूटा, मुझे रहजनों से गिला नहीं, तेरी रहबरी का सवाल है।' इस पर प्रधानमंत्री ने एक गैर-प्रासंगिक शेर के जरिये जवाब दिया। उन्होंने कहा, `लेकिन अपने शेर का ही मैं आज प्रधानमंत्री को यह कहकर जवाब देती हूं कि मैं बताऊं कि काफिला क्यों लुटा, तेरा रहजनों (लुटरों) से वास्ता था और इसी का हमें मलाल है।'
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Tuesday, 22 November 2011

विनोद काम्बली के मैच फिक्सिंग आरोप में कितना दम है?


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 22th November 2011
अनिल नरेन्द्र
क्रिकेट में मैच फिक्सिंग एक ऐसा मकड़जाल है जिसमें फंसने से न तो खिल़ाड़ी बच पा रहे हैं और न ही आईसीसी इस पर लगाम कस पा रही है। वर्ष 2000 में भी जब दक्षिण अफ्रीका के पूर्व कप्तान हैंसी क्रोनिए सहित चार भारतीय क्रिकेटरों पर मैच फिक्सिंग का आरोप लगा था तो कोई ठोस सुबूत न मिलने पर भी उन्हें अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट से प्रतिबंधित कर दिया गया था। कुछ चौंकाने वाले सच उभरकर सामने आते उससे पहले ही क्रोनिए की एक विमान दुर्घटना में रहस्यमय ढंग से मौत हो गई। मैच फिक्सिंग में हाल ही में तीन पाकिस्तानी क्रिकेटर फंस गए और आजकल वे इंग्लैंड में जेल में हैं। अब 15 साल बाद विनोद काम्बली ने आरोप लगाया है कि 1996 का विश्व कप सेमीफाइनल मैच जो भारत और श्रीलंका के बीच था वह मैच फिक्स था। काम्बली ने तत्कालीन कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन सहित उस टीम के अन्य बल्लेबाजों और मैनेजर के इस फिक्सिंग में शामिल होने की बात कही है। काम्बली ने कहा कि जब अजहर ने टॉस जीतकर फील्डिंग करने का फैसला किया तो सारी टीम चौंक गई, क्योंकि हमने फैसला कर रखा था कि अगर हम टॉस जीतते हैं तो हम पहले बैटिंग करेंगे। इस इरादे से हमारे तीन-चार बल्लेबाजों ने पैड्स भी पहन रखे थे पर अजहर का यह फैसला हमारी समझ में नहीं आया और हम जीता हुआ मैच हारकर वर्ल्ड कप से बाहर हो गए। सिर्प विनोद काम्बली ने ही नहीं बल्कि तत्कालीन क्यूरेटर कल्याण मित्रा के बाद तत्कालीन भारतीय टीम के मैनेजर संवरन बनर्जी और श्रीलंकाई टीम के पूर्व लोकल मैनेजर समीर दास गुप्ता के सवाल से शक और गहरा गया है। समीर दास ने कहा कि मैंने श्रीलंका टीम के साथ चार-पांच दिन बिताए थे। श्रीलंका टीम भी टॉस जीतकर पहले बल्लेबाजी करना चाहती थी और उन्हें लगा कि भारतीय टीम भी ऐसा ही करेगी। लेकिन जब अजहर ने टॉस जीतकर पहले फील्डिंग करने का फैसला किया तो श्रीलंकाई टीम हैरान हो गई। इसके बाद सभी में खुशी की लहर दौड़ गई क्योंकि अब श्रीलंका के जीतने का चांस और बढ़ गया था। वहीं बनर्जी ने कहा कि मैं भी अजहर के फैसले पर हैरान हो गया जबकि क्यूरेटर मित्रा का कहना है कि पिच में कोई गड़बड़ी नहीं थी। अरविन्द डीसिल्वा ने शतक जबकि सचिन ने यहां पचासा ठोका था। टॉस के समय सुनील गावस्कर, रवि शास्त्राr और टोनी ग्रेग भी पिच पर मौजूद थे। टॉस जीतने के बाद सनी ने पूछा, क्या हुआ अजहर! उसने कहा, फील्डिंग। इस पर सभी हैरान रह गए।
विनोद काम्बली के बयान के बाद शक के घेरे में आए मोहम्मद अजहरुद्दीन ने इस आरोप को बकवास बताया और काम्बली से प्रश्न किया कि वह 15 साल के बाद क्यों आरोप लगा रहे हैं? विवाद की गम्भीरता भांपते हुए भारत सरकार के खेल मंत्रालय ने इसकी सीबीआई जांच करने को कहा है लेकिन बीसीसीआई के अधिकारी इस पर तैयार नहीं हैं। वहीं पूर्व कप्तान सौरव गांगुली ने अजहर से खुद को बेदाग साबित करने को कहा है। इससे एक दिन पहले अजहरुद्दीन ने अपना बचाव करते हुए काम्बली के इस बयान को बकवास करार दिया। साथ ही उन्होंने काम्बली को अपना मुंह बन्द रखने की नसीहत देते हुए कहा कि इस बात को 15 साल बाद उठाने का क्या मतलब है। लेकिन अजहर शायद यह भूल गए कि 1996 के वर्ल्ड कप के बाद ही साल 2000 में उन पर मैच फिक्सिंग का आरोप लगा था। दक्षिण अफ्रीका के तत्कालीन कप्तान हैंसी क्रोनिए ने जांच के दौरान भारतीय खिलाड़ियों का नाम लिया था। इस प्रकरण में बीसीसीआई जांच कमेटी के प्रमुख के. माधवन ने उन पर आजीवन प्रतिबंध और अजय जडेजा पर चार साल का प्रतिबंध लगाया था। लेकिन 2006 में अजहरुद्दीन पर से प्रतिबंध हटा लिया गया। यहां तक कि चैंपियंस ट्रॉफी के दौरान उन्हें सम्मानित भी किया गया। यह मामला आज भी लम्बित है। विनोद काम्बली ने रोते-रोते यह भी कहा कि इस मैच के बाद न केवल मेरा कैरियर खत्म हो गया बल्कि मेरे ऊपर कई आरोप लगे। कहा गया कि इसने क्लाइव लॉयड को गालियां दीं। यह बराबर पार्टियों में जाता था और लेट नाइट आता था। आईसीसी अध्यक्ष शरद पवार ने काम्बली के आरोप को सिरे से खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि आज इन आरोपों का कोई मतलब नहीं है। सचिन और काम्बली ने एक साथ अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में प्रवेश किया लेकिन काम्बली ने खेल पर ध्यान नहीं दिया। अगर ध्यान दिया होता तो आज हमारे पास एक नहीं दो सचिन होते। वहीं पूर्व क्रिकेटर सैयद किरमानी बोले कि अगर उन्हें मालूम था तो 15 साल पहले क्यों शिकायत नहीं की?
विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या वाकई काम्बली के पास मैच को पिक्स कहने का पुख्ता आधार है? अब तक काम्बली ने एक ही बात कही है कि कप्तान अजहरुद्दीन ने टॉस जीतने के बाद अचानक टीम के फैसले को पलट दिया। लेकिन अजहर ने ऐसा किया नहीं था। सच तो यह है कि उन्होंने वही किया जो टीम मीटिंग में तय हुआ था। टीम के कई सदस्यों और मैनेजर अजीत वाडेकर ने इसकी तस्दीक की है। इस आधार पर काम्बली का तर्प खारिज हो जाता है। अगर काम्बली के पास शक का कोई बिन्दु है तो वह उस तरफ साफ इशारा क्यों नहीं करते? काम्बली यह क्यों नहीं बताते कि उन्हें कैसे मालूम हुआ कि मैच फिक्सड था? अगर वे इतने ही आश्वस्त हैं तो उन्हें उन लोगों के नाम खुलकर बताने चाहिए। उन्होंने यह बात सचिन के साथ शेयर की थी क्या? विनोद काम्बली कुछ सालों पहले तक हमेशा दावा करते थे कि वे अपनी हर बात सचिन से शेयर करते थे लेकिन इतनी बड़ी बात क्या उन्होंने सचिन से शेयर की? इतने दिनों तक बीसीसीआई से भी क्यों छिपाई? फिक्सिंग की जांच करने वाली सीबीआई या माधवन कमेटी के साथ उन्होंने इसे साझा क्यों नहीं किया? वर्ष 1999 में सीबीआई ने इसकी जांच की थी। फिर माधवन कमेटी ने इसको आगे बढ़ाया। उसने उस दौरान तमाम लोगों से बात की। इसमें क्रिकेटर भी शामिल थे। उस दौर में रहने वाले हर क्रिकेटर से इन दोनों ने अपील की थी कि अगर उन्हें मैच फिक्सिंग के बारे में जरा-सा भी कुछ मालूम हो तो उसे साझा करें। तब काम्बली चुप क्यों बैठे रहे? जिस टीम की काम्बली बात कर रहे हैं उस टीम में सचिन तेंदुलकर, संजय मांजरेकर, नवजोत सिंह सिद्धू, अजय जडेजा, नयन मोंगिया, अजहर, श्रीनाथ, अनिल कुम्बले, वेंकटेश प्रसाद और आशीष कपूर शामिल थे, इनमें से कोई भी क्रिकेटर क्यों उनके साथ नहीं आ रहा? संजय मांजरेकर ने तो साफ कह दिया कि काम्बली गलत बोल रहे हैं। सचिन तो उनके खास मित्र हैं पर वह भी एक शब्द नहीं बोले? उस दिन विनोद काम्बली ने खराब प्रदर्शन क्यों किया? काम्बली उस दिन पांचवें नम्बर पर बैटिंग करने आए। उनकी इमेज वनडे में हिटर की थी। उन्होंने 29 गेंदें खेलीं। 49 मिनट क्रीज पर रुके। एक भी चौका नहीं लगाया। उन्हें खेलने में दिक्कत क्यों हो रही थी। क्या वो बताएंगे कि उन्होंने इतनी खराब बैटिंग क्यों की? दूसरी ओर प्रश्न यह भी उठता है कि ऐसी पिच पर जब सभी मान रहे हैं कि बैटिंग पहले करनी चाहिए थी फिर भी पहले बालिंग का फैसला क्यों किया गया? लक्ष्य का पीछा करते हुए भारत ने महज 22 रन पर अपने छह विकेट कैसे गंवाए? मैच से पहले कोच अजीत वाडेकर से कोई अनबन हुई थी और हां तो क्यों हुई थी? वाडेकर होटल छोड़कर घर वापस क्यों जा रहे थे? कौन-सा ऐसा जरूरी काम था जिसके चलते मैच से पहले टीम प्रैक्टिस रोक दी गई? क्या टीम मीटिंग में नवजोत सिंह सिद्धू ने पहले बल्लेबाजी करने की सलाह दी थी? टॉस के समय भारतीय ओपनर पैड बांधकर क्यों तैयार थे। कुल मिलाकर मामले की जांच जरूरी है। दोनों ओर के प्रश्नों के उत्तर जाने बिना किसी ठोस निष्कर्ष पर पहुंचना मुश्किल है और मामले की गहराई से जांच इसलिए जरूरी है ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो सके जिससे भविष्य में ऐसा कोई न कर सके।
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Sunday, 20 November 2011

दोधारी तलवार के बीच लटके आसिफ जरदारी

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 20th November 2011
अनिल नरेन्द्र
पाकिस्तान में अस्थिरता का दौर समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहा। एक तरफ कट्टरपंथियों का बढ़ता दबाव तो दूसरी तरफ राजनीतिक अस्थिरता। राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी बहुत चुनौतीपूर्ण समय से गुजर रहे हैं। अमेरिका, भारत और पश्चिमी देशों का अलग दबाव है। अमेरिका के ज्वाइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ के पूर्व चेयरमैन माइक मुलेन ने आसिफ जरदारी द्वारा भेजी गई सीकेट लेटर की पुष्टि की है। बताया जाता है कि जरदारी ने यह चिट्ठी पाकिस्तानी सेना द्वारा तख्तापलट की आशंका में अमेरिका भेजकर मदद मांगी थी। मुलेन ने कहा कि मुझे ऐसा मेमो मिला जरूर था, लेकिन मैंने उस पर ध्यान नहीं दिया था। उधर अमेरिका में पाकिस्तानी राजदूत हुसैन हक्कानी ने इस्तीफे की पेशकश की है। ऐसी रिपोर्ट सामने आई थी कि जरदारी ने सैन्य तख्तापलट के अंदेशे से ओबामा प्रशासन को गुप्त संदेश भेजा था जिसमें हक्कानी की भी कथित भूमिका थी। बताया जाता है कि इस संदेश में जरदारी ने पाक सेना की इस कार्रवाई को रोकने के लिए अमेरिका की मदद मांगी थी। बुधवार देर रात जनरल अशफाक कयानी आसिफ जरदारी से दोबारा मिले। मंगलवार को भी दोनों की मुलाकात हुई थी। हाल ही में जरदारी के एक भोजन में पाकिस्तानी सेना का कोई भी प्रमुख शामिल नहीं हुआ था। इससे इन अटकलों को बल मिला कि सरकार और सेना के बीच रिश्ते सामान्य नहीं हैं। बुधवार रात राष्ट्रपति निवास पर हुई बैठक में प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी भी मौजूद थे। राष्ट्रपति के प्रवक्ता फरातुल्लाह बाबर ने बैठक के बारे में विस्तृत जानकारी देने से इंकार कर दिया और महज इतना कहा कि तीनों नेताओं ने देश की सुरक्षा स्थिति पर चर्चा की।
कट्टरपंथियों की बढ़ती ताकत व निहायत खतरनाक मंसूबों से भी पाक सरकार की चिन्ताएं बढ़ गई हैं। खबर आई है कि लश्कर-ए-तोयबा अब न्यूक्लियर जिहाद का सपना देख रही है। इसके लिए उसने एक लम्बी रणनीति पर काम भी शुरू कर दिया है। लश्कर की योजना पाकिस्तानी परमाणु प्रतिष्ठान पर जिहादी मानसिकता में ट्रेनिंग पाए परमाणु वैज्ञानिकों के जरिये कब्जा करने की है। इस मकसद के लिए लश्कर अपने स्कूलों में अब इंग्लिश के साथ-साथ साइंस की पढ़ाई भी करवा रहे हैं। पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में ही लश्कर के ऐसे 175 स्कूल चल रहे हैं। आतंकवाद के मामलों के विशेषज्ञ आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के सीनियर फैलो विल्सन जॉन की ताजा किताब कैलिफेट्स सोल्जर्स ः द लश्कर ए तोयबाज लांग वॉर में पाकिस्तानी आतंकी संगठन लश्कर के खतरनाक इरादों का खुलासा किया गया है। विल्सन जॉन के मुताबिक, पाक सेना में अब जेहादी मानसिकता वाले अधिकांश अधिकारी आला पदों पर हैं। इसी तरह लश्कर ने इंग्लिश पढ़े-लिखे जेहादी छात्रों को पाकिस्तान के परमाणु प्रतिष्ठानों में भर्ती कराने की सोची समझी रणनीति पर अमल शुरू कर दिया है। जॉन के इस खुलासे से सारी दुनिया को सचेत हो जाना चाहिए। लश्कर के नापाक मंसूबे केवल जम्मू-कश्मीर या भारत-पाक तक समित नहीं हैं। यह पूरी दुनिया के लिए अलकायदा से भी बड़ा खतरा बनने जा रहा है। पाक सरकार पता नहीं इस अस्थिरता के दौर का सफल मुकाबला कैसे करेगी?
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नेताओं के दबाव के कारण जांच एजेंसियों की साख पर बट्टा


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 20th November 2011
अनिल नरेन्द्र
हमारी जांच एजेंसियों द्वारा विभिन्न केसों में की गई जांच अदालतों में ठहर नहीं पा रही है। इससे प्रश्न उठता है कि क्या राजनीतिज्ञ जांच एजेंसियों की केसों की जांच को प्रभावित करते हैं? राजनीतिक दबाव के चलते चाहे वह दिल्ली पुलिस हो, एनआईए हो या फिर सीबीआई ही क्यों न हो पिछले एक पखवाड़े में कम से कम चार ऐसे केस सामने आए हैं जिनमें अदालतों ने इन एजेंसियों को फटकार लगाई है और इनके जांच करने के तरीके और निष्कर्ष दोनों पर सवाल उठाए हैं। पहला केस मालेगांव बम विस्फोट का है। एक अदालत ने वर्ष 2006 के मालेगांव बम विस्फोट मामले में नौ आरोपियों में से सात को रिहा कर दिया। एनआईए ने कहा कि सलमान फारसी, शब्बीर मोहम्मद जाहिद और फारुगुई अंसारी को मुंबई के आर्थर रोड जेल से रिहा कर दिया गया। औपचारिकता पूरी होने के बाद एक अन्य आरोपी अबरार अहमद को भी वामदुला जेल से रिहा कर दिया। मामले के दो अन्य आरोपियों आसिफ खान और मोहम्मद अली को भी जमानत तो मिल गई पर इन्हें रिहा नहीं किया गया क्योंकि वे 2006 के मुंबई ट्रेन सिलसिलेवार विस्फोटों में भी आरोपी हैं। मामले की जांच कर रही राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने रिहाई का विरोध नहीं किया। एनआईए ने तर्प दिया कि मक्का मस्जिद बम विस्फोट मामले में गिरफ्तार स्वामी असीमानन्द के खुलासे के बाद उसने ताजा साक्ष्यों के अलावा पूर्व की जांच एजेंसी एटीएस और सीबीआई द्वारा जुटाए गए साक्ष्यों की समीक्षा की थी। एनआईए ने कहा, `तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर काफी सोच विचार के बाद सभी नौ आरोपियों के जमानत, आवेदनों का विरोध नहीं करने का फैसला किया गया जिन्हें पूर्व में गिरफ्तार किया गया था और आरोपी बनाया गया था।'
दूसरा केस सोहराबुद्दीन शेख मुठभेड़ से संबंधित है। सुप्रीम कोर्ट ने सोहराबुद्दीन शेख फर्जी मुठभेड़ मामले में गुजरात के पूर्व गृह राज्यमंत्री अमित शाह की कथित भूमिका पर सीबीआई को कड़ी फटकार लगाई है। सीबीआई ने कई अनाम पत्रों को शाह की फिरौती रैकेट में कथित भूमिका से जुड़ी शिकायतों के तौर पर पेश किया। एजेंसी के इस कदम को न्यायालय ने किसी को खुश करने का कदम बताया। न्यायमूर्ति आफताब आलम और न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई की पीठ ने कहा, `यह स्पष्टतया किसी को खुश करने के लिए उठाया गया कदम है, जो बिल्कुल गलत है।' सीबीआई ने अमित शाह के खिलाफ ऐसी लगभग 200 शिकायतें पेश की थीं, जिन्हें देखने के बाद पीठे ने कहा, `आपने (सीबीआई) ने हमसे कहा है कि प्रदेश सरकार ने इन शिकायतों पर कोई कार्रवाई नहीं की। इन पत्रों पर कोई कार्रवाई की ही नहीं जा सकती। ये शिकायतें पूरी तरह बकवास लग रही हैं।' सीबीआई ने गुजरात उच्च न्यायालय की ओर से शाह को जमानत दिए जाने की चुनौती दी है। इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा, `आपको हमारा सबसे अच्छा जांचकर्ता माना जाता है। अब आपको इन कमियों का जवाब देना होगा।' सुनवाई के दौरान शाह ने आरोप लगाया कि वह राजनीतिक साजिश का शिकार हुए हैं और सीबीआई ने उन्हें इस मामले में झूठा फंसाया है। शाह के वकील राम जेठमलानी ने कहा कि शाह राजनीतिक साजिश का शिकार हुए हैं और सीबीआई भी उसका एक भाग है।
तीसरा केस भी सीबीआई से संबंधित है। 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले की सुनवाई कर रही विशेष न्यायाधीश ओपी सैनी की अदालत में माननीय जज महोदय ने सीबीआई से साक्ष्यों को नष्ट करने में लग रहे आरोपों पर जानकारी मांगी है। सीबीआई को 23 नवम्बर तक जवाब देना है। सीबीआई पर आरोपियों ने कहा कि आरोप तय करने के आदेश में गलतियां और विरोधाभास हैं। निष्पक्ष सुनवाई के लिए उनमें सुधार की जरूरत है। आरोपी विनोद गोयनका ने सीबीआई पर आरोप लगाया है कि गवाह को अनाधिकृत तौर पर बुलाकर साक्ष्य प्रभावित किए जा रहे हैं। बुधवार को गवाही दे रहे रिलायंस अधिकारी एएन सेथुरमन ने बताया था कि उसके बयान के साथ छेड़छाड़ की गई है। गवाह ने दावा किया कि उसने हरी नायर के हस्ताक्षर की कभी भी पहचान नहीं की। इसके बावजूद सीबीआई ने इसे पेश कर दिया है। गोयनका के वकील माजिद मेनन ने कहा कि गवाह की याददाश्त ताजा करने के नाम पर सीबीआई द्वारा अपनाई गई कार्रवाई मामले को प्रभावित करने की तरह है। उन्होंने कहा कि सीबीआई को आदेश दिया जाए कि याददाश्त ताजा करने के नाम पर गवाह या साक्ष्यों को प्रभावित न करें।
चौथा केस हमारी दिल्ली पुलिस से संबंधित है। दिल्ली हाई कोर्ट ने बुधवार को साफ कर दिया कि कैश फॉर वोट मामला भ्रष्टाचार का नहीं बल्कि महज एक स्टिंग ऑपरेशन था। अदालत ने कहा कि ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है जिससे साबित हो कि मामले के अभियुक्त तीन सांसदों ने रिश्वत मांगी या ली। इतना ही नहीं, अगर वे रिश्वत लेते तो चुपचाप लेते न कि टीवी चैनल के समक्ष लेकर उसे इस प्रकार संसद में पेश करते। वही हमारी संसद सर्वोच्च है और संसद द्वारा गठित संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) ने भी साक्ष्य न होने पर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। अदालत ने यह टिप्पणी भाजपा के मौजूदा सांसद अशोक अर्गल तथा दो पूर्व सांसद फग्गन सिंह कुलस्ते और महावीर सिंह भगोरा सहित सभी छह अभियुक्तों की जमानत स्वीकार करते हुए की। जस्टिस एमएल मेहता ने अपने फैसले में कहा कि दर्ज प्राथमिकी और आरोप पत्र का अध्ययन करने से वह महसूस करते हैं कि सांसदों व अन्य के खिलाफ कोई साक्ष्य नहीं है। इसके अलावा सीएफएसएल की रिपोर्ट से भी साफ है कि टीवी चैनल की ओर से स्टिंग ऑपरेशन की सीडी व ऑडियो में किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं की गई। किसी भी सांसद और अन्य ने कथित रिश्वत की राशि से फायदा नहीं उठाया। अदालत ने यह भी कहा कि वही दूसरी ओर अभियोजन पक्ष का केस भी यही है कि उक्त सांसद व अन्य अभियुक्तों का उद्देश्य मात्र कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की मिलीभगत का पर्दाफाश करना था।
उक्त केसों से साफ है कि राजनीतिज्ञों के दबाव के कारण हमारी जांच एजेंसियों की साख पर बट्टा लग रहा है। राजनेता जबरन अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए जांच एजेंसियों पर नाजायज दबाव डलवाकर झूठे केस बनवाते हैं जो अदालतों में जाकर उड़ जाते हैं। दुःखद पहलू यह है कि यह सिलसिला चलता रहेगा और जल्द एक भी एजेंसी ऐसी नहीं रहेगी जिसकी जांच पर जनता विश्वास कर सके।
2G, Amar Singh, Anil Narendra, Cash for Vote Scam, CBI, Daily Pratap, delhi Police, NIA, Vir Arjun

Saturday, 19 November 2011

Beware, threat is looming large

Afif Ahsen
India's economy is considered to be among world's fifteen largest economies. Following liberalization and economic reforms policy in 1991, development in India took on wings and India emerged as an economic super power in the world. Prior to reforms, especially Indian industry and business was reeling under government control. In the beginning, reforms were severely opposed, but the protest petered down to large extent after beneficial results of these reforms were visible. But there is still a large section, which has not been benefited with these reforms and is not happy with the reforms.
India's current account balance of payment has been negative since independence. Under the pressure of the balance of payment crisis, in the wake of economic reforms of 90s, Indian exports witnessed an increasing trend. Country's export during 2002-03 was 80.3 %, whereas it was only 66.2% in 1990-91. It, however, came down to 61.4 % only following the great recession in world trade due to global economic crisis. India's constant and fast increasing oil import bill is considered to be an important factor behind the widening current account deficit, which increased to 118.7 billion $ or 9.7% of GDP in 2008-09. India imported crude oil worth 82.1 billion $ during January to October 2010.
India's exports and imports registered a decline of 29.2% and 39.2% respectively during June 2009 due to the global recession towards the end of 2000. This sharp decline was due to the fact that US and EU countries were the most affected by the global financial markets, whose share in Indian exports amounted to more than 60%. But fortunately there were considerable decline in imports in comparison to the exports and due to this India's fiscal deficit was reduced to 25,250 crores of rupees. The decline in oil prices also played an important role in this. In view of worldwide recession, FII started to invest in India with the objective of exploring better sources of income and the resultant decline in exports was, to a large extent was compensated by FDI.
But, after US announcement of increasing the loan accepting limits, FII has started withdrawing its money from India and investing it in US, which has resulted in constant increase in price of dollar vis-à-vis rupee and foreign exchange reserve is constantly shrinking.
According to an RBI report, foreign exchange reserve was 15,43,811 crore rupees in week ending 11th November 2011, which is 20,642 crore rupees less than previous week. Today, the rupee is at the lowest level vis-à-vis dollar in the last 30 months. It appears that a phase of recession has set in, in the Indian economy, which is clearly reflected by the 1.9% decline in industrial production, which is quite high in comparison to two years' decline. This decline in Industrial Production Index for September is quite high to the strong 6.1% for September last year. During this financial year, the Industrial Production Index was stationary at 5% during April to September, where it was 8.2% during the same period of last year. Principal Economic Adviser, Kaushik Basu said that IPI for September are subject of grave concern and he says that global economic situation is responsible for this. Commenting on IPI for September, released on Friday, General Secretary, FICCI, Rajiv Kumar said that the outlook for industrial development has worsen during last few months. Businesses have been adversely influenced by the uncertainty of the economic environ and the negative development in capital goods and non-durable goods sectors reflects the mistrust of consumers. There have been decline of 6.8% in capital goods sector. Negative development has been registered in the readymade garments and textile sector during last few months.
This will adversely affect jobs in the country, as after agriculture, this is the biggest sector providing employment to people. It appears that the reason for this biggest decline in two years is due to increase in interest rates by RBI and unbridled inflation, which has resulted in decline in purchasing power of people. It is surprising that this has happened immediately after the festival season, during which it was expected of people to spend more.
Tax collection by the government has also gone down considerably due to lesser industrial production and increase in production cost. Petrol-prices are being increased daily. This is being done with a view to directly increase the government revenue, resulting in the increase in government's income. Meanwhile, Moody has down-graded the ratings of Indian banks. Reacting irresponsibly, the government has said that this rating is meaningless, as domestic loan provider is in a better position in comparison to its global colleagues. He is not worried. We are not influenced by this downgrading. In view of performance of global banks, we are quite strong and ratings have no meaning for us. Secretary, Financial Services, DK Mittal said that Moody has said that increase in the recession in domestic and foreign economies has been influencing the capitalization of Banks' assets standard and profits. Moody has said in the report that in view of quality, we fear the situation will worsen within next 12 to 18 months. Thus there will be increase in problems of banks during 2012 and 2013 financial years.
Senior BJP leader and former Finance Minister, Yashwant Sinha has expressed concern over country's economic situation. BJP has announced its decision to demand debate in both the Houses on deteriorating economic condition of the country. Expressing dis-satisfaction and concern over industrial development statistics released by the government, Yashwant Sinha said that there is hardly a thing in our economy which could make us happy. He said that condition of our economy is causing concern and the revenue deficit declared in the statistics released by the government, is far from the budget target. He said that if we compare industrial development of this period of last year, with that of April, then we will see that there has been decline of more than five per cent. The former Finance Minister said that on one side the condition of our economy is very grave, while on the other hand our Prime Minister is certifying good work to Heads of the States of other countries.
In an advisory tone, the former Finance Minister has said that the nation expects Prime Minister would call a press conference and explain the country about the economic health of the country. Our country is reeling under grave industrial crisis and our government is not cutting unnecessary and unessential expenditure. It is possible that no road has been constructed in your village, but in cities a single road is being constructed again and again during a year. Old footpaths are demolished and new ones are constructed. Old parks are re-developed, new memorials of departed leaders are constructed, not only departed, but statues of living leaders are installed and whenever the issue of spending on very essential heads comes up, then every government, whether it is state government of the central government, shakes off its responsibility and starts lamenting for the paucity of funds. Our government is lacking funds for its own needs, but it is trying to please other countries and promising them large-hearted aid.
Manmohan Singh has declared aid for Maldives and Pranab Mukherjee is talking of helping Europe and of pulling them out of crisis. In order to improve its financial condition, the government is also trying to get the additional cash reserves with public undertakings transferred to it, so that it can meet its expenses. If the government does not awake to the situation, it appears the country would head from bad to worse and then India will have to face the situation, that is prevailing in US and Europe.
In a couplet, Vasim Barelavi says first priority is to save the house, its decoration comes at a later stage. This fits to the present situation of the country.

पेट्रोल कीमतों पर सरकारी दलीलों का पर्दाफाश



Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 19th November 2011
अनिल नरेन्द्र
महज एक पखवाड़े में पेट्रोल की बढ़ी कीमतें वापस होना अगर चमत्कार नहीं तो आश्चर्यजनक जरूर है। पिछले 33 महीनों में यह सिर्प दूसरा मौका है जब पेट्रोल की खुदरा कीमतों में कटौती की गई है। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह कटौती क्यों की गई है? और कि पेट्रो पदार्थों पर आखिर नियंत्रण किसका है? कांग्रेस पार्टी इसका पूरा श्रेय लेने के चक्कर में है। क्या उत्तर प्रदेश में चुनावी अभियान की शुरुआत कर चुके कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी को केंद्र सरकार हर तरह का समर्थन कर रही है? यही वजह है कि राहुल के अभियान शुरू करने के एक दिन बाद ही सरकारी तेल कम्पनियों ने राहत देते हुए पेट्रोल की खुदरा कीमत में सवा दो रुपये तक की कटौती का ऐलान किया। संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने जा रहा है। शायद सरकार ने सोचा हो कि दबाव कम किया जाए। फिर पब्लिक का विरोध भी सरकार को भारी पड़ रहा था। पब्लिक के साथ सरकार के सहयोगी दल खासकर तृणमूल कांग्रेस का दबाव भी एक कारण जरूर रहा। अब सवाल यह है कि आखिर पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों पर नियंत्रण किसका है? यूपीए सरकार से जब कीमत बढ़ाने की सफाई मांगी गई थी तो उसके प्रतिनिधि के रूप में वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि पिछले साल जून में हुए डिरेग्यूलेशन के बाद पेट्रोल की कीमतें तय करने का अधिकार पूरी तरह से ऑयल मार्केटिंग कम्पनियों के पास चला गया है। खुद प्रधानमंत्री ने विदेश से इस बारे में टिप्पणी की थी कि पेट्रोल तो पेट्रोल, धीरे-धीरे सारी ही चीजों की कीमतें तय करने का काम पूरी तरह बाजार पर छोड़ना उनकी सरकार की मुख्य प्राथमिकता है। यही नहीं, डॉ. मनमोहन सिंह ने यहां तक कहा था कि बढ़ी हुई पेट्रोल की कीमतें कम नहीं होंगी? ऐसे में यह चमत्कार आखिर कैसे हुआ कि ऑयल मार्केटिंग कम्पनियां (ओएमसी) पेट्रोल के दाम हाल की बढ़त के पहले वाले स्तर से भी थोड़ी नीचे लाने को तैयार हो गई? इन कम्पनियों के आला अफसरों का कहना है कि ऐसा उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों और डालर के मुकाबले रुपये के रुझान को दखते हुए किया है। इन दोनों रुझानों को गौर से देखें तो लगेगा कि इस फैसले के पक्ष में इससे ज्यादा लचर दलील और कोई हो ही नहीं सकती। डालर के मुकाबले रुपया फिलहाल पिछले 33 महीनों के सबसे निचले स्तर पर चल रहा है। लिहाजा ओएमसी मैनेजरों के लिए इस मोर्चे पर कुछ कहने की जगह ही नहीं बनती। कच्चे तेल की कीमतों में कुछ न कुछ घट-बढ़ रोज रहता है, लेकिन इस बाजार के विश्लेषकों का कहना है कि पिछले एक पखवाड़े में भारत के लिए इसकी औसत कीमत 108 से बढ़कर 110 डालर प्रति बैरल हो गई। जाहिर है कि पेट्रोल की कीमतें बाजार के किसी रुझान के तहत नहीं बल्कि राजनीतिक दबावों के चलते नीचे आई है और सरकार ने ऐसा करके अपने आपको एक्सपोज ही किया है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट की दलील बेतुकी लगती है। जून 2010 में पेट्रोल मूल्य नियंत्रण मुक्त किए जाने के बाद से कीमतों में लगभग 23 रुपये का इजाफा हुआ है इसलिए यह कमी `ऊंट के मुंह में जीरा' के समान ही है। वैसे देखा जाए तो पिछले डेढ़ साल में पेट्रोल की कीमतों में 13 बार वृद्धि की गई है जबकि कमी पिछले 33 महीनों में पहली बार की गई है। हकीकत तो यह है कि चौतरफा दबाव को देखते हुए यूपीए सरकार बौखला गई। इस दबाव को देखकर कांग्रेस आला कमान और सरकार ने देरी से ही सही आत्ममंथन तो किया कि महंगाई के मुद्दे पर पहले ही पार्टी की काफी किरकिरी हो चुकी है। ऐसे में पेट्रोल मूल्यों में वृद्धि उसे विधानसभा चुनावों में कहीं नुकसान न पहुंचा दे। इन हालात को देखते हुए केंद्र सरकार हरकत में आई और उसने पेट्रोल कम्पनियों पर कीमत कम करने का दबाव बनाया। वैसे यह सब नाटक था क्योंकि इंडियन ऑयल के चेयरमैन पहले ही कह चुके थे कि अगर सरकार कहे तो हम कीमतें घटाने को तैयार हैं। कुल मिलाकर सरकार की इस दलील की एक झटके में हवा निकल गई कि सरकार का पेट्रो पदार्थों की कीमतों पर कोई नियंत्रण नहीं और साथ-साथ यह भी साबित हो गया कि सरकार ने पेट्रोल की कीमतों में यह कमी सिर्प मतदाताओं को खुश करने की खातिर की है और चुनाव प्रक्रिया खत्म होते ही तेल कम्पनियों को खुश करने के लिए कीमतों में दोगुनी वृद्धि की जा सकती है।
Anil Narendra, Daily Pratap, Petrol Price, Prime Minister, Trinamool congress, UPA, Vir Arjun