Saturday 12 September 2015

बिहार में इस बार किसकी मनेगी दीवाली

बिहार के प्रमुख राजनीतिक दल लड़ाई का बिगुल पहले ही पूंक चुके हैं, लेकिन अब बेहद अहम चुनावी संघर्ष की तारीखें उनके सामने हैं। निर्वाचन आयोग ने पांच चरणों में मतदान कराए जाने का ऐलान किया है। बिहार में इस बार त्यौहारों का मौसम चुनावी आतिशबाजियों से और जगमग दिखेगा। देखना यह होगा कि दीवाली कौन मनाता है? तारीखों की घोषणा के वक्त चुनाव आयोग ने खुद ईद, मोहर्रम, विजयदशमी, दीवाली और छठ पर्वों की चर्चा की और आश्वस्त किया कि सब कुछ दुरुस्त ही गुजरेगा। राज्य की 243 सीटों के चुनाव को करीब तीन हफ्तों तक खींचने के पीछे आयोग का खास मकसद है। इस बार प्रत्येक पोलिंग स्टेशन पर केंद्रीय सुरक्षा बलों की तैनाती रहेगी। वोटरों को स्थानीय अराजक तत्वों की दहशत से मुक्त रखने की खास तैयारी है क्योंकि ऐसे मौकों पर स्थानीय प्रशासन या पुलिस बेअसर नजर आती है। त्यौहारों का फायदा यह भी मिलेगा कि देश के दूरदराज के इलाकों से करोड़ों बिहारी इस मौके पर अपने गांव घरों में मौजूद होंगे और वे उल्लास से अपने लोकतांत्रिक अधिकार का प्रयोग भी करना चाहेंगे। इस बार दो गठबंधन आमने-सामने हैं। दोनों के बीच बराबरी का मुकाबला माना जा रहा है। इस महाभारत में पूर्व के दोस्त (भाजपा-नीतीश) विरोध में खड़े हैं तो कट्टर दुश्मन (लालू-नीतीश) एक साथ दिख रहे हैं और उनके साथ है सोनिया गांधी की कांग्रेस। लालू-नीतीश की कोशिश होगी कि मोदी की एनडीए (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) पराजित हो तो एनडीए की कोशिश होगी कि लालू-नीतीश का बेमेल डीएनए सत्ता से बाहर हो जाए। इस बार निर्वाचन आयोग ने एक और पहल की है। वोटिंग मशीनों पर उम्मीदवारों की तस्वीर दिखाने का फैसला किया गया है। इससे मतदान के समय एक जैसे नाम या चुनाव चिन्ह निशान के कारण पैदा होने वाले भ्रम से बचा जा सकेगा। बिहार का चुनाव पहले से ही राष्ट्रीय दिलचस्पी का विषय बन चुका है। अब देश का ध्यान बिहार पर और भी ज्यादा केंद्रित होगा, इसलिए 12 अक्तूबर से लेकर पांच नवम्बर तक होने वाले मतदान से देश की राजनीतिक दिशा तय होगी। दांव पर है एक तरफ सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सियासी जादू तो दूसरी तरफ कथित धर्मनिरपेक्ष दलों का भविष्य भी इससे तय होगा। तय तो यह भी होगा कि क्या इस बार बिहार में जाति, धर्म, गरीबी इत्यादि प्रमुख मुद्दों को क्या विकास का दावा दबा सकेगा? क्या मोदी नेतृत्व वाली गठबंधन सामाजिक समीकरण को हरा पाएगा? मोदी के साथ नीतीश का मुद्दा भी विकास है लेकिन एनडीए लालू को उसका रोड़ा मानकर नीतीश को चिढ़ाने से बाज नहीं आ रहा है। वह लालू के जंगल राज को याद कराना नहीं भूलता। नीतीश, लालू और सोनिया के एक साथ आने से बिहार में एक नया समीकरण बना है। बुद्धिमान लोगों का यह भी कहना है कि यहां जात-पात बिना कुछ नहीं चलता और इस मुद्दे पर नीतीश-लालू समीकरण मोदी पर हावी हो सकता है। अकबरुद्दीन ओवैसी के बिहार में चुनाव लड़ने से भी ध्रुवीकरण होने से इंकार नहीं किया जा सकता। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने पहले ही नीतीश-लालू को झटका देकर बिहार की पूरी सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर रखा है तो छह वामदलों ने भी संयुक्त रूप से मैदान में उतरने की घोषणा कर रखी है। इससे भाजपा गठबंधन को वोट बंटवारे का लाभ मिल सकता है। वहीं यदि मांझी और पासवान के बीच सुलह की स्थिति नहीं बनती है तो इसका नुकसान एनडीए को उठाना पड़ेगा क्योंकि राज्य में 20 फीसदी मतदाता दलित हैं। मगर असल सवाल तो बिहार के साढ़े छह करोड़ मतदाताओं का है, जिनका भविष्य इस चुनाव से जुड़ा हुआ है। क्या वे जातिवाद और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से बाहर निकलकर सिर्प विकास के मुद्दे पर साफ-सुथरी सियासत व साफ-सुथरे उम्मीदवारों को इस बार वोट देंगे?

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