Tuesday 15 September 2015

नौ साल बाद इंसाफ तो हुआ पर अधूरा है

अंतत नौ साल पहले 11 जुलाई 2006 को मुंबई की सात लोकल ट्रेनों में हुए बम धमाकों में शुक्रवार को मुंबई की मकोका अदालत ने अपना फैसला सुना दिया। मुंबई की लोकल ट्रेनों में एक के बाद एक सात सिलसिलेवार बम धमाके में 180 से अधिक लोगों की जान गई और सैकड़ों घायल हुए थे। दोषियों में एक कमाल अहमद अंसारी ने नेपाल बॉर्डर के रास्ते पाकिस्तानी आतंकवादियों को मुंबई तक लाने का काम किया। उसने एक लोकल ट्रेन में बम भी रखा जो माटूंगा रेलवे स्टेशन पर फटा था। विशेष न्यायाधीश यतिन डी. शिंदे ने बचाव और अभियोजन पक्ष की दलीलें सुनने के बाद 13 में से 12 को दोषी करार दिया। कोर्ट ने 12 आरोपियों को आईपीसी धारा 302 व मकोका के तहत दोषी पाया। इसमें मौत की सजा का प्रावधान है और हम भी मृत्युदंड की मांग करेंगे कहा कोर्ट के बाहर सरकारी वकील राजा ठाकरे ने। वहीं इस मामले में तत्कालीन एटीएस चीफ केपी रघुवंशी ने कहा कि आरोपियों के खिलाफ हमने जो सबूत पेश किए थे, कोर्ट ने उन्हें सही माना। एक आरोपी को बरी करने के फैसले को हम देखेंगे और सोचेंगे कि हमसे चूक कहां हुई। इस फैसले से प्रभावित परिवारों को जरूर थोड़ी राहत मिली होगी। इन धमाकों में 188 लोग मारे गए थे और 800 से ज्यादा जख्मी हुए थे। जख्मी लोगों को इलाज के सिलसिले में कई-कई महीनों तक अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा था और बड़ी संख्या में लोग विकलांग हो गए। इन धमाकों से प्रभावित लोगों और उनके परिजनों के नुकसान की भरपायी तो नहीं हो सकती, लेकिन मुंबई की विशेष मकोका अदालत के फैसले से दोषियों को सजा मिलने से उन्हें सुकून जरूर हुआ होगा। इस हमले को देश के खिलाफ युद्ध के रूप में देखा गया जिसमें पाकिस्तान आधारित आतंकी संगठन लश्कर--तैयबा का हाथ था। उसमें दोषी लोगों को सजा सुनाने में जो देरी हुई उससे आतंकवाद से निपटने की देश की प्रतिबद्धता को लेकर भी सवाल उठते हैं। यह बार-बार कहा जाता है कि आतंकी हमलों को अंजाम देने वाले लोगों को सजा सुनाने में यथासंभव शीघ्रता का परिचय दिया जाना चाहिए, लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। इसके चलते आतंकियों, उनके समर्थकों और संरक्षकों को जैसा संदेश जाना चाहिए वह नहीं जा पा रहा है। नौ साल की देरी इसलिए कहीं अधिक है क्योंकि अभी मामला ऊपरी अदालतों में जाएगा और आश्चर्य नहीं कि अंतिम फैसला आने में एक-दो साल और लग जाएं। आमतौर पर देरी कई स्तरों पर होती है। पहले तो पुलिस की जैसी जांच-पड़ताल है उससे तो सभी परिचित हैं उसके बाद हमारी अदालती कार्यवाही कहीं अधिक समय लेती है। बचाव पक्ष भी सुनवाई टालने, गवाही इत्यादि में मुकदमे को लम्बा खींचते हैं, रही-सही कसर कभी-कभी सुप्रीम कोर्ट भी निकाल देती है। इस मामले में करीब-करीब दो साल तक अदालती प्रक्रिया इसलिए ठप रही क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने मुकदमे पर रोक लगा दी थी। इस मामले में दोषियों को  संभवत जल्द ही सजा सुनाई जा सकती है। वांछित आतंकियों के बगैर यह सजा अधूरी मानी जाएगी।

-अनिल नरेन्द्रa

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