Saturday, 19 September 2015

स्मार्ट गांव तो अवश्य बनाओ पर पहले सूखे से तो निपटो

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने ग्रामीण इलाकों में सड़कें और रेलवे विस्तार के साथ स्मार्ट गांव बनाने की कई महत्वाकांक्षी योजनाओं को मूर्त रूप देने की तैयारी की है जिसका तहेदिल से हम स्वागत करते हैं पर देश के अन्नदाता किसान की आज भी जिन्दगी, समृद्धि, खुशहाली बारिश पर आधारित है और इस दिशा में सरकार से ज्यादा उसे मानसून पर निर्भर रहना पड़ता है। मानसून की दगाबाजी ने कमोबेश देश के आधे हिस्से का जो बुरा हाल किया है उसे देखते हुए हमारी राय में आज पहली जरूरत गांवों के अस्तित्व को बचाने की दिखती है। मानसून की हालांकि अभी विदाई की औपचारिक घोषणा तो नहीं हुई है लेकिन अब तक के रिकॉर्ड से पता चलता है कि लगातार दूसरे वर्ष देश को सूखे से जूझना होगा। इस समय देश का 44 फीसदी हिस्सा बारिश की कमी से जूझ रहा है। उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब जैसे खेती बाहुल्य राज्य सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं। भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) के अनुसार पूरे देश में अभी तक सामान्य से 16 फीसदी कम वर्षा हुई है। आईएमडी की मानें तो सोमवार तक देश के महज छह फीसदी हिस्से में सामान्य से अधिक बरसात दर्ज की गई है। वहीं 50 फीसदी इलाके में सामान्य बारिश हुई है। सबसे नाजुक स्थिति उत्तर प्रदेश की है। प्रदेश के पूर्वी हिस्से में करीब 42 फीसदी और पश्चिमी हिस्से में 44 फीसदी कम बारिश हुई है। महाराष्ट्र में मराठवाड़ा के तीन जिले भीषण सूखे की चपेट में हैं। इस साल जनवरी से अब तक बीड़, उस्मानाबाद और लातूर के 400 से ज्यादा किसान मौत को गले लगा चुके हैं। सूखाग्रस्त जिलों में बारिश नहीं होने के कारण खरीफ की फसल पूरी तरह से चौपट हो चुकी है। कम बारिश होना और सूखा पड़ना भारत के लिए कोई नई बात नहीं है। देश में 2005 से 2015 तक यानि 11 सालों में सात वर्ष ऐसे रहे हैं जब सामान्य से कम या बहुत कम बारिश हुई है। मौजूदा साल इस मामले में सबसे खराब वर्ष साबित हुआ। इस साल अब तक सामान्य से 13 फीसदी वर्षा कम हुई है। भारत के कुछ हिस्सों को छोड़ दिया जाए तो बारिश के कारण खेती बुरी तरह प्रभावित हुई है। अनुभव तो यही बताता है कि खराब मानसून का सीधा असर जीडीपी पर पड़ता है जिसमें कृषि क्षेत्र का योगदान 15 फीसदी के आसपास होता है। सरकार ने आठ फीसदी विकास दर की उम्मीद जताई थी जिसके विपरीत पिछले पखवाड़े में ही इसके सात फीसदी तक रहने का अनुमान जताया गया है। सवाल यह है कि एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था आखिर कब तक प्रकृति की मोहताज बनी रहेगी जबकि देश की दो-तिहाई आबादी आज भी खेत-खलिहानों के भरोसे पेट चलाती है। भूलना नहीं चाहिए कि जिन चार राज्यों में आज सूखा मंडरा रहा है वहां से देश के खाद्य उत्पाद का करीब एक-तिहाई भाग बनता है। सूखे की चुनौती सिर्प खेती तक ही सीमित नहीं है, लगातार मानसून कमजोर रहने से भूजल स्तर भी नीचे आ जाता है जिससे निपटने के लिए गंभीर प्रयासों की सख्त जरूरत है।

-अनिल नरेन्द्र

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