Thursday, 17 September 2015

इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के बाद शिक्षा मित्रों में हताशा

उत्तर पदेश की अखिलेश यादव सरकार को हाई कोर्ट से झटके पर मटके मिल रहे हैं तो इसके लिए उसकी अपारदर्शी कार्यपणाली ही जिम्मेदार है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने करीब पौने दो लाख शिक्षा मित्रों को शिक्षक बनाने के सरकार के फैसले को उलट दिया और कहा कि मानकों का पालन नहीं किया गया है। हाई कोर्ट को यह मामला इतना जरूरी लगा कि अवकाश के दिन शनिवार को तीन सदस्यीय बेंच ने सर्वसम्मति से सरकार के फैसले को पलटते हुए सारी नियुfिक्तयों को रद्द कर दिया। इस फैसले की राज्य में भयंकर पकिया होना स्वाभाविक ही था। राज्य के अलग-अलग जिलों में शिक्षा मित्रों की सदमे से मौत या खुदकुशी करने के मामले सामने आ रहे हैं। अब तक छह शिक्षा मित्रों की जान जा चुकी है। पूरे राज्य में जगह-जगह हा-हाकार मची हुई है। स्कूल बंद किए जा रहे हैं, टेनें रोकी गईं वहीं सम्भल में ज्ञापन देकर राष्ट्रपति तथा पधानमंत्री से इच्छा मृत्यु की अनुमति की गुहार लगाई गई है। बरेली में शिक्षा मित्रों ने बैठक कर कलेक्ट्रेट पर पदर्शन के बाद डीएम को ज्ञापन दिया। ज्ञापन में राष्ट्रपति को पत्र भेजकर इच्छा मृत्यु देने का अनुरोध किया गया है। इनकी संख्या 3400 है। फैजाबाद के आदित्य नगर में शिक्षा मित्रों की बैठक के दौरान एक शिक्षा मित्र को हार्ट अटैक आ गया उसको गंभीर हालत में जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया है। शिक्षा मित्रों की हड़ताल के कारण सैकड़ों पाइमरी स्कूल बंद हैं। पदेश में एक लाख 72 हजार शिक्षा मित्रों के सामने आजीविका की समस्या खड़ी हो गई है। इसके अलावा ज्यादातर शिक्षा मित्रों की उम्र सरकारी नौकरी पाने के लिए निर्धारित आयु से ज्यादा हो चुकी है, लिहाजा वे दोराहे पर खड़े हो गए हैं। बेशक शिक्षा मित्रों की पीड़ा समझी जा सकती है जिनमें से कुछ ने हताशा में आत्महत्या जैसा कदम भी उठाया है। लेकिन इस पूरे पसंग में उत्तर पदेश सरकार की भूमिका ज्यादा कचोटने वाली है। स्थाई और पशिक्षित शिक्षकों की नियुqिक्ति की बजाय सूबे की पाथमिक शिक्षा करीब डेढ़ दशक से जिस तरह शिक्षा मित्रों के हवाले कर दी गई, अव्वल तो यही बहुत हैरान करने वाली बात है। जिस तरह उत्तर पदेश की सरकारें ने इन शिक्षा मित्रों को स्थाई शिक्षक बनाने की शुरुआत की थी वह भी नियम-कानून को ताक पर रखकर। इससे शिक्षक बनने की लाइन में लगे बेरोजगार नौजवानों को बड़ा आघात तो पहुंचा ही लेकिन उन्हें इसके लिए हाई कोर्ट को दोषी मानने की बजाय सरकार की अपारदर्शी कार्य पद्धति को दोषी मानना चाहिए। इन नियुक्तियों में मायावती सरकार के समय की गई नियुक्तियां भी शामिल हैं। लिहाजा मायावती भी कठघरे में हैं। इससे पहले हाई कोर्ट ने साढ़े 38 हजार सिपाहियों की नियुक्तियां भी रद्द की थीं। नोएडा समेत तीन पाधिकरणों के चीफ इंजीनियर यादव सिंह का आर्थिक गोलमाल जब सामने आया तो पूरी सरकार उसके साथ खड़ी हो गई। उसकी सीबीआई जांच का विरोध करने के लिए सुपीम कोर्ट तक पहुंच गई। सुपीम कोर्ट ने सरकार को फटकारा था। बीती सदी के आठवें दशक में पाथमिक शिक्षा के विकेद्रीकरण और स्थानीय युवकों को रोजगार देने के लिए शिक्षा मित्रों की जो शुरुआत की गई थी वह एक पयोग के तौर पर तो ठीक मानी जा सकती है पर जब राज्यों ने इसे भी अध्यापकों की भर्ती का तरीका मान लिया। एक के बाद एक राज्य में पाथमिक शिक्षा ठेके पर नियुक्त शिक्षकों के हवाले कर दी गई। बेहतर हो कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह फैसला दूसरे राज्यों में भी शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त इस विसंगति को दूर करने का अवसर बने। इससे हमारी शिक्षा व्यवस्था भी बेहतर होगी, जब शिक्षकों की पतिभा, योग्यता और उनके पशिक्षण को पाथमिकता दी जाएगी। पर फिलहाल तो उत्तर पदेश की अखिलेश सरकार इस फैसले से सकते में आ गई है। संभव है कि सरकार इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को सुपीम कोर्ट में चुनौती दे और इस फैसले पर स्टे करवाए। तब तक उसे इस नई समस्या से कैसे जूझना है। इस पर तत्परता से विचार करना होगा।

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