Wednesday, 2 November 2016

न्यायपालिका-कार्यपालिका आमने-सामने

कोलेजियम की सिफारिशों के बावजूद केंद्र सरकार की ओर से हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति में देरी पर सुप्रीम कोर्ट ने जबरदस्त नाराजगी जाहिर की है। इस नाखुशी को कुछ हद तक समझा भी जा सकता है। हमारे यहां की अदालतों में जजों की कमी इतनी बड़ी समस्या है कि इस वजह से मुकदमों की सुनवाई में वर्षों-दशकों लग जाते हैं। केंद्र से खफा सुप्रीम कोर्ट ने यहां तक शुक्रवार को पूछ लिया कि क्या सरकार देश में न्याय-व्यवस्था पर ताले जड़ना चाहती है? क्या इसका इरादा पूरी न्यायिक व्यवस्था तबाह करने की है? न्यायपालिका और कार्यपालिका के मौजूदा गतिरोध को देखकर यही कहा जा सकता है कि कोलेजियम प्रणाली पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सैद्धांतिक तौर पर स्वीकार करने के बावजूद सरकार व्यावहारिक तौर पर उसे मानने को तैयार नहीं दिखती। सरकार ने नियुक्ति प्रणाली के प्रपत्र (एमओपी) पर सहमति न बनने के कारण कोलेजियम की तरफ से नौ माह पहले भेजे गए 77 नामों में से अभी तक 18 नाम ही अनुमोदित किए हैं। सुप्रीम कोर्ट बार-बार सरकार को चेता रहा है कि प्रक्रिया पत्र पर अगर सहमति नहीं बनती तो क्या सरकार नियुक्तियों को रोके रखेगी? दरअसल केंद्र सरकार ने न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता के लिए पिछले साल कोलेजियम प्रणाली की जगह न्यायिक नियुक्ति आयोग का गठन किया था। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इसे इस आधार पर खारिज कर दिया कि जज चुनने की व्यवस्था में सरकार की भूमिका न्यायपालिका से अधिक हो जाएगी। चूंकि सुप्रीम कोर्ट किसी को भी जवाब-तलब कर सकता है और उसे फटकार भी लगा सकता है इसलिए आए दिन कोई न कोई उसकी फटकार के निशाने पर होता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि अन्य संवैधानिक संस्थाओं के मुकाबले उसकी जवाबदेही कम हो जाती है। उसे सवाल करने के साथ ही सवाल सुनने भी चाहिए और उनका जवाब भी देना चाहिए। वह इससे अच्छी तरह अवगत है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में गतिरोध की एक वजह मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर को अंतिम रूप न दिया जाना भी है। मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया से संबंधित है और उसकी आवश्यकता इसलिए पड़ी, क्योंकि न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधी संविधान संशोधन कानून को खारिज करने के बाद खुद सर्वोच्च न्यायालय ने यह मान  लिया था कि कोलेजियम व्यवस्था में कुछ खामियां हैं। इन खामियों को दुरुस्त करने के लिए उसने ही सरकार को मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर बनाने का निर्देश दिया था। जब सरकार ने उसे इस हिसाब से तैयार किया कि न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी बने तो सुप्रीम कोर्ट को उसके कड़े प्रावधान रास नहीं आए तब से यह मामला अधर में पड़ा है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जजों की मौजूदा संख्या आवश्यकता से 60 प्रतिशत से भी कम है जो मुकदमों के फैसलों में देरी का बड़ा कारण है। अदालत ने यह भी कहा है कि पहले जज ज्यादा थे और उनके लिए अदालत कक्ष नहीं थे। आज जजों की कमी के कारण अदालतों में ताले लगे रहते हैं। अभी मद्रास, केरल, चंडीगढ़ और झारखंड के हाई कोर्टों में 26 जजों की नियुक्ति जल्दी से जल्दी होनी है, लेकिन सरकार इस पर तत्परता नहीं दिखा रही है। स्पष्ट तौर पर मौजूदा सरकार और न्यायपालिका के रिश्ते उसी तरह बिगड़ रहे हैं जिस तरह से इंदिरा गांधी के कार्यकाल में बिगड़ गए थे और इसका कितना बड़ा खामियाजा देश को भुगतना पड़ा था। हम उम्मीद करते हैं कि दोनों पक्ष मिल-बैठकर, सहमति से इस समस्या को निपटाएं। इस मामले में अटार्नी जनरल द्वारा अदालत को दिए गए आश्वासन के बाद क्या उम्मीद करें कि जजों के रिक्त पदों को भरने की दिशा में सरकार अविलंब कदम उठाएगी।

-अनिल नरेन्द्र

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