Sunday, 30 April 2017

नौ साल बाद निर्दोष साबित हुईं साध्वी प्रज्ञा

अंतत मालेगांव विस्फोट कांड में आरोपी साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को बॉम्बे हाई कोर्ट से जमानत मिल गई। इसके चलते नौ साल बाद साध्वी प्रज्ञा से अंतत इंसाफ हुआ। जमानत मिलने के बाद जेल से बाहर आईं साध्वी प्रज्ञा ठाकुर ने कांग्रेस और एटीएस पर गंभीर आरोप लगाए हैं। साध्वी का आरोप है कि कांग्रेस ने उन्हें पूरी तरह से खत्म करने का षड्यंत्र रचा था। साध्वी जमानत मिलने के बाद गुरुवार को भोपाल में पत्रकारों से रूबरू हुईं। साध्वी ने कहा कि एटीएस उन्हें 10 अक्तूबर 2008 को सूरत से मुंबई लेकर गई थी। वहां उन्हें 13 दिन तक बंधक बनाकर रखा गया और पुरुष एटीएस कर्मियों ने उन्हें खूब प्रताड़ना दी जिसकी वजह से अब वह  बीमार हैं, कैंसर से जूझ रही हैं। साध्वी का कहना है कि वह मानसिक और शारीरिक तौर पर टूट चुकी हैं लेकिन आत्मबल की वजह से लड़ रही हैं। शायद ही आजादी से पहले किसी महिला के साथ ऐसा हुआ हो। उन्होंने मुंबई हमले के शहीद हेमंत करकरे समेत कई एटीएस कर्मियों पर प्रताड़ना के आरोप लगाए। उनका कहना है कि भगवा आतंकवाद की कहानी कांग्रेस ने रची थी। सच्चाई यह थी कि मालेगांव ब्लास्ट के बारे में साध्वी ने कहा कि दो लोगों को दोषी मानकर सजा दी गई है, लेकिन अदालत को खबर नहीं है। अपने बारे में वह बोलीं कि मैं निर्दोष हूं और थीं। प्रज्ञा ठाकुर ने कहा कि वह सभी आरोपों से अर्द्धमुक्त ही हैं, अब इलाज कराने जाएंगी। बॉम्बे हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति रंजीत मोरे एवं शालिनी धनसालकर जोशी की खंडपीठ ने मंगलवार को अपने 78 पेज के आदेश में कहा कि 44 वर्षीय साध्वी प्रज्ञा ठाकुर एक ऐसी महिला हैं जो वर्ष 2008 से जेल में हैं और कैंसर से पीड़ित हैं। बता दें कि 29 सितम्बर 2008 को नासिक जनपद के मालेगांव कस्बे में एक मोटरसाइकिल में बम लगाकर विस्फोट किया गया था। इसमें आठ लोगों की मौत हुई थी और करीब 80 लोग घायल हुए थे। इस मामले में साध्वी प्रज्ञा व पुरोहित समेत 11 लोग गिरफ्तार किए गए थे। साध्वी पर आरोप था कि विस्फोट में इस्तेमाल मोटरसाइकिल साध्वी की थी। साथ ही वह कट्टर हिन्दुवादी संगठन अभिनव भारत की भोपाल और फरुर्खाबाद की बैठकों में शामिल हुई थीं। दोनों ही आरोप निराधार पाए गए। चूंकि वह बाइक 2004 में ही बेची जा चुकी थी। साध्वी को बिना ठोस सबूतों के नौ साल जेल में रखा गया। हम साध्वी की रिहाई का स्वागत करते हैं। उम्मीद की जाती है कि पिछले नौ सालों में जो उनसे बर्ताव हुआ है और कैंसर जैसी बीमारी ने उन्हें पकड़ लिया है अब यह ढंग से अपना इलाज करा सकेंगी। जो वक्त बीत गया उसका तो अब कुछ नहीं हो सकता।

-अनिल नरेन्द्र

चार महीने में 15 आतंकी हमलों से थर्राया कश्मीर

नियंत्रण रेखा के महज 10 किलोमीटर दूर जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा जिले में गुरुवार तड़के आतंकियों ने सैन्य शिविर पर जो हमला बोला वह एक तरह से उड़ी हमले का रिपीट था। पाकिस्तानी आतंकियों ने उड़ी की तर्ज पर इस फिदायीन हमले में एक भारतीय कैप्टन समेत तीन जवान शहीद हो गए जबकि पांच जवान घायल हुए। जवाबी कार्रवाई में सेना ने जैश--मोहम्मद के दो आतंकियों को मार गिराया। तीसरे की तलाश जारी है। उड़ी हमले की तरह इस बार भी सुबह चार बजे का यह हमला उसी तरह घात लगाकर किया गया। फर्क सिर्फ इतना है कि उड़ी का हमला जाड़ा और बर्फबारी शुरू होने से पूर्व किया गया था और इस बार हमले के लिए बर्फबारी खत्म होने और गर्मियों की शुरुआत का मौसम चुना गया। सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी के बाद यह दावा किया गया था कि आतंकवाद की कमर तोड़ दी गई है और भविष्य में पाकिस्तान 10 बार सोचेगा कोई हमला करने की। पर यहां तो उल्टा हो रहा है। आतंकी बार-बार सैन्य शिविरों को निशाना बना रहे हैं और हम केवल अपनी सुरक्षा करने में लगे हुए हैं। पिछले चार महीनों में घाटी में 15 आतंकी हमले हो चुके हैं और भारत इन्हें रोकने में बुरी तरह फेल हो रहा है। चाहे छत्तीसगढ़ का सुकमा हमला हो या घाटी में यह हमला हो आखिर कब रुकेगी हमारे जवानों की शहादत? यह ठीक नहीं कि आतंकी बार-बार सैन्य शिविरों को निशाना बनाने में सफल हो रहे हैं। हमारी सेना क्या कर रही है? हर दोष केंद्र या राज्य सरकार के मत्थे मढ़ना ठीक नहीं है। आखिर सेना को तो अपनी सुरक्षा का इंतजाम खुद करना होता है। मिलिट्री इंटेलीजेंस क्या सो रही है। बार-बार यह फिदायीन जब चाहे जहां चाहे सैन्य शिविरों पर हमला कर देते हैं और हम सिर्फ अपना बचाव करने से खुश हो जाते हैं। सबसे गंभीर बात यह है कि वे लगभग एक जैसे तरीके से सैन्य शिविरों व सैनिकों के काफिले पर हमला करने में समर्थ हैं। कुपवाड़ा में भी आतंकियों ने सुबह जल्दी सैन्य शिविर पर धावा बोला। वे सुरक्षा की पहली दीवार इसलिए भेदने में सफल रहे, क्योंकि एक तो सुबह का धुंधलका था और दूसरे शायद सुरक्षा के इंतजाम उतने नहीं थे जितने होने चाहिए थे। यह तो जांच-पड़ताल से ही पता चलेगा कि सुरक्षा में किस स्तर पर चूक हुई, लेकिन इसका जवाब देना ही चाहिए कि आखिर चौकसी में कमी के मामले बार-बार क्यों सामने आ रहे हैं? यह तो धन्य हो ऋषि कुमार का जिसने अदम्य साहस और बहादुरी का प्रदर्शन करते हुए दो आतंकियों को मार गिराया, जबकि तीसरे को घायल कर दिया। आरा (बिहार) के ऋषि कुमार गनर संतरी की ड्यूटी पर थे। वह फील्ड आर्टिलरी रेजिमेंट में आठ साल से गनर के पद पर तैनात हैं। वह शिविर के पिछले गेट पर तैनात थे। मुठभेड़ के बाद आतंकी जब पीछे के गेट से भागने लगे तो ऋषि उनके बेहद निकट थे। आतंकियों की नजर जैसे ही ऋषि पर पड़ी उन्होंने गोलियों की बौछार कर दी। ऋषि पर आतंकियों ने फायर किया पर वह बुलैटप्रूफ हेलमेट की बदौलत गोली से तो बच गए लेकिन वह जमीन पर गिर पड़े। आतंकियों ने समझा कि उनका काम तमाम हो गया, पर ऋषि ने तुरन्त संभलकर दो आतंकियों को ढेर कर दिया। फायरिंग के दौरान ही ऋषि की गोलियां खत्म हो गईं। ऐसे में तीसरे आतंकी से बचते हुए बंकर की तरफ दौड़े। वहां से उन्होंने दूसरी राइफल उठाई। उन्हें हाथों और पैरों में कई स्थानों पर चोटें लगी हुई थीं। घायल होने के बावजूद ऋषि ने तीसरे आतंकी पर फायर किया। तीसरे आतंकी को भी गोली लगने की खबर है। कश्मीर में मौजूदा स्थिति के लिए सीमापार के समर्थन से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि बाहर से ज्यादा भीतर के आतंकी सक्रिय हुए हैं और कार्रवाइयों को अंजाम दे रहे हैं। इसलिए अगर यह कहा जाए कि मौजूदा स्थिति 1989 की दिशा में जा रही है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के दिल्ली के दौरे और तीन माह का सामान मांगने के बाद केंद्र की सक्रियता तो बढ़ी है पर सरकार की कश्मीर नीति आखिर है क्या? 80 हजार करोड़ का पैकेज देने से मामला सुलझने वाला नहीं। घाटी के अंदर अलगाववादियों और पत्थरबाजों का राज चल रहा है और सीमापार से आतंकियों का। कश्मीर में जैसे हालात हैं उन्हें देखते हुए यह आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य है कि आतंकी हमलों से आए दिन दो-चार हो रहे जवानों को हर हाल में सुरक्षित बनाने के पुख्ता प्रबंध किए जाएं। इस सबके अतिरिक्त पत्थरबाजों का सामना करना पड़ता है। दुर्भाग्य से कुपवाड़ा में भी यही हुआ। यह समझना कठिन है कि जब सेनाध्यक्ष भी यह मान रहे हैं कि पत्थरबाज आतंकियों के मददगार हैं तब फिर देश का राजनीतिक नेतृत्व, सभी इस बात को एक स्वर से दोहरा क्यों नहीं पा रहे हैं? इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि आतंकियों की मददगार पत्थरबाजों की निन्दा-आलोचना करने के बजाय उल्टा सेना और सुरक्षाबलों को संयम का पाठ पढ़ाया जा रहा है। समस्या का समाधान कुछ नाटकीय और जादुई कार्रवाइयों और टीवी की परिचर्चाओं से नहीं होगा। यह समस्या ठोस नीति, उपायों से ही काबू की जा सकती है जिसका अभी तक मोदी सरकार ने प्रदर्शन नहीं किया है।

Saturday, 29 April 2017

नोएडा के यशपाल त्यागी दूसरे यादव सिंह

यादव सिंह के बाद नोएडा प्राधिकरण के एक और धनकुबेर का खुलासा हुआ है। बृहस्पतिवार को आयकर विभाग नोएडा की एक टीम ने नोएडा, ग्रेटर नोएडा और यमुना प्राधिकरण के पूर्व ओएसडी यशपाल त्यागी के पांच ठिकानों पर छापा मारा जिसमें अकूत सम्पत्ति का पता चला है। अधिकारियों ने शुरुआत में जिन सम्पत्तियों की जांच की है, उनकी कीमत दो हजार करोड़ से अधिक बताई जाती है। कहा जा रहा है कि यशपाल त्यागी दूसरे यादव सिंह साबित हो सकते हैं। सर्वे के दौरान 10 करोड़ रुपए नकद और करीब 10 किलोग्राम सोना भी जब्त किया गया है। इसके अलावा इन्वेंट्री में ऑडी, रेंज रोवर, बीएमडब्ल्यू जैसी महंगी कारें और 15 बड़ी-बड़ी एलईडी टीवी, जिम के सामान व अन्य उत्पादों का ब्यौरा भी दर्ज किया गया है। साथ ही उनके बैंक खातों और लॉकर्स की भी पड़ताल की जा रही है। त्यागी द्वारा  कथित तौर पर नोएडा की यूनिवर्सिटी, गोवा और हरिद्वार में लग्जरी होटल में निवेश की भी पड़ताल की जा रही है। यशपाल की बसपा शासन में धमक तेजी से बढ़ी। वह 2007-12 तक मायावती सरकार में प्राधिकरण में ओएसडी थे। सत्ता बदलने के साथ ही उन्हें पद से हटा दिया गया। त्यागी काले धन के इंजीनियर यादव सिंह के करीबियों में माने जाते हैं। नोएडा में तैनाती के दौरान यशपाल का नाम चर्चित फार्म हाउस घोटाले में भी आया। घोटाले में त्यागी को मुख्य सूत्रधारों में माना जाता है। प्राधिकरण में ओएसडी रहते हुए उन पर बिल्डरों को मनमाने ढंग से जमीन का आवंटन करने और अनुचित लाभ लेने का भी आरोप लगा। बिल्डरों ने जहां जमीन मांगी, जिन शर्तों पर मांगी, उनकी मांग पूरी कर दी गई। यही कारण है कि नियमों में मनमाना बदलाव करके बिल्डरों को जमीन देने के बाद बिल्डरों ने भी मौके का फायदा उठाया और 100-100 एकड़ के प्लाट लेकर उनको दोगुनी कीमत पर दूसरे बिल्डरों को प्लाट बेच दिए। वहीं छोटे बिल्डर अब प्रोजेक्ट को पूरा नहीं कर पा रहे हैं और लाखों निवेशक परेशान होकर धक्के खा रहे हैं। जितनी भी आवंटन कमेटी थीं उनमें प्रमुख भूमिका यशपाल की ही रहती थी। खास बात यह भी है कि यादव सिंह और अब यशपाल के मामले में पर्दे के पीछे `भाई साहब' और `पंडित जी' की भूमिका भी रही। यादव सिंह की जांच में ये दोनों नाम आए थे, जिनकी गोपनीय जांच चल रही है और भाई साहब और पंडित जी सीबीआई के निशाने पर हैं। वहीं बसपा के कार्यकाल में तीनों प्राधिकरण के चेयरमैन मोहिन्दर सिंह थे। सूत्र बताते हैं कि जिन बिल्डरों को जमीन लेनी होती थी, उनसे सीधे बात यशपाल ही किया करते थे। इतने बड़े खेल में और बड़े-बड़े लोग भी शामिल होंगे। जांच से पता चलेगा कि कौन-कौन शामिल है।

-अनिल नरेन्द्र

मोदी की लहर में बह गए क्षेत्रीय क्षत्रप

दिल्ली के तीनों नगर निगम का चुनाव परिणाम आंकड़ों की जुबानी भी बहुत कुछ बयां कर गए। मोदी लहर में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी तो फिसड्डी साबित हुई हीं, राष्ट्रीय राजनीति में अच्छा दखल रखने वाली क्षेत्रीय पार्टियां तो बह ही गईं। जद (यू), लोजपा, राकांपा एवं रालोद को जहां एक भी सीट नहीं मिली वहीं बसपा, सपा, इनेलो भी बस इज्जत बचा सकी हैं। चुनाव परिणामों ने स्पष्ट कर दिया है कि जनता अब सिर्फ काम चाहती है, कागजी अथवा खोखले वादों पर उसे मूर्ख बनाने का समय चला गया। गौरतलब है कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी उत्तर प्रदेश में, जनता दल यूनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल बिहार में, इंडियन नेशनल लोकदल हरियाणा में, शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी महाराष्ट्र में, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया तथा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी पश्चिम बंगाल में खासा रसूख रखती हैं। इन पार्टियों के दिग्गज नेता मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव, मायावती, नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, ओम प्रकाश चौटाला, सीताराम येचुरी, डी. राजा, शरद पवार व उद्धव ठाकरे का देश की राजनीति में भी बड़ा नाम है। बावजूद इसके दिल्ली नगर निगम चुनाव में इनका सिक्का नहीं चला। तीनों एमसीडी के 272 में से 270 वार्डों पर हुए चुनाव के  लिए खड़े हुए 2576 उम्मीदवारों में से 1803 की जमानत जब्त हो गई। इनमें कांग्रेस के 92, आम आदमी पार्टी के 38 और हैरानगी की बात है कि भाजपा के पांच उम्मीदवारों की भी जमानत जब्त हो गई। ये उम्मीदवार जमानत बचाने के लिए जरूरी टोटल डाले गए वोट का 16.33 फीसदी हिस्सा नहीं ले पाए। दिल्ली चुनाव आयोग ने बताया कि इस चुनाव में निर्दलीयों के अलावा 18 विभिन्न पार्टियों के उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतरे थे। इनमें से 1139 उम्मीदवार जमानत नहीं बचा पाए। नगर निगम चुनाव में भाजपा ने उम्मीद के अनुसार बम्पर कामयाबी हासिल की है, लेकिन इस चुनाव में भाजपा के मुस्लिम कैंडिडेट जनता को रास नहीं आए। भारतीय जनता पार्टी ने इस वर्ष निगम चुनाव में पांच मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे। लेकिन चुनाव में एक भी उम्मीदवार भाजपा के लिए जीत नहीं दिला सका। गौरतलब है कि हाल ही में उत्तर प्रदेश में हुए चुनाव में भाजपा ने अपना एक भी मुस्लिम प्रत्याशी नहीं उतारा था। भाजपा की इस नीति के चलते उस पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगा था। उत्तर प्रदेश चुनाव में लगे आरोपों को धोने के लिए भाजपा ने नगर निगम चुनाव में पांच प्रत्याशी उतारे। पर एक भी उम्मीदवार जीत दर्ज नहीं कर सका। भाजपा की जीत की एक बड़ी वजह रही मौजूदा पार्षदों को टिकट न देने का मोदी फार्मूला। पिछले 10 वर्ष की निगमों की एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर को काटने के लिए यह फार्मूला कामयाब रहा। भाजपा ही नहीं, बल्कि कांग्रेस ने भी यही रणनीति अपनाई। दरअसल राजनीतिक दलों की भांति मतदाताओं ने भी पुराने चेहरों पर अधिक विश्वास नहीं किया। चुनाव में करीब 45 वर्तमान पार्षदों और 30 पूर्व पार्षदों ने किस्मत आजमाई थी, मगर 17 वर्तमान पार्षद ही चुनाव जीत सके। इस तरह तीनों नगर निगमों के सदन में 270 वार्डों में 245 नए पार्षद पहुंचेंगे। मजेदार तथ्य यह भी है कि भाजपा और कांग्रेस से बगावत कर पूर्वी दिल्ली में निर्दलीय चुनाव लड़ने वाला कोई भी प्रत्याशी नहीं जीत पाया है। जनता ने बागियों को पूरी तरह से नकार दिया। पटपड़गंज सीट से भाजपा की पार्षद रहीं संध्या वर्मा ने पार्टी से टिकट न मिलने पर विद्रोह कर निर्दलीय चुनाव लड़ा था। नतीजा हार का मुंह देखना पड़ा। इसी तरह न्यू अशोक नगर सीट पर भाजपा की बागी निक्की सिंह भी बगावत कर चुनाव में कूदीं और 5223 वोट लेकर दूसरे स्थान पर रहीं। इसी तरह कांग्रेस से बागी विनोद चौधरी ने आईपी एक्सटेंशन से कांग्रेस का टिकट मांगा था। टिकट न मिलने पर वह निर्दलीय चुनाव लड़े। उन्हें 2000 से कम वोट मिले। इसी तरह पांडव नगर से कांग्रेस से टिकट मांग रहीं सावित्री शर्मा भी टिकट न मिलने पर निर्दलीय चुनाव लड़ीं और हार गईं। नगर निगम चुनाव में हुई करारी हार के बाद इस्तीफों का दौर आरंभ हो गया है। बुधवार को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन, कांग्रेस के प्रभारी (दिल्ली) पीसी चॉको और आप की दिल्ली इकाई के संयोजक दिलीप पांडे ने इस्तीफा दे दिया। दिल्ली की सत्ता में लगातार 15 वर्षों तक काबिज रहने वाली कांग्रेस पार्टी आम आदमी पार्टी (आप) के खिलाफ बने माहौल में भी नगर निगम चुनाव में दूसरे पायदान पर नहीं आ सकी। इसके पीछे सबसे अहम कारण यह माना जा रहा है कि पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को किनारा कर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन ने अपने स्तर पर अहम निर्णय लिए। चुनाव नतीजे आने के बाद कई कांग्रेसी नेताओं ने त्वरित प्रतिक्रिया में कहा कि कांग्रेस में वन मैन शो ने पूरी लुटिया डुबाई। नगर निगम के लिए टिकट बंटवारे के बाद से ही कांग्रेस में फूट उभरकर सामने आ गई थी। अरविन्दर सिंह लवली, बरखा शुक्ला सिंह जैसे कई पुराने नेता भाजपा में शामिल हो गए। अब कांग्रेस के सामने पार्टी को बचाने की चुनौती खड़ी होती दिख रही है। दूसरी ओर कई उम्मीदवार ऐसे भी हैं जो तीसरी-चौथी बार भी जीतने में सफल रहे। इन लोगों के काम, जनता से सीधा सम्पर्क उन्हें जिताने की बड़ी वजह रही।

Friday, 28 April 2017

क्या केजरीवाल सरकार की उल्टी गिनती शुरू हो गई है?

दिल्ली नगर निगम चुनाव परिणाम लगभग उसी लाइन पर आए हैं जैसा कि उम्मीद की जा रही थी। भारतीय जनता पार्टी ने जीत की हैट्रिक लगाई है तीनों निगमों पर और सत्ता पर अपना कब्जा बरकरार रखा। वहीं इस चुनाव में आप और कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा है। एग्जिट पोल और फाइनल परिणाम में इतना फर्क जरूर रहा कि एग्जिट पोल में भाजपा को 200 से ज्यादा सीटों का अनुमान लगाया गया था जो घटकर 181 सीटें रहीं। वहीं आप को 48 और कांग्रेस को 30 सीट पर संतोष करना पड़ा। बेशक यह चुनाव तो छोटे थे पर चुनाव पर दांव बड़े थे। तीनों नगर निगमों के चुनाव में इस बार एक अलग राजनीतिक माहौल बना। बेशक यह चुनाव पार्षदों का था लेकिन इस छोटे चुनाव पर बड़े-बड़े धुरंधरों की प्रतिष्ठा दांव पर थी। उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में पिछले दिनों हुए चुनाव के बाद अब नगर निगम चुनाव के नतीजे साबित करते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता की आंधी अब भी चल रही है। वहीं ये नतीजे प्रचंड बहुमत के साथ दो साल पहले सत्ता में काबिज हुए अरविन्द केजरीवाल और उनकी सरकार की कारगुजारी पर एक तरह से जनमत संग्रह था। कांग्रेस के गिरते ग्राफ पर कोई रोक नहीं लगी और वह औंधे मुंह गिरी है। सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है अरविन्द केजरीवाल और उनकी पार्टी की खोती जमीन। दो साल पहले प्रचंड बहुमत के साथ जीत हासिल करने वाले केजरीवाल की हार की यह हैट्रिक है। आप के लिए तो अब संकट ही संकट है। वह दिल्ली विधानसभा चुनाव के अपने प्रदर्शन के आसपास भी नहीं ठहरी। विधानसभा चुनावों में 70 में से 67 सीटें जीतने वाली आप 272 वार्डों में से 90 फीसदी से ज्यादा में बढ़त पर थी लेकिन उसे सिर्फ 48 वार्ड ही मिले। ईवीएम मशीनों की खराबी का रोना रोकर जनता का दिल नहीं जीता जा सकता। दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल को नगर निगम चुनाव के नतीजों को स्वीकारना ही होगा। इस बार केजरीवाल चाहकर भी नतीजों के लिए ईवीएम को दोष नहीं दे पाएंगे। क्योंकि इस बार ईवीएम पर आरोप लगाया तो विधानसभा में उनकी संख्या भी संदेह के घेरे में आ जाएगी। राज्य चुनाव आयोग से मिली जानकारी के मुताबिक इस नगर निगम चुनाव में करीब 30 हजार ईवीएम मशीनों का इस्तेमाल हुआ है। इनमें से करीब आठ हजार मशीनें राजस्थान निकाय चुनाव से आई हैं। शेष मशीनें वही हैं जो दिल्ली विधानसभा चुनाव 2015 में इस्तेमाल हुई थीं। ऐसे में अगर केजरीवाल इन मशीनों के टेम्पर या हैक होने का आरोप लगाएंगे तो वर्ष 2015 में उन्हें मिली अप्रत्याशित जीत भी संदेह के घेरे में आ जाएगी। यह उनके लिए ठीक वैसी ही स्थिति हो जाएगी कि एक अंगुली दूसरे पर उठाने से चार अंगुलियां खुद पर उठ जाएंगी। पानी माफ, बिजली का बिल हाफ के बाद हाउस टैक्स खत्म करने का लुभावना लालच देने वाली आप को अगर इस कदर दिल्ली का वोटर काट रहा है तो यह स्वाभाविक रूप से केजरीवाल के लिए चिन्ता की बात होनी चाहिए। पहले पंजाब और गोवा फिर दिल्ली विधानसभा की राजौरी गार्डन सीट और अब दिल्ली नगर निगम हार की हैट्रिक लगाने के लिए खुद अरविन्द केजरीवाल जिम्मेदार हैं। दिल्ली में सरकार बनाने के साथ ही आप सरकार के मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के और तरह-तरह के आरोप लगने लगे। सरकार का कोई मंत्री फर्जी डिग्री में तो कोई सेक्स सीडी में फंसा। केजरीवाल पीएम मोदी पर व्यक्तिगत आरोप लगाने व हमला करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। कई बार तो सीमा लांघते हुए केजरीवाल ने मोदी पर आपत्तिजनक टिप्पणी तक की। दिल्ली की जनता ने केजरीवाल को दिल्ली का मुख्यमंत्री चुना पर हिटलरी स्टाइल में यह कभी गोवा तो कभी गुजरात तो कभी पंजाब में सरकार बनाने के सपने देखने लगे। पार्टी में जो कोई भी आलोचना करता है उसे हिटलरी स्टाइल में पार्टी से निकाल दिया जाता है। दिल्ली में अगर आज विधानसभा चुनाव हो जाएं तो इंडिया टुडे-एक्सिस माई इंडिया के एक सर्वे में दो-तिहाई आंकड़े तक भी नहीं पहुंचेगी आप। दिल्ली नगर निगम चुनावों में भाजपा की अभूतपूर्व जीत के साथ ही केजरीवाल सरकार की उल्टी गिनती शुरू हो गई है। क्योंकि आम आदमी पार्टी के अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक पार्टी संयोजक अरविन्द केजरीवाल के खिलाफ जबरदस्त असंतोष है और विधायकों का एक बड़ा गुट विद्रोह की तैयारी में जुटा हुआ है। इसकी झलक चुनाव से पहले बवाना के विधायक वेद प्रकाश दिखा चुके हैं। हालात इतने खराब हो चुके हैं कि खुद केजरीवाल के ऊपर इस्तीफे का जबरदस्त दबाव है। केजरीवाल की कार्यशैली और लगातार मिल रही हार ने विधायकों का मनोबल बुरी तरह तोड़ दिया है। इन विधायकों को मालूम है कि अब उनके लिए आम आदमी पार्टी के टिकट पर चुनाव जीतना आसान नहीं होगा। ऊपर से लाभ के पद मामले पर दर्जनों विधायकों की सदस्यता खत्म होने का खतरा बरकरार है। राजनीतिक पंडित मान रहे हैं कि दिल्ली विधानसभा चुनाव किसी भी समय हो सकते हैं। इन परिणामों से भाजपा हाई कमान और जीते पार्षदों पर बड़ी जिम्मेदारी भी आ गई है। पिछले 10 साल से भ्रष्टाचार-युक्त नगर निगम में बेशक पार्टी ने अधिकतर मौजूदा पार्षदों को हटाकर नए चेहरों को टिकट दिया पर अब यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और प्रदेशाध्यक्ष मनोज तिवारी की जिम्मेदारी बनती है कि नगर निगमों में वह भ्रष्टाचार-मुक्त, स्वच्छ प्रशासन दें। इस बार भाजपा पार्षदों की राह इतनी आसान नहीं होगी। उनकी हर गतिविधि पर प्रदेश नेतृत्व की कड़ी नजर होगी। उनके कामकाज और व्यवहार के बारे में लगातार फीड बैक भी लिया जाएगा। निगम क्षेत्र में कहां-कहां कमियां हैं और उन्हें कैसे दूर किया जाए अब इसकी जिम्मेदारी भाजपा नेतृत्व पर आ गई है। हो सके तो हाउस टैक्स या तो समाप्त किया जाए या कम तो जरूर किया जाए और इससे होने वाले राजस्व के नुकसान को भ्रष्टाचार कम करके पूरा किया जाए। यहां यह याद रहे कि केजरीवाल ने बिजली-पानी के बिल आधे कर दिए थे। अगर केजरीवाल कर सकता है तो आप क्यों नहीं। दिल्ली विधानसभा चुनाव तीन साल में होने हैं। नगर निगमों में अगर भाजपा अच्छा प्रशासन देती है तो इसका सीधा असर विधानसभा चुनाव पर पड़ेगा। नौकरशाही पर कड़ी नजर और सुधार अत्यंत जरूरी है। नगर निगम में अधिकारी भ्रष्टाचार की जड़ हैं। माहौल बहुत अच्छा है, देखना यह है कि योगी सरकार की तरह दिल्ली नगर निगम में पार्टी क्या एक्शन करके भी दिखा सकती है?

-अनिल नरेन्द्र

क्या केजरीवाल सरकार की उल्टी गिनती शुरू हो गई है?

दिल्ली नगर निगम चुनाव परिणाम लगभग उसी लाइन पर आए हैं जैसा कि उम्मीद की जा रही थी। भारतीय जनता पार्टी ने जीत की हैट्रिक लगाई है तीनों निगमों पर और सत्ता पर अपना कब्जा बरकरार रखा। वहीं इस चुनाव में आप और कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा है। एग्जिट पोल और फाइनल परिणाम में इतना फर्क जरूर रहा कि एग्जिट पोल में भाजपा को 200 से ज्यादा सीटों का अनुमान लगाया गया था जो घटकर 181 सीटें रहीं। वहीं आप को 48 और कांग्रेस को 30 सीट पर संतोष करना पड़ा। बेशक यह चुनाव तो छोटे थे पर चुनाव पर दांव बड़े थे। तीनों नगर निगमों के चुनाव में इस बार एक अलग राजनीतिक माहौल बना। बेशक यह चुनाव पार्षदों का था लेकिन इस छोटे चुनाव पर बड़े-बड़े धुरंधरों की प्रतिष्ठा दांव पर थी। उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों में पिछले दिनों हुए चुनाव के बाद अब नगर निगम चुनाव के नतीजे साबित करते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता की आंधी अब भी चल रही है। वहीं ये नतीजे प्रचंड बहुमत के साथ दो साल पहले सत्ता में काबिज हुए अरविन्द केजरीवाल और उनकी सरकार की कारगुजारी पर एक तरह से जनमत संग्रह था। कांग्रेस के गिरते ग्राफ पर कोई रोक नहीं लगी और वह औंधे मुंह गिरी है। सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है अरविन्द केजरीवाल और उनकी पार्टी की खोती जमीन। दो साल पहले प्रचंड बहुमत के साथ जीत हासिल करने वाले केजरीवाल की हार की यह हैट्रिक है। आप के लिए तो अब संकट ही संकट है। वह दिल्ली विधानसभा चुनाव के अपने प्रदर्शन के आसपास भी नहीं ठहरी। विधानसभा चुनावों में 70 में से 67 सीटें जीतने वाली आप 272 वार्डों में से 90 फीसदी से ज्यादा में बढ़त पर थी लेकिन उसे सिर्फ 48 वार्ड ही मिले। ईवीएम मशीनों की खराबी का रोना रोकर जनता का दिल नहीं जीता जा सकता। दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल को नगर निगम चुनाव के नतीजों को स्वीकारना ही होगा। इस बार केजरीवाल चाहकर भी नतीजों के लिए ईवीएम को दोष नहीं दे पाएंगे। क्योंकि इस बार ईवीएम पर आरोप लगाया तो विधानसभा में उनकी संख्या भी संदेह के घेरे में आ जाएगी। राज्य चुनाव आयोग से मिली जानकारी के मुताबिक इस नगर निगम चुनाव में करीब 30 हजार ईवीएम मशीनों का इस्तेमाल हुआ है। इनमें से करीब आठ हजार मशीनें राजस्थान निकाय चुनाव से आई हैं। शेष मशीनें वही हैं जो दिल्ली विधानसभा चुनाव 2015 में इस्तेमाल हुई थीं। ऐसे में अगर केजरीवाल इन मशीनों के टेम्पर या हैक होने का आरोप लगाएंगे तो वर्ष 2015 में उन्हें मिली अप्रत्याशित जीत भी संदेह के घेरे में आ जाएगी। यह उनके लिए ठीक वैसी ही स्थिति हो जाएगी कि एक अंगुली दूसरे पर उठाने से चार अंगुलियां खुद पर उठ जाएंगी। पानी माफ, बिजली का बिल हाफ के बाद हाउस टैक्स खत्म करने का लुभावना लालच देने वाली आप को अगर इस कदर दिल्ली का वोटर काट रहा है तो यह स्वाभाविक रूप से केजरीवाल के लिए चिन्ता की बात होनी चाहिए। पहले पंजाब और गोवा फिर दिल्ली विधानसभा की राजौरी गार्डन सीट और अब दिल्ली नगर निगम हार की हैट्रिक लगाने के लिए खुद अरविन्द केजरीवाल जिम्मेदार हैं। दिल्ली में सरकार बनाने के साथ ही आप सरकार के मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के और तरह-तरह के आरोप लगने लगे। सरकार का कोई मंत्री फर्जी डिग्री में तो कोई सेक्स सीडी में फंसा। केजरीवाल पीएम मोदी पर व्यक्तिगत आरोप लगाने व हमला करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। कई बार तो सीमा लांघते हुए केजरीवाल ने मोदी पर आपत्तिजनक टिप्पणी तक की। दिल्ली की जनता ने केजरीवाल को दिल्ली का मुख्यमंत्री चुना पर हिटलरी स्टाइल में यह कभी गोवा तो कभी गुजरात तो कभी पंजाब में सरकार बनाने के सपने देखने लगे। पार्टी में जो कोई भी आलोचना करता है उसे हिटलरी स्टाइल में पार्टी से निकाल दिया जाता है। दिल्ली में अगर आज विधानसभा चुनाव हो जाएं तो इंडिया टुडे-एक्सिस माई इंडिया के एक सर्वे में दो-तिहाई आंकड़े तक भी नहीं पहुंचेगी आप। दिल्ली नगर निगम चुनावों में भाजपा की अभूतपूर्व जीत के साथ ही केजरीवाल सरकार की उल्टी गिनती शुरू हो गई है। क्योंकि आम आदमी पार्टी के अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक पार्टी संयोजक अरविन्द केजरीवाल के खिलाफ जबरदस्त असंतोष है और विधायकों का एक बड़ा गुट विद्रोह की तैयारी में जुटा हुआ है। इसकी झलक चुनाव से पहले बवाना के विधायक वेद प्रकाश दिखा चुके हैं। हालात इतने खराब हो चुके हैं कि खुद केजरीवाल के ऊपर इस्तीफे का जबरदस्त दबाव है। केजरीवाल की कार्यशैली और लगातार मिल रही हार ने विधायकों का मनोबल बुरी तरह तोड़ दिया है। इन विधायकों को मालूम है कि अब उनके लिए आम आदमी पार्टी के टिकट पर चुनाव जीतना आसान नहीं होगा। ऊपर से लाभ के पद मामले पर दर्जनों विधायकों की सदस्यता खत्म होने का खतरा बरकरार है। राजनीतिक पंडित मान रहे हैं कि दिल्ली विधानसभा चुनाव किसी भी समय हो सकते हैं। इन परिणामों से भाजपा हाई कमान और जीते पार्षदों पर बड़ी जिम्मेदारी भी आ गई है। पिछले 10 साल से भ्रष्टाचार-युक्त नगर निगम में बेशक पार्टी ने अधिकतर मौजूदा पार्षदों को हटाकर नए चेहरों को टिकट दिया पर अब यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और प्रदेशाध्यक्ष मनोज तिवारी की जिम्मेदारी बनती है कि नगर निगमों में वह भ्रष्टाचार-मुक्त, स्वच्छ प्रशासन दें। इस बार भाजपा पार्षदों की राह इतनी आसान नहीं होगी। उनकी हर गतिविधि पर प्रदेश नेतृत्व की कड़ी नजर होगी। उनके कामकाज और व्यवहार के बारे में लगातार फीड बैक भी लिया जाएगा। निगम क्षेत्र में कहां-कहां कमियां हैं और उन्हें कैसे दूर किया जाए अब इसकी जिम्मेदारी भाजपा नेतृत्व पर आ गई है। हो सके तो हाउस टैक्स या तो समाप्त किया जाए या कम तो जरूर किया जाए और इससे होने वाले राजस्व के नुकसान को भ्रष्टाचार कम करके पूरा किया जाए। यहां यह याद रहे कि केजरीवाल ने बिजली-पानी के बिल आधे कर दिए थे। अगर केजरीवाल कर सकता है तो आप क्यों नहीं। दिल्ली विधानसभा चुनाव तीन साल में होने हैं। नगर निगमों में अगर भाजपा अच्छा प्रशासन देती है तो इसका सीधा असर विधानसभा चुनाव पर पड़ेगा। नौकरशाही पर कड़ी नजर और सुधार अत्यंत जरूरी है। नगर निगम में अधिकारी भ्रष्टाचार की जड़ हैं। माहौल बहुत अच्छा है, देखना यह है कि योगी सरकार की तरह दिल्ली नगर निगम में पार्टी क्या एक्शन करके भी दिखा सकती है?

-अनिल नरेन्द्र

Thursday, 27 April 2017

आखिर कब तक हमारे बहादुर जवान शहीद होते रहेंगे?

बस्तर की खूनी धरती पर एक बार फिर नक्सलियों ने जघन्य हत्याएं कर उन रक्तरंजित सवालों को कुरेद दिया है जो इस आमतौर पर शांत वादी में लगातार सुलग रहे हैं। इस बार छत्तीसगढ़ के घोर नक्सली क्षेत्र सुकमा जिले में सोमवार की दोपहर पुलिस व नक्सलियों के मध्य हुई मुठभेड़ में सीआरपीएफ के 26 जवान शहीद हो गए और छह जवान घायल हो गए। दो महीने में यह दूसरी बार हमला हुआ है। नक्सली शहीद जवानों के हथियार भी लूटकर ले गए। हमले के बाद से आठ जवान लापता हैं। पिछले पांच सालों में नक्सली हिंसा की 5960 घटनाएं हुई हैं। इनमें 1221 नागरिक, 355 सुरक्षाकर्मी तथा 581 नक्सली मारे गए। आरटीआई के तहत गृह मंत्रालय से मिली जानकारी के मुताबिक साल 2012 से 28 अक्तूबर 2016 तक नक्सली हिंसा के चलते देश में 91 टेलीफोन एक्सचेंज और टॉवर को निशाना बनाया गया। 23 स्कूल भी नक्सलियों के निशाने पर रहे। साल 2017 में 28 फरवरी तक के आंकड़ों के अनुसार 181 घटनाएं हुई हैं। इनमें 32 नागरिक मारे गए, 14 सुरक्षाकर्मी शहीद हुए और 33 नक्सली मारे गए। नक्सली जहां बार-बार खून की होली खेल रहे हैं, दक्षिण बस्तर का यह इलाका आतंक का गढ़ है। करीब 900 से 1000 वर्ग किलोमीटर घना जंगल है। इसका मुख्यालय है जगरगुंडा। इसी जगरगुंडा को तीन तरफ से घेरने के लिए तीन अलग-अलग सड़कें बनाई जा रही हैं। पहली वोरनापाल से जगरगुंडा तक की 60 किलोमीटर की सड़क है जिस पर सबसे अधिक घटनाएं हो रही हैं। सोमवार को भी इसी पर नक्सली वारदात हुईं। वोरनापाल से दंतेवाड़ा में जो जूसरी सड़क बन रही है यह सबसे बड़ी चुनौती है। यह 17 साल तक नक्सलियों के कब्जे में रही। सड़क बनाने के लिए बुर्कापाल में सीआरपीएफ का कैंप लगा दिया गया है। इसी कैंप के जवान रोड ओपनिंग के लिए निकले थे। रोड ओपनिंग से आशय यह नहीं कि किसी वीआईपी के काफिले के लिए सड़क खाली कराई जा रही हो। यहां रोड ओपनिंग का मतलब है कि निर्बाध गति से काम चलता रहे और नक्सली कोई बाधा न डाल सकें। बारूदी सुरंग न बिछा सकें। यह काम लंबे समय से जवान कर रहे थे। महिलाओं और चरवाहों के जरिये नक्सलियों ने कई बार रेकी की, फिर जवानों को घेरकर हमला बोल दिया। ठीक उसी तरह जैसा ताड़मेटला में खाना खाते वक्त 76 जवानों को छलनी कर दिया था। सोमवार को भी खाने के बाद थोड़ा रिलैक्स हुए जवानों को संभलने का मौका नहीं दिया गया। नक्सली गोरिल्ला वार में इसी तरह हमला करते हैं। यह हमला निश्चित रूप से निन्दनीय है, कायराना हमला है। लेकिन इसके लिए जिम्मेदार कौन है? सीआरपीएफ की तैयारी का तो यह हाल है कि बल के महानिदेशक का पद करीब दो महीने से खाली पड़ा है। केंद्र सरकार ने अब तक नियमित महानिदेशक की नियुक्ति नहीं की है। इस बीच देश का सबसे बड़ा अर्द्धसैनिक बल इस दौरान दो बड़े हमलों में अपने 38 जवानों को खो चुका है। नक्सलियों के गुरिल्ला हमले का सामना कर रहे सीआरपीएफ के जवान बुलेटप्रूफ हेलमेट, जैकेट और एमपीवी वाहन जैसे जरूरी संसाधनों की कमी से जूझ रहे हैं। हाल के वर्षों में नक्सली हमलों में शहीद होने वाले जवानों की संख्या में वृद्धि होने का यह बड़ा कारण है। कई बार घात लगाकर या आईईडी से हमले की पुख्ता सूचना होने के बावजूद जवान शिकार बन जाते हैं। ऐसा सीआरपीएफ जवानों को मिनी ट्रक, जीप या बाइक से प्रभावित इलाकों में भेजने के कारण होता है। 1.25 लाख बुलेटप्रूफ हेलमेट की जरूरत है जो 1800 बुलेटप्रूफ हेलमेट से ही काम चलाने को मजबूर हैं। 38 हजार पहले से मंजूर बुलेटप्रूफ जैकेट अभी तक नहीं मिलीं। बार-बार अपने मंसूबों में कामयाब रहे नक्सलियों की वारदातों का एक बड़ा कारण है उनकी इंटेलीजेंस सूचना एकत्रित करना और सरकार की गुप्तचर व्यवस्था का फेल होना। बस्तर के आईजी विवेकानंद सिन्हा ने कहा कि हमले में बड़ी संख्या में महिला नक्सली भी शामिल थीं। इनके पास पहली बार अंडर बैरल ग्रेनेड लांचर जैसे घातक हथियार भी थे। जिसके कारण नक्सलियों ने वहां जमकर तबाही मचाई। हमले में घायल एक जवान ने कहा कि नक्सलियों के हमले का तरीका वही था। उन्होंने इस बार भी ग्रामीणों को ही अपनी ढाल बनाया। उन्हीं के माध्यम से रेकी करवाई और इतनी बड़ी वारदात को अंजाम दिया। अस्पताल में भर्ती घायल जवान ने बताया कि गश्ती दल पर हमला करने वाले नक्सलियों की संख्या 300 से 400 के करीब थी। एक अन्य जवान ने बताया कि उसने महिला नक्सलियों को देखा था, जिन्होंने काले कपड़े पहन रखे थे और हथियारों से लैस थीं। हमले में घायल जवानों ने बताया कि नक्सलियों ने हमले की कमान तीन स्तर में बनाई थी। तीसरे नम्बर पर भी सादे वेश में महिला नक्सली थीं। ये हमले के बाद शहीद जवानों के पर्स, मोबाइल और हथियार लूट ले गए। अपने मरे कामरेडों के शव भी उठाकर ले गए। खुफिया पुलिस की मानें तो पिछले साल नक्सलियों ने मिलिट्री कमांड का पुनर्गठन किया था। इसमें 2000 से अधिक महिला नक्सलियों को भर्ती किया गया था। हमले के लिए जिम्मेदार आखिर कौन है? पिछले 14 वर्षों से राज्य में रमन सिंह की भाजपा सरकार है और तीन वर्षों के करीब से केंद्र मोदी सरकार है। दोनों ही माओवादियों, नक्सलियों के समूल नष्ट करने के वादे और दावे करते थकते नहीं। नोटबंदी के बाद कहा गया कि नक्सलियों को कालेधन की सप्लाई लाइन टूट गई है। अब नक्सलियों की खैर नहीं है। छत्तीसगढ़ के इन इलाकों से कभी नक्सलियों के नाम पर निरीह और निर्दोष आदिवासियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों के दमन-उत्पीड़न के समाचार आते हैं तो कभी दंडकारण्य को अभयारण्य बनाने में लगे माओवादियों के घात लगाकर किए गए हमलों में पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों के जवानों के मारे जाने के समाचार आते रहते हैं। अतीत में माओवादी राजनीति का विरोध करने वाले कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं को भी माओवादी हिंसा का शिकार बनना पड़ा है। यह संयोग मात्र है या किसी तरह की दुरभि संधि कि सत्तारूढ़ दल के किसी भी बड़े नेता अथवा पूंजीपति को माओवादियों ने अभी तक अपना निशाना नहीं बनाया है। हम हर तरह की हिंसा के विरुद्ध हैं। चाहे वह पुलिस और सुरक्षाबलों की बन्दूकें हों या चाहे बन्दूक के बल पर सत्ता हथियानों का सपना देख रहे माओवादियों की बन्दूकों से निकलने वाली गोलियां हों। गोली और बन्दूक समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकता। सरकार को ठोस नीति पर विचार करना होगा। नए सिरे से रणनीति बनानी होगी। अभी तक की रणनीति तो फेल है।

-अनिल नरेन्द्र

Wednesday, 26 April 2017

थेरेसा मे का जुआ और फ्रांस में राष्ट्रपति चुनाव

यूरोप के दो देशों में राजनीतिक माहौल गरमा गया है। फ्रांस और इंग्लैंड में आम चुनाव हैं। फ्रांस में सबसे उथल-पुथल वाला और अप्रत्याशित चुनाव ऐसे समय में हो रहा है जब देश आतंकवाद से बुरी तरह ग्रस्त है। इसके चलते राष्ट्रपति पद के कुल 11 उम्मीदवारों में से एक सुश्री मैरिन ली पेन को अचानक बढ़त मिल गई है जो इसके पहले सर्वे में दूसरे स्थान पर थीं। सुश्री पेन धुर दक्षिण पार्टी नेशनल फ्रंट की प्रत्याशी हैं, जो फ्रांस में ट्रंप की छविधारक मानी जाती हैं। फ्रांस में राष्ट्रपति चुनाव द्वि-चरणीय होता है। पहला दौर 23 अप्रैल को हो गया है, इसमें मतदाता 11 प्रत्याशियों में चुनाव करेंगे। दूसरा और आखिरी चरण का चुनाव 7 मई को है। जिसमें अगर किसी को 50 फीसद से ज्यादा मत नहीं मिला (इसकी ज्यादा संभावना है) तो ज्यादा मत पाए दो लोगों के बीच मुकाबला होगा। आतंकवाद अब सबसे बड़ा मुद्दा है। उधर ब्रिटेन में प्रधानमंत्री थेरेसा मे मंगलवार को अचानक घोषणा कर दी कि देश में आम चुनाव आठ जून को होंगे। उन्होंने कहा कि वे ब्रेग्जिट पर यूरोपीय यूनियन (ईयू) से बातचीत के लिए मजबूत नेतृत्व चाहती हैं। इसलिए जरूरी है कि बात शुरू होने से पहले आम चुनाव करवा लिए जाएं। उन्होंने स्काटलैंड की नेता निकोला स्टर्जन का नाम लेते हुए कहा कि विपक्ष के कुछ नेता अड़ंगा लगा रहे हैं। ऐसे में आम चुनाव जरूरी हो गए हैं। पिछले चुनाव मई 2015 में हुए थे और अगले चुनाव 2020 में होने थे। यानी दो साल कुछ महीनों में ही थेरेसा आम चुनाव करवा रही हैं। थेरेसा का यह बड़ा यू टर्न है। वे अब तक कहती रही हैं कि मध्यावधि चुनाव नहीं कराएंगी। तब उन्होंने कहा था कि समय से पहले चुनाव करवाने से अराजकता फैलेगी और देश को धक्का लगेगा। थेरेसा ने महारानी एलिजाबेथ को फोन कर जल्द चुनाव कराने की सूचना दे दी है। थेरेसा ने यह फैसला लगता है ब्रेग्जिट में अपना पक्ष मजबूत करने के लिए रणनीति बदली है। उन्होंने इसके लिए 2015 में डेविड कैमरन को आश्चर्यजनक जीत दिलाने वाले राजनीतिक गुरु सर क्लिंटन क्रास्बी को जिम्मा सौंपा है। हालांकि में को एक झटका भी लगा है। 10 डाडनिंग स्ट्रीट के कम्युनिकेशन चीफ केरी पेरियर ने पद छोड़ने का ऐलान कर दिया है। स्काटलैंड की नेता निकोला स्टर्जन ने कहा कि मे ने चुनाव का फैसला लेने से पहले देश हित नहीं पार्टी हित देखा है। जवाब में थेरेसा ने कहा कि हम आम चुनाव चाहते हैं। ब्रिटेन को स्थायित्व चाहिए। हम ईयू से बाहर हो रहे हैं, जो बदला नहीं जा सकता है।
öअनिल नरेंद्र
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नतीजे तय करेंगे तीनों दलों का भविष्य ः तीनों के लिए चुनौती

दिल्ली नगर निगम चुनाव में इस बार गर्मी ने धाकड़ वोटर का दम निकाल दिया। पिछली बार निगम  चुनाव के लिए मतदान वर्ष 2012 में 15 अप्रैल को हुए थे। उस समय मतदान का प्रतिशत 59 फीसदी रहा था। उस दिन अधिकतम तापमान 30 डिग्री सेल्सियस था, इस वर्ष मतदान के दिन अधिकतम तापमान 39.6 डिग्री था। वोटों के प्रतिशत गिरने की एक वजह यह भी रही। कुछ वोटर नाराज थे उन्होंने किसी को वोट नहीं दिया। दिल्ली के ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा वोट पड़े। बड़ी कालोनियों के वोटर घर से निकले ही नहीं। अब सभी चाय के कप के साथ हार-जीत का इंतजार कर रहे हैं। नगर निगम चुनाव के परिणामों की जहां सभी दिल्लीवासी प्रतीक्षा कर रहे है, वहीं यह चुनाव भाजपा, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी तीनों राजनीतिक दलों के लिए खुद को साबित करने के लिहाज से बड़ी चुनौती है। भाजपा इन चुनावों में भी अपनी पैठ साबित करना चाहती है। कांग्रेस को अपना अस्तित्व बचाने की चिंता है तो आम आदमी पार्टी के लिए यह अपना जनाधार आंकने का मौका है। भाजपा दिल्ली  प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी का यह पहला चुनाव है। ऐसे में उन पर बेहतर प्रदर्शन का दबाव है, तो कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अजय मकान के सामने पार्टी की खोई हुई जमीन को वापस पाने की चुनौती है। वहीं आप को विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत के बाद, अब पार्टी के सामने दिल्ली वासियों के दिल में जगह बनाए रखने की परीक्षा है। आम आदमी पार्टी (आप) के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के लोगों से अपील की थी कि वे वोट डालने जाएं तो अपने परिजनों का चेहरा सामने रखें। उन्होंने कहा कि भाजपा के निगम में सत्ता में रहते ही गंदगी के चलते दिल्ली के लोगों को डेंगू व चिकनगुनिया जैसी बीमारियों का सामना करना पड़ा, ऐसे में यदि आम आदमी पार्टी नगर निगम में आती है तो उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी कि इस वर्ष डेंगू व चिकनगुनिया जैसी बीमारियां दिल्ली में न हों। दिल्ली विधानसभा चुनव में सोशल मीडिया पर मफलरमैन के नाम से चर्चा में रहे अरविंद केजरीवाल अब नगर निगम चुनाव में झाड़ूमैन बनकर लौटे हैं। आम आदमी पार्टी की सोशल मीडिया टीम ने इस बार उनका अभियान झाड़ूमैन के नाम से चलाया है। आप आदमी पार्टी का कहना है कि विधानसभा चुनाव में मफलरमैन की सफलता को देखते हुए इस प्रयोग को दोहराया जा रहा है। भाजपा अगर चुनाव जीती तो एंटी इन्कमबैंसी पर मोदी लहर भारी पड़ेगी। जीत से भाजपा को दिल्ली में मजबूती मिलेगी। केजरीवाल की घेराबंदी तेज होगी नगर निगम चुनाव की जीत गुजरात, हिमाचल जैसे राज्यों में भाजपा की चुनावी तैयारियों को बल देगी। भाजपा हारी तो मोदी लहर पर विरोधी दल सवाल उठाएंगे भाजपा के खिलाफ मोर्चा बंदी तेज हो सकती है। कांग्रेस जीती तो पार्टी के लिए यह संजीवनी साबित होगी। अजय माकन टीम राहुल के सदस्य हैं इसलिए जीत को राहुल के साथ भी जोड़ा जाएगा। कांग्रेस अगर थोड़ा सा भी बेहतर प्रदर्शन करती है तो गुजरात सहित अन्य चुनावों में इसे भुनाएगी। पार्टी निगम की जीत को कांग्रेस मुक्त भारत की बात करने वाली भाजपा पर पलट वार के रूप में इस्तेमाल कर सकती है। अगर कांग्रेस हारी तो दिल्ली में कलह बढ़ेगी। अजय माकन होंगे निशाने पर। अब बात करते हैं अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी की। बहुत से लोग नगर निगम चुनाव को दिल्ली सरकार की कारगुजारी पर जनमत संग्रह मान रहे हैं। पंजाब और गोवा चुनाव में करारी हार के बाद अगर दिल्ली में भी केजरीवाल अच्छा प्रदर्शन नहीं करते तो उनकी सरकार पर दबाव बढ़ेगा। अगर आम आदमी पार्टी हारी तो उसका एकमात्र गढ़ दिल्ली कमजोर होगा। केजरीवाल पर अपनी कथनी और करनी में फर्क का आरोप लगेगा। पार्टी में अंतर्विरोध बढ़ेगा और उसे अंतरकलह से दो चार होना पड़ेगा। केंद्र सरकार का दबदबा दिल्ली में और बढ़ेगा। केजरीवाल के फैसलों पर भी सवाल उठेंगे। इसलिए तीनों दलों के लिए नगर निगम चुनाव परिणाम महत्वपूर्ण हैं जो तीनों दलों का भविष्य कुछ हद तक तय करेंगे।

Tuesday, 25 April 2017

गौहत्या तो ठीक पर सड़कों पर लावारिस गायों का रखवाला कौन?

इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि देश में गौहत्या पर प्रतिबंध लगाने के लिए देशभर में एक कानून बने। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने भी मांग की है। पर गौहत्या का मुद्दा अलग है पर देशभर में लावारिस गायों की दुर्दशा पर भी चर्चा होनी चाहिए। पिछले कुछ समय से गायों को लेकर पूरे देश में विवाद बढ़ गया है। फिर चाहे राजस्थान में हो, मध्यप्रदेश या महाराष्ट्र हो वहां की बात तो छोड़िए पहले दिल्ली में गायों का क्या हाल है इस पर तो नजर डालें। एमसीडी से मिली जानकारी के मुताबिक दिसंबर 2016 में डाबर हरे कृष्ण गौसदन में करीब 192 गायों की मौत हुई यानि हर रोज औसतन 6 से ज्यादा। गोपाल गौसदन में लगभग 4000 गायों को रखने की व्यवस्था है। यहां भी 172 गायों की मौत हो गई थी। दिल्ली की सबसे बड़ी श्रीकृष्ण गौशाला में साढ़े सात हजार गाय हैं। यहां भी 295 गायों की मौत हुई। यानि हर रोज आठ गायों ने दम तोड़ा। 1994 में दिल्ली में बीजेपी की सरकार थी। मदन लाल खुराना मुख्यमंत्री थे। उसी वक्त से गौशाला के नाम पर जमीनें आवंटित हुई। 1 रुपए प्रति एकड़ का रेट। उसी वक्त लंबी-चौड़ी जमीनें ले ली गई। तब से अब तक अगर गायों की देख-रेख की जाती तो मुमकिन है कि ये गौशालाएं आज स्वस्थ गायों का बड़ा केंद्र होतीं। लेकिन आज तो ये गौशालाएं गायों के लिए नर्क बन चुकी हैं। गायों के रखरखाव के लिए दिल्ली सरकार गौशालाओं को प्रतिदिन, प्रति गाय 20 रुपए अनुदान राशि देती है। इनमें खानपान का अनुदान भी शामिल है। वहीं नगर निगम की ओर से भी एक गाय के खानपान के लिए 20 रुपए प्रतिदिन अनुदान दिया जाता है। यानि की गौशाला के पास प्रति गाय 40 रुपए प्रतिदिन आते हैं। लेकिन यह नाकाफी है। इसमें दूध की कीमत भी जुड़ जाए तब भी इनके खानपान का खर्चा पूरा नहीं हो पाता है। बताया जाता है कि एक गाय को प्रतिदिन 15 से 20 किलो तक हरा चारा, पांच से सात किलो तक भूसा, दो से ढाई किलो तक दाना और चोकर खाने को दिया जाता है जिस पर 250 रुपए का खर्चा आता है। दिल्ली में गायों की सुरक्षा और सड़कों पर घूमने वाले लावारिस पशुओं को लेकर सरकार ने पांच शैलटर होम्स के साथ करार किया है। इनमें गाय के अलावा बैल, भैंस, बछड़ा आदि को भी रखा जाता है। इन शैलटरों का संचालन एनजीओ के पास है लेकिन सरकार इनको बकायदा राशि प्रदान करती है। एमसीडी की टीम में शामिल एक कर्मचारी ने कहा कि हमारा काम सिर्फ गाय पकड़कर पास ही की गौशाला तक छोड़ना होता है। गौशाला की स्थिति क्या है? यह कोई जाकर देख सकता है। गाय बीमार पड़ी हैं, कहीं घायल पड़ी हैं, कई बार गौशाला संचालक बाहरी लोगों को घुसने नहीं देते हैं।  नगर निगम के कर्मियों का पशुओं के प्रति रवैया भी ठीक नहीं है। गायों को उतारने-चढ़ाने के दौरान काफी लापरवाही बरती जाती है जिससे पशु घायल हो जाते हैं। जितना भी दूध निकलता है उसका अधिकांश हिस्सा दवाओं में उपयोग हो जाता है शेष कर्मचारी ठिकाने लगा देते हैं। 20 फीसदी गाय हैं जो केवल दो फीसदी दूध देती हैं। गौहत्या पर प्रतिबंध की मांग करने वालों से हम इतना कहना चाहते हैं कि इन सड़कों पर लावारिस घूमने वाली गायें जो प्लास्टिक बैग तक खाकर अपना पेट भरती हैं उनका तो रखरखाव करो। गाय हर देशवासी के लिए पूज्यनीय है पर शायद ही किसी को सड़कों पर घूमती लावारिस गायों की चिंता है।
-अनिल नरेन्द्र

क्या कश्मीर में भाजपा-पीडीपी गठबंधन फेल है

कश्मीर घाटी में कानून व्यवस्था की स्थिति विस्फोटक होती जा रही है। जम्मू-कश्मीर में पहली बार सत्ता का स्वाद चखने वाली भाजपा का जायका राज्य में सक्रिय अलगाववादियों ने पत्थरबाजों व सहयोगी पीडीपी नेताओं की आपसी खींचतान ने स्थिति इतनी बिगाड़ दी है जो इससे पहले नहीं देखी गई। खुद प्रधानमंत्री स्वीकार करते हैं जब वह कहते हैं कि हमारे फौजी कश्मीर में बाढ़ आने पर लोगों की जान बचाते हैं, लोग उनके लिए तालियां बजाते हैं लेकिन  बाद में हमारे फौजियों पर पत्थर भी बरसाते हैं। ताजा स्थिति यह है कि घाटी में सुरक्षाबलों पर अलग-अलग स्थानों पर प्रतिदिन औसतन आठ बार पत्थर बरसाए जा रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक आतंकियों के सर्च अभियान में बाधा डालने पर  ही सुरक्षाबलों द्वारा सख्त कार्रवाई होती है। अन्य मामलों में भी हमारे बहादुर जवान पत्थर झेलकर भी संयम बरतने पर मजबूर हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि एक साल में पत्थरबाजों की 2784 घटनाएं हुई हैं। हर माह औसतन 240 बार पत्थरबाजी हो रही है। पिछले साल अप्रैल में 97 स्थानों पर पत्थरबाजी की घटनाएं हुई थी। अप्रैल के 15 दिनों में 60 से अधिक घटनाएं हो चुकी हैं। श्रीनगर उपचुनाव के बाद पत्थरबाजी की घटनाएं और बढ़ गई हैं। आतंकी बुरहान वानी की मुठभेड़ में मौत के बाद जुलाई 2016 में उपद्रवियों ने सुरक्षाबलों पर 837 स्थानों पर पत्थर बरसाए। पर इन दिनों कश्मीर में कानून व्यवस्था की हालत इतनी खराब है उतनी हाल के इतिहास में शायद ही कभी रही हो। अब तो स्कूली छात्र क्लासों से निकलकर यूनिफार्म में सुरक्षाबलों पर पत्थर फेंकने लगे हैं। मुश्किल से पखवाड़े भर पहले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राज्य में मेनानी-नराटी सुरंग का उद्घाटन करते हुए राज्य के युवाओं से अपील की थी कि उनके पास दो विकल्प हैं-टूरिस्म (पर्यटन) और टेरोरिज्म (आतंकवाद) जिनमें से वे चुन लें। रोजगार और शिक्षा के जरिए घाटी में गुमराह युवाओं और छात्रों को मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास जरूरी है। पहले उनसे संवाद स्थापित किया जाए और उनका भरोसा जीता जाए। लेकिन यह करना तो पीडीपी सरकार को है। क्या जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगाना बेहतर विकल्प होगा? थलसेना अध्यक्ष जनरल विपिन रावत के जम्मू-कश्मीर के दौरे के बाद जो रिपोर्ट सरकार को सौंपी गई उसमें राज्य में कानून व्यवस्था की हालत को चिंताजनक बताए जाने के साथ ही इसकी मूल वजह महबूबा मुफ्ती सरकार की पत्थरबाजों के साथ बरती जाने वाली नरमी को बताया गया है। कुछ इसी तरह की रिपोर्ट राज्य के राज्यपाल एनएन वोहरा और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत ढोभाल  ने भी दी है। भाजपा ने जो कुछ भी सोचकर राज्य में पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने का जो फैसला किया था वह तजुर्बा फेल हो गया। कश्मीर में इससे बदतर हालात नहीं हो सकते। सूत्रों की मानें तो भाजपा ने राज्य में तलाक के लिए अपना मन बना लिया है लेकिन तलाक से पहले वह एक आखिरी कोशिश करना चाह रही है इसी के चलते भाजपा  अध्यक्ष अमित शाह का 29 अप्रैल को जम्मू दौरा तय किया गया है। वहीं राम माधव की पीडीपी नेताओं से राज्य की कानून व्यवस्था को लेकर लंबी चर्चा हुई। दरअसल भाजपा के लिए जम्मू-कश्मीर काफी भावनात्मक राज्य रहा है परंतु जिस तरह से राज्य में लगभग गृहयुद्ध की स्थिति बनी हुई है उससे कहीं न कहीं भाजपा को यह भय सताने लगा है कि यदि वह सत्ता में बनी रही और राज्य के हालात नहीं सुधरे तो 2019 में विपक्षी दल इसे जोर-शोर से चुनावों में उठाएंगे तो पाकिस्तान भी पत्थरबाजी की घटनाओं की आड़ में इसे पुन अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उसे आजादी की लड़ाई के रूप में  प्रचारित करने लगेगा। जिसका असर न सिर्फ भाजपा की राष्ट्रवाद छवि पर पड़ सकता है बल्कि इसका उसे चुनावी राजनीति में खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना भी बेहतर विकल्प हो सकता है।

Sunday, 23 April 2017

पहले आईएसआई और अब आईएस

पाकिस्तानी सेना और उसकी कुख्यात खुफिया एजेंसी आईएसआई व आईएस ने भारत के खिलाफ कई मोर्चे खोल दिए हैं। जम्मू-कश्मीर में आए दिन हमारे सुरक्षा बलों पर हमले होते रहते हैं तो देश के शेष भागों में उनके समर्थित आतंकी यकायक सक्रिय हो गए है। देश में बड़े हमले की साजिश रच रहे आईएस के खोरासान मॉड्यूल के दस संदिग्ध आतंकियों को यूपी एटीएस समेत छह राज्यों की पुलिस टीमों ने बृहस्पतिवार को दबोच लिया। बृहस्पतिवार को यूपी, दिल्ली, महाराष्ट्र, पंजाब, बिहार और आंध्र प्रदेश की संयुक्त कार्रवाई में आईएस के चार संदिग्ध आतंकियों को गिरफ्तार किया जबकि छह अन्य को पूछताछ के लिए हिरासत में लिया गया। यूपी एटीएस के महानिरीक्षक असीम अरुण ने बताया कि चार लोगों को आतंकी साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। इनकी देश में बड़े हमले की साजिश बनी थी। आतंकी संगठन आईएस भी अब हमारे लिए चिंता का सबब बनता जा रहा है। पढ़े-लिखे मध्यम वर्ग के युवा इसके निशाने पर हैं। मार्च तक देश में आईएस से संबंधित 75 आतंकी गिरफ्तार हुए हैं। आईएनए यूपी, बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र समेत कई राज्यों से आतंकियों को गिरफ्तार कर चुकी है। गिरफ्तार हुए आईएस आतंकियों में से करीब 20 के पास इंजीनियरिंग या स्नातक की डिग्री है। आईएस के संपर्क में आए 30 आतंकी मध्यम आय वर्ग वाले   परिवारों से हैं। वहीं 9 उच्च मध्यम परिवारों से और 13 गरीब परिवारों से ताल्लुक रखते हैं। ताजा खुलासों के बाद खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों की चुनौतियां बढ़ी हैं, तो हमारी चिंता भी। सच तो यह है कि तीन-चार साल पहले तक हमारी सरकारें आईएस के ऐसे किसी जाल से इंकार करती रहीं, लेकिन पिछले डेढ़-दो साल की ये गिरफ्तारियां खुद अपनी कहानी बयान कर रही हैं। हमें नहीं भूलना चाहिए कि अपने घर में बुरी तरह घिरने के बाद आईएस ने अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में अपनी जड़ें मजबूत की हैं और अब भारत उसके निशाने पर है और इनकी मदद करने के लिए आईएसआई पूरा समर्थन कर रही है। आईएसआई के स्लीपर सेल को एक्टीवेट कर उन्हें आईएस से जुड़ने को कहा जा रहा है। इंटरनेट के जरिए नई रिक्यूरटमेंट जोरों पर की जा रही है। एटीएस एडीजे ने बताया कि सभी संदिग्ध की उम्र 18 से 25 वर्ष है और वह अलग-अलग जगहों पर रहकर हमले की साजिश रच रहे थे, ये सभी युवक आतंकी संगठन के बारे में इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री से प्रभावित हैं। बड़े हमले को अंजाम देने के लिए ये एक-दूसरे से संपर्क में रहते हैं। समय है चौकसी और बढ़ाने का।

-अनिल नरेन्द्र

बाल-बाल बची नवाज शरीफ की कुर्सी

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ अप्रैल महीने के शिकार बनने से बाल-बाल बच गए हैं। दरअसल, इसी महीने अतीत  में पाकिस्तानी हुक्मरानों का तख्तापलट हुआ है, उन्हें उम्रकैद की सजा मिली है और फांसी पर लटकाया गया है। पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट की ओर से 3-2 से दिए गए बंटे  हुए फैसले के कारण नवाज शरीफ अपनी कुर्सी बचाने में फिलहाल बृहस्पतिवार को कामयाब रहे। बता दें कि पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट पनामा पेपर्स मामले में केस की सुनवाई कर रहा था। पिछले साल अमेरिका स्थित खोजी पत्रकारों के अंतर्राष्ट्रीय महासंघ ने पनामा पेपर्स के नाम से लीक दस्तावेज दुनिया से साझा किए। अवैध निवेशकों की सूची में शरीफ और उनके परिवार का नाम भी शामिल है। भ्रष्टाचार के चलते शरीफ को संसद सदस्यता से अयोग्य घोषित करने वाली याचिका पर पांच सदस्यीय सुप्रीम कोर्ट पीठ की तीन सदस्य आरोपों की जांच करने के पक्ष में थे जबकि दो जज शरीफ को अयोग्य घोषित करने के पक्ष में थे। बहुमत के आधार पर आए 540 पेज के फैसले के आरोपों की जांच के लिए संयुक्त दल (जेआईटी) बनाने का फैसला किया गया, जिसके समक्ष शरीफ और उनके बेटों हसन और हुसैन को पेश होना होगा। इस जांच दल में फेडरल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी, नेशनल अकाउंटेबिलिटी ब्यूरो, सिक्यूरिटी एंड एक्सचेंज कमिशन और मिलिट्री इटेलिजेंस के अधिकारी होंगे। जेआईटी के हर दो हफ्ते की जांच की प्रगति रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पेश करनी होगी और 60 दिनों में फाइनल रिपोर्ट देनी होगी। दिलचस्प है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला उसी महीने में आया है जिस महीने अब से पहले शरीफ को सन  2000 में उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी और उनकी सरकार 1993 में बर्खास्त कर दी गई थी। प्रधानमंत्री शरीफ की सरकार को तत्कालीन राष्ट्रपति गुलाम इशाक खान ने कथित भ्रष्टाचार को लेकर अप्रैल 1993 में बर्खास्त कर दिया था। इसके बाद 6 अप्रैल 2000 को कुख्यात विमान अपहरण मामले में एक अदालत ने उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई थी। हालांकि अन्य पाकिस्तानी प्रधानमंत्रियों के लिए भी अप्रैल का महीना बुरा रहा है। 4 अप्रैल 1979 को पूर्व प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को एक प्रमुख नेता की हत्या की आपराधिक साजिश रचने को लेकर फांसी के फंदे पर लटका दिया था। इसके कई वर्ष बाद  26 अप्रैल 2012 को तत्कालीन प्रधानमंत्री युसूफ रजा गिलानी को अदालत के एक आदेश की अवहेलना का दोषी ठहराया गया। उसी दिन गिलानी को इस्तीफा देना पड़ा था। पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को फिलहाल राहत जरूर मिल गई है पर उनकी अर्थारिटी जरूर कम होगी। पाकिस्तान में अब सेना और ज्यादा हावी हो जाएगी। इस वजह से भारत-पाकिस्तान के रिश्तों में कड़वाहट और बढ़ सकती है। हालांकि दोनों देशों के रिश्तों में पहले ही काफी तनाव है। कुछ हद तक यह रिश्ते कुलभूषण जाधव के भविष्य पर भी टिके हुए हैं। चूंकि नवाज शरीफ पहले से और कमजोर होंगे इसलिए सेना का उनकी सरकार पर और हावी होना स्वाभाविक है। पनामा पेपर्स मामले में सुप्रीम कोर्ट का आदेश नवाज शरीफ को दो तरह से प्रभावित करता है। कोर्ट ने शरीफ को गद्दी से तुरंत हटाने लायक सुबूत नहीं माने हैं हालांकि कहीं कुछ ठीक-ठाक गड़बड़ पहली नजर में देखी है। जांच टीम के गठन से नवाज राजनीतिक और नैतिक दोनों ही स्तर पर कमजोर पड़ते लग रहे हैं। इसलिए इमरान खान और अन्य नेताओं ने उनके इस्तीफे की मांग कर दी है। आने वाले दिनों में नवाज के और कमजोर होने से अब वह सेना के रहमोकरम पर हैं। सेना इस नई डिवेलपमेंट का पूरा फायदा उठाएगी और मनमानी कर सकती है।

Saturday, 22 April 2017

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दोनों हाथों में लड्डू

बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में सीबीआई की याचिका पर सुनवाई करते हुए माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अब लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती समेत दूसरे वरिष्ठ भाजपा नेताओं के खिलाफ मुकदमा चलाने का जो आदेश दिया है, वह एक बड़ा फैसला तो है ही साथ-साथ इसके निहितार्थ भी व्यापक है। अदालत ने माना है कि केस में पहले ही काफी देर हो चुकी है, इसलिए अब रोज सुनवाई करके इसे दो साल के अंदर निपटाना होगा। मामले को रायबरेली से लखनऊ स्पेशल कोर्ट हस्तांतरित कर दिया गया है। शीर्ष अदालत अब तक हुए विलंब पर कितनी गंभीर है, यह इससे भी जाहिर होता है कि सुनवाई पूरी न होने तक इससे जुड़े किसी भी न्यायाधीश का न तो तबादला होगा और न ही बिना किसी ठोस कारण के सुनवाई न टाले जाने जैसी व्यवस्थाएं भी उसने साथ-साथ दे दी हैं। 13 आरोपियों में से तीन का निधन हो चुका है, इसलिए मुकदमा 10 के खिलाफ ही चलेगा। इसमें एक यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह अभी राजस्थान के राज्यपाल हैं। इसलिए उनके खिलाफ फिलहाल मुकदमा उनके इस पद से हटने के बाद चलाया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट इस मामले को लेकर काफी गंभीर है। याद रहे, 6 दिसंबर 1992 को हजारों की संख्या में कार सेवकों ने अयोध्या पहुंचकर बाबरी ढांचा गिरा दिया था, जिसके बाद देश भर में सांप्रदायिक दंगे हुए थे। बाबरी विध्वंस के बाद दो एफआईआर की गई थीं। एक उन अनाम कार सेवकों के खिलाफ जिन्होंने विवादित ढांचे को गिराया था, दूसरी उत्तेजक भाषण देने और द्वेष फैलाने के आरोप में बीजेपी, शिवसेना और विश्व हिन्दू परिषद के वरिष्ठ नेताओं के विरूद्ध। बाबरी ढांचा ढहाए जाने के पीछे तर्क यह था कि यह राम मंदिर को तोड़कर बनाई गई है और यह वहां स्थित है जहां भगवान राम का जन्म हुआ था। इस तरह यह हिन्दू आस्था का प्रश्न बन गया। 25 वर्षों से लटका यह मामला अगर आगे भी अन सुलझा रह गया तो जनमानस की उलझन भी बरकरार रहेगी और सांप्रदायिक तनाव बना रहेगा। इस लिहाज से यह देश हित में ही है कि यह विवाद हमेशा-हमेशा के लिए सुलझे। जमीन-जायदाद का मामला अलग है और सुप्रीम कोर्ट ने इसे आपसी बातचीत से सुलझाने की सलाह सभी पक्षों को दी है। बेशक सीबीआई ने मुकदमा चलाने की सलाह तो दी है पर 25 साल पुराने इस मामले के साक्ष्य और सुबूत  इकट्ठा कर इसे तार्किक अंत तक पहुंचाना उसके लिए भी चुनौती होगी। इसी तरह इस मामले में केन्द्र सरकार को भी अपना रुख स्पष्ट करना होगा। उसने अयोध्या मामले में राम मंदिर निर्माण को भले ही अपनी प्राथमिकता में रखा है, पर यह भी कहा है कि वह इस मामले में अदालत के निर्देशों के अनुसार चलेगी। चूंकि शीर्ष अदालत ने बाबरी विध्वंस मामले में भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के खिलाफ आपराधिक साजिश का मुकदमा चलाए जाने का निर्देश देने के साथ मुकदमे की रोज सुनवाई करने और दो साल में पूरी प्रक्रिया खत्म करने का निर्देश दिया है, ऐसे में केंद्र सरकार के लिए भी यह परीक्षा की घड़ी है कि सीबीआई के साथ सहयोग करते हुए इस मामले को वह किस तरह उसकी तार्किक परिणति तक पहुंचाती है? कुछ लोग सीबीआई द्वारा केस चलाने की टाइमिंग पर सवाल उठा रहे हैं। यह फैसला तब आया है जब अगले राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने वाली है। आरजेडी नेता लालू प्रसाद यादव ने टिप्पणी की है कि यह सब आडवाणी के नाम को राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी से काटे जाने के लिए पीएम की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। भले ही आपराधिक मामला चलते रहने के दौरान चुनाव लड़ने पर रोक नहीं है, लेकिन लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं के लिए आपराधिक साजिश का मुकदमा तगड़ा झटका माना जा सकता है। दरअसल ये दोनों शीर्षस्थ नेता जुलाई में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव की उम्मीदवारी की दौड़ में शामिल हैं। इन कयासों को तब बल मिला जब भुवनेश्वर में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जोशी को रात के खाने पर आमंत्रित किया था। हालांकि वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के कारण किसी के राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की संभावना नहीं होती। हालांकि पार्टी सूत्रों का यह भी कहना है कि चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने इन नेताओं के खिलाफ आपराधिक साजिश का मुकदमा चलाने का आदेश दिया है इसलिए नैतिक आधार पर राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए इन नेताओं के नाम की चर्चा की संभावना क्षीण पड़ गई है। संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप ने कहा कि चूंकि इन नेताओं पर महज आपराधिक साजिश का आरोप है इसलिए इनके चुनाव लड़ने पर किसी तरह की रोक नहीं लगाई जा सकती है। पूर्व अडिशनल सॉलिस्टिर जनरल सिद्धार्थ लूथरा कहते हैं कि मामले को अब सिर्फ नैतिकता की कसौटी पर देखना होगा। कानून में कहीं भी चुनाव लड़ने पर रोक नहीं है, लेकिन मामला नैतिकता का है। किसी के खिलाफ फौजदारी केस अगर पेडिंग है तो चुनाव लड़ने पर रोक नहीं है, इतना ही नहीं अगर कोई राष्ट्रपति या राज्यपाल चुन लिया जाता है तो उसे संविधान के अनुच्छेद-361 के तहत छूट मिली है। यानि उसके खिलाफ कार्रवाई नहीं चल सकती। सवाल राष्ट्रपति पद के चुनाव का है और यहां नैतिकता का सवाल अहम है। क्योंकि ऐसे पद के लिए उन लोगों को चुनाव नहीं लड़ना चाहिए जिसके खिलाफ दो समुदायों में नफरत फैलाने वाले भड़काऊ  भाषण व बाबरी ढांचे को गिराने की साजिश का आरोप हो। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति पद की गरिमा है और इन आरोपों के साथ उस पद के लिए चुनाव लड़ना नैतिकता के खिलाफ है। शिकायती कोई व्यक्ति नहीं है बल्कि सीबीआई की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश पाfिरत किया है। ऐसे में कोर्ट ने जब साजिश के आरोपों के मामले में भी ट्रायल चलाने की बात कही है तो अब राष्ट्रपति की उम्मीदवारी के कयास पर विराम लगाना ही बेहतर विकल्प होगा। कुछ लोगों का मानना है कि भारतीय जनता पार्टी के दोनों हाथों में लड्डू दे दिया है सुप्रीम कोर्ट ने। बीती सदी में नब्बे के दशक में सबसे बड़ा सियासी मुद्दा राम मंदिर था। अब अगले दो साल तक फिर से केंद्रीय राजनीति का केंद्र बिंदु अयोध्या मुद्दा ही होगा। फैसले के बाद इस मुद्दे के नए सिरे से गरमाने के आसार हैं। चूंकि प्रतिदिन सुनवाई होगी और सुप्रीम कोर्ट द्वारा फैसले के लिए तय दो साल का समय ठीक अगले लोकसभा चुनाव के दौरान अप्रैल वर्ष 2019 में समाप्त होगा। ऐसे में राम मंदिर मुद्दा 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान फिर से सबसे बड़ा मुद्दा बन सकता है। जैसा मैंने कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दोनों हाथों में लड्डू हैं।

-अनिल नरेन्द्र

Friday, 21 April 2017

क्या सिर्फ जेनेटिक दवाओं से ही स्वास्थ्य क्षेत्र ठीक हो जाएगा?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सूरत में दिए इस बयान का स्वागत है कि जनता को सस्ती दवा उपलब्ध हो और इसके लिए उनकी सरकार काम कर रही है। आज के समय में जिसके पास पर्याप्त धन राशि नहीं हो उस परिवार में कोई गंभीर बीमारी आ जाए तो वह इलाज के बोझ तले ही दब जाता है। दवाइयों और अन्य चिकित्सा सामग्रियों जिनमें अस्पताल शामिल है के दाम इतने ज्यादा हैं कि उसकी कमर टूट जाती है। देश में सस्ती दवाएं उपलब्ध तो हैं लेकिन मरीजों तक उनकी पहुंच नहीं है। दवा कंपनियों और ज्यादातर डाक्टरों की मिली-भगत से सस्ती जेनेटिक दवाओं पर ब्रांडेड दवाएं हावी हो रही हैं। निजी कंपनियां जेनेटिक और ब्रांडेड दोनों ही तरह की दवा बनाती हैं। मगर जेनेटिक की मार्पेटिंग नहीं होती और सुनिश्चित तरीके से इसे मरीजों तक पहुंचने से रोक दिया जाता है। अगर सरकार इस मामले में कानून लाती है तो निश्चित रूप से आम जनता को इसका फायदा मिलेगा। दवा दुकानों पर सस्ती जेनेटिक दवाएं मिलती नहीं हैं। उनका तर्क है कि मरीज खरीदता नहीं हैं। मरीज इसलिए नहीं खरीदता क्योंकि डाक्टर लिखते ही नहीं हैं। जब डाक्टर लिखेंगे ही नहीं तो कैमिस्ट के पास मांग नहीं आती। जेनेटिक दवा वह है, जिसे उसके मूल सॉल्ट के नाम से जाना जाता है। वह दवाएं जिनके पेटेंट खत्म हो चुके होते हैं। ऐसी दवाएं जो सिर्फ एक सॉल्ट से बनी हों। अमेरिका या डब्ल्यूएमओ के अनुसार जिस दवा का पेटेंट खत्म हो चुका हो। मगर भारत के संदर्भ में पेटेंट मुद्दा नहीं है। इधर पिछले दस साल में और कुछ नई दवाओं को छोड़ दिया जाए तो देश में तमाम दवाएं पेटेंट के बन रही हैं। हालांकि नरेन्द्र मोदी सरकार ने करीब 700 दवाओं को सस्ता किया है, लेकिन कम ही डाक्टर हैं, जो इस सूची की दवा लिखते हैं। डॉक्टरोंअस्पतालों और दवा निर्माताओं की मिलीभगत के कारण आम आदमी का इलाज के नाम पर इतना शोषण हो रहा है जिसकी पहले शायद कल्पना तक नहीं की गई हो पिछले तीन दशक से स्वास्थ्य सेवाओं के बढ़ते निजीकरण और व्यावसायीकरण के कारण डाक्टरों ने ब्रांडेड दवाओं का परचा चला रखा है। इससे दवा कंपनियों की आय बड़ी है और डाक्टरों का कमीशन बढ़ा है, जबकि आम आदमी परिजनों की बीमारी में अपना घर-बार गिरवी रख रहा है। ऐसे में प्रधानमंत्री का यह कहना भविष्य के लिए उम्मीद पैदा करता है कि देश के डाक्टर जेनेटिक दवाएं लिखें, इसके लिए जल्द कानून बनेगा। इस कानून को जितनी जल्दी सामने लाया जाए उतना ही अच्छा है पर केवल कानून बनने से ही सब कुछ ठीक हो जाएगा ऐसा भी नहीं माना जा सकता, जब तक यह कमीशन और अन्य उपहारों की आदत डाक्टर की दूर नहीं होती तब तक समाधान मुश्किल है।

-अनिल नरेन्द्र

माल्या के खिलाफ ब्रिटेन में कानूनी प्रक्रिया आरंभ

बैंकों का 9000 करोड़ रुपए का कर्ज नहीं चुकाने व धोखाधड़ी के आरोप में घिरे भगोड़े भारतीय कारोबारी विजय माल्या को लंदन में गिरफ्तार कर लिया गया। भारत सरकार के प्रत्यर्पण अनुरोध पर लंदन पुलिस स्काटलैंड यार्ड ने उन्हें मंगलवार को गिरफ्तार कर वेस्ट मिंस्टर की अदालत में पेश किया लेकिन इसके तीन घंटे बाद ही उन्हें जमानत मिल गई। अदालत में अब उनके प्रत्यर्पण मामले की सुनवाई होगी। भारतीय बैंकों की 9000 करोड़ रुपए से ज्यादा की देनदारी का सामना कर रहे माल्या भारत में वांछित अपराधी घोषित किए गए हैं और पिछले 2 मार्च से लंदन में रह रहे हैं। विजय माल्या को कड़ी शर्तों पर जमानत मिली है। अदालत ने उन्हें लगभग 5.36 करोड़ रुपए की जमानत पर रिहा किया। मामले की सुनवाई 17 मई को होनी है और तब तक माल्या को ब्रिटिश प्रत्यर्पण नियमों को सख्ती से पालन करना होगा। इसके तहत उन्हें उस समय तक उसी पते पर रहना होगा, जिसे उन्होंने अदालत में दर्ज कराया है। लंदन में माल्या के खिलाफ कार्रवाई भारत द्वारा कुटनीतिक दबाव का नतीजा है। विजय माल्या के प्रत्यर्पण मामले में ब्रिटिश सरकार ने अपने वादे पर अमल करना शुरू कर दिया है। दरअसल बीते साल नवंबर में भारत दौरे पर आए ब्रिटिश प्रधानमंत्री टेरिजा में ने इस मामले में सहयोग करने का भरोसा दिया था। इसी के बाद ब्रिटिश सरकार ने माल्या के प्रत्यपर्ण की मांग को स्वीकार करते हुए वहां के संविधान के मुताबिक मामले को स्थानीय कोर्ट में भेजा था। विजय माल्या को भारत वापस लाने के लिए भारत सरकार को लंबी जद्दोजहद करनी होगी। यह तो इस कड़ी का पहला कदम है। प्रत्यर्पण की प्रक्रिया काफी जटिल व लंबी है। ब्रिटेन ने भारत को प्रत्यर्पण के मामले में द्वितीय श्रेणी के देशों में रखा है। इसके तहत प्रत्यर्पण की प्रक्रिया कठोर और लंबी है। ब्रिटेन के साथ भारत के करीब 10 भगोड़े अपराधियों का प्रत्यर्पण का मामला पहले ही पेडिंग है। भारत को सिर्फ विजय माल्या का ही इंतजार नहीं बल्कि ऐसे कई लोग हैं जो ब्रिटेन में रह रहे हैं। कई मामलों  को ब्रिटेन खारिज भी कर चुका है। वर्तमान में जो दस प्रत्यर्पण अनुरोध लंबित हैं उनमें प्रमुख है ः ललित मोदी, बीसीसीआई में वित्तीय गड़बड़ी के आरोपी हैं। 2009 से ब्रिटेन में रह रहे हैं। संगीतकार नदीम सैफी ः गुलशन कुमार की हत्या की साजिश का आरोपी भारत प्रत्यर्पण का केस हार चुका है। सट्टेबाज संजीव चावला ः मैच फिक्सिंग मामले में द. अफ्रीकी क्रिकेटर हैंसी क्रोन्ये से करोड़ों का लेद-देन। इसके अलावा राजेश कपूर, अतुल सिह, राज कुमार पटेल, जतिंदर कुमार  इत्यादि का मामला लंबित है। फिलहाल तो इतनी ही सफलता माना जाए कि ब्रिटेन में माल्या के खिलाफ कानूनी प्रक्रिया आरंभ हो गई है।

Thursday, 20 April 2017

विपक्षी दलों की एकता बनी ईवीएम मशीन

ईवीएम तो विपक्षी एकता का मुद्दा बन गया है। ईवीएम मशीनों द्वारा कथित तौर पर गलत मतदान करने पर विरोधी दल संसद से लेकर सड़कों तक एक दिखे। निर्वाचन आयोग और राष्ट्रपति के यहां जाकर भी विरोधी दलों के प्रतिनिधिमंडल ने एकजुटता दिखाई है। ईवीएम के खिलाफ बोलने की शुरुआत करने वाली मायावती ने मुद्दे को संसद में भी उठाया जिस पर जमकर हंगामा हुआ। दिल्ली के सीएम अरविन्द केजरीवाल तो आए दिन इसे उठाते रहते हैं। अब तो मायावती की विरोधी रही समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने भी अपनी आवाज उठा दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक में इसका जिक्र भी किया। भुवनेश्वर में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने ईवीएम समेत अवार्ड वापसी के मुद्दे पर विरोधी दलों पर जमकर हल्ला बोला। विरोधी दलों के आरोप को खारिज करते हुए पीएम ने कहा कि यह विपक्षी दलों की फैक्टरी की उपज है जो ठहर नहीं सकती। उन्होंने कहा कि हमारा मकसद केवल सरकार को बदलना नहीं बल्कि समाज को बदलना है। ईवीएम समेत अवार्ड वापसी के मुद्दों पर उन्होंने कहा कि कुछ मुद्दे जबरन बनाए जाते हैं और उनका उद्देश्य वह मुद्दा कतई नहीं होता है। ईवीएम भी ऐसा ही मुद्दा है। उन्होंने कहा कि इससे पहले चर्चों पर हमले और अवार्ड वापसी को मुद्दा बनाया गया था। पीएम ने तीखा कटाक्ष करते हुए कहा कि अब अवार्ड वापसी वाले कहां हैं? ऐसे मुद्दे ज्यादा समय तक टिक नहीं सकते। जहां तक चुनाव आयोग का सवाल है उसकी स्थिति कभी-कभी कंफ्यूज जरूर कर देती है। मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) नसीम जैदी ने केंद्र सरकार से आग्रह किया है कि वह पेपर ट्रेल मशीनों की समय पर खरीद के लिए तत्काल धन जारी करे ताकि 2019 के लोकसभा चुनाव में इन मशीनों को उपयोग में लाया जा सके। जैदी ने यह भी कहा कि अवमानना याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आयोग को वह समय सीमा बताने का निर्देश दिया है जिसके भीतर वीवीपीएटी की पूरी प्रणाली अमल में लाई जाएगी। सीईसी ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि मौजूदा माहौल से उनका मतलब क्या है? लेकिन लगता है कि विपक्ष की ओर से ईवीएम की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए जाने का हवाला दे रहे थे। देश के 16 दलों ने हाल ही में अधिक पारदर्शिता लाने के लिए मतपत्र वाली व्यवस्था फिर शुरू करने का आग्रह किया था। अपने पत्र में जैदी ने यह याद दिलाया कि वह सरकार को पहले ही सूचित कर चुके हैं कि वीवीपीएटी की आपूर्ति के लिए आर्डर फरवरी 2017 तक नहीं दिया गया तो सितम्बर 2018 तक वीवीपीएटी की आपूर्ति मुश्किल होगी। चुनाव आयोग को 2019 के लोकसभा चुनाव में सभी मतदान केंद्रों को कवर करने के लिए 16 लाख से अधिक पेपर ट्रेल मशीनों की जरूरत होगी। इस पर 3,174 करोड़ रुपए की लागत का अनुमान है।

-अनिल नरेन्द्र

क्लाइमैक्स पर पहुंचता दिल्ली एमसीडी चुनाव

दिल्ली नगर निगम के चुनाव में मुश्किल से तीन दिन बचे हैं। रविवार 23 अप्रैल को वोट पड़ेंगे। दिल्ली में होने जा रहे निगम चुनाव में 1.10 लाख से अधिक मतदाता पहली बार अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। इस लिहाज से इस बार निगम चुनाव में युवा मतदाताओं की भागीदारी को काफी अहम माना जा रहा है। स्थानीय निकायों के लिए हाल ही में किए गए परिसीमन के बाद यह पहला नगर निगम चुनाव है। 1,10,639 मतदाताओं में जो पहली बार अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे में से 24,825 ऐसे मतदाता हैं जो अभी-अभी 18 साल के हुए हैं। नगर निगम चुनावों के अंतिम दिनों में पार्टी के स्टार प्रचारकों की ताकत दिखेगी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत कई बड़े नेता अपनी-अपनी पार्टियों के लिए राजधानी पहुंचने वाले हैं। रविवार को भी सियासी दलों ने छुट्टी के दिन का फायदा उठाते हुए कई बड़ी रैलियों और सभाओं का आयोजन किया। दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन और पूर्व मंत्री जयराम रमेश समेत कई अन्य कांग्रेसी दिग्गजों ने अलग-अलग इलाकों में सभाओं को संबोधित किया। वहीं दिल्ली भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी ने सूफी गायक हंसराज हंस को साथ लेकर, फिल्म अभिनेत्री हेमा मालिनी ने भी अलग-अलग क्षेत्रों में प्रचार किया। जबकि आम आदमी पार्टी के प्रत्याशियों ने पदयात्राएं और जनसम्पर्क अभियान चलाया। चुनाव प्रचार के अंतिम दिनों में पार्टियों की योजना सघन प्रचार अभियान चलाने की है। इसमें भाजपा की ओर से योगी आदित्यनाथ समेत कई केंद्रीय मंत्री और बड़े नेता शामिल होंगे। भाजपा अपने स्टार प्रचारकों की पूरी टीम उतारने वाली है। वहीं कांग्रेस ने भी प्रचार के लिए 90 स्टार प्रचारकों की सूची तैयार की है। इनमें पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह व नवजोत सिंह सिद्धू आदि शामिल हैं। उधर दिल्ली राज्य निर्वाचन आयोग ने नगर निगम चुनाव में लोगों को जागरूक करने के लिए दिल्ली से ताल्लुक रखने वाले कई नामचीन हस्तियों को पत्र लिखा है। फिल्म स्टार अक्षय कुमार, प्रीति जिन्टा के साथ-साथ भारतीय क्रिकेट टीम के दो-तीन बड़े खिलाड़ियों से भी चुनाव आयोग ने सम्पर्क किया है, चुनाव आयोग ने इन नामचीन हस्तियों से एक अपील रिकार्ड कराने की गुजारिश की है। आयोग पहली बार इस तरह की पहल नगर निगम चुनाव में कर रहा है। पहले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में ऐसा होता था। वे दिन लद गए जब प्रचार के लिए तिपहिया ऑटो या रिक्शा लेकर इलाके में चुनाव प्रचार होता था। अब तो एमसीडी के सभी वार्डों में ई-रिक्शा की धूम मची हुई है। फिल्म गीत या देशभक्ति के गीतों को गाते हुए ये रिक्शा आजकल पूरी दिल्ली में प्रचार की धूम मचा रहे हैं। इनसे प्रत्याशियों को भी लाभ हो रहा है तो रिक्शा वालों की भी कमाई हो रही है। कुछ साल पहले तक का हाल यह रहा था कि निगम या अन्य चुनावों के लिए प्रत्याशियों को तिपहिया ऑटो की सेवाएं लेनी होती थीं या सामान्य रिक्शा पर प्रचार करना पड़ता था। लेकिन नगर निगम चुनाव में अब प्रचार का तरीका बदल गया है। इन रिक्शाओं के तीनों तरफ प्रत्याशी के पोस्टर लगे हुए हैं, उसकी छत पर आगे-पीछे लाउडस्पीकर बंधे हुए हैं और अंदर एक व्यक्ति बैठा हुआ प्रचार का सिस्टम बजा रहा है। नियमों के अनुसार एक वार्ड में दो वाहनों से प्रचार किया जा सकता है। इन रिक्शों से प्रचार करने का लाभ यह है कि यह सभी इलाकों में घूम आते हैं। मात्र 600 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से ये 12 घंटे प्रचार करते हैं। बता दें कि तीनों नगर निगमों में 2012 में भाजपा का बहुमत था। उत्तरी दिल्ली में 59 भाजपा, 29 कांग्रेस व 16 अन्य जीते थे। दक्षिणी दिल्ली में 44 भाजपा, 26 कांग्रेस और 34 अन्य। पूर्वी दिल्ली में 39 भाजपा, 19 कांग्रेस व छह अन्य जीते। देखें रविवार को ऊंट किस करवट बैठता है?

Wednesday, 19 April 2017

ओडिशा की जनता ने मोदी को सिर-आंखों पर बिठाया

मिशन ओडिशा को लेकर भारतीय जनता पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक ओडिशा समेत कोर मंडल क्षेत्र में पार्टी के प्रभाव को बढ़ाने की रूपरेखा पर चर्चा हुई। उल्लेखनीय है कि पार्टी पारंपरिक तौर पर ओडिशा में मानी जाती थी परन्तु इस बार फिजा बदली हुई थी। पांच राज्यों में पार्टी की अभूतपूर्व जीत का प्रभाव साफ नजर आया। पीएम मोदी का भुवनेश्वर में जो रोड शो हुआ उसने वाराणसी के रोड शो की याद दिला दी। लोगों का सैलाब उमड़ पड़ा और प्रधानमंत्री की पूरी गाड़ी फूलों से भर गई। मोदी जिन्दाबाद, मोदी जिन्दाबाद के गगनभेदी नारे लगते रहे। इस रोड शो को भाजपा की बढ़ती ताकत के रूप में देखा जा सकता है और भुवनेश्वर में इसकी सफलता ने न केवल नवीन पटनायक सरकार को हिलाकर रख दिया बल्कि समूचे देश का विपक्ष एक बार फिर बैकफुट पर आ गया। रोड शो में भाजपा के प्रति यह जोश पिछले दिनों की यूपी लहर को दिखा रहा है। इधर राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक ऐसे समय में हुई जब भाजपा ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में जबरदस्त जीत दर्ज की है। साथ ही गोवा और मणिपुर में सरकार बनाने में सफल रही है। पार्टी की रणनीति साफ है। ओडिशा में पटनायक विरोधी लहर का फायदा उठाना और राज्य में भी भाजपा का शासन लाना। साथ ही इसके साथ 2019 के लोकसभा और विधानसभाओं की चुनावों में जीत के लिए अभी से तैयारी में लग जाना। मोदी सरकार के अगले महीने (मई) में तीन साल पूरे होने जा रहे हैं। इस मौके पर सरकार ने देश की जनता को अपनी उपलब्धियां बताने की भी तैयारियां शुरू कर दी हैं। हर साल की तरह सभी केंद्रीय मंत्री देशभर में जा-जाकर अपने मंत्रिमंडल के कामों को तो बताएंगे ही साथ-साथ बताएंगे कि रोजगार, ट्रांसपोर्ट और सर्विस सेक्टर को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने अगले तीन साल का रोडमैप भी तैयार कर लिया है। पांच राज्यों में मिली जीत पर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने कहाöपरिवारवाद, जातिवाद और तुष्टिकरण की राजनीति को जनता द्वारा नकारने का मतलब है कि अब पॉलिटिक्स ऑफ परफार्मेंस का समय आ गया है जिसे सबको स्वीकार कर लेना चाहिए। भाजपा को देश के सभी सूबों में मजबूती के साथ स्थापित करने का संकल्प व्यक्त करते हुए शाह ने कहा कि भाजपा के स्वर्णिम युग को भारत के स्वर्ण युग के साथ जोड़कर ही देखा जाना चाहिए और विश्व में भारत को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिलाने के बाद ही भाजपा का स्वर्णिम युग आ सकता है। बता दें कि ओडिशा में हाल के स्थानीय निकाय चुनाव में भाजपा ने 297 जिला परिषद सीटों पर जीत दर्ज की जबकि कांग्रेस सिर्फ 60 जिला परिषद सीटें जीतने में सफल रही। सत्तारूढ़ बीजद हालांकि बढ़त बनाए रखने में सफल रही और उसने 473 सीटें हासिल कीं।

-अनिल नरेन्द्र

राज्यरानी एक्सप्रेस हादसा कहीं आतंकी साजिश तो नहीं

मेरठ-लखनऊ राज्यरानी एक्सप्रेस शनिवार सुबह करीब आठ बजे रामपुर से दो किलोमीटर पहले कोसी नदी पुल के पास तेज धमाके के साथ पटरी से उतर गई। हादसे में ट्रेन के 12 कोच पटरी से उतर गए। इसमें से एक कोच पलटकर एकदम उल्टा हो गया। इससे यात्रियों में कोहराम मच गया। दुर्घटना में 65 यात्री घायल हो गए। गनीमत रही कि ट्रेन की स्पीड कम थी वरना कई जानें जा सकती थी। प्रारंभिक जांच में पटरी टूटने की बात सामने आ रही है। हादसा इतना जबरदस्त था कि करीब 280 मीटर रेलवे ट्रैक क्षतिग्रस्त हो गया। इसमें से करीब 260 मीटर के दायरे में रेल ट्रैक के स्लीपर भी पूरी तरह डैमेज हो गए। इस हादसे की वजह तो जांच के बाद ही साफ होगी पर हादसे ने एक बार फिर सवाल उठा दिया है कि कहीं यह कोई आतंकी साजिश तो नहीं है? रामपुर का रेलवे स्टेशन हो या फिर सीआरपीएफ सेंटर, आतंकियों के निशाने पर रहे हैं। कई बार इसको लेकर आईबी अलर्ट भी जारी कर चुकी है। 31 दिसम्बर 2007 को भी सीआरपीएफ ग्रुप सेंटर पर आतंकी हमला भी हो चुका है जिसके आरोपी यहां कोर्ट में पेशी पर आते हैं। लिहाजा कहीं न कहीं रामपुर आतंकियों के टारगेट पर है। वहीं पूर्व में कानपुर में रेल पटरी काटकर ट्रेन पलट दी गई। सुरक्षा एजेंसियों की जांच में साफ हुआ है कि उस वारदात को आतंकियों ने अंजाम दिया था। इसके बाद चंदौसी में यही घटना दोहराने का प्रयास किया गया। अब रामपुर में राज्यरानी एक्सप्रेस पलटने की बात सामने आ रही है, लिहाजा सवाल उठना लाजिमी है कि यह आतंकी साजिश तो नहीं? कानपुर के हादसे में पकड़े गए संदिग्धों ने पूछताछ में बताया था कि यूपी में आईएसआई के सदस्य सक्रिय हैं जो रेल हादसे करेंगे। अब रामपुर के पास हुए इस रेल हादसे ने फिर से आईएसआई की ओर शक की सूई घुमा दी है। हालांकि अधिकारियों का कहना है कि जहां राज्यरानी डिरेल हुई, वहां पर डाऊन लाइन का एक टुकड़ा अलग मिला है। प्रथम दृष्ट्या जांच में पटरी टूटने से हादसा माना जा रहा है। यूपी पुलिस ने कहा कि जहां हादसा हुआ है वहां रेलवे ट्रैक का तीन फुट का हिस्सा गायब है और ऐसे में तोड़फोड़ की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता। घटनास्थल का दौरा करने वाले रामपुर के एसपी ने कहा कि पटरी टूटी हुई मिली है और उसका कुछ हिस्सा जमीन में दबा था। तोड़फोड़ की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता। हादसे के बाद जांच और फिर कार्रवाई के लिए दिशानिर्देश के अलावा रेलवे कुछ सुधरने का नाम नहीं ले रहा है। क्योंकि ब्रज घाट में रेल पटरी से उतरने के बाद कई हादसे हो चुके हैं। मंत्री सुरेश प्रभु ने वही दकियानूसी जवाब दे दिया है। हादसे के कारण का पता लगाने के लिए जांच के आदेश दे दिए हैं। किसी भी चूक के खिलाफ सख्त कार्रवाई होगी।

Tuesday, 18 April 2017

Donald Trump is not Barak Obama

The US President Donald Trump knows it better that the big bomb dropped in the Achin district of Afghanistan on Thursday not only echoed in Afghanistan but in the entire world also. The bomb dropped on the bases of the IS gave the message to the entire world that minimum intervention policy of Barak Obama age has now been abolished. Trump has also started to make changes in the previous few policies of Obama regime. For example, he has once again authorised the US intelligence agency CIA for drone attacks against the terrorist groups. Earlier it was entrusted to the US Department of Defence and the CIA used the drone to gather intelligence information only. Now CIA too can make drone attacks without obtaining permission from the Pentagon or the White House. It is noteworthy that drone attacks were off in the last eight months of Obama regime. The US has turned up again in the aggressive style of the foreign policy. Looking over Afghanistan issue the message would have been conveyed to the entire world that the US has not left this nation battling with war for decades at its own. For long past speculations were on that groups like Taliban and Islamic State will occupy Afghanistan soon. The US has shown that it will not be a silent viewer in this situation. Besides the message has been conveyed to Syria and Russia that the fight against IS hasn't been started at their trust; the US will deal with it in its own way. Moreover, one more message is for China and North Korea. News is that North Korea is going for one more nuclear test. While the US has given the message that it will not keep quiet trusting on China, North Korean army KCN has said on Friday that if the US takes any inflammatory action it will respond relentlessly. The army has said that the US president Trump has come up with threat and blackmailing. Chinese Foreign Minister Wang Chi said on Friday that the war can spill any time about North Korea. He also warned the US that no one is winner in any war. China has cautioned North Korea for the nuclear test. Surely Donald Trump is not Barak Obama.

* Anil Narendra

डोनाल्ड ट्रंप बराक ओबामा नहीं हैं

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप यह अच्छी तरह से जानते हैं कि गुरुवार को अफगानिस्तान के अचिन जिले में जो बड़ा बम गिराया गया उसकी धमक अफगानिस्तान ही नहीं बल्कि सारी दुनिया में सुनाई पड़ी। ट्रंप ने आईएस के ठिकानों पर जो बम गिराया उससे सारी दुनिया को यह संदेश भी दिया गया कि बराक ओबामा युग की कम से कम हस्तक्षेप की नीति अब खत्म कर दी गई है। ट्रंप ने ओबामा प्रशासन की पिछली कुछ नीतियों में बदलाव करना भी शुरू कर दिया है। मसलन, उन्होंने अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए को एक बार फिर आतंकी समूहों के खिलाफ ड्रोन हमलों का अधिकार दे दिया है। इससे पहले यह अधिकार अमेरिका के रक्षा विभाग के पास था और सीआईए केवल खुफिया जानकारी इकट्ठा करने के लिए ड्रोन का इस्तेमाल करती थी। अब सीआईए पेंटागन या व्हाइट हाउस की अनुमति लिए बगैर भी ड्रोन हमला कर सकती है। काबिले गौर है कि ओबामा प्रशासन के अंतिम आठ महीनों में ड्रोन हमले बंद थे। अमेरिका अब फिर से विदेश नीति के आक्रामक अंदाज में लौट आया है। अफगानिस्तान के स्तर पर देखें तो यह संदेश सारी दुनिया में पहुंच ही गया होगा कि दशकों तक युद्ध से जूझते रहे इस देश को अमेरिका ने अपने हाल पर नहीं छोड़ दिया है। पिछले काफी समय से ये अटकलें चल रही थीं कि जल्द ही तालिबान और इस्लामिक स्टेट जैसे संगठन अफगानिस्तान पर काबिज हो जाएंगे। अमेरिका ने बता दिया है कि ऐसी स्थिति में वह मूकदर्शक होकर नहीं बैठेगा। साथ ही सीरिया और रूस को भी वह संदेश भेज दिया है कि आईएस से लड़ाई केवल उन्हीं के भरोसे नहीं छोड़ी गई है अमेरिका इससे अपने ढंग से निपटेगा। इसी के साथ एक और संदेश चीन और उत्तर कोरिया के लिए भी है। खबर है कि उत्तर कोरिया एक और परमाणु परीक्षण करने जा रहा है। अमेरिका ने जहां यह संदेश दिया है कि इस बार वह मामले में चीन के भरोसे छोड़कर शांत नहीं बैठेगा। उधर उत्तर कोरियाई सेना केसीएन ने शुक्रवार को कहा कि अगर अमेरिका ने कोई भड़काऊ कार्रवाई की तो वह निर्ममता के साथ जवाब देगी। सेना ने कहा कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप धमकी और ब्लैकमेल के रास्ते पर उतर आए हैं। चीन के विदेश मंत्री वांग ची ने शुक्रवार को कहा कि उत्तर कोरिया को लेकर किसी भी क्षण युद्ध छिड़ सकता है। उन्होंने अमेरिका को चेतावनी भी दी कि किसी युद्ध में कोई विजेता नहीं होता। चीन ने उत्तर कोरिया को भी परमाणु परीक्षण करने को लेकर आगाह किया है। इतना तो तय है कि डोनाल्ड ट्रंप बराक ओबामा नहीं।

-अनिल नरेन्द्र

लात-घूंसे बरसते रहे, नहीं छोड़ा संयम का दामन

कश्मीर घाटी में सीआरपीएफ जवानों के साथ दुर्व्यवहार और हिंसा के तीन वीडियो के वायरल होने के बाद देशभर में आम लोगों में गुस्से की लहर उठना स्वाभाविक ही है। पहले वीडियो में एक कश्मीरी युवक जवान के सिर पर तेज प्रहार करते हुए दिखाया गया है तो दूसरे में एक युवक जवान द्वारा हाथ में पकड़े हेलमेट को पैर से मारते दिखाया गया। तीसरे वीडियो में कुछ युवकों द्वारा जवानों को अपशब्द कहते, उनका मजाक उड़ाते और उन्हें लात-घूंसों से मारते हुए नजर आ रहे हैं। तीनों वीडियो में हमलावर भारत वापस जाओ के नारे लगाकर बदसलूकी कर रहे हैं पर जवान बावजूद इसके कि उनके हाथों में राइफलें हैं कोई भी प्रतिक्रिया दिए बगैर चुपचाप जाते दिख रहे हैं। इन वीडियो ने एक ओर जहां यह दिखाया कि गुमराह कश्मीरी युवक किस हद तक दुस्साहसी हो चुके हैं, वहीं यह भी रेखांकित किया कि हमारे जवान अपमान का घूंट पीते हुए किन विषम परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं। विडंबना यह है कि इस सबके बावजूद अदालतों से लेकर राजनीतिक दल तक उन्हें ही संयम की सीख देने से बाज नहीं आते। बाकी बातें तो छोड़ भी दें तो आत्मरक्षा का अधिकार तो सबको है। अदालत भी इस सिद्धांत को मानती है। अगर आप पर हमला हो तो आप जवाबी हमला कर सकते हैं। पर हमारे बेचारे जवानों से तो यह भी अधिकार छीन लिया गया है। समझ नहीं आता कि आखिर सरकार की नीति क्या है? क्या इस तरह हमारे बहादुर जवान बेइज्जत होते रहेंगे, पिटते रहेंगे? यह संतोष की बात है कि खेल जगत से जुड़े बड़े नाम अब खुलकर जवानों की सुरक्षा पर सवाल उठाने लगे हैं। भारतीय क्रिकेटर वीरेन्द्र सहवाग और गौतम गंभीर ने कश्मीर घाटी में उपचुनाव के दौरान सीआरपीएफ के जवानों पर हमले पर नाराजगी जाहिर की है। गंभीर ने गुरुवार को ट्वीट किया, हमारी सेना के जवान को लगे हर तमाचे के बदले कम से कम 100 जेहादियों की जानें जानी चाहिए। जिसे आजादी चाहिए वहां से फौरन चला जाए। सहवाग ने लिखाöयह अस्वीकार्य है। हमारे सीआरपीएफ जवानों के साथ ऐसा सलूक नहीं किया जाना चाहिए। इस पर रोक लगनी चाहिए। बदतमीजी की हद है। ओलंपिक मेडल विजेता पहलवान योगेश्वर दत्त ने सेना की आलोचना करने वालों पर निशाना साधते हुए ट्वीट कियाöबाढ़ से बचाओ, फिर पत्थर खाओ जब कुछ लोगों को परेशानी नहीं है, अब सेना ने  मारा नहीं बस हाथ-पैर बांध दिए तो चिंतजानक स्थिति हो गई। जम्मू-कश्मीर में सेना के जवानों के साथ कश्मीरी युवकों द्वारा किए गए दुर्व्यवहार के विरोध में बॉलीवुड भी खड़ा हो गया है। फिल्म अभिनेता अनुपम खेर, फरहान अख्तर, कमल हसन, रणदीप हुड्डा ने सीआरपीएफ जवानों का समर्थन करते हुए उनके साथ हुए दुर्व्यवहार की कड़ी निन्दा की है। फरहान अख्तर ने इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए ट्वीट किया हैöफुटेज में दिख रहा है कि हमारे जवानों को थप्पड़ मारे जा रहे हैं और पीटा जा रहा है यह दुखद है... उनका संयम सराहनीय है, लेकिन ऐसा करने वालों के खिलाफ तुरन्त कार्रवाई होनी चाहिए। दक्षिण भारतीय सुपर स्टार कमल हसन ने लिखा है कि भारत को एकीकृत करें, हमारे सैनिकों से दुर्व्यवहार करने वालों को शर्म आनी चाहिए। अनुपम खेर ने वीडियो पोस्ट पर लिखा हैöएक शांतिप्रिय व्यक्ति के रूप में मैं सैनिकों के संयम की सराहना करता हूं, लेकिन फिर भी कहता हूं कि हमारे सैनिकों से पंगा न लें। निस्संदेह हमारे सैनिकों को विषम परिस्थितियों का सामना करना आना चाहिए, लेकिन संयम की भी एक सीमा होती है। यदि कश्मीर घाटी में तैनात जवानों को हर हाल में धैर्य धारण करने का उपदेश दिया जाता रहा है और इसकी अनदेखी की जाती रही है कि भारत विरोधी तत्वों का दुस्साहस किस तरह अपनी हदें पार कर गया है तो फिर सेना और सुरक्षा बलों का इकबाल खत्म होने में देर नहीं लगेगी। अच्छा होगा कि कश्मीर में गंभीर होते हालात को लेकर सच का सामना किया जाए और वह भी पूरी दृढ़ता के साथ।

Sunday, 16 April 2017

रोज बदलेंगी पेट्रोल-डीजल की कीमतें

और अब एक और नया प्रयोग होने जा रहा है। पेट्रोलियम कंपनियों ने फैसला किया है कि एक मई से पेट्रोल और डीजल के दाम में रोजाना बदलाव किया जाएगा। हमें तो यह फैसला रास नहीं आया और काफी उलझाने वाला लगता है। जमशेदपुर, चंडीगढ़, विशाखापत्तनम, उदयपुर व पुडुचेरी में सार्वजनिक क्षेत्र की पेट्रोल कंपनियां अब पेट्रोल और डीजल की कीमत हर रोज निर्धारित करेंगी यानि हर रोज बाजार भाव से आपको पेट्रोल की अलग कीमत चुकानी पड़ेगी। अभी तक ये पेट्रोल कंपनियां कीमत निर्धारित करने का काम महीने में दो बार यानि पहली तारीख और 16 तारीख को करती हैं। यह एक पायलट परियोजना है जो देश के अलग-अलग पांच कोनों में इसलिए शुरू की गई है कि उसके असर और उसे लागू करने की कठिनाइयों को अच्छी तरह समझा जा सके। चुनावों के दौरान तेल कंपनियों को दाम बढ़ाने की इजाजत नहीं होती और जब कच्चे तेल के दाम नरम होते हैं तो ऊंचे दामों के जरिये कंपनियों के घाटे की भरपायी की जाती है। हां नई नीति अगर सफल होती है तो राजनीतिक दखल की संभावना न के बराबर रहेगी। पेट्रोल और डीजल के दामों के उतार-चढ़ाव का असर आवश्यक वस्तुओं जैसे खाद्य पदार्थों, अनाज, फल और सब्जियों पर भी पड़ेगा। इससे वस्तुओं के दामों में रोजाना बदलाव देखने को मिल सकता है। नई नीति से तेल कंपनियों को अपने लेखा में रोजाना खरीद और बिक्री के हिसाब से लाभ और घाटे का आंकड़ा रखना पड़ेगा। सरकार पहले ही संकेत दे चुकी है कि भविष्य में सार्वजनिक क्षेत्र की सभी कंपनियों का विलय कर एक बड़ी कंपनी के रूप में पुनर्गठन किया जाएगा। इससे दामों में दैनिक आधार पर बदलाव और आसान हो जाएगा। अगर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें घटती हैं तो ग्राहकों को इसका फायदे लेने के लिए 15 दिन इंतजार नहीं करना होगा। कीमतों में गिरावट या उछाल होने से तेल कंपनियों को फर्क न पड़े इसके लिए फिलहाल वे हेजिंग करती हैं। हेजिंग में कच्चे तेल की खरीददारी करते वक्त भुगतान के लिए कंपनियां भविष्य की कीमतें तय कर लेती हैं जिससे उन्हें नुकसान न हो। यदि भुगतान के वक्त कीमतें गिर भी जाएं तो भी उन्हें उस पूर्व निर्धारित कीमत से तेल निर्यातकों को भुगतान करना होता है। रोजाना के आधार पर कीमतें तय करने से कंपनियों को हेजिंग नहीं करनी पड़ेगी। इससे क्रूड कीमतों व डॉलर मूल्यों में उतार-चढ़ाव से उन्हें नुकसान नहीं होगा। प्रतिदिन के आधार पर कीमतें तय करने से वह अपने मुनाफे का सटीक अंदाजा लगा पाएंगी। जैसा मैंने कहा कि यह देखना होगा कि यह प्रयोग कितना सफल होता है?

-अनिल नरेन्द्र

अमेरिका ने गिराया मदर ऑफ ऑल बॉम्बस

अमेरिका ने अफगानिस्तान में सबसे बड़ा बम (मदर ऑफ ऑल बॉम्बस) गिराकर दुनिया को हैरानी में डाल दिया। अमेरिकी सेना ने पूर्वी अफगानिस्तान में आईएस आतंकवादियों के छिपने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली गुफाओं पर अब तक का सबसे बड़ा बम गिराया। गुरुवार को यह अफगानिस्तान के नायागढ़ प्रांत के जिस अचिन जिले में गैर परमाणु बम गिराया है वह पाकिस्तान की तारखाम सीमा से महज 60 किलोमीटर दूर है। इस बम ने दो किलोमीटर तक का क्षेत्र पूरी तरह से तबाह कर दिया और जहां गिरा वहां 300 से लेकर 400 मीटर तक गहरा गड्ढा हो गया। अमेरिकी रक्षा मंत्रालय पेंटागन के प्रवक्ता एडम स्टम्प ने बताया कि यह पहला मौका है कि जब अमेरिका ने आतंकवादियों के खिलाफ लड़ाई में इतने विशालकाय बम को गिराया है। इस बम का वजन 9717 मिलीग्राम (10 हजार किलो) है जो जीपीएस निर्देशित है। इसका परीक्षण इराकी युद्ध शुरू होने से पहले मार्च 2003 में किया गया था। अमेरिकी सेना के सबसे बड़े गैर परमाणु बम हमले में कम से कम 36 आईएस आतंकी मारे गए और इस्लामिक स्टेट समूह का गहरा सुरंग परिसर तबाह हो गया। अफगान अधिकारियों ने बताया कि हमले में किसी नागरिक के हताहत होने की खबर नहीं है। अफगान राष्ट्रपति भवन ने बयान में  बताया कि नागरिकों को हताहत होने से बचाने के लिए पूरी सावधानी बरती गई। एमसी-130 मालवाहक विमान के जरिये गिराए गए भारी बम से हुआ विस्फोट 11 टन टीएनटी के विस्फोट के समकक्ष था। अगर परमाणु बम को छोड़ दें तो ये दुनिया में मौजूद सबसे शक्तिशाली परंपरागत बम है। 2014 में बराक ओबामा ने जंग खत्म करने का ऐलान किया था लेकिन अमेरिका ने अफगानिस्तान में अपनी टुकड़ी रखी है। अब आईएस वहां दोबारा जड़ें जमा रहा है जिसे पाकिस्तान का पूरा समर्थन प्राप्त है। इस वजह से अमेरिका ने अपना मिशन दोबारा तेज कर दिया है। आईएस की पूरी मदद कर रहा है आईएसआई, हक्कानी नेटवर्क। अमेरिका का यह हमला आईएस के साथ-साथ पाकिस्तान के लिए भी चेतावनी है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यह तो संकेत दे दिए हैं कि वह आईएस और इस्लामी आतंकवादियों के खिलाफ लड़ाई में किसी भी हद तक जा सकते हैं। मदर ऑफ ऑल बॉम्बस (जीबीयू-43/बी/30 फुट (9 मीटर) लंबा और 9800 किलोग्राम वजनी होता है। यह जीपीएस से संचालित होता है। इसे एक एमसी-130 ट्रांसपोर्ट प्लेन के कार्गो के डोर से फेंका जाता है। जमीन पर गिरते ही यह बम फटता है। गिराते वक्त इसे पैराशूट से झटका दिया जाता है ताकि वह खिसक जाए। इसे 18000 एलबी टीएनटी से बनाया गया है।