हालांकि पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने न्यायपालिका और चुनी हुई सरकार में टकराव टालने का प्रयास करते हुए प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी को गुरुवार को अदालत की अवमानना का दोषी तो ठहराया पर कोर्ट ने उन्हें `अदालत के उठने तक' यानि सुनवाई के समापन तक कक्ष में मौजूद रहने की सांकेतिक सजा सुनाई पर इससे हमें नहीं लगता कि यह विवाद यहीं खत्म होगा। यह सांकेतिक सजा सिर्प 30 सैकेंड की थी पर इस 30 सैकेंड ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। कानून का कद कभी भी अवाम से बड़ा नहीं हो सकता। दरअसल कानून बनाया ही अवाम की सहूलियत के लिए जाता है। हमारा मानना है कि पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री गिलानी को सजा देकर कोई अच्छा उदाहरण पेश नहीं किया है। अदालत को यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रधानमंत्री भी चुनी हुई सरकार का प्रतिनिधि और पाकिस्तान में जम्हूरियत का प्रतीक है। यूसुफ रजा गिलानी की हिम्मत की दाद देनी होगी, आज भी वह अपने स्टैंड पर कायम हैं। अभी भी मूल मुद्दा वहीं टिका हुआ है कि प्रधानमंत्री इस बात के लिए तैयार नहीं हैं कि वे राष्ट्रपति जरदारी के खातों की जांच के लिए स्विटजरलैंड के अधिकारियों को पत्र लिखें। अगर प्रधानमंत्री इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट से समझौता करते हैं तो सम्भव है कि उनकी सरकार अविलम्ब गिर जाए। प्रधानमंत्री अगर नहीं मानते तो सुप्रीम कोर्ट कहीं ज्यादा सख्त कदम उठा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा था कि जरदारी को भ्रष्टाचार के खिलाफ मामलों में जो माफी पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने दी थी, वह गैर कानूनी तौर पर मान्य नहीं है, इसलिए प्रधानमंत्री गिलानी को स्विटजरलैंड सरकार को चिट्ठी लिखनी चाहिए। सरकार सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश नहीं मान सकती। 2007 में सैनिक राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ ने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस चौधरी इफ्तिखार मोहम्मद को बर्खास्त कर दिया था। उसके कुछ समय बाद वे वापस बहाल किए गए पर कोर्ट के तमाम पुराने मुलाजिम बदल दिए गए और ऐसे ही लोग रखे गए जो यह फैसला सुना सकें कि जनरल मुशर्रफ वहां राष्ट्रपति का चुनाव लड़ सकें। एक सैनिक राष्ट्रपति के हाथों इस तरह अपमानित होने के बाद से पाकिस्तान की न्यायपालिका उस अवसर की तलाश कर रही थी, जब वह फिर से अपनी ताकत दिखा सके। पाकिस्तान सरकार की रणनीति अब यही है कि सुप्रीम कोर्ट कोई ज्यादा सख्त कदम उठाए तो वह लोकतंत्र के पक्ष में शहादत के मुद्दे पर जनता की सहानुभूति पाए। सुप्रीम कोर्ट भी सरकार की इस रणनीति से वाकिफ है, इसलिए उसकी कोशिश है कि अगले चुनावों तक इस प्रकार की विश्वसनीयता इतनी कम हो जाए कि वह चुनाव नहीं जीत सके। इस लड़ाई में न्यायपालिका को पाक सेना का पूरा समर्थन हासिल है। फिलहाल राहत की बात यह है कि सेना खुद सत्ता सीधे नहीं हथियाना चाहती। पाकिस्तानी सेना के सबसे करीबी अमेरिका भी यह नहीं चाहता कि पाक में लोकतंत्र हटे। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को इतना बढ़ाया। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से पाक संसद भी शायद ही सहमत हो। जरदारी की यह सरकार पांच वर्ष पूरा करने जा रही है। यह अपने आप में बहुत बड़ी बात है। संसद के चुनाव निकट भविष्य में होने वाले हैं। बेहतर होता कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले को अवाम की अदालत पर छोड़ देता। बेहतर होता कि इस मामले में गिलानी की तीन बार कोर्ट में उपस्थिति को ही इस बात का सुबूत मान लेता कि निर्वाचित सरकार न्यायपालिका का सम्मान करती है और उसने अपनी भूल समझ ली है। सजा देकर कोर्ट ने अपने अहंकार का एक तरह से सुबूत ही दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि उसके इस कदम से पाकिस्तान में गैर लोकतांत्रिक ताकतों को फिर से लामबंद होने का मौका मिलेगा और दांव पर सिर्प जरदारी सरकार ही नहीं खुद न्यायपालिका और पाकिस्तानी अवाम का भविष्य भी होगा।
Anil Narendra, Asif Ali Zardari, Daily Pratap, Pakistan, Vir Arjun, Yousuf Raza Gilani
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