Friday, 20 April 2012

एमसीडी चुनाव की झलकियां

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 20 April 2012
अनिल नरेन्द्र
इस बार के नगर निगम चुनाव में कई दिलचस्प किस्से सामने आए हैं। दिल्ली के इस एमसीडी चुनाव में लोगों ने युवाओं और बुजुर्गों सभी को चौंका दिया है। बात विश्वास की है, लोगों को जिस पर विश्वास हुआ उसी के सिर पर सेहरा बांध दिया। सबसे बुजुर्ग नेताओं में गिने जाने वाले कांग्रेस के रमेश दत्ता को एक बार फिर जीत का सेहरा पहनाया गया वहीं दूसरी तरफ केवल 21 साल की उम्र वाले दो युवा नेताओं को भी अपना लीडर चुना गया। तुर्पमान गेट से चुनकर आए आले मोहम्मद इकबाल केवल 21 साल और एक महीने की उम्र में सबसे यंग पार्षदों में से एक हैं। इकबाल राष्ट्रीय लोकदल के उम्मीदवार थे। वहीं 21 साल की बसपा प्रत्याशी पूनम परेरा भी सबसे यंग महिला प्रत्याशी हैं। वह मंगोलपुरी वेस्ट वार्ड से विजयी रही। पिछले कई वर्षों से दिल्ली की राजनीति में सक्रिय रमेश दत्ता बेहद बुजुर्ग हैं और इस बार चुनाव में उन्हें हार्ट अटैक भी आया था पर घर से परिचित रमेश दत्ता का इतने सालों से लोगों के प्यार में कोई कमी नहीं आई। बात अगर मुस्लिम पार्षदों की अब करें तो नगर निगम चुनाव में राजनीतिक दलों का मुस्लिम उम्मीदवारों पर लगाया दांव कामयाब रहा। इस बार सबसे ज्यादा मुस्लिम पार्षद कांग्रेस से चुने गए हैं। इसके अलावा रालोद से तीन एवं भाजपा, बसपा और सपा से भी एक-एक पार्षद चुना गया है। इस बार चुनाव में खास बात यह रही कि मुस्लिम आबादी वाले इलाके कसाबपुरा की सीट भाजपा के खाते में गई, वहीं ओखला से सपा ने भी खाता खोलकर दिल्ली नगर निगम में अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी है। तीनों नगर निगमों में सबसे ज्यादा सात मुस्लिम प्रत्याशी पूर्वी दिल्ली से जीते हैं। इसके बाद उत्तरी दिल्ली से छह और दक्षिण दिल्ली नगर निगम में सबसे कम तीन मुस्लिम उम्मीदवारों के सिर पर जीत का सेहरा बंधा। कुल मिलाकर 16 मुस्लिम उम्मीदवारों के सिर बंधा जीत का सेहरा। एक महत्वपूर्ण पहलू इस चुनाव में यह भी रहा कि निर्दलीय उम्मीदवार काफी तादाद में जीते। 24 निर्दलीय उम्मीदवारों ने धमाकेदार जीत दर्ज कराई है। निर्दलीय उम्मीदवारों में से अधिकतर कांग्रेस और भाजपा के बागी उम्मीदवार हैं, जिन्हें पार्टी की टिकट नहीं मिली और वे निर्दलीय खड़े हो गए। लेकिन इन्होंने अपनी जीत दर्ज कराकर अपने को साबित जरूर कर दिया। माना जा रहा है कि इसमें से कुछ उम्मीदवार फिर से पार्टी में एंट्री ले सकते हैं। इस चुनाव में बागियों ने पार्टी प्रत्याशियों को हरवाने में अहम भूमिका निभाई है। दक्षिण दिल्ली की बात करें तो यहां की मुनिरका सीट से कांग्रेस की बागी प्रत्याशी प्रमिला टोकस चुनाव जीत गई। गीता कॉलोनी से बागी हुए बंसी लाल ने सीट निकाल ली। नेहरू विहार से भाजपा के शिव कुमार शर्मा इसलिए हार गए क्योंकि उनके खिलाफ पांच बागी खड़े हो गए। बगावत के चलते खजूरी सीट भी भाजपा के हाथ से चली गई। इस सीट से भाजपा के चौ. रामवीर सिंह पार्षद थे। इस बार उनका टिकट काटकर डॉ. अनिल गुप्ता को दिया गया था। नतीजा यह हुआ कि चौ. रामवीर दूसरी पार्टी से चुनाव लड़ गए और भाजपा का वोट बंट गया। पश्चिमी दिल्ली से निर्दलीय पूनम भारद्वाज जीत गईं। विवेक विहार से निर्दलीय प्रीति जीत गईं। महिपालपुर से भाजपा के बागी कृष्ण सहरावत ने बाजी मारी तो मारी तो नवादा सीट से कांग्रेस के बागी नरेश बाल्यान चुनाव जीत गए। उन्होंने कांग्रेस के प्रत्याशी को हरा दिया। भाजपा पार्षद रहे विजय पंडित के कहने के बावजूद टिकट नहीं मिलने पर उन्होंने अपनी पत्नी सीमा पंडित को रालोद के टिकट से चुनाव लड़ाया और वह चुनाव जीत गईं। भाजपा के पूर्व पार्षद रहे प्रवीण राजपूत बागी होकर चुनाव जीत गए। बिन्दापुर सीट से कांग्रेस के बागी देशराज राघव चुनाव जीत गए। बाहरी दिल्ली में भाजपा की बागी पुष्पा विजय विहार सीट से जीत गईं। उन्होंने पार्टी की प्रत्याशी सरिता को हराया। दिल्ली नगर निगम चुनाव में कांग्रेस की हार की एक वजह बसपा, एनसीपी सहित सपा का भी हाथ रहा। दिल्ली नगर निगम के पिछले चुनाव में बसपा ने 17 सीटें जीतकर जोरदार शुरुआत की और दर्जनों अन्य सीटों पर कांग्रेस प्रत्याशियों की हार सुनिश्चित की। इस बार बसपा ने 15 सीटें जीती हैं तो घड़ी चुनाव चिन्ह निशान वाली एनसीपी ने बदरपुर सीट पर कब्जा कर लिया। एनसीपी के पूर्व विधायक रामवीर सिंह बिधूड़ी का गढ़ कहे जाने वाले इस इलाके में उनकी पार्टी ने छह सीटें जीती हैं। इनमें बदरपुर की जैतपुर, मीठापुर, मोलडबंद व बदरपुर की सीटें शामिल हैं। यहां से बसपा के राम सिंह नेताजी विधायक हैं। एनसीपी ने हरकेश नगर तथा महरौली की सीटों पर भी कब्जा कर लिया। हद तो यह है कि इस इलाके में कांग्रेस का प्रत्याशी तीसरे से पांचवें स्थान पर पहुंच गया। क्या दिल्ली में तीसरा मोर्चा तैयार हो रहा है? चुनाव परिणाम तो इसी ओर इशारा कर रहे हैं। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि छोटे दलों के प्रत्याशी चुनाव जीत गए हैं जिन्हें राष्ट्रीय पार्टियों ने नजरंदाज कर दिया था। गौर करने वाली बात यह है कि भाजपा की इस चुनाव में 36 सीटें कम आई हैं। 2007 के चुनाव में भाजपा ने 174 सीटें जीती थीं। यह अधिक महत्वपूर्ण है कि हारने वाली कई सीटें वे सीटें हैं जो पूर्वांचल के लोगों ने जीती हैं। चाहे वे निर्दलीय हों या किसी छोटे दलों के टिकट पर चुनाव लड़े हों। ऐसे लोगों में शामिल हैं पूर्वांचलवासियों के बाहुल्य वाले इलाके संगम विहार वेस्ट से निर्दलीय प्रत्याशी कल्पना झा। दक्षिण दिल्ली से एनसीपी की शिखा शाह जीत गईं। सकारावती सीट से पूर्वांचल पृष्ठभूमि के सत्येन्द्र राणा निर्दलीय चुनाव जीत गए। यहां यह भी गौर करने वाली बात है कि दिलशाद कॉलोनी से पूर्वांचली प्रत्याशी राम नारयण दूबे ने कांग्रेस के उन चौधरी अजीत सिंह को हराया है जो शीला दीक्षित के करीबी कहे जाते हैं। कांग्रेस ने इस सीट को जीतने के लिए सभी तरीके अपनाए, पूरी ताकत झोंक दी थी। इसी तरह नई सीमापुरी सीट पर भाजपा कार्यकर्ता सुनील झा ने सीट निकाल ली जबकि मतदान से पहले तक इस सीट से कांग्रेस के प्रत्याशी वेद प्रकाश बेदी को मजबूत बताया जा रहा था। भाजपा के उच्चपदस्थ सूत्रों का कहना है कि जो भी निर्दलीय व छोटे दलों के पूर्वांचली जीते हैं, वे कुछ समय पहले तक भाजपा से जुड़े रहे हैं। मगर पार्टी की उपेक्षा के चलते उन्होंने दूसरी ओर रुख किया है। भाजपा न ही उन्हें अब सम्मान दे रही है और न ही पूर्वांचल के बड़े नेताओं को पार्टी में उचित महत्व मिल रहा है।

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