Sunday 1 April 2012

क्षेत्रीय दलों के अंतर्विरोध यूपीए सरकार के लिए बने संजीवनी

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 1 April 2012
अनिल नरेन्द्र
यह बजट सत्र है और इस लम्बे सत्र में सरकार को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। अगर एक भी मनी बिल (वित्त विधेयक) पर वोटिंग में सरकार हार जाती है तो उसे त्याग पत्र देना पड़ सकता है। ममता बनर्जी, मुलायम सिंह यादव ने मध्यावधि चुनाव होने की सम्भावना प्रकट की है। सवाल महत्वपूर्ण यह है कि मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार की क्या तैयारी है, इस सम्भावना को खत्म करने की? यह ठीक है कि कोई भी सांसद आज की तारीख में चुनाव नहीं चाहता पर हमने पहले देखा है कि सांसदों की कभी चलती है कभी नहीं। पार्टियों के नेतृत्व फैसले करते हैं और न चाहते हुए भी सांसदों को पार्टी अनुशासन का पालन करना होता है। इसलिए यह कहना कि कोई भी सांसद मध्यावधि चुनाव नहीं चाहता महत्वहीन हो जाता है। खबर है कि मध्यावधि चुनावों के शोर के बीच कांग्रेस के सियासी प्रबंधक `बैक अप प्लान' बनाने में जुट गए हैं। ममता बनर्जी के लगातार तीखे होते तेवरों और मुलायम सिंह की मध्यावधि चुनाव जल्दी होने की सम्भावना के बयान के बाद कांग्रेसी प्रबंधकों की नजरें मायावती की बहुजन समाज पार्टी की ओर घूम गई हैं। उधर बसपा भी नहीं चाहती है कि ममता से मार खा रही कांग्रेस राहत के लिए मुलायम के ज्यादा करीब आए। इसलिए बसपा से कांग्रेस को सकारात्मक संदेश मिल रहे हैं। कांग्रेस ने फिर दोहराया है कि संप्रग सरकार के पास जरूरी बहुमत का आंकड़ा है। कांग्रेस के इस दावे के पीछे दरअसल केंद्र की राजनीति में विभिन्न क्षेत्रीय दलों के राजनीतिक हितों का विरोधाभास है जिसका फायदा उठाकर यूपीए सरकार को बचने की बाजीगरी की जा रही है। प. बंगाल में ममता बनर्जी की लोकप्रियता दिन-प्रतिदिन घट रही है, उसकी वजह से मध्यावधि चुनावों की सबसे ज्यादा छटपटाहट है। क्योंकि ममता को लगता है कि अगर लोकसभा चुनाव अपने तय समय यानि मई 2014 में हुए तो प. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के लोकसभा सांसदों की संख्या घट सकती है जबकि निकट भविष्य में चुनाव हो जाएं तो ममता को पिछले चुनावों से ज्यादा सीटें मिलने की उम्मीद है। उधर केंद्र सरकार पर पूरी तरह हमलावर होने के बावजूद वाम मोर्चा मध्यावधि चुनावों के पक्ष में नहीं है। उसे लगता है कि अपने कैडर और संगठन को चुस्त-दुरुस्त करने के लिए जरूरी है कि चुनाव दो साल बाद हों। तब तक प. बंगाल और केरल की सरकारों की विफलता और एंटी इंकम्बैंसी फैक्टर का लाभ उसे मिल सकता है। समाजवादी पार्टी को भी लगता है कि अखिलेश यादव की लोकप्रियता का लाभ उठाकर सपा 50 से ज्यादा लोकसभा सीटें जीत सकती है जबकि दो साल बाद प्रदेश में हवा कैसी हो यह निश्चित नहीं। जिस तरह वाम मोर्चा चुनाव के लिए तैयार नहीं है। वैसी ही स्थिति बसपा की भी है। मायावती लखनऊ छोड़कर दिल्ली राज्यसभा में आ गई हैं। वह नहीं चाहती कि अभी लोकसभा चुनाव हों और माहौल के कारण सपा उसका लाभ उठा ले। लेकिन कांग्रेस किसी एक या दो समर्थक दल पर यूपीए सरकार को निर्भर नहीं करना चाहती इसलिए मुलायम से मुलायम रिश्ते बनाने के बावजूद रेल मंत्री को बदल कर ममता को संतुष्ट रखने का प्रयास हुआ है। मायावती नहीं चाहती हैं कि यूपीए और मुलायम के बीच घनिष्ठता बढ़े, इसलिए उन्होंने अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से कह दिया है कि यूपीए सरकार की निर्भरता सिर्प सपा पर नहीं रहनी चाहिए। क्षेत्रीय दलों के यही अंतर्विरोध यूपीए सरकार के लिए संजीवनी का काम कर रहे हैं।

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