Wednesday 11 April 2012

पश्चिम बंगाल से कार्ल मार्क्स और एंजेल्स की विदाई

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 11 April 2012
अनिल नरेन्द्र
पश्चिम बंगाल में 34 साल तक कामरेडों ने कार्ल मार्क्स की नीतियों पर चलकर राज किया। इस दौरान सारी दुनिया से मार्क्स और एंजेल्स का नामोनिशान लगभग साफ हो गया पर हमारे कामरेड उसी ढर्रे पर चलते रहे। यह समय के अनुसार बदले नहीं। नतीजा यह हुआ कि पश्चिम बंगाल की जनता ने इन्हें उखाड़ फेंका। केवल प. बंगाल से ही नहीं बल्कि केरल से भी। ममता बनर्जी अब कोशिश कर रही हैं कि मार्क्स वापस प. बंगाल में न आ सकें। इसलिए उन्होंने 34 साल बाद कार्ल मार्क्स की तैयारी कर ली है। प्रदेश की स्कूली शिक्षा पाठ्यक्रम समिति ने मार्क्स और फ्रेडरिक एंजेल्स का पाठ स्कूली किताबों से हटाने की सिफारिश की है। फैसला ममता सरकार को करना है। स्कूली किताबों से जो प्रमुख पाठ हटाए जा रहे हैं उनमें मार्क्सवाद के संस्थापक कार्ल मार्क्स की जीवनी, मार्क्स की मदद करने वाले दोस्त फ्रेडरिक एंजेल्स की कहानी और रूस में 1917 में बालेशेविक क्रांति की पूरी कहानी है। तृणमूल के सत्ता में आते ही मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पाठ्यक्रम समीक्षा समिति का गठन कर दिया था। समीक्षा समिति को स्कूल पाठ्यक्रम आधुनिक बनाने और छात्रों पर अनावश्यक बोझ कम करने का काम सौंपा गया। समिति ने 695 पेज की रिपोर्ट सौंपी है। ममता अकेली नहीं जिन्होंने कार्ल मार्क्स से निजात पाने के लिए कदम उठाए हैं। अब तो हमारे कामरेड भी कहने लगे हैं कि हमें देश की मौजूदा हालातों के अनुसार बदलाव करना होगा। माकपा नेता सीताराम येचुरी ने पार्टी के 20वें अखिल भारतीय सम्मेलन में उन्होंने कहा कि हमें रूस, चीन, क्यूबा तथा अन्य लैटिन अमेरिकी देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों से अलग नजरिया अपनाना होगा। पार्टी सिद्धांत बदलेगी। साथ ही अपने कार्यक्रमों की समीक्षा करेगी। पार्टी लोकतांत्रिक ताकतों और वाम शक्तियों को मिलाकर राजनीतिक विकल्प बनने की प्रक्रिया में है। सम्मेलन में पेश प्रस्ताव में कहा गया है कि 1894 के भूमि अधिनियम का कारपोरेट घराने दुरुपयोग कर रहे हैं, विशेष आर्थिक क्षेत्र के वास्ते, भूमि अधिग्रहण और खनन के लिए ऐसा होता है। इस कानून के कारण देश के कई किसानों और कृषि श्रमिकों को संघर्ष करते देखा गया है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि माकपा अपनी पराजय से कुछ सीखना नहीं चाहती। वह कांग्रेस और भाजपा को पराजित करने की बात तो कर रही है, लेकिन उसके रोड मैप में तीसरे विकल्प के लिए कोई जगह नहीं है। इसके विपरीत वह वामपंथी लोकतांत्रिक विकल्प के लिए प्रयास करने की बात कर रही है। मगर ऐसा कोई विकल्प हवा में तो तैयार होने से रहा। पिछले लोकसभा चुनाव में ही वामदलों की सीटें पिछली बार के मुकाबले आधी से कम रह गई थीं। यदि सम्भावित परिदृश्य को देखें तो नीतीश कुमार, जयललिता, ममता, नवीन पटनायक और चन्द्रबाबू नायडू के रहते गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई राजनीति में माकपा के लिए जगह नजर नहीं आ रही? सच तो यह है कि पार्टी आज भी अंतर्द्वंद्व और गुटबाजी से जूझ रही है। वह माने या न माने, लेकिन केरल में पार्टी मतभेदों और गुटबाजी के कारण ही हार हुई। पार्टी महासचिव प्रकाश करात की बेड़ागर्प करने वाली नीतियां जब तक बदलती नहीं, हमें माकपा का राजनीतिक भविष्य चमकता नहीं दिखता।
Anil Narendra, Daily Pratap, Kolkata, Mamta Banerjee, Vir Arjun, West Bengal

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