Friday 13 March 2020

सवाल आरोपियों के सार्वजनिक पोस्टर लगाने का

उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने पिछले साल 19 दिसम्बर को लखनऊ में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के विरोध में हुई हिंसा के दौरान सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने के लिए 57 लोगों को दोषी माना था और रिकवरी के लिए इनके पोस्टर लगवाए थे। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने स्वत संज्ञान लिया, रविवार को भी सुनवाई की और आदेश दिया है कि सीएए हिंसा के आरोपियों के बैनर-पोस्टर 16 मार्च से पहले हटाए जाएं। उत्तर प्रदेश सरकार ने नुकसान की भरपायी कराने को लेकर सख्त कदम उठाया। लेकिन इनके लिए उसने जो तौर-तरीके अपनाएं वह सवालों के कठघरे में हैं। दरअसल राज्य सरकार ने आरोपियों के खिलाफ जिस तरह के प्रचारात्मक उपायों का सहारा लिया, उन पर शुरू से ही आपत्ति उठाई जा रही थी। हाई कोर्ट ने साफ कहा कि आरोपियों के पोस्टर लगाना उनकी निजता में सरकार का गैर-जरूरी दखल है। इलाहाबाद हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस गोविंद माथुर और जस्टिस रमेश सिन्हा की बैंच ने कहा कि उत्तर प्रदेश सरकार हमें यह बता पाने में नाकाम रही कि चन्द आरोपियों के पोस्टर ही क्यों लगाए गए। जबकि उत्तर प्रदेश में लाखों लोग गंभीर आरोपों का सामना कर रहे हैं। बैंच ने कहा कि चुनिन्दा लोगों की जानकारी बैनर में देना यह दिखता है कि प्रशासन ने सत्ता का गलत इस्तेमाल किया है। मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर और न्यायमूर्ति रमेश सिन्हा की खंडपीठ के समक्ष राज्य सरकार की ओर से पेश हुए महाधिवक्ता राघवेंद्र प्रताप सिंह ने दलील दी थी कि अदालत को इस तरह के मामले में जनहित याचिका की तरह हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। उन्होंने कोर्ट को बताया कि बाकायदा पड़ताल के बाद इन लोगों के नाम सामने आए तो कानून के मुताबिक पूरी प्रक्रिया अपनाते हुए उन्हें अदालत से भी नोटिस जारी किया गया। अदालत के नोटिस के बावजूद यह लोग उपस्थित नहीं हो रहे थे। ऐसे में सार्वजनिक रूप से इनके पोस्टर लगाने पड़े। इस पर कोर्ट ने जानना चाहा कि ऐसा कौन-सा कानून है जिसके तहत ऐसे लोगों के पोस्टर सार्वजनिक तौर पर लगाए जा सकते हैं? साफ है कि सरकार ने लोकतंत्र और कानून के तकाजे को किनारे कर शायद हड़बड़ी में संयम रखना जरूरी नहीं समझा। गौरतलब है कि सीएए के मुद्दे पर हुए विरोध प्रदर्शनों के हिंसक होने और सम्पत्ति के नुकसान के लिए राज्य सरकार की पुलिस ने कई लोगों को आरोपी माना था। हालांकि अभी तक अदालत में इनके आरोप साबित नहीं हुए और न ही अदालत ने इन्हें कसूरवार माना है। चूंकि राज्य सरकार आरोपियों से भरपायी के रास्ते को ही प्राथमिक हल मान रही है। इसलिए इस मामले में भी 57 लोगों की पहचान फोटो सहित पूरा पता और परिचय होर्डिंगों पर छपवा कर जिले के चौक-चौराहों पर लगवा दिए। सरकार की नजर में नुकसान की वसूली का यह रास्ता ज्यादा जरूरी और कारगर हो सकता है। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या यह तरीका लोकतांत्रिक और कानूनी कसौटी पर भी पूरी तरह उचित है? यह भी सच है कि राज्य सरकार ने आरोपियों का समूचा ब्यौरा सार्वजनिक करने का जो रास्ता अपनाया है, वह न केवल उनकी निजता का हनन है, बल्कि उससे उनकी सुरक्षा को भी खतरा हो सकता है।

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