जहां एक तरफ पूरा देश
कोरोना वायरस से मुकाबला करने लगा है वहीं छत्तीसगढ़ के माओवादी प्रभावित सुकमा जिले
के चिंतागुफा थाना क्षेत्र में 17 जवानों
की शहादत ने पूरे देश में दुख का माहौल और पैदा कर दिया है। कोरोना महामारी से जूझते
देश में यह खबर उस समय की सुर्खियां नहीं बनी पर हाल के समय में यह सबसे बड़ा माओवादी
हमला है। दुख की बात यह है कि कई घंटों तक सुरक्षाबलों को यह पता ही नहीं था कि उनके
जवान कहां हैं? रविवार को यानि 22 मार्च
को इनकी तलाश के लिए 500 जवानों की टीम को भेजा गया था,
जिन्होंने जवानों के शव बरामद किए। सुरक्षाबलों पर नक्सली हमले ने एक
बार फिर इस समस्या से पार पाने की चुनौती को एक बार फिर याद करा दिया है। वहां नक्सली
समूह लंबे समय से सक्रिय हैं और उन पर काबू पाने में सरकार के प्रयास प्रश्नचिन्ह लगाते
हैं। अकसर नक्सली वहीं घात लगाकर या फिर सीधे मुठभेड़ में सुरक्षाबलों को चुनौती देते
हैं। इससे पार पाने के लिए राज्य सरकार और केंद्र के संयुक्त प्रयास चलते रहे हैं पर
इस दिशा में अपेक्षित कामयाबी नहीं मिल पाई है। अकसर देखा जाता है कि खुफिया तंत्र
और सुरक्षाबलों की तैयारी विफल साबित होती है। जितनी जानकारी आई है, उसके अनुसार सुकमा के मिदना इलाके में माओवादियों के बड़े जमावड़े की सूचना
पर शुक्रवार यानि 20 मार्च की शाम को अलग-अलग कैंपों से करीब 530 जवान जंगल गए थे। माओवादियों
को इसकी भनक लग गई थी। इसलिए उन्होंने वापसी के रास्ते पर इनको घेर कर मारने की व्यूहरचना
कर रखी थी। कसालपाड़ और मिदना के बीच काटपाड़राज रेंगापारा के पास स्थित चार तालाबों
की मेड़ के पीछे इनका अंकुश लगा था। जवान अलग-अलग सौ से डेढ़
सौ की टीमों में चल रहे थे। एक टीम माओवादियों के अंकुश में फंस गई। कल्पना की जा सकती
है कि अचानक गोलियों और बमों के हमले में फंसे जवानों को संभलने में समय लगा होगा और
वह बिखरे भी होंगे। चूंकि माओवादी चारों तरफ से थे और उनकी संख्या तीन सौ के आसपास
थी, इसलिए वह भारी पड़ गए। जवानों की गोलियां भी खत्म हो गईं।
हालांकि ऐसा नहीं हो सकता कि कोई माओवादी हताहत न हुआ हो पर उनकी संख्या के बारे में
कुछ पता नहीं है। माओवादी जवानों के हथियार भी लूटकर ले गए जिनमें 14 एके-47 राइफल और एक अंडर बैरल ग्रैनेड लांचर शामिल हैं।
कुल मिलाकर माओवादियों ने इस हमले से साफ कर दिया है कि उनकी शक्ति खत्म नहीं हुई है।
छत्तीसगढ़ में नक्सली गतिविधियों पर काबू न पाए जाने के पीछे कुछ वजह स्पष्ट हैं। यह
किसी से छिपी बात नहीं है कि वहां नक्सली समूह स्थानीय समर्थन के बिना इतने लंबे समय
तक टिक नहीं सकते। इसलिए इस समर्थन को समाप्त करने की जरूरत पर शुरू से बल दिया जाता
रहा है। स्थानीय लोगों और प्रशासन के बीच संवाद का जो सेतु कायम किया जाना चाहिए था,
वह भी ठीक से नहीं बन पाया है। जब तक सरकारें इन कमजोर कड़ियों को दुरुस्त
करने में सफल नहीं होती तब तक इस समस्या पर काबू पाने में मुश्किल ही बनी रहेगी।
-अनिल नरेन्द्र
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