हिंसा के हालातों के बीच दिल्ली पुलिस के नए कमिश्नर
श्री एसएन श्रीवास्तव का स्वागत है। शनिवार को पदभार संभालते हुए कमिश्नर ने कहा कि
उनकी प्राथमिकता राष्ट्रीय राजधानी में शांति बहाल करना और सांप्रदायिक सौहार्द सुनिश्चित
करना है। श्री श्रीवास्तव ने कहा कि यह शहर की परंपरा रही है कि हर वर्ग और धर्म के
लोग एक साथ सद्भाव से रहते हैं और अच्छे व बुरे वक्त में एक दूसरे की मदद करते हैं।
उत्तर पूर्वी दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे को लेकर दर्ज मामलों की जांच दिल्ली पुलिस
की क्राइम ब्रांच ने शुरू कर दी है। ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए कि इन दंगों के लिए जो
भी जिम्मेदार हैं, उनकी
पहचान कर उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। दिल्ली पुलिस ने दंगे से जुड़े 123
मामले दर्ज किए हैं, जिनकी जांच के लिए क्राइम
ब्रांच ने उपायुक्त स्तर के अधिकारियों के नेतृत्व में दो विशेष जांच टीम (एसआईटी) बनाई है। इस टीम ने शुक्रवार को विभिन्न इलाकों
में जाकर सबूत जुटाए और जांच पड़ताल की। दंगे का केंद्र बन चुके हत्यारोपित पार्षद
ताहिर हुसैन के घर पर भी क्राइम ब्रांच की टीम ने फोरेंसिक विशेषज्ञों के साथ पहुंचकर
सबूत जुटाए। साथ ही उसकी धरपकड़ के लिए छापेमारी भी की जा रही है, जिससे उम्मीद की जा सकती है कि उसे जल्द गिरफ्तार कर लिया जाएगा। यह सही है
कि दंगे में जन-धन की जो क्षति हो चुकी है, वो कमी तो पूरी नहीं की जा सकेगी, लेकिन जिन लोगों ने
हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया है उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जानी अत्यंत आवश्यक है।
दिल्ली पुलिस की इन दंगों में छवि खराब हुई है, उम्मीद की जाती
है कि नए कमिश्नर श्रीवास्तव स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच व कार्रवाई करेंगे जिससे दिल्ली
पुलिस की बिगड़ी छवि में सुधार हो सके। किसी भी सूरत में दंगाइयों को बख्शा नहीं जाना
चाहिए। चाहे वह बड़े से बड़ा नेता क्यों न हो। दिल्ली पुलिस को जहां एक ओर दंगाइयों
की पहचान करने के प्रयास करने चाहिए, वहीं दंगा भड़काने वालों
की पहचान की जानी चाहिए और उन्हें सलाखों के पीछे डालना चाहिए। पुलिस को अफवाह फैलाने
वालों की धरपकड़ के लिए भी गंभीर प्रयास करने चाहिए, ताकि उन्हें
भी उनके किए की सजा दी जा सके। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश की तर्ज पर दंगाइयों से नुकसान
की भरपायी भी कराई जानी चाहिए। उन्हें सजा देने के साथ-साथ ही
उनकी सम्पत्ति भी जब्त की जानी चाहिए। सबसे जरूरी यह है कि दिल्ली में दंगे रुकने चाहिए।
अभी भी कई स्थानों पर हिंसा हो रही है। यूं तो वक्त के साथ सारे दुख-दर्द भुलाए जा सकते हैं लेकिन दिल्ली के दंगों ने जो जख्म दिए हैं,
उन्हें शायद ही भुलाया जा सकेगा। जिस तरह 84 के
सिख दंगों और 2002 के गुजरात दंगों के घाव आज तक भी हरे हैं और
पीड़ितों की आंखों में आज भी आंसू हैं, उसी तरह 10 दिनों से शुरू हुए उत्तर-पूर्वी दिल्ली की बस्तियों में
हुए दंगों ने भी लोगों के मन में हमेशा के लिए टीस पैदा कर दी है। इससे भी ज्यादा दुख
इस बात का है कि तीन दिन तक चले हिंसा के इस तांडव को सांप्रदायिक रंग दे दिया गया,
जबकि हिंसा फैलाने वालों के बारे में अब तक यही कहा जा रहा है कि यह
शरारती तत्वों का काम था और किसी के इशारे पर इसे अंजाम दिया गया है। इस बात के भी
संकेत मिले हैं कि यह कुछ पेशेवर आपराधिक समूहों का काम था। ऐसे में सवाल उठता है कि
अगर कोई पेशेवर आपराधिक समूह इतने बड़े पैमाने पर हिंसा फैलाता है तो इसके पीछे निश्चित
रूप से कोई हाथ होगा, साजिश होगी। दिल्ली के दंगा पीड़ित खासतौर
से जिन लोगों ने अपनों को हमेशा के लिए खो दिया है, वह सिर्प
एक ही सवाल पूछ रहे हैं कि आखिर हमने किसी का क्या बिगाड़ा था, जिसकी वजह से आज यह दिन देखना पड़ रहा है। दंगों का दर्द कब तक भुलाएगा,
कोई नहीं जानता। पांच-छह दिन से लोग अपनों की तलाश
में इधर-उधर भटक रहे हैं। अस्पतालों से लेकर थानों तक में चक्कर
लगा रहे हैं, आसपास के नालों में खोजबीन करवा रहे हैं। रह-रहकर लाशें मिलने का सिलसिला जारी है। हालत यह है कि न तो अस्पतालों में घायलों
का सही इलाज हो पा रहा है और न ही उनके अपनों का पोस्टमार्टम ही हो रहा है। सवाल आज
भी यही है कि दंगाई कौन थे, किसके इशारे पर दंगे की शुरुआत हुई
और जब दंगे शुरू हुए तो पुलिस मूकदर्शक बनकर क्यों देखती रही?
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