Saturday 17 September 2016

सपा में कलह कितनी स्वाभाविक कितनी ड्रामेबाजी

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जिस तरह से अवैध खनन और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे अपने दो कैबिनेट मंत्रियोंöगायत्री प्रजापति और राजकिशोर सिंह को बर्खास्त किया तब यह अंदाजा शायद ही किसी को था कि समाजवादी पार्टी के अंदर छिड़ा गृहयुद्ध इतना आगे बढ़ जाएगा? मंत्रियों को हटाने के पीछे इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा सूबे में अवैध खनन की सीबीआई जांच पर रोक लगाने से इंकार बेशक एक बड़ा कारण रहा हो लेकिन उनके इस कदम के सियासी निहितार्थ भी थे। वे जानते हैं और समझते हैं कि अगर उन्हें 2017 का विधानसभा चुनाव जीतना है तो जनता के सामने एक साफ-सुथरी, ईमानदार छवि पेश करनी होगी। इसलिए किसी भी दागी मंत्री को वह चुनाव में नहीं उतारना चाहते। इससे पहले बाहुबली मुख्तार अंसारी के कौमी एकता दल का समाजवादी पार्टी में विलय भी उनके विरोध के कारण ही नहीं हो सका। प्रशासन पर अपनी पकड़ मजबूत करने के उद्देश्य से अखिलेश ने मुख्य सचिव को बदल डाला। मामला यहीं तक नहीं रुका, सूबे में सत्ता के कई केंद्र की आम धारणा को बदलने हेतु चाचाओं के प्रभाव से प्रशासन मुक्त करने के लिए अखिलेश ने चाचा शिवपाल यादव के अहम विभाग वापस लेते हुए उनका कद घटा दिया। समाजवादी पार्टी और सरकार की इस शह-मात के खेल में पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह ने मंगलवार शाम अप्रत्याशित फैसला लेते हुए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की जगह सिंचाई और लोक निर्माण मंत्री शिवपाल सिंह यादव को पार्टी अध्यक्ष बना दिया। शिवपाल यादव को प्रदेशाध्यक्ष बनाने के आदेश पर राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव के दस्तखत हैं। शिवपाल को प्रभारी का यह पद पार्टी व परिवार में संतुलन बनाने के लिए सौंपा गया था। अखिलेश का मानना है कि आगामी विधानसभा चुनाव महज जातीय राजनीति के दम पर नहीं जीते जा सकते। इसलिए वे विकास के साथ सरकार की छवि को लेकर भी सतर्प हैं। वे इस धारणा से भी मुक्ति चाहते हैं कि सूबे में सत्ता के कई केंद्र हैं। इसके लिए चाचाओं के प्रभाव से मुक्ति का संदेश देना उनके लिए जरूरी लगता है। मुलायम परिवार में सत्ता संघर्ष नया नहीं है। इसके पहले बाहुबली मुख्तार अंसारी की पार्टी के सपा में विलय को लेकर अखिलेश और शिवपाल के बीच ठन गई थी। तब मुलायम सिंह बीच-बचाव करते दिखे थे, लेकिन यह साफ था कि वह खुद यह चाह रहे थे कि मुख्तार अंसारी की पार्टी का सपा में विलय हो। मुलायम सिंह यादव के परिवार में तेज होता सत्ता संघर्ष परिवारवाद को प्रश्रय देने का नतीजा है। परिवारवाद को प्रोत्साहन देने वाले दलों में ऐसा सत्ता संघर्ष होना कोई नई-अनोखी बात नहीं है। शिवसेना, इनेलो, अकाली दल व द्रमुक में परिवार के सदस्यों के बीच राजनीतिक वर्चस्व को लेकर समय-समय पर कलह छिड़ी और उसने अप्रिय रूप भी लिया। कुछ दल तो टूट-फूट के भी शिकार हुए। परिवारवाद को प्रोत्साहन देने वाले राजनीतिक दल आमतौर पर निजी कंपनी की तरह चलते हैं। आंतरिक लोकतंत्र के अभाव से ऐसे दलों में प्रमुख का ही अंतिम फैसला होता है, लेकिन कई बार उसके फैसले नई पीढ़ी को रास नहीं आते। महत्वपूर्ण पदों के लिए परिवार के सदस्यों में तनातनी हो जाती है। यह तनातनी जब सार्वजनिक हो जाती है तो सबसे ज्यादा नुकसान पार्टी को ही होता है। समाजवादी कुनबे की ताजा कलह सतह पर आने से यूपी के सारे सियासी मुद्दे पीछे हो गए हैं। बसपा सुप्रीमो मायावती ने सपा सरकार में चल रही उठापटक को ड्रामेबाजी बताया है। उन्होंने कहा कि विधानसभा चुनाव से ठीक पहले इस तरह की कार्रवाइयां मतदाताओं को बहकाने की कोशिश है, सूबे में और ज्वलंत मुद्दों से जनता का ध्यान हटाने की एक कवायद है। अन्य विपक्षी दलों ने बुनियादी मुद्दों से ध्यान हटाने को इसे सपा का नाटक करार दिया है, जबकि खुद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने `परिवार एक है, झगड़ा सरकार में है और अगर कोई बाहरी व्यक्ति हस्तक्षेप करेगा तो पार्टी और सरकार कैसे चलेगी' कहकर बहस को आगे बढ़ा दिया है। सवाल उठना स्वाभाविक है कि अखिलेश किसे बाहरी बता रहे हैं? क्या उनके निशाने पर अमर सिंह हैं? संकेतों से तो यह बात स्पष्ट है और जब खुद अमर सिंह ने `बाहरी' शब्द पर जवाब दिया तो इसकी पुष्टि भी हो गई। मुद्दा यह है कि सपा कुनबे की रार स्वाभाविक है या फिर इसकी क्रिप्ट लिखी गई है। क्या यह अखिलेश यादव की इमेज बनाने का प्रयास है। क्या सपा सरकार में भ्रष्टाचार, कानून-व्यवस्था और बढ़ते अपराध से ध्यान हटाकर उन्हें लोकप्रिय, विकास पुरुष साबित करने की कवायद है। विपक्षी दल तो कम से कम यही कह रहे हैं लेकिन सपा का एक तबका इस रार और कलह के लिए अमर सिंह को जिम्मेदार ठहरा रहा है। अमर सिंह की वापसी के बाद से ही अंदरखाते चल रही लड़ाई खुलकर सामने आई है। अमर सिंह को शिवपाल का करीबी माना जाता है। निस्संदेह चाहे मुलायम सिंह हों अथवा शिवपाल या फिर अखिलेश हों, सभी का लक्ष्य सपा को फिर से सत्ता में लाना ही होगा। लेकिन संभवत इस पर एक राय नहीं है कि पार्टी को विजयी मुद्रा में कैसे लाया जाए। यदि अखिलेश यादव सपा का चेहरा हैं और उन्हीं के नाम पर वोट मांगे जाने हैं तो फिर यह जरूरी है कि उन्हें अपने तरीके से सरकार व प्रशासन चलाने की स्वतंत्रता हो। मंत्रियों के चयन से लेकर नौकरशाहों की नियुक्ति तक में उन्हें खुली छूट होनी चाहिए। परिवार के अन्य सदस्यों को इसमें हस्तक्षेप न करने की सख्त हिदायत पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह को देनी पड़ेगी नहीं तो वही होगा कि हम तो डूबे हैं सनम तुम्हें साथ ले डूबेंगे।

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