Tuesday 27 September 2016

क्या राहुल की सभा में जुट रही भीड़ वोट में तब्दील होगी

ब्राह्मण, दलित और मुसलमानों के समीकरण से लंबे समय तक सूबे में राज करने वाली कांग्रेस एक बार फिर इसी फार्मूले के बूते उत्तर प्रदेश में अपना सियासी वजूद बनाए रखने या यूं कहें कि इसे वापस अपने पाले में लाने के लिए दिन-रात हाथ-पांव मार रही है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी पिछले कई दिनों से कभी किसान यात्रा कर रहे हैं तो कभी खाट सभा। किसानों को पार्टी से जोड़ने की मुहिम इस प्रयास का हिस्सा है। किसानों के दर पर दस्तक देकर, उनसे सीधा संवाद करके उनका हितैषी होने का संदेश देने में राहुल जुटे हुए हैं। किसान यात्रा का रिस्पांस भी ठीक-ठाक मिल रहा है। वैसे हमें इस बार चुनावी नजारा कुछ बदला-बदला-सा दिख रहा है। कांग्रेस सहित सभी प्रमुख सियासी दल ब्राह्मणों के सहारे सत्ता हासिल करने की मुहिम में जुटे हुए हैं। करीब 55 फीसदी पिछड़ा वर्ग, इनमें से तकरीबन 32 फीसदी अतिपिछड़ा वर्ग की जातियों को अपने खांचे में फिट करने के बाद सभी दलों ने अब ब्राह्मणों को अपने पाले में लाने के लिए ताकत झोंक दी है। इनमें खुद को ब्राह्मणों का सबसे बड़ा हितैषी साबित करने की होड़-सी लगी हुई है। कांग्रेस के पोस्टरों में पहली बार राहुल गांधी पंडित बताए जा रहे हैं, तो उन्नाव के ब्राह्मण परिवार में आई पंजाबी बहू शीला दीक्षित को पार्टी का ब्राह्मण चेहरा बनाकर बतौर मुख्यमंत्री के रूप में आगे किया है। होड़ में तो भाजपा भी कम नहीं है। ब्राह्मणों की नाराजगी से बचने तथा उनका समर्थन हासिल करने के लिए 75 साल की बंदिश के बावजूद भाजपा ने कलराज मिश्र को केंद्रीय मंत्रिमंडल में बनाए रखा है, तो काफी समय से उपेक्षित चल रहे शिव प्रताप शुक्ला को राज्यसभा भेजकर ब्राह्मणों का ख्याल रखने का संदेश देने में पीछे नहीं है। जहां तक बसपा का सवाल है तो वह अपने एकमात्र ब्राह्मण चेहरे सतीश चन्द्र मिश्र के बलबूते 2007 के दलित-ब्राह्मण समीकरण के जरिये करिश्मे को दोहराने के चक्कर में है। बात हम राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी की कर रहे थे। सूबे में जिस तरह के सियासी और जातीय समीकरण हैं, उसमें राहुल की सभाओं में आने वाली भीड़ क्या वोट में तब्दील हो पाएगी यह बड़ा सवाल है? किसान यात्रा में राहुल अखिलेश सरकार से ज्यादा मोदी पर हमलावर हैं। मोदी विरोध विधानसभा चुनाव में सियासी तौर पर कांग्रेस के लिए बहुत ज्यादा फायदेमंद होगा इस पर संदेह है। 2014 के लोकसभा चुनाव के अनुभवों को देखते हुए कांग्रेस के रणनीतिकार भी भीड़ को वोट में बदलने को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं, लेकिन किसान यात्रा को मिल रहे समर्थन को अच्छा संकेत जरूर माना जा रहा है। राहुल गांधी 2004 से ही सूबे में कांग्रेस को खड़ा करने की तमाम कोशिशों पर रहे हैं। फिलहाल उन्हें ज्यादा कामयाबी नहीं मिल पाई। देखें इस बार क्या होता है?

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