Published on 27 February, 2013
अनिल नरेन्द्र
मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद
नशीद 11 दिनों से चल रहे हाई-प्रोफाइल ड्रामे को समाप्त करते हुए माले स्थित भारतीय
उच्चायोग से अंतत बाहर आ गए। अपनी गिरफ्तारी का वारंट जारी होने पर उन्होंने पिछले
बुधवार को माले स्थित भारतीय उच्चायोग में शरण ले ली थी। भारत इसकी वजह से एक विचित्र स्थिति में फंस गया था। नशीद गिरफ्तारी से बचने
के लिए 13 फरवरी से भारतीय दूतावास में थे। दरअसल वह अपने शासनकाल में मुख्य आपराधिक
न्यायधीश अब्दुल्ला मोहम्मद को हिरासत में लिए जाने के आरोपों में अदालत में पेश होने
में नाकाम रहे थे। नशीद की पार्टी ने आरोप लगाया था कि यह मामला राजनीति से प्रेरित
है और सितम्बर में होने जा रहे राष्ट्रपति चुनाव में भाग लेने से उन्हें अयोग्य ठहराने
के लिए ऐसा किया गया है। वारंट जारी होने के तत्काल बाद 13 फरवरी को नशीद भारतीय उच्चायोग
में दाखिल हो गए थे। यूपीए सरकार के समर्थकों का मानना है कि मोहम्मद नशीद प्रकरण को
बड़ी ही सूझबूझ से निपटा लिया गया। भारत ने जिस तरह मालदीव की वर्तमान सरकार और पूर्व
राष्ट्रपति के बीच सुलह-समझौते का सहारा लेते हुए इस कार्य को अंजाम दिया वह सराहनीय
है। मालदीव के 46 वर्षीय नशीद नवम्बर 2008 में लोकतांत्रिक ढंग से हुए चुनाव में तीन
दशकों से काबिज रहे तानाशाह अब्दुल गयूम को दूसरे राउंड में हराकर राष्ट्रपति पद सम्भाला
था। नशीद मालदीव लोकतांत्रिक पार्टी के संस्थापकों में गिने जाते हैं। गयूम की तानाशाह
सरकार के खिलाफ आंदोलन करते हुए वह अपने राजनीतिक जीवन में कम से कम 20 बार जेल गए।
उनको मालदीव का नेल्सन मंडेला कहा जाता है। लेकिन सेना एवं नौकरशाही में गयूम की पकड़
मजबूत होने के कारण नशीद को पिछले दो सालों से लगातार विरोध का सामना करना पड़ रहा
है। 7 फरवरी 2012 को नशीद ने विवादास्पद परिस्थितियों में इस्तीफा दे दिया। करीब
11 दिन पहले गिरफ्तारी के डर से नशीद ने भारतीय उच्चायोग में शरण ली थी। भारत के सामने
अजीब धर्म संकट खड़ा हो गया था। वह नशीद को बाहर करने की स्थिति में नहीं थी। कहा जा
रहा है कि भारतीय राजनयिक दल के कूटनीतिक प्रयासों के बाद मालदीव सरकार और नशीद में
कोई गुप्त समझौता हुआ है। फिलहाल वहां की सरकार का अब कहना है कि नशीद के खिलाफ कोई
गिरफ्तारी वारंट नहीं है। इसलिए कहा जा रहा है कि भारत सरकार ने एक अत्यंत टेढ़ी स्थिति
को अच्छे तरीके से हैंडल किया और इसे कूटनीतिक सफलता माना जा रहा है पर दूसरी ओर अगर
कुछ हालिया घटनाओं के बाद देशभर का ध्यान फिर से देश की सुरक्षा को लेकर उन सवालों
पर गया है जो ऐसे मौकों पर इससे पहले भी उठाए जाते रहे हैं। मसलन अफजल गुरू की फांसी
के बाद देश के भीतर अलगाववाद की जड़ों को फलने-फूलने और इसके पाक अधिकृत कश्मीर से
इस्लामाबाद के संबंधों पर चिन्ता इस तरह जताई गई जैसे यह खतरा कोई एक दिन में पैदा
हुआ हो। दरअसल ये कुछ मिसालें हैं हमारी सरकार की नीतिगत अस्पष्टता और अदूरदर्शिता
की। मालदीव का ताजा प्रकरण इस सिलसिले की नई मिसाल है। जब मोहम्मद नशीद को भारतीय उच्चायोग
में शरण दी गई तो कहीं न कहीं यह आभास देने की कोशिश की गई कि भारत एक समर्थ और जिम्मेदार
देश है और वह इस तरह के कूटनीतिक फैसले बेहिचक लेने की स्थिति में है पर ऐसा हुआ नहीं।
अगर हम इस पूरे घटनाक्रम पर गौर करें तो यह नौबत आई ही इसलिए क्योंकि भारत को मालदीव
में हालात के तेजी से बदलने का अंदाजा ही नहीं रहा। जिस नशीद को आज हम शरणागत सुरक्षा
दे रहे हैं, उसका फरवरी 2012 में तख्ता पलट दिया गया था। तब भारत सरकार को यह इतना
सहज लगा कि उसने वहीद मालिक को यहां का नया राष्ट्रपति बिना सोचे-समझे, बिना किसी विरोध
के स्वीकार कर लिया और बाकायदा उसे बधाई तक दी। दिलचस्प है कि नशीद न सिर्प मालदीव
की लोकप्रिय सरकार के मुखिया रहे बल्कि भारत के सच्चे मित्र भी हैं पर भारत अपने मित्र
की मुश्किल समय में मदद क्या करता, वह अपनी नासमझी में उनके खिलाफ षड्यंत्र को भी नहीं
ताड़ सका। तब जो एक षड्यंत्र भर था, आज वह मालदीव में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पटरी
से उतारने की एक बड़ी कार्रवाई बन चुकी है। वहीद नहीं चाहते कि सितम्बर में होने वाले
चुनाव में नशीद को देश में अपनी लोकप्रियता साबित करने का एक और मौका मिल जाए। लिहाजा
उन पर अपने कार्यकाल के दौरान एक न्यायाधीश को गैर-कानूनी तरीके से गिरफ्तार करने का
आरोप लगाया गया है। भारत अगर चाहता तो मालदीव में आज जैसी स्थिति है, उसमें अपना हस्तक्षेप
पहले भी शुरू कर सकता था। लोकशाही को बचाने की दरकार के साथ किए गए उसके सख्त हस्तक्षेप
का कोई विरोध तो क्या करता, उलटे इससे डेमोकेटिक दुनिया में भारत की साख और बढ़ती।
वैसे यह मसला लोकतंत्र की हिमायत से आगे एक सधी कूटनीति का भी है। 1988 में राष्ट्रपति
गयूम का तख्ता पलट करने की हिमाकत को विफल करने वाले भारत ने अपनी बढ़त बनाए नहीं रखी
और आज नतीजा यह है कि चीन ने इस दौरान मालदीव में अपनी पैठ बना ली है। यह भारत के लिए
न केवल एक कूटनीतिक पराजय ही है बल्कि भारत की सुरक्षा चिन्ता को लेकर यह उसकी खतरनाक
अगम्भीरता को भी दर्शाता है।
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