Tuesday 12 February 2013

आठ बजे, आठ लोग, आठ मिनट में गुरू की फांसी को लगे आठ साल


 Published on 12 February, 2013 
 अनिल नरेन्द्र
 जी हां, संसद पर वर्ष 2001 में आतंकवादी हमले को अंजाम देने में जैश-ए-मोहम्मद के आतंकवादियों को मदद करने वाले कश्मीरी फल बिकेता मोहम्मद अफजल गुरू को शनिवार एक बेहद गोपनीय अभियान में सुबह आठ बजे, आठ लोगों की मौजूदगी में आठ मिनट में फांसी के फंदे पर लटका दिया गया। हालांकि इस फांसी को देने में यूपीए सरकार को आठ साल लग गए। वर्ष 2002 में पटियाला हाउस कोर्ट में बतौर एडिशनल सेशन जज जस्टिस शिव नारायण ढींगरा ने अफजल गुरू को दोषी ठहराते हुए फांसी की सजा सुनाई थी। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र पर आतंकी हमले से पूरा देश गुस्से में था। जांच एजेंसियों के पास मुलजिमों को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त सबूत मौजूद थे। निर्धारित समय में निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने संसद हमले के मुख्य आरोपी अफजल गुरू को फांसी की सजा भी सुना दी। लेकिन सरकार ने ही रस्सी खींचने में आठ साल लगा दिए। अफजल गुरू को यूं चुपचाप अचानक बिना भनक लगे फांसी पर लटकाने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं इस पर चर्चा होनी चाहिए पर इससे पहले दो बातें करना जरूरी है। जो लोग अफजल गुरू की सजा को गलत और नाजायज करार देते हुए कहते हैं कि उनका मुकदमा सही तरीके से नहीं हुआ उन्हें मैं इतना ही कहना चाहता हूं कि क्या वह भूल रहे हैं कि इसी केस में आरोपी जाकिर हुसैन कॉलेज के प्रोफेसर एसएआर गिलानी को सत्र अदालत ने परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर दोषी ठहराते हुए सजा सुनाई थी परन्तु दिल्ली हाई कोर्ट ने गिलानी की सजा के खिलाफ दाखिल चुनौती याचिका पर सुनवाई करते हुए पुलिस के उन सबूतों को आधारहीन करार दिया था। हाई कोर्ट ने गिलानी और अफसाना गुरू को संसद हमले से बरी कर दिया था। दूसरी बात यह कहना चाहता हूं कि हालांकि श्री प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति बन गए हैं पर बरसों तक वह यूपीए सरकार के संकटमोचन रहे और आज भी हैं। जब महामहिम को लगा कि कांग्रेस संकटों से घिरी हुई है उसे उबारने के लिए कुछ ऐसा करना होगा जिससे कांग्रेस का गिरता ग्रॉफ थम जाए। राष्ट्रपति बनने के बाद भी प्रणब ने कई मौकों पर अपने फैसलों से सरकार को संकट से उबारा। पहले अजमल कसाब और अब अफजल गुरू की क्षमा याचना यूं ही रद्द नहीं हुई। अब देश को इंतजार है अन्य फांसी की सजा पाए व्यक्तियों को फांसी पर लटकते देखने की। इनमें देवेन्द्र पाल सिंह भुल्लर, बलवंत सिंह राजोआना, अशफाक उर्प आरिफ और राजीव गांधी के हत्यारे प्रमुख हैं। क्या राष्ट्रपति इनकी क्षमा याचनाओं का निपटारा कसाब और गुरू की तरह करेंगे? रहा सवाल यूपीए और कांग्रेस की अफजल को फांसी यूं देने के पीछे क्या-क्या मकसद रहे होंगे? कांग्रेस ने गुरू को फांसी देकर एक तीर से कई शिकार करने की कोशिश की है। भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दों से लगातार जूझ रही कांग्रेस नीत सरकार ने तीन महीने के अन्दर कसाब और गुरू को फांसी देकर जहां एक तरफ विपक्षी हमलों और अपनी हो रही चौतरफा आलोचनाओं का जवाब दिया है। वहीं कड़े फैसले लेने की अपनी इच्छाशक्ति का संकेत भी दिया है। पिछले कुछ समय से विपक्ष द्वारा आगामी बजट सत्र में सरकार और उसके महत्वपूर्ण मंत्रियों को घेरने की रणनीति बनाई जा रही थी। खासकर जयपुर चिन्तन शिविर में गृहमंत्री द्वारा भगवा आतंकवाद से जुड़े बयान को लेकर उनका बायकाट करने की तैयारी की जा रही थी। ऐसे में सरकार ने आतंकवाद के खिलाफ यह कड़ा कदम उठाकर विपक्ष को रणनीतिक रूप में मात देने की कोशिश की है। बेशक भगवा आतंकवाद के बयान और गैंगरेप मामले को ठीक तरह से हैंडल न कर पाने को लेकर गृहमंत्री शिंदे पर लगे आरोपों की धार कम करने के लिए कांग्रेस ने उसी गृहमंत्री से दूसरी फांसी पर फैसला करवा कर विपक्ष की भावी रणनीति पर पानी फेरने का प्रयास किया है। जिस तरह से यूपीए कार्यकाल के अंतिम डेढ़ सालों में कांग्रेस ने सक्रियता दिखानी शुरू की है उसका स्पष्ट मकसद आने वाले दिनों में इसका राजनीतिक माइलेज लेना है। पॉलिसी पैरालिसिस के आरोप झेल रही सरकार ने एक के बाद एक जिस तरह से संवेदनशील मामलों के दोषियों को फांसी दी है उससे साफ हो गया है कि वह पूरी तरह से एक्टिव मोड में आ गई है और फिर नरेन्द्र मोदी के केंद्र की तरफ बढ़ रहे कदमों से घबराकर कांग्रेस ने पहले ही उस मुसीबत से निजात पाने की कोशिश की है जिसे मोदी कथित रूप से अपने प्रचार का बड़ा अभियान बनाने वाले थे या फिर लोकसभा चुनाव की दस्तक देने पर यह वोट बटोरने की कांग्रेसी रणनीति का हिस्सा है? मालूम हो कि 20 जनवरी को शिंदे ने कांग्रेस चिन्तन शिविर में भगवा आतंकवाद की बात कही और भाजपा व संघ पर आतंकी शिविर चलाने  का आरोप लगाया ठीक उससे अगले दिन उन्होंने अफजल की फाइल मंगवाई। 23 जनवरी को उन्होंने इसे राष्ट्रपति के पास भेज दिया। वर्षों से लटका हुआ मामला 15 दिन में ही पूरा हो गया। ऐसा क्यों हुआ? ऐसा मानने वालों की कमी भी नहीं जो यह मानते हैं कि फांसी कांग्रेस का लोकसभा चुनावों की रणनीति का हिस्सा है। पार्टी अच्छी तरह जानती है कि यदि भाजपा मोदी को आगे करके चुनाव लड़ती है तो इससे निसंदेह देश का मुसलमान प्रतिक्रिया स्वरूप कांग्रेस को वोट देगा ही। अफजल की फांसी जैसे छोटे-मोटे कदम भी कांग्रेस के गणित खराब नहीं कर सकते, क्योंकि यदि मोदी की खिलाफत करनी है तो उन्हें कांग्रेस के साथ आना ही होगा। अफजल की फांसी से भाजपा को धक्का लगना स्वाभाविक ही है। एक बहुत बड़ा मुद्दा उसके हाथ से छिन गया। यही नहीं इस कदम से भाजपा की हिन्दू वोटों की ध्रुवीकरण की कोशिश को भी धक्का लगा है। जब तक भाजपा यह मान रही थी कि मोदी सहित उसके दूसरे नेता आतंकवाद के मुद्दे पर जब अपनी बात रखेंगे तो कांग्रेस के पास उसका कोई जवाब नहीं होगा। लेकिन अब उलटा होने का खतरा बढ़ गया है। कांग्रेस तो अब यह दावा कर सकती है कि उसके शासनकाल में आतंकियों को फांसी दी गई। भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में रहते हुए  तो आतंकवादियों को कंधार तक छोड़ने सरकार गई थी।





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