Published on 14 February, 2013
अनिल नरेन्द्र
संसद हमले के साजिशकर्ता अफजल गुरू की फांसी की
खबर के साथ ही हर हिंदुस्तानी के जेहन में एक और फांसी की अनदेखी तस्वीर कौंध जाती
है। मुंबई पर कहर बरपाने वाले अजमल आमिर कसाब का कारनामा भले ही अलग हो, लेकिन
दोनों का इरादा एक था और अंजाम भी एक सा हुआ। एक ने देश के आर्थिक केन्द्र को तो
दूसरे ने राजनीतिक केन्द्र को निशाना बनाया। इसमें से एक विदेशी था तो दूसरा देसी
लेकिन दोनों की कमान पाकिस्तान में ही थी। दोनों को कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए
सरकार ने फांसी पर लटकाया। दोनों को सुबह-सुबह अति गुप्त तरीके से लटकाया गया,
दोनों की सूचना हर आम आदमी को परिचितों के मैसेज से सुबह-सुबह मिली। कसाब सरहद पार
से आया था। अफजल हमारी सरजमीं का था। कसाब में जहर भरा गया था। अफजल जहर भरता था।
कसाब गैर-कानूनी तरीके से घुसकर आया था। अफजल गैरकानूनी तरीके बता रहा था। कसाब
हत्यारा था, हमलावर था, जिस्मानी मौजूदगी थी उसकी। अफजल हत्यारों, हमलावरों की
साजिश बुन रहा था, मददगार था, उसकी दिमागी मौजूदगी थी। पर दोनों के केसों में एक
फर्प था। कसाब को लेकर एकतरफा माहौल बना, वह आतंकी है कई घरों को उसने तबाह किया
उसे फांसी ही होनी चाहिए। अफजल का माहौल अलग रहा। एक वर्ग उसके साथ खड़ा हो गया,
उसे मासूम बताता रहा, इनमें बड़े बुद्धिजीवी खास सेक्यूलर दानिशबर थे। दूसरी ओर
अफजल को फांसी देने में आठ साल क्यों लगे यह पश्न आए दिन होता रहा। कसाब की तरह
अफजल ने भले ही खुद अपने हाथों से मौत नहीं बरसाई हो, लेकिन संसद पर हमले की साजिश
में उसकी भूमिका को देखकर उसका यह अंजाम अदालत ने आठ साल पहले ही मुकर्रर कर दिया
था। संसद हमले में भले ही हमलावर सिर्प दस सुरक्षा कर्मियों को निशाना बना पाए
लेकिन यह हमला अपनी धमक में किसी भी तरह मुंबई हमले से कम नहीं था। कसाब ने अपने
साथियों के साथ मिल कर जहां देश की आर्थिक राजधानी को निशाना बनाया था, वहीं अफजल
के निशाने पर भारतीय लोकतंत्र के हृदय संसद समेत पधानमंत्री, गृहमंत्री समेत पूरा
शासकवर्ग व राजनीतिक वर्ग था। डेढ़ सौ से ज्यादा लाशों का ढेर लगाने वाले मुंबई हमले
में हत्थे चढ़ा कसाब अगर आतंकवाद का जिंदा चेहरा था तो अफजल आतंकवाद का शैतानी
दिमाग। दोनों हमलों का इरादा कश्मीर मुद्दे को अंतर्राष्ट्रीय चर्चा में लाना था।
मगर कसाब को इस ऑपरेशन के लिए सीधे पाकिस्तानी एजेंसियों ने हर तरह की मदद और
पशिक्षण देकर यहां भेजा था, जबकि कश्मीर के सोपोर का अफजल इस मुद्दे के साथ लंबे
समय से भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ था। दोनों को ही जिस जेल में फांसी दी गई वहीं
पर दफनाया भी गया। कसाब और अफजल दोनों ही पाकिस्तानी आतंकी संगठन के चेहरे थे।
कसाब जहां पहले मजदूरी करता था वहीं अफजल ने अपने करियर की शुरुआत फल बेचने से की
थी। कसाब लश्कर-ए-तैयबा का गुर्गा था तो अफजल जैश-ए-मोहम्मद का। कसाब की तरह गुरू
भी हमले वाले दिन गिरफ्तार हुआ। कसाब मुंबई में एक पुलिस नाके पर रंगे हाथ पकड़ा
गया था। गुरू दिल्ली से भागने की कोशिश में एक बस से। 43 साल का अफजल कश्मीरी मूल
का दूसरा ऐसा आतंकी है जिसे आतंकी गतिविधि में शामिल होने के अपराध में फांसी दी
गई। इससे पहले 11 फरवरी 1984 को मकबूल बट्ट को फांसी दी गई थी। मकबूल को छुड़ाने
के लिए जेकेएलएफ आतंकियों ने एक भारतीय राजनयिक का अपहरण कर लिया था। अपने
पाकिस्तानी आकाओं के इशारे पर कसाब का इरादा हिन्दुस्तानियों के साथ-साथ अधिक से
अधिक विदेशियों को निशाना बनाना था, वहीं अफजल ने भारत सरकार को दबाव में लेकर
अपनी मांगें मंगवाने का बेहद खतरनाक इरादा बनाया था। दोनों ही मामलों में
पाकिस्तान बार-बार अपनी किसी भी भूमिका से पूरी तरह इंकार करता रहा लेकिन उसकी
भूमिका साफ थी। यही वजह थी कि दोनों ही हमलों के बाद उसके भारत के साथ संबंध बेहद
नाजुक स्थिति में पहुंच गए। संसद हमले के बाद तो दोनों देशों के बीच युद्ध की
तैयारियां भी व्यापक स्तर पर हो गई थीं।
No comments:
Post a Comment