Published on 10 February, 2013
अनिल नरेन्द्र
नेताओं, नौकरशाहों व अपराधियों की सुरक्षा में
तैनात पुलिस
की जरूरत पर अकसर सवाल उठते रहे हैं। अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट
में आ गया है। वीआईपी सुरक्षा को लेकर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश बेहद महत्वपूर्ण हैं। सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस जीएफ सिंघवी की अध्यक्षता वाली पीठ यूपी के अभय सिंह की रिट याचिका पर विचार कर रही
है। पीठ
ने शीला
दीक्षित के उस बयान पर भी संज्ञान लिया
है जिसमें उन्होंने बुधवार को कहा था कि हाल में सुरक्षा सुधारों पर विचार के बावजूद राजधानी में महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं।
कोर्ट ने राज्यों के गृह सचिवों से कहा है कि वे एक हफ्ते में बताएं कि उनके
यहां पुलिस
सुरक्षा किसे,
कितनी व क्यों मिली है और इस पर कितना खर्च आ रहा है। राजधानी दिल्ली में 459 वीआईपी की सुरक्षा पर सालभर
में 341 करोड़ रुपए खर्च
हुए। यह जानकारी दिल्ली सरकार
ने सुप्रीम कोर्ट में
एक हल्फनामे में दी है। हल्फनामे में यह भी बताया गया कि दिल्ली पुलिस में 83,452 पद स्वीकृत हैं, जिसमें करीब 36 हजार पुलिसकर्मी तैनात हैं।
दिल्ली पुलिस
की सिक्यूरिटी यूनिट में 7205 पुलिसकर्मी जबकि राष्ट्रपति भवन की सुरक्षा के लिए
844 पुलिसकर्मी तैनात
हैं। जिन
लोगों को आतंकी, नक्सली संगठनों के अलावा
रूढ़िवादी गुटों
से जान
का खतरा
है उन्हें सरकार जेड
प्लस, जेड, वाई व एक्स श्रेणी की सुरक्षा मुहैया कराती है।
इनमें नेता
व सरकारी मशीनरी से जुड़े लोग भी शामिल हैं। इसके अलावा उन लोगों को भी सुरक्षा मुहैया कराई जाती
है जिन्हें कोई धमकी
तो नहीं है लेकिन वे ऐसे दफ्तर में हैं जहां जनहित में लिए गए निर्णय से किसी के निशाने पर आए हों। इसके अलावा किसी भी व्यक्ति की जान को खतरा महसूस होने पर भी उसको सुरक्षा प्रदान की जाती
है। सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली पुलिस
से कहा
है कि वह वीआईपी सुरक्षा में लगे
पुलिसकर्मियों को वहां से हटाकर महिलाओं की सुरक्षा में लगाए। कोर्ट ने तो यहां तक पूछा है कि आखिर जजों को क्या सुरक्षा दी गई है? अदालत ने इस बात पर चिन्ता व्यक्त की है कि कई ऐसे नेताओं को सिक्यूरिटी मिली
हुई है,
जो सत्ता
से बाहर
थे और उनके खिलाफ कई मामले चल रहे हैं। वीआईपी को पुलिस सुरक्षा का मामला पहले भी उठता रहा है, लेकिन दिल्ली गैंगरेप के बाद यह ज्यादा प्रमुखता से उठाया
गया है।
राजधानी को शर्मसार करने वाली
गैंगरेप की घटना के बाद भी दिल्ली पुलिस
की सक्रियता न दिखना
गम्भीर चिन्ता का विषय
है। विडम्बना है कि देश
की राजधानी में किए
जा रहे
कड़े सुरक्षा इंतजामों के दावे अब भी सच्चाई से कोसों दूर
हैं। पुलिस
की मुस्तैदी पर सवाल
आम आदमी
उठाता तो शायद टाला भी जाता पर यह हकीकत दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला
दीक्षित ने भी स्वीकार की है। लाजपत नगर इलाके में एक युवती से दुष्कर्म की कोशिश व उसके मुंह में रॉड डालने की हरकत पर मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने एक बार फिर कहा है कि दिल्ली में महिलाओं की सुरक्षा पुख्ता नहीं
है। इसके बाद दिल्ली में
सुरक्षा के दावों पर कैसे विश्वास किया जा सकता है? दुर्भाग्य की बात है कि दिल्ली में
महिलाओं की सुरक्षा को लेकर जो सामूहिक प्रयास से कारगर
कदम उठने चाहिए थे वह नहीं उठे बल्कि आरोप-प्रत्यारोप तथा
पुलिस का नियंत्रण अपने
पास रखने
की कवायद का ही दौर जारी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि स्थिति बेहद
गम्भीर है।
यह बात अकसर कही जाती
है कि वीआईपी सुरक्षा की जांच
की जाएगी
और गैर-जरूरी सुरक्षाकर्मियों को हटाया जाएगा,
लेकिन ऐसा
होता नहीं
है। वीआईपी सुरक्षा का तामझाम घटने
की बजाय
बढ़ता ही जा रहा है। सुरक्षा की जरूरत नेता, अफसरों या दूसरे लोगों को किसी खतरे की वजह से नहीं बल्कि अपना रुतबा बढ़ाने के लिए ज्यादा होती
है। राजनीतिक वजहों से सुरक्षा का आंकलन कैसे प्रभावित होता है इसका उदाहरण राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (एनएसजी) की तैनाती है। एनएसजी के कमांडो को विशेष रूप से आतंकवाद विरोधी कार्रवाई के लिए
ट्रेनिंग दी जाती है, लेकिन वे वीआईपी सुरक्षा में
भी लगे
हुए हैं।
जब पी.
चिदम्बरम गृहमंत्री थे, तब
उन्होंने एनएसजी प्राप्त सुरक्षा लोगों की संख्या 14 पर ला दी थी, अब फिर 17 लोगों को एनएसजी कमांडो मिले हुए
हैं और जल्दी ही यह संख्या 20 के पार हो सकती है। इनमें कई लोगों को न तो इसकी कोई जरूरत है और न ही समयानुसार प्राथमिकता। अगर
सुप्रीम कोर्ट जिसने इतनी दिलचस्पी अब तक ली है स्वयं वीआईपी सुरक्षा प्राप्त लोगों की सूची में डिटेल से जाए
तो दूध
का दूध
पानी का पानी हो जाएगा। किसी
वक्त भारत में
बड़े-बड़े
नेता भी कोई खास सुरक्षा नहीं रखते
थे। 70 के दशक में
जब आतंकवाद फैला व आतंकियों ने कुछ महत्वपूर्ण लोगों
को निशाना बनाया, तब वीआईपी सुरक्षा की अवधारणा ने जड़
पकड़ी। कुछ
नेताओं को तो सचमुच
निजी सुरक्षा की जरूरत
थी और है भी पर बाकी नेता या कथित महत्वपूर्ण लोगों को यह रुतबे का प्रतीक ज्यादा लगती
है। लाल बत्ती वाली गाड़ी
की तरह
ही निजी
सुरक्षाकर्मी सत्ता
व स्टेटस की निशानी बन गए हैं। इस बात
से कतई
इंकार नहीं
किया जा सकता कि सुरक्षा को लेकर दिल्ली सरकार गम्भीर हुई है तथा
दिल्ली पुलिस
की सक्रियता बढ़ी है लेकिन सड़क पर सुरक्षा विशेषकर महिलाओं की सुरक्षा के मामले में अब भी खास सुधार नजर नहीं आ रहा है, जो यकीनन दुर्भाग्यपूर्ण है
और महकमे
को कठघरे
में खड़ा
करता है।
इससे निजात
पाने के लिए नए सिरे से योजनाएं बनाने के साथ सख्त कदम उठाने होंगे ताकि आपराधिक तत्वों में कानून
के प्रति
डर पैदा किया जा सके
और लोगों
की सोच
बदले। आज स्थिति यह बन गई है कि दिल्ली पुलिस
अपने आपको किसी को भी जवाबदेह नहीं समझती। दिल्ली सरकार को गृह
मंत्रालय पुलिस महकमा देता
नहीं और खुद कोई सख्ती
करता नहीं।
एक अनुमान है कि हमारे देश में एक वीआईपी पर
3 पुलिस वाले हैं जबकि 800 सामान्य नागरिक पर एक पुलिस वाला होता है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश ने एक
अवसर दिया
है कि इस समस्या का स्थायी समाधान निकाला जाए। बेहतर
होगा कि वीआईपी सुरक्षा के लिए अलग
से फोर्स
का गठन
किया जाए
और आम पुलिसकर्मियों को जनता
की हिफाजत में लगाया जाए। राजनीतिक नेतृत्व को इसकी
पहल करनी
चाहिए।
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