Friday, 22 February 2013

इन प्रिंसिपलों और टीचरों की मानसिकता कब बदलेगी?



   Published on 22 February, 2013   
अनिल नरेन्द्र

स्कूलों में बच्चों के साथ हिंसक व्यवहार के खिलाफ हालांकि कड़े कानून हैं और ऐसे अनेक मामलों में अध्यापकों, प्रधानाचार्यों को दंडित भी किया जा चुका है पर फिर भी कुछ लोग सुधरने को तैयार नहीं। स्कूल परिसर में पढ़ाई-लिखाई का माहौल भयमुक्त बनाने के मकसद से पाठ्यचर्या और अध्यापन संबंधी नई नीतियां तैयार की गईं, नए तौर-तरीकों और शिक्षा उपकरणों के इस्तेमाल पर बल दिया जाने लगा है, मगर अब भी कुछ प्रिंसिपल व टीचर पुराने ढर्रे पर बेंत, फुट रुल से बच्चों की पिटाई पर विश्वास करते हैं कभी-कभी बच्चे को सबक सिखाने के चक्कर में ऐसी जगह मार देते हैं जिससे बच्चे का वह अंग तमाम जिन्दगी के लिए ही बेकार हो जाता है। अकसर हम सुनते हैं, पढ़ते हैं कि स्कूल में पिटाई की वजह से बच्चे अपना मानसिक संतुलन खो बैठे और कुछ ने तो आत्महत्या तक कर ली। जब  मैंने हाल ही में यह खबर पढ़ी कि उत्तर प्रदेश के बुलंद शहर जिले में एक प्रिंसिपल के हाथों पिटाई की वजह से पहली कक्षा के एक बच्चे की आंख की रोशनी चली गई तो मुझे बहुत भारी सदमा पहुंचा। बच्चे की इस निर्मम पिटाई की वजह थी कि उसके माता-पिता स्कूल की फीस समय पर नहीं जमा कर सके। फीस अगर जमा नहीं हुई थी तो इससे मासूम बच्चे का क्या दोष था? होना तो यह चाहिए था कि प्रिंसिपल बच्चे के मां-बाप को बुलाते और उनसे बात करते। जाहिर-सी बात है कि बच्चा गरीब तबके से रहा होगा। उसके पिता दिहाड़ी मजदूर हैं। अखबारों में छपी खबरों के आधार पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने स्वत संज्ञान लेते हुए बुलंदशहर के जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक से इस बाबत रिपोर्ट तलब की है। आयोग ने जिलाधिकारी से यह भी बताने को कहा है कि वह स्कूल गरीब तबके के बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने संबंधी नियमों का पालन कर रहा था या नहीं? शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद निजी स्कूलों में पच्चीस फीसदी सीटें गरीब बच्चों के लिए आरक्षित रखना जरूरी हो गया है। मगर शायद ही किसी स्कूल ने इस नियम को मन से स्वीकार किया हो। वे गरीब बच्चों की हित-चिन्ता के बजाय अपना लाभ सबसे पहले देखते हैं। यही वजह है कि किसी न किसी बहाने वे आर्थिक रूप से कमजोर तबके के अभिभावकों से भी पैसे वसूलते हैं पर बड़े शहरों में निजी स्कूलों द्वारा इस प्रकार का व्यवहार करना फिर भी समझ में आता है पर गांव या कस्बे के स्तर के स्कूलों में प्रिंसिपलों व टीचरों द्वारा इस प्रकार के पुराने दकियानूसी तरीकों का आज भी इस्तेमाल होना हमारी समझ से तो बाहर है। केंद्र और राज्य सरकारों को इस दिशा में और सख्त कदम उठाने की जरूरत है ताकि ऐसे मामलों में कमी आए।

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