Published on 14 February, 2013
अनिल नरेन्द्र
दुनिया में पुंभ जैसा कोई आयोजन नहीं है, जहां एक
जगह पर इतनी बड़ी संख्या में जन सैलाब उमड़ता है। इसीलिए उसे अपने आप में एक अनूठा
समागम माना जाता है। मौनी अमावस्या पर तीन करोड़ श्रद्धालुओं ने संगम में आस्था की
डुबकी लगाई। जाहिर है कि ऐसे आयोजन को शांतिपूर्ण ढंग से सम्पन्न कराना एक बड़ी
चुनौती तो है ही, साथ ही सरकार, मेला पशासन और रेलवे के लिए यह साबित करने का मौका
भी है कि वह यह दिखाएं कि इस बड़े मेले का ठीक से पबंध करने में वह सक्षम है। रविवार
को इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर यात्री भगदड़ और उसमें जान गंवाने वालों की संख्या ने
साफ कर दिया कि पुंभ जैसे महापर्व के मौके पर जुटने वाली भीड़ को नियंत्रित करने
के लिए जिस तरह से व्यवस्थागत पबंध शैली की जरूरत होती है उसमें कहीं न कहीं खामी
जरूर थी। रेलवे, नगर पशासन और मेला पबंधन के बीच कोई ऐसा समन्वय भी नहीं दिखा,
जिसमें भारी भीड़ के आने-जाने को लेकर कोई त्वरित निर्णय लिया जा सके, जबकि इस
बारे में पूर्व में तमाम दावे किए गए थे। सवाल है कि क्या पुंभ जैसे बड़े आयोजन को
लेकर रेलवे के पास कोई विशेष योजना नहीं थी? यह बात तो तय थी कि मौनी अमावस्या
जैसे खास मौके पर असाधारण भीड़ उमड़ेगी। यह भी स्पष्ट था कि लोग दूर-दूर से आएंगे
और ट्रेन जैसे साधन से सबसे ज्यादा आएंगे। फिर इस तरह की अफरा-तफरी क्यों मची? नई
दिल्ली और दूसरे कुछ स्टेशनों पर ज्यादा भीड़ जमा होने के कारण पहले भी इस तरह के
हादसे हुए हैं। तब रेलवे ने उन्हें रोकने के लिए कई तरह की योजनाएं बनाई थीं, पर
इलाहाबाद में उनका इस्तेमाल क्यों नहीं हुआ? अगर मेला पुलिस, स्थानीय पुलिस और
रेलवे पुलिस के बीच तालमेल होता तो शायद रेलवे स्टाशन पर इतने सारे लोग एक साथ
नहीं पहुंचते। भीड़ को एक जगह जमा होने से रोका जा सकता था। असल में कुछ क्षेत्र
में व्यवस्था से अधिक मसला 2-3 करोड़ से ज्यादा लोगों को पवेश करने की इजाजत देना
ही खतरे की घंटी थी। जिला पशासन को चाहिए था कि वह शहर के ऊपर ही पवेश न करने
देता। सीमावर्ती जिलों पतापगढ़, जौनपुर, चित्रकूट, फतेहपुर, कौशाम्बी में भीड़ को
पहले रोका जाता और क्षमता के अनुरूप पहले शहर में पवेश की अनुमति मिलती और बाद में
मेला क्षेत्र में लेकिन राज्य सरकार ने भी ऐसी कोई भावी रणनीति नहीं बनाई। जितने
यात्री आए सभी को पुंभ क्षेत्र में पवेश की इजाजत दे दी और सकुशल मेला क्षेत्र से
निकाल कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्ति पा ली। मेला क्षेत्र से निकलने के बाद तीर्थ
यात्री सीधे रेलवे स्टेशन पर पहुंचे जबकि स्टेशन पर इतने लोगों के एकत्र होने की
क्षमता ही नहीं थी। यदि रेलवे पशासन को समझ होती तो सिविल लाइन क्षेत्र और खुसरो
बाग क्षेत्र यात्री रेलवे जंक्शन के दोनों तरफ बाड़ा बनाए होते। जरूरत के मुताबिक
रेलवे स्टेशन पर जाने के लिए यात्रियों को छोड़ा जाता। लेकिन इस काम के लिए पुलिस
का सहयोग जरूरी है। उत्तर मध्य रेलवे के अधिकारियों का कहना है कि जिला पशासन से
और पुलिस मांगी गई थी पर उन्होंने मना कर दिया क्योंकि मेले में पबंध करना था और
सारा जिम्मा रेलवे पशासन पर छोड़ दिया गया। रेलवे पुलिस का आम जनता खासकर तीर्थ
यात्रियों से जैसा बर्ताव होना चाहिए इस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। दरअसल रेलवे
पुलिस को न तो ऐसा बताया गया और न ही भीड़ को कैसे कंट्रोल करें इसकी कोई ट्रेनिंग
दी गई। इसीलिए भीड़ बढ़ते ही रेलवे पुलिस बदहवास हो गई। जैसे ही स्टेशन पर ट्रेन
के आने का ऐलान हुआ और फुटब्रिज पर दोनों तरफ से रेला आया रेलवे पुलिस ने सूझबूझ
से काम लेने के बजाए लाठीचार्ज कर दिया। इसके बाद तो जो होना था हुआ। सबसे बड़ी
हैरानी की बात तो यह है कि उत्तर मध्य रेलवे ने और न ही इलाहाबाद मंडल रेलवे
स्टेशन पर किसी पकार की आपात रणनीति बनाई। अगर दुर्घटना घटे तो उससे निपटने एवं
पीड़ितों को अस्पताल तक पहुंचाने की व्यवसथा पहले ही कर ली जाती है। यहां न तो कोई
स्ट्रैचर था और न ही रेलवे अस्पताल के एम्बूलैंस की तैनाती? घटना के दो घंटे बाद
एम्बूलैंस का आना और स्ट्रैचर के अभाव में यात्रियों के कपड़ों में ही घायलों को
टांग कर अस्पताल पहुंचाना इस बात का सबूत है कि रेलवे पशासन ने बेहद लापरवाही से
मेले का इंतजाम किया था जिसका दुष्परिणाम निर्दोष यात्रियों को भुगतना पड़ा।
इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर हादसा किसी एक कारण से तो नहीं हुआ है। यहां लापरवाही कई
स्तरों पर हुई है। वे सारी बातें सामने आनी चाहिए ताकि कोई बुनियादी बदलाव किया जा
सके।
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