Published on 13 February, 2013
अनिल नरेन्द्र
इस पर हैरत नहीं कि गुम होते बच्चों को लेकर लापरवाही
का परिचय देने के कारण सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों को
भी कड़ी फटकार लगाई है। लापता हो रहे बच्चों के संबंध में सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह
कहा जाना कि सरकारों को इन बच्चों की कोई चिन्ता नहीं है, एक सख्त लेकिन विवशता में
की गई टिप्पणी लगती है। जनवरी 2008 से जनवरी 2010 के बीच लापता हुए लगभग 1.17 लाख बच्चों,
जिनमें एक-तिहाई अब भी ढूंढे नहीं जा सके हैं, से संबंधित याचिका पर सुनवाई करते हुए
शीर्ष अदालत ने यह टिप्पणी की। सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी तब और जायज लगती है जब यह
तथ्य सामने है कि उसके द्वारा बार-बार कहे जाने के बावजूद कतिपय राज्यों की ओर से बच्चों
की गुमशुदगी के संदर्भ में स्टेटस रिपोर्ट दाखिल करने में आनाकानी की गई। तत्पश्चात
सुप्रीम कोर्ट ने इन राज्यों को समय देते हुए रिपोर्ट दाखिल करने और विफल रहने पर मुख्य
सचिवों को पेश होने को कहा। एक बेहद संवेदनशील
मुद्दे पर स्टेट की इस बेरुखी पर शायद ही किसी को आश्चर्य हुआ हो। अदालतें कह-कह कर
थक जाती हैं पर सरकारों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। राजनीतिक नेतृत्व को भी जब
तक अपने वजूद पर कोई खतरा नहीं महसूस होता, तब तक वह भी किसी मुद्दे को गम्भीरता से
नहीं लेता। लापता बच्चों का मामला चूंकि गरीब तबके से जुड़ा है इसलिए उन्हें यह परेशान
नहीं करता। समाज के वंचित तबके के और प्रश्नों की तरह यह भी हाशिए पर पड़ा हुआ है।
लापता होते बच्चों का सीधा संबंध कानून व्यवस्था से है। बावजूद इसके सुप्रीम कोर्ट
के समक्ष यह स्पष्ट हुआ कि कुछ राज्यों ने उसकी नोटिस का जवाब देना भी आवश्यक नहीं
समझा। बच्चों के साथ हो रहे बर्ताव के मामले में रह-रह कर सामने आने के बावजूद स्थिति
यह है कि कई राज्यों में लापता बच्चों की रिपोर्ट ही नहीं दर्ज की जाती। इसका सबसे
बड़ा कारण यह है कि कोई भी सवाल पर गम्भीर नहीं कि आखिर इतनी बड़ी संख्या में बच्चे
क्यों लापता हो रहे हैं? इसी लापरवाही और संवेदनहीनता का यह परिणाम है कि बच्चों के
मामले में लापता शब्द को सही ढंग से परिभाषित भी नहीं किया गया है। नेशनल क्राइम रिकार्ड
ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि देश में हर आठ मिनट में एक बच्चा गायब हो जाता है। सरकार
संसद में दी गई जानकारी में यह मान चुकी है कि सिर्प 2011 में देशभर में करीब 60 हजार
बच्चे लापता हुए, जिनमें से 22 हजार का अब तक पता नहीं चला। बताने की जरूरत नहीं कि
लापता हुए बच्चों को संगठित गिरोहों द्वारा बड़े पैमाने पर वेश्यावृत्ति, भीख मांगने
और बाल मजदूरी के लिए मजबूर किया जाता है। गौरतलब है कि दिल्ली के बहुचर्चित गैंगरेप
के बाद गठित वर्मा आयोग को सुझाव देने को लेकर भी राज्यों के पुलिस प्रमुखों ने असामान्य
बेरुखी दिखाई थी। यह दोहराने की जरूरत नहीं है कि किसी भी देश, व्यवस्था या समाज की
संवेदनशीलता का स्तर महिलाओं और बच्चों के प्रति उसके रवैए को देखकर ही आंका जाता है।
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