Sunday, 30 June 2013

क्या धारी देवी की मूर्ति हटाना उत्तराखंड महाविनाश का कारण बनी?


 Published on 30 June, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
इसे कुछ अत्याधुनिक लोग अंधविश्वास कह सकते हैं, कुछ कहेंगे कि यह महज एक संयोग है पर उत्तराखंडी खासकर श्रीनगर और आसपास के लोग उत्तराखंड में आई प्रलय को माता धारी देवी को हटाने का परिणाम कहते हैं। गढ़वालवासियों का मानना है कि माता धारी देवी के प्रकोप से यह महाविनाश हुआ। मां काली का रूप मानी जाने वाली धारी देवी की प्रतिमा को 16 जून की शाम को उनके प्राचीन मंदिर से हटाया गया था। उत्तराखंड के श्रीनगर में हाइड्रो  पावर प्रोजेक्ट के लिए ऐसा किया गया था। लोगों का मानना है कि पिछले 800 सालों से धारी देवी अलकनंदा के बीच बैठकर नदी की धार को काबू में रखती थीं। धारी देवी देवभूमि, चारों धामों और श्रद्धालुओं की रक्षक मानी जाती हैं। आश्चर्य की बात यह है कि इतने प्राचीन मंदिर में जो एक पहाड़ी पर बना हुआ है छत नहीं है। कई बार माता की प्रतिमा पर छत बनाने के प्रयास किए गए पर ऐसा नहीं हो सका।आज भी प्रतिमा पर कोई छत नहीं। धारी देवी के मंदिर को वहां से हटाकर ऊपर सुरक्षित रखने की योजना बनाई गई पर स्थानीय निवासियों और भारतीय जनता पार्टी के कड़े विरोध को देखते हुए इसे ठंडे बस्ते में वर्षों तक डाले रखा। सन 2012 में एलके आडवाणी, सुषमा स्वराज व अरुण जेटली ने प्रधानमंत्री से मुलाकात कर अनुरोध भी किया था कि धारी देवी के मंदिर से कोई छेड़छाड़ न की जाए। सुश्री उमा भारती ने इसे लेकर बाकायदा अनशन भी किया और अनशन तब तोड़ा जब उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री निशंक ने आश्वासन दिया कि मंदिर को नहीं हटाया जाएगा। मां काली का रूप मानी जाने वाली धारी देवी की प्रतिमा को 16 जून शाम लगभग 7.30 बजे पुजारी व कुछ स्थानीय लोगों ने प्रशासन के दबाव में अलकनंदा हाइड्रो पावर कम्पनी के अनुरोध पर  हटाया और मंदिर को शिफ्ट करने की प्रक्रिया आरम्भ की। जिस समय वह यह कर रहे थे ठीक उसी समय आसमान में बिजली कड़की और फिर शुरू हुई मुसलधार बारिश और देखते ही देखते अलकनंदा में बाढ़ आ गई। 16 जून शाम से बारिश ने आगे चलकर क्या तबाही मचाई यह अब सबको मालूम ही है। कम लोगों को मालूम है कि केदारनाथ, बद्रीनाथ, हेमपुंड साहब में जो तबाही हुई उसकी शुरुआत श्रीनगर में धारी देवी का मंदिर हटाने से हुई। विश्व हिन्दू परिषद के अशोक सिंघल ने कहा कि लोगों ने हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट के खिलाफ प्रदर्शन किया था और धारी देवी की प्रतिमा को हटाए जाने का जमकर विरोध किया। लेकिन इसके बावजूद 16 जून को धारी देवी की प्रतिमा को हटाया गया। धारी देवी के गुस्से से ही केदारनाथ और उत्तराखंड के अन्य इलाकों में तबाही हुई। धारी देवी देश के नास्तिक लोगों को समझाना चाहती थीं कि हिमालय और यहां की नदियों को न छुआ जाए। इस इलाके में धारी देवी की बहुत मान्यता है। लोगों की धारणा है कि धारी देवी की प्रतिमा का चेहरा समय के साथ बदला है। एक लड़की से एक महिला और फिर एक वृद्ध महिला का चेहरा बना। पौराणिक धारणा है कि एक बार भयंकर बाढ़ में पूरा मंदिर बह गया था लेकिन धारी देवी की प्रतिमा एक चट्टान से सटी धारी गांव में बची रही थी। गांव वालों को धारी देवी की ईश्वरीय आवाज सुनाई दी थी कि उनकी प्रतिमा को वहीं स्थापित किया जाए। यही कारण है कि धारी देवी की प्रतिमा को  मंदिर से हटाए जाने का विरोध किया जा रहा था। यह मंदिर श्रीनगर (गढ़वाल) से 10 किलोमीटर दूर पौड़ी गांव में है। 330 मेगावाट वाले अलकनंदा हाइड्रो प्रोजेक्ट का काम अभी जारी है। लोगों के विरोध के चलते ही यह प्रोजेक्ट जो 2011 तक पूरा हो जाना था, अभी तक इस पर काम चल रहा है। जैसे ही धारी देवी की प्रतिमा को स्थानांतरित करने की बात शुरू हुई प्रोजेक्ट को लेकर लोगों का नए स्तर पर विरोध नए सिरे से शुरू हो गया। बीच का रास्ता निकालते हुए प्रोजेक्ट अधिकारियों ने फैसला किया कि पावर प्रोजेक्ट से दूर धारी देवी के मंदिर को स्थानांतरित किया जाएगा। धारी देवी की प्रतिमा को स्थानांतरित करने के लिए प्लेटफार्म बन चुका था लेकिन पावर प्रोजेक्ट कम्पनी और मंदिर कमेटी के लिए उनकी मूर्ति को विस्थापित करना मुश्किल होता जा रहा था। 16 जून को जब मंदाकिनी नदी में बाढ़ आना शुरू हुई तो मंदिर कमेटी ने धारी देवी की प्रतिमा बचाने के लिए तुरन्त एक्शन लिया। धारी देवी कमेटी के पूर्व सचिव देवी प्रसाद पांडे के मुताबिक शाम तक  मंदिर में घुटने तक पानी भर गया था। ऐसी खबरें थीं कि रात तक बहुत तेज बारिश होने वाली है तो धारी देवी की प्रतिमा को हटाने के अलावा कोई और रास्ता नहीं था। हमने शाम को 6.30 बजे प्रतिमा को स्थानांतरित किया। उत्तराखंड के लोगों और चारों धाम की यात्रा पर जाने वाले श्रद्धालुओं की रक्षक मानी जाने वाली धारी देवी की प्राचीन प्रतिमा को 16 जून को शाम छह बजे हटाया गया और रात्रि आठ बजे अचानक बजने लगा तबाही का ठंका। उत्तराखंड में आए इस सैलाब ने मौत का तांडव रचा और सब कुछ तबाह कर दिया जबकि दो घंटे पूर्व मौसम सामान्य था। कयास लगाए जा रहे हैं कि उत्तराखंड में आई दैवीय आपदा का कारण धारी देवी को इसलिए माना जाता है कि धारी शब्द का मतलब  `रखना' होता है जबकि वहां से धारी देवी को हटा दिया गया। बस फिर क्या था, इस चर्चा के बाद तमाम मीडिया, सोशल साइट्स सक्रिय हो गईं और इस मुद्दे के तर्प-वितर्प सामने आने लगे। अब इन बातों में कितनी सच्चाई है यह तो बता पाना मुश्किल है क्योंकि यह विश्वास का विषय है साइंस का नहीं लेकिन कुछ सवाल आज भी उत्तराखंड की पहाड़ियों में गूंज रहे हैं जिसका जवाब किसी के पास नहीं है। वह क्या वजह थी कि अचानक एक ग्लेशियर फटा और उसी दौरान गौरीपुंड और रामबाड़ा के बीच एक बादल भी फट गया। केदारनाथ के आसपास सब कुछ तबाह हो गया सिर्प बचा बाबा केदारनाथ का मंदिर। आखिर ऐसा क्यों हुआ? जय धारी देवी, हर-हर महादेव।

Saturday, 29 June 2013

रुपया, सोना और शेयर सब धड़ाम


 Published on 29 June, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
उत्तराखंड में अगर नदियों के रौद्र रूप के सामने पर्वत उखड़ रहे हैं तो आर्थिक जगत में मंदी की सुनामी ने रुपया, शेयर और सर्राफा पर जोरदार प्रहार किया है। रुपया, सोना और शेयर सब धड़ाम हो गए। अमेरिकी अर्थव्यवस्था के सुधरने के साथ वैश्विक मुद्राओं की तुलना में मजबूत हुए डॉलर ने रुपए, शेयर बाजार और सर्राफा सबकी हालत पतली कर दी। अत बैंकिंग मुद्रा कारोबार में रुपया 60.72 रुपए प्रति डॉलर के रिकार्ड स्तर (निचले) पर औंधे मुंह गिरा। शेयर बाजार में विदेशी निवेशकों की निकासी से सेंसेक्स 77 अंक टूटा, सोना प्रति 10 ग्राम 620 गिरा और चांदी एक हजार रुपए उतरकर 20 महीने के न्यूनतम स्तर 40,500 रुपए प्रति किलोग्राम रह गई। डॉलर के सामने पस्त रुपए का दूरगामी असर होगा। डॉलर के मुकाबले कमजोरी के लगातार नए आयाम छू रहा रुपया सरकारी खजाने पर चोट करने के साथ-साथ महंगाई की आग भी भड़काएगा। पेट्रोलियम और सोने-चांदी के मामले में देश पूरी तरह से आयात पर निर्भर है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में खाद्य तेलों और दालों का आयात जिस तरह बढ़ा है, उससे कमजोर रुपया आम आदमी के निवाले पर भी भारी पड़ेगा। पेट्रोलियम और सोने के अलावा भारत में बड़े पैमाने पर खाद्य तेल, दालों, उर्वरक और कोयले का आयात किया जाता है। रुपए की कमजोरी का सीधा असर इन पर  पड़ेगा,  जिससे महंगाई को काबू में रखना मुश्किल हो जाएगा। खाने-पीने से लेकर डीजल, पेट्रोल और इलैक्ट्रॉनिक उपकरण महंगे होंगे। विदेशों में पढ़ाई, इलाज और घूमना-फिरना अभी के मुकाबले महंगा हो जाएगा। क्योंकि विदेशों में भुगतान डॉलर से होता है। डॉलर के मुकाबले रुपया मई से अब तक 12 प्रतिशत तक गिर चुका है। विशेषज्ञ इस गिरावट के कुछ कारण बता रहे हैं। रुपए की कमजोरी की मुख्य वजह महीने के अंत में भुगतान के लिए डॉलर की मांग। विदेशी संस्थान भारतीय शेयर बाजार से लगातार पैसा निकाल रहे हैं। एक कारण यह भी है कि अमेरिका में प्रोत्साहन पैकेज वापस होने से फंड रिजर्व के संकेत। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में सोना अगस्त 2010 के बाद सबसे निचले स्तर पर पहुंचा। भाव 1228 डॉलर प्रति औंस। फिलहाल भारत में रुपया सम्भलने के आसार नहीं और सोना 25 हजार के नीचे आ सकता है। क्योंकि हमारे रुपए की कीमत इस दौरान कहीं ज्यादा गिर गई इसलिए हमारे यहां सोना सस्ता हुआ है। रुपए में गिरावट जारी रहेगी। रिजर्व बैंक के पास बहुत विकल्प नहीं है। 291 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार है। इससे सिर्प सात महीने की आयात जरूरतें पूरी की जा सकती हैं। पिछले दिनों वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम ने अपील की थी कि प्लीज सोना मत खरीदिए ताकि देश की माली हालत सम्भाली जा सके। चिदम्बरम ने कहा कि लोग बड़ी संख्या में सोना खरीदते हैं। इससे हमें उसका आयात करना पड़ता है। इसके लिए सरकार को डॉलर खर्च करने पड़ते हैं। कच्चे तेल के बाद सबसे ज्यादा आयात भारत सोने का करता है। देश में सोने की जितनी मांग है उसका 5 प्रतिशत ही उत्पादन करता है। उल्लेखनीय है कि भारत विश्व का सबसे बड़ा स्वर्ण खरीदार है। सोने का हमारे लिए धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक महत्व है। एक रिपोर्ट के मुताबिक प्रत्येक भारतीय पूरे जीवन में कम से कम 5 से 10 लाख तक का सोना खरीदता है।

औपचारिक और निराशाजनक रही जॉन कैरी की यात्रा


 Published on 29 June, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन कैरी बतौर सीनेटर कई बार भारत आए हैं पर अमेरिका के विदेश मंत्री के रूप में वह भारत पहली बार आए और वह भी महत्वपूर्ण रणनीतिक वार्ता के मकसद से। दोतरफा एवं अंतर्राष्ट्रीय महत्व के अनेक मुद्दों पर भारत और अमेरिका सहमत नहीं हैं, दोनों देशों के बीच चौथे दौर की रणनीतिक वार्ता का यही निष्कर्ष निकलता है। शायद कोई सकारात्मक नतीजा निकलने की उम्मीद भी कम थी। क्योंकि कुछ दिनों से दोनों देशों के बीच कई मुद्दों पर खटास दिखाई दे रही थी। देशों के रिश्तों या उनकी आपसी बातचीत को काफी महत्व देना हो तो उसे रणनीतिक कहने का पिछले कुछ वर्षों से चलन हो गया है। लेकिन अगर वार्ता के एजेंडे पर बुनियादी मतभेद पहले से ही दिख रहे हों तो उस पर होने वाली वार्ता को स्वाभाविक रूप पर रणनीतिक नहीं कहा जा सकता। जॉन कैरी की भारत यात्रा से पहले ही भारत को रास न आने वाली बातें शुरू हो गई थीं। वैसे तो भारत-अमेरिका के बीच कई महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जिन पर विचार-विमर्श करना जरूरी है पर एक महत्वपूर्ण मुद्दा इस समय अमेरिका की अफगानिस्तान नीति है। इस मुद्दे पर जॉन कैरी के दिल्ली में दिए बयानों से जाहिर हुआ कि अफगानिस्तान से हटने का मकसद पूरा करने के लिए तालिबान से बातचीत करने को तैयार हुआ अमेरिका फिलहाल ऐसा कुछ नहीं करना या कहना चाहता जो पाकिस्तान को अच्छा न लगे। सम्भवत इसलिए कि तालिबान की डोर कुछ हद तक पाकिस्तान के हाथ में है। नतीजतन 26/11 के आतंकी हमले में मारे गए लोगों को याद करने की तब से बनी रवायत कैरी भूल गए। उलटे यह सलाह दे डाली कि भारत और पाकिस्तान एक-दूसरे के साथ अपने रिश्तों में निवेश करें, तभी दुनिया उनमें निवेश करेगी। नसीहत तो ठीक है पर इस बयान से इस सवाल का जवाब नहीं मिलता कि अगर पाकिस्तान अपनी जमीन से आतंकवादियों को गतिविधियां चलाने की इजाजत देता रहेगा, आतंकवाद के जरिए अपने रणनीतिक मकसदों को पाने का इरादा नहीं छोड़ेगा और अफगानिस्तान को अपनी सामरिक नीति की अग्रिम चौकी बनाने की कोशिश में जुटा रहेगा तो भारत उस पर भरोसा करके निवेश कैसे कर सकता है? वार्ता के बाद जारी साझा बयान में ईरान, सीरिया और अमेरिका द्वारा बड़ी मात्रा में भारत की जासूसी करने जैसे मुद्दे पर जिक्र तक न होना इस बात का संकेत है कि भारत और अमेरिका के मतभेद अब भी कायम हैं। राष्ट्रपति बराक ओबामा के पहले कार्यकाल में भारत-अमेरिकी रिश्तों में गर्मजोशी दिख रही थी पर यह आम धारणा रही है कि उनकी दूसरी पारी में इसमें ठहराव आया है। हो सकता है, एक कारण यह भी है कि दोनों देशों की अर्थव्यवस्था सुस्ती के दौर से गुजर रही है। विदेश व्यापार और बाहरी निवेश ठंडा हुआ पड़ा है। अमेरिका में संरक्षणवादी कदम उठाने का दबाव बढ़ा है। परमाणु करार को आगे बढ़ाने के लिए अमेरिका चाहता है कि भारत अपने एटमी उत्तरदायित्व कानून और नरम करे। काफी विवाद के बाद इस कानून को संसद की मंजूरी दिला पाने में सफल हुई यूपीए सरकार के लिए इसमें और संशोधन करा पाना आसान नहीं होगा। दूसरी ओर भारत चाहता है कि उसे परमाणु अप्रसार एजेंसी में जगह दिलाने में अमेरिका सहयोग करे। लिहाजा इस कही गई रणनीतिक वार्ता के नाम पर संबंध और मजबूत करने की औपचारिक घोषणाएं ही हो सकीं और यह वार्ता महज रस्मी बनकर रह गई। भारतीय आईटी कर्मियों के लिए अमेरिका वीजा में रुकावटों और आउटसोर्सिंग के खिलाफ ओबामा प्रशासन की नीति आदि मुद्दों ने दोनों देशों के व्यापारिक संबंधों को पेचीदा बना रखा है। इनके दूर होने का कोई भरोसा कैरी ने नहीं दिया। अमेरिकी उपराष्ट्रपति जोबाइडेन अगले महीने भारत आएंगे तो सितम्बर में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अमेरिका यात्रा अब लगभग पक्की हो गई है। अब देखने की बात यह होगी कि दोनों देशों के बीच विवादास्पद मुद्दे सुलटते हैं या नहीं। जॉन कैरी की इस यात्रा से तो कुछ हासिल नहीं हुआ और यह निराशाजनक रही।

Friday, 28 June 2013

सवाल बाइकर्स का सड़कों पर हुड़दंग मचाने का


 Published on 28 June, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
इंडिया गेट पर हुड़दंग करना और वाहनों पर स्टंट करने की नई बीमारी पिछले कुछ समय से नई समस्या बन गई है। कुछ लोग न तो कानून की परवाह करते हैं और न ही अपनी जान की। नवम्बर 2002 में हुड़दंगियों ने इंडिया गेट के पास नियमों की अनदेखी कर जमकर स्टंटबाजी की थी। वाहनों की रफ्तार की चपेट में आने से उस दौरान कई पुलिस कर्मी घायल हुए थे। पुलिस ने कई लोगों को गिरफ्तार कर वाहनों को जब्त किया था। सोमवार को शब-ए-बारात के अवसर पर इंडिया गेट के आसपास हुड़दंगियों ने जमकर उत्पात मचाया। आधी रात को इंडिया गेट और उसके आसपास हंगामे, हूटिंग और पुलिस पर पथराव से अफरातफरी का माहौल बन गया। पुलिस को कई जगहों पर लाठीचार्ज करना पड़ा। काफी तादाद में  बाइकर्स ने करीब चार घंटे तक राजधानी की कई सड़कों पर कब्जा जमाए रखा। जहां इंडिया गेट समेत आसपास के इलाकों में जाम की स्थिति बनी रही,  वहीं शास्त्राr पार्प इलाके में बाइकर्स ने एक कार को आग के हवाले कर दिया। स्टंटबाजी करने के चक्कर में आए जामा मस्जिद इलाके में एक शख्स की मौत भी हो गई। मामले की गम्भीरता को देखते हुए खुद पुलिस कमिश्नर को सड़क पर उतरना पड़ा। पुलिस के अनुसार शब-ए-बारात के चलते सड़कों पर लोगों की काफी भीड़ थी। इंडिया गेट व आसपास के इलाकों में रात साढ़े 11 बजे से बाइकर्स जुटने लगे। आधी रात होते-होते बाइकर्स जो सैकड़ों की तादाद में मौजूद थे इंडिया गेट पहुंच गए। हालांकि पुलिस ने इंडिया गेट जाने वाले रास्तों पर बैरीकेडिंग कर दी थी, लेकिन वे इंडिया गेट तक पहुंचने में सफल रहे। वहां उन्होंने खतरनाक स्टंट करते हुए भारी हंगामा किया। इतना ही नहीं वहां से गुजर रहे लोगों और महिलाओं से बदसलूकी भी की। पुलिस ने 88 मोटर साइकिल  जब्त की हैं। उत्पात मचाने वाले पांच बाइकर्स को गिरफ्तार कर लिया गया है।  पहले बाइकर्स आईटीओ पर जमा हुए, देखते ही देखते बाइकर्स की संख्या हजारों में पहुंच गई। यह सभी बाइकर्स जत्थों में तिलक मार्ग, बहादुर शाह जफर मार्ग, विकास मार्ग, रिंग रोड, सुभाष मार्ग, जवाहर लाल नेहरू मार्ग एवं आसफ अली मार्ग के रास्ते विभिन्न इलाकों के लिए निकल पड़े। रास्तों में ये कभी बाइक को एक पहिए पर दौड़ाते तो कभी उन्हें सड़कों पर गोल-गोल घुमाना शुरू कर देते। पुलिस को स्थिति काबू करने में चार घंटे से ज्यादा का समय लगा। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार सड़कों पर खतरनाक स्टंट और बदतमीजी करते बाइकर्स ने मानो शहर के एक हिस्से पर कब्जा जमा लिया। यह  बाइकर्स खुलेआम कानून की धज्जियां उड़ा रहे थे। सड़कों पर मौजूद लोग काफी डर गए थे। इस बीच फतेहपुरी मस्जिद के शाही इमाम मौलाना मुफ्ती मुकर्रम का कहना है कि इस्लाम कतई हुड़दंगी की इजाजत नहीं देता। हम समझ सकते हैं कि युवा बाइकर्स में उत्साह होता है पर क्या इंडिया गेट सही जगह है इस उत्साह को दिखाने की। कहीं बेहतर हो कि यह बाइकर्स कुछ इंटरनेशनल सर्पिट पर जाकर स्टंटबाजी करें ताकि किसी और को कोई तकलीफ न हो और न ही कानून व्यवस्था भंग हो।

गर्भगृह की तस्वीरें खींचने से पुरानी परम्पराएं, मान्यताएं टूटीं ः जिम्मेदार कौन?


 Published on 28 June, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
यह अत्यंत दुर्भाग्य और मायूसी का विषय है कि आपदा के बाद केदारनाथ मंदिर की मर्यादा और यहां की वर्षों पुरानी परम्पराओं और मान्यताओं को तार-तार किया जा रहा है। कई नेताओं की शह पर टेलीविजन पर इन दिनों पूरे देश व विश्व में गर्भगृह की ताजा तस्वीरें दिखाई जा रही हैं। पिछले साल अगस्त में जब मैं और मेरे साथी केदारनाथ दर्शन के लिए गए थे तो हमने गर्भगृह की तस्वीरें नहीं खींची थीं, केवल  बाहर से ही तस्वीरें ली थीं। सभी यात्री व श्रद्धालु हजारों वर्षों से इसी परम्परा का पालन करते आए हैं। आज तक किसी ने गर्भगृह की तस्वीरें नहीं देखी थीं पर पिछले कुछ दिनों से हर टीवी चैनल पर यह ब्रेकिंग न्यूज बनी हुई है। सवाल यह उठता है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है? कौन है वहां इन टीवी वालों को रोकने वाला? मंदिर के पुजारी, वहां की मंदिर समिति के लोग, सेवादार सभी तो अपनी जान बचाने के लिए भगवान को छोड़कर भाग गए हैं। अपनी-अपनी राय हो सकती है। मेरी राय में मंदिर के मुख्य पुजारी व अन्य पुजारियों को मंदिर छोड़कर भागना नहीं चाहिए था। हमारे पुराण भी यही कहते हैं। आखिर वह तो केदारनाथ बाबा की सेवा, पूजा-अर्चना के लिए ही तो वहां मौजूद थे। उनका और उनके परिवार का पालन-पोषण केदारनाथ मंदिर से ही होता है। जब पानी आया तो सब अपनी जान बचाने में लग गए। भगवान की फिक्र किसी को नहीं हुई और पहला अवसर पाते ही हेलीकाप्टर पर चढ़ गए। उन्हें वहीं रहना चाहिए था चाहे इसमें उनकी जान क्यों न चली जाती। उन्हें अपने उस ईष्ट देव पर भरोसा करना चाहिए था। आखिर उसने सैकड़ों लोगों को बचाया भी। दूर की बात क्या करें टिहरी निवासी विजेन्द्र सिंह नेगी उत्तराखंड में भीषण बाढ़ के उस भयानक मंजर को शायद इस जिन्दगी में तो न भूलें, जब उन्होंने केदारनाथ मंदिर की घंटी से नौ घंटे तक लटके रहकर और गर्दन तक गहरे पानी में तैरते शवों पर खड़े होकर जैसे-तैसे अपनी जान बचाई। 36 वर्षीय नेगी के रिश्तेदार और दिल्ली के पर्यटन ऑपरेटर गंगा सिंह भंडारी ने कहा कि बाढ़ के दौरान वह सुबह सात बजे से शाम चार बजे तक मंदिर के घंटे से लटके रहे। नेगी मंदिर के पास बने तीन मंजिला होटल की छत से पानी में कूदे  और उसके बाद मंदिर में शरण ली। एक अखबार में मंदिर के मुख्य पुजारी वागेश लिंग की आपबीती छपी है। कभी शिव की जटाओं में समा जाने वाली गंगा जब अपने रौद्र रूप में आई तो लगा कि वह एक बार शिव सहित समूची सृष्टि को निगलने को मचल रही हो लेकिन उसके इस तूफानी वेग के बाद भी (शिव) केदार बाबा की महिमा में नई कड़ियां जुड़ गई हैं। भारी प्रलय के बीच केदारनाथ मंदिर आश्चर्यजनक रूप से बच जाने की बात हो या फिर हाहाकार की स्थिति में उनकी पूजा की निरंतरता की। मंदिर के मुख्य रावल जिन्हें हिमवत केदार भी कहा जाता है ने इस आफत की घड़ी में पूजा की निरंतरता का जो खुलासा किया है, उससे शिव के प्रति भक्ति का भाव और भी बढ़ जाता है। आफत की इस घड़ी में शिवभक्तों के मन में उठ रहे सवालों का जवाब यही है कि 11वें ज्योतिर्लिंग केदारनाथ में भारी प्रलय के बाद भी पूजा की निरंतरता नहीं टूटी। आपदा के दिन जब 16 जून को बाढ़ का पानी मंदिर में घुसा तो उससे पहले ही मुख्य पुजारी वागेश लिंग पूजा कर चुके थे। वहां आपदा पहली बार 16 जून की शाम को आठ बजे आई, उस समय तक पूजा हो चुकी थी। रात को सब सामान्य-सा हो गया था। इसके बाद 17 जून को सुबह चार बजे पूजा हो चुकी थी। करीब 7.45 बजे जब बाढ़ का पानी मंदिर में घुसा तो पुजारी वागेश लिंग गर्भगृह में ही पानी में फंस गए। इसके बाद पानी चढ़ते-चढ़ते उनके गले तक आ गया तो उन्होंने विग्रह मूर्ति को दाहिने  हाथ पर उठा लिया। इसके बाद वह डूब जाते, इससे पहले ही गर्भगृह का पश्चिमी द्वार टूट गया और पानी बाहर की ओर से निकल गया। इसके बाद मुख्य पुजारी को लगा कि दक्षिण द्वार की दीवार टूट सकती है और वह वहां दब सकते हैं, वह वहां से हटकर गर्भगृह के पिलर पर चढ़ गए। उनके हाथ में विग्रह मूर्ति थी। इसी स्थिति में वह करीब पांच घंटे तक रहे। इस दौरान उन्होंने मूर्ति नहीं छोड़ी। उसके बाद वहां बचे कुछ लोगों ने मंदिर के गर्भगृह में विग्रह मूर्ति को सम्भाले हुए मुख्य पुजारी को गरुढ़ चट्टी पहुंचाया। गरुढ़ चट्टी में ही 18 जून को पूजा की गई। उसके बाद अगले दिन विग्रह मूर्ति को गुप्तकाशी के विश्वनाथ मंदिर में लाया गया, जहां 23 जून तक नियमित पूजा-अर्चना हुई। 24 जून के बाद उखी मठ के ओंकारेश्वर मंदिर में बाबा केदार की नियमित पूजा शुरू हो गई है जो तब तक चलेगी जब तक बाबा केदारनाथ का शुद्धिकरण नहीं हो जाता। इस बात का खुलासा दुखी मन से केदारनाथ मंदिर के मुख्य रावल श्री वैराग्य सिंह, सनाधीश्वर भीमा शंकर लिंग शिवाचार्य महास्वामी जी (हिमवत केदार) ने किया है। ओम नम शिवाय।

Thursday, 27 June 2013

कहीं कांग्रेस को ही न बहा ले जाए उत्तराखंड का सैलाब


 Published on 27 June, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
 उत्तराखंड में कुदरत के कहर के बाद शुरू हुए राहत कार्यों में अब सियासत आगे आ गई है। शुरुआती कुप्रबंधन के आरोपों से जूझ रही केंद्र और उत्तराखंड सरकार ने अब दूसरे राज्यों से सीधी राहत व बचाव में लगने पर रोक लगा दी है। सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि कोई भी राहत व बचाव कार्य अब उत्तराखंड सरकार की देखरेख में ही होगा। केंद्र व उत्तराखंड सरकार नरेन्द्र मोदी द्वारा उत्तराखंड में फंसे गुजरातियों को वापस लाने के लिए राज्य की ओर से हेलीकाप्टर व विमान की व्यवस्था का श्रेय लूटने की कोशिश के रूप में देख रही है। जाहिर है कि राहत व बचाव कार्य के कुप्रबंधन का आरोप झेल रही कांग्रेस की केंद्र व राज्य सरकार को यह कतई पसंद नहीं आया। यही नहीं नरेन्द्र मोदी के उत्तराखंड दौरे से, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के गैर हाजिर होने पर भी कांग्रेस में बेचैनी बढ़ गई थी। राहुल गांधी उत्तराखंड में हुई तबाही के नौ दिन बाद दिखाई पड़े। वह जब गोचर दौरे पर गए तो शाम देर होने के कारण वहीं रुकना पड़ा। उत्तराखंड आपदा के दौरान विदेश प्रवास के आरोपों में घिरे राहुल गांधी ने राज्य के दौरों का कार्यक्रम बनाकर विपक्ष के सवालों को थामने की कोशिश की है। विदेश से लौटते ही राहुल ने न केवल उत्तराखंड जाने का कार्यक्रम बनाया बल्कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ राज्य के आपदा पीड़ितों के लिए राहत सामग्री से लदे वाहनों को हरी झंडी दिखाकर रवाना किया। इस मामले में डैमेज कंट्रोल के लिए पार्टी ने राज्य में चलाए जा रहे राहत कार्यों की निगरानी का जिम्मा भी राहुल को सौंप दिया है। नरेन्द्र मोदी की देखा-देखी उत्तराखंड की तबाही का मुआयना करने निकले राहुल गांधी का यह दांव भी उलटा पड़ता दिख रहा है। उनकी इस बात के लिए कड़ी आलोचना की जा रही है कि नौ दिन तक विदेश में रहने के बाद अब उन्हें उस समय उत्तराखंड में फंसे लोगों का दर्द क्यों याद आया जब प्रशासन किसी भी वीआईपी के दौरे के लिए सख्ती से मना कर चुका है। कांग्रेस नरेन्द्र मोदी पर इसी तर्प को आधार बनाकर हमला बोल रही थी कि वो राहत और लाशों पर राजनीति कर रहे हैं। लेकिन अब त्रासदी के नौ दिन बाद स्वयं उसी के उपाध्यक्ष ने भी मोदी के पद चिन्हों पर चलकर बैकफुट कर दिया। उत्तराखंड का बड़ा हिस्सा तो प्रकृति की विनाश लीला ने उजाड़ दिया। वह कुछ समय बाद भले ही फिर से बस जाए। लेकिन इस दौरान राज्य सरकार के कुप्रबंधन का खामियाजा कांग्रेस को पूरे देश में भुगतना पड़ सकता है। पूरे देश से आए सैलानियों और श्रद्धालुओं के कटु अनुभव सिर्प उत्तराखंड की सीमा तक ही नहीं रुकने वाले। उत्तराखंड में कुदरत के कहर से बच निकलने वाला हर शख्स सिर्प सेना या आईटीबीपी या एयर फोर्स के जांबाजों के गुणगान कर रहा है। राज्य सरकार या स्थानीय प्रशासन की ओर से कोई मदद किसी मुसीबत के मारे को महसूस नहीं हुई। राज्य प्रशासन की अक्षमता और लचरता पर सैलानियों से लेकर स्थानीय लोगों का आक्रोश भी बार-बार फूट रहा है। यह संदेश जा रहा है कि राहत कार्यों में शुरुआती दौर में तमाम जानें चली गईं। उत्तराखंड आने वालों में दक्षिण भारत से लेकर पूरब-पश्चिम और उत्तर सभी क्षेत्रों के लोग हैं। सभी राज्यों में उत्तराखंड शासन-प्रशासन की लचरता का संदेश जा रहा है। देवभूमि पर ससम्मान अंतिम संस्कार न हो पाने का हिन्दू समाज में दर्द सिर्प परिवार तक ही सीमित नहीं रहेगा। कारण है कि पहले जीवित बचे हुए लोगों को आपदाग्रस्त क्षेत्रों से हटाया जा रहा है। ऐसे में शवों की दुर्दशा का भावनात्मक मुद्दा पूरे देश में लोगों को उद्वेलित कर सकता है। जैसा मैंने कहा कि कहीं कांग्रेस को ही न बहा ले जाए उत्तराखंड का सैलाब?

धोनी की युवा ब्रिगेड ने तो झंडे गाढ़ दिए हैं


 Published on 27 June, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
 महेन्द्र सिंह धोनी का सफलताओं से नाता हमेशा ही गहरा रहा है और अब बर्मिंघम में आईसीसी ट्रॉफी जीतने के बाद उनकी उपलब्धियों में एक और ट्रॉफी जुड़ गई है। भारत इस सफलता के साथ लगातार वन डे विश्व कप और चैंपियंस ट्रॉफी जीतने वाला आस्ट्रेलिया के बाद दूसरा देश बन गया है। भारत ने 2011 में विश्व कप पर कब्जा जमाया था। बर्मिंघम में भारतीय टीम ने जिस तरह के खेल का प्रदर्शन किया और फाइनल में इंग्लैंड की अनुशासित टीम को हराकर कप पर कब्जा किया उससे देश के क्रिकेट प्रेमियों का उत्साहित होना स्वाभाविक है। दरअसल आईपीएल के छठे संस्करण में स्पॉट फिक्सिंग से उठे विवाद के कारण क्रिकेट की विश्वसनीयता को गहरा धक्का लगा है। इस दौरान लोगों में क्रिकेट के प्रति विरक्ति की भावना पनपने लगी थी। लेकिन इंग्लैंड में इस शानदार जीत ने वह बुरा सपना बनाकर नया उत्साह पैदा करने में सफलता हासिल की है। ऐसा नहीं कि भारत पहली बार वर्ल्ड चैंपियन बना। आज से ठीक 30 साल पहले इंग्लैंड में ही विश्व चैंपियन बना था। कप्तान कपिल देव की अगुवाई में उस समय की धमाकेदार भारतीय टीम ने क्रिकेट के मक्का कहे जाने वाले लॉर्ड्स मैदान पर सबसे मजबूत प्रतिद्वंद्वी वेस्टइंडीज की टीम  को हराकर पहली बार विश्व कप अपने नाम किया था पर 30 साल में भारतीय क्रिकेट में बहुत परिवर्तन हुए हैं। महेन्द्र सिंह धोनी के सभी कायल हो गए हैं। आलोचकों को ऐसा करारा जवाब दिया है धोनी ने कि उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि अब कहें तो क्या कहें? सिर्प छह साल में आईसीसी के तीन टूर्नामेंट जीतना कोई हंसी-मजाक नहीं है। धोनी के प्रबंधन कौशल का तो अब बिजनेस स्कूल भी अध्ययन कर रहे हैं। धोनी में और कई गुण होंगे पर प्रमुख तीन महत्वपूर्ण तत्व हैं। ये हैं सहयोग करना, आत्म विश्वास जगाना और हर स्थिति में संयमित रहना। जब इंग्लैंड के मॉर्गन और बोपारा पीटने में जुटे थे तो धोनी बिना विचलित हुए आगे की रणनीति बना रहे थे। जब धोनी ने इशांत शर्मा को गेंद थमाई तो मैं चौंक गया। मेरे मन में आया कि अब मैच गया हाथ से पर धोनी ने पिट रहे इशांत से उनका अंतिम ओवर कराया तो मैदान के बाहर भी उन्हें सब कोस रहे थे। मगर इसी ओवर में दो विकेटें मिलीं और मैच पलट गया। इन  दोनों गेंदों ने इंग्लैंड को हराकर भारत को चैंपियन बना दिया। धोनी अपना संतुलन नहीं बिगड़ने देते। जीत के बाद धोनी ने कहा कि वह कोई कीर्तिमान बनाने मैदान पर नहीं उतरते, उनके लिए टीम की जीत का सिलसिला जरूरी है। धोनी की यंग ब्रिगेड ने कमाल कर दिया। पूरे टूर्नामेंट के दौरान क्या आपको एक बार भी सचिन तेंदुलकर, वीरेन्द्र सहवाग, युवराज, गौतम गम्भीर, जहीर खान और भज्जी की कमी खली? इंग्लैंड में खेले गए सात में से सात मैच जीत 26 साल की औसत उम्र वाली युवा ब्रिगेड ने अपना दमखम साबित कर दिया। शिखर धवन भारतीय टीम के सबसे नए सनसनी बन चुके हैं। मूंछों पर ताव देने वाला उनका धाकड़ अन्दाज युवाओं में फैशन बन गया है। उन्होंने एक बार भी सहवाग, गम्भीर और युवराज की कमी महसूस नहीं होने दी। आईपीएल के दौरान धोनी ने मजाक में रविन्द्र जडेजा को सर जडेजा कहा था। जडेजा ने भी अपने प्रदर्शन से सही मायनों में खुद को `सर' साबित कर दिया। लम्बे समय से चली आ रही ऑल राउंडर की कमी पूरी कर दी। वह टूर्नामेंट में सबसे ज्यादा 12 विकेट लेकर गोल्डन बॉल के हकदार भी बने। धोनी की टीम स्पिरिट की दाद देनी पड़ेगी। उन्होंने दोनों अभ्यास मैचों में शतक बनाने वाले दिनेश कार्तिक को टीम में जगह देने के लिए मुरली विजय को बाहर बिठाया और मध्यक्रम के बल्लेबाज रोहित शर्मा से ओपनिंग कराने का दांव खेला। फिर अश्विन से स्लिप में फील्डिंग करवाई। डैथ ओवरों में अश्विन और जडेजा से बालिंग करवाई। धोनी के धुरंधरों ने उत्तराखंड की आपदा से दुखी देशवासियों को खुश होने का एक मौका उपलब्ध कराया है। अब इस युवा ब्रिगेड पर ही भारतीय क्रिकेट का भविष्य टिका हुआ है। उन्हें अभी अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट जगत में ढेरों इम्तिहान देने होंगे पर सफलताएं कई बार सिर चढ़कर बोलने लगती हैं और जिससे कभी-कभी युवाओं की दिशा भटक जाती है। जैसा आईपीएल-6 में हमने देखा। इसलिए इन युवाओं को अनुशासन में रहते हुए आगे बढ़ते रहना है और देश के गौरव को नई ऊंचाइयां दिलाना है। महेन्द्र सिंह धोनी और उनकी इस युवा टीम को देशवासियों का सलाम।

Wednesday, 26 June 2013

US in a hurry to withdraw from Afghanistan

Anil Narendra
US President Barack Obama has already announced the withdrawal of its forces from Afghanistan by 2014. And now, it is prepared to go to the extent of talking to its bitter enemy against whom it has been fighting for years. In the wake of 9/11 terror attacks, the US had vowed to crush Taliban in Afghanistan. Though Taliban could not be finished, but it succeeded in eliminating its chief Osama bin Laden. The withdrawal of NATO forces began in the summer of 2011 and 10,000 US soldiers have also returned to their country. The NATO forces formally handed over the security of Afghanistan to local soldiers. America wants that Taliban should sever its ties with Al Qaeda, but Taliban is adamant that first, the foreign troops must leave Afghanistan. It also wants US to release its commanders in American custody. The proposed talks between US and Taliban will concentrate on these matters. The US has, once again agreed to talk to its hostile enemy in the name of peace and stability in Afghanistan. The President Barack Obama has termed the proposed talks with Taliban as an important step in the War in Afghanistan, but he has also warned of the obstacles ahead. The US officials intend to meet the Taliban representatives at the new office opened by it in Qatar. Taliban have formally opened its office recently in Doha, the capital of Qatar. American officials will contact Taliban commanders through this office. This initiative also has the support of Afghan President Hamid Karzai. US Secretary of State John Kerry is in New Delhi for the fourth round of Indo-US strategic talks. We must convey our concerns on Afghanistan to John Kerry in clear terms. But Taliban has not changed its stance on basic issues and that is a matter of grave concern. Still, the US is prepared to have direct dialogue with the Taliban. The only relaxation that Taliban has given, is its consent to sit on negotiating table with the representatives of Karzai Government. It has earlier been calling the Karzai Government, a puppet of the West. Despite it, the Taliban has termed Afghanistan as Islamic Emirate. It has neither shown any commitment to preserving the present secular Constitution of Afghanistan nor made any promise to safeguard the interests of minorities and women. In fact, it has not agreed to make a public announcement to severe its relations with al Qaeda, as desired by America. It is just said that it would not allow any such activity on the Afghan soil that can pose danger to other countries. Despite all this, if the US has agreed to hold talks with Taliban, then the only reason could be that it wants to get rid of Afghanistan at all cost by the mid 2014. India has much at stake on the internal situation in Afghanistan. India must clearly state its apprehensions and fears to the US Secretary of State. Manjit Singh, India’s Permanent Representative at the UN has said that the security situation in that country has weakened as is clear from terror attacks during past two months there. Mr. Singh said that al Qaeda and Lashkar-e-Toiba and other militant groups in Taliban must be isolated and finished. He told UNSC members that changes in Afghanistan must be carried out under its leadership. This changes must be multi-faceted, which must ensure safety and security to all people in Afghanistan and human rights must be restored. These changes must ensure strengthening of Afghan Government and its institutions. He said that stability and economic development in Afghanistan depend on the neighbouring countries to a large extent. The US may not be concerned with the possibility of return of fanatic rule of Taliban in Afghanistan, but the forces in Afghanistan and neighbouring countries whose interests are likely to suffer from such a rule, cannot keep quiet. India is also among such countries, which has been investing heavily in the internal situation and infrastructure in Afghanistan for last one decade. India will never like Afghanistan to become the strategic stronghold of Pakistan through Taliban. It is, therefore, necessary to talk frankly to John Kerry on these issues.


खराब मौसम और महामारी की दोहरी चुनौती


 Published on 26 June, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
उत्तराखंड में प्रकृति का प्रकोप अभी शांत नहीं हुआ। इस त्रासदी के आए एक सप्ताह से ज्यादा का समय बीत चुका है पर अभी भी दुर्गम स्थलों में फंसे 15 हजार से अधिक श्रद्धालु प्राण रक्षा की टकटकी लगाए बैठे हैं। मौसम फिर खराब हो गया है। कई भागों में फिर वर्षा शुरू हो गई है। सेना और सुरक्षा बल के जवानों ने अपनी जान की बाजी लगाकर हजारों भक्तों को बचाया है। बेशक खराब मौसम की वजह से हवाई रेस्क्यू रुक गया हो क्योंकि हेलीकाप्टर उड़ान नहीं भर सकते पर जमीनी बचाव अभियान चल रहा है। केदार घाटी में बचाव कार्य में जुटे 258 में से 150 पुलिसकर्मी भी लापता हैं। इनमें 15 महिला कांस्टेबल भी शामिल हैं। राहत दलों में शामिल कई पुलिसकर्मी बीमार भी हो गए हैं। उत्तराखंड में अब तक का सबसे बड़ा बचाव अभियान थलसेना (आर्मी) द्वारा `आपरेशन सूर्य होप' और वायुसेना `आपरेशन राहत' चला रही है। वायुसेना ने कहा है कि फंसे लोगों को निकालने में कम से कम एक हफ्ता और लग जाएगा। वह भी जब मौसम साथ दे। यह हमारे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि इतनी बड़ी आपदा से निपटने के लिए विभिन्न सरकारी एजेंसियों में आपसी तालमेल की कमी है। देश तो एकजुट हो गया पर यह सरकारी एजेंसियां एकजुट नहीं हो सकीं। देशभर से मदद के हाथ उठ रहे हैं। लेकिन विडंबना देखिए कि केंद्र और राज्य सरकार के बीच का तालमेल ही गड़बड़ा रहा है। राज्य सरकार की अदूरदर्शिता और लापरवाही तो पहले ही सामने आ चुकी है। केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे स्वीकार कर रहे हैं कि उत्तराखंड में राहत कार्य कर रहीं सरकारी एजेंसियों में तालमेल की कमी है। उत्तराखंड में बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए जहां सारा देश कोशिश कर रहा है और उनकी रक्षा की दुआएं कर रहा है। ऐसे में प्राकृतिक आपदा की मार झेल रहे लोगों के प्रति मानव उदासीनता की शर्मनाक खबर भी सामने आ रही है। बाढ़ में फंसे लोगों को एक परांठे के लिए 250 रुपए और चिप्स के एक छोटे पैकेट के लिए 100 रुपए देना पड़ रहा है। टैक्सी चालक पहले जहां जाने के लिए 1000 रुपए लेते थे अब वहां जाने के लिए 3000 से 4000 रुपए ले रहे हैं। 200 रुपए का परांठा और 200 रुपए की पानी की बोतल। मृत शरीरों से जेवर-नकदी की लूटपाट तो पकड़ी ही गई है। केदार घाटी में 16-17 जून को बरसे आसमानी कहर में केदारनाथ धाम, गौरी मंदिर और निकटवर्ती अन्य मंदिरों में पूजा-अर्चना कराने वाले रावल और मनी गांव ग्राम सभा के 42 पुजारी और 9 अन्य कुल 51 पुरुष काल का ग्रास बन गए। इस ग्राम सभा में बच्चों को छोड़कर पुरुषों की तादाद 51 बताई गई दोनों स्थान पुरुषविहीन हो गए हैं और इतनी ही महिलाएं विधवा जीवन जीने और परिवार का भरण-पोषण कैसे करेंगी की दुविधा झेलने को विवश हो गई हैं। इन परिवारों का भरण-पोषण मंदिरों की सेवा से चलता था। यह सेवा केवल छह महीने ही कर पाते थे क्योंकि हिमपात के कारण वहां के मंदिर 6 महीने के लिए बन्द रहते हैं। कुछ साधुओं ने केदारनाथ इलाके से लौटने से इंकार कर दिया था। आईटीबीपी के डीआईजी ने बताया कि 15-20 साधुओं ने वहां से लौटने से इंकार कर दिया और कहा कि भले ही हम महादेव की सेवा में मर जाएं पर यहां से हटेंगे नहीं। लेकिन हमने उन्हें बताया कि शवों के बीच रहना ठीक नहीं होगा क्योंकि इससे बीमारी फैलने की आशंका है। बड़ी मुश्किल से वह माने। अब पता चल रहा है कि केदारनाथ मंदिर में कितनी तबाही हुई है। मंदिर में गर्भगृह और स्वयंभू शिवलिंग तक मलबा जमा हो गया। केदारनाथ मंदिर के मुख्य तीर्थ पुरोहित दिनेश बगवाड़ी ने बताया कि परिसर में मलबा काफी मात्रा में भरा है। गर्भगृह तक मलबे का अम्बार लगा है। भगवान शिव के स्वयंभू ज्योतिर्लिंग का सिर्प कुछ भाग ही दिखाई दे रहा है। उन्होंने कहा कि मंदिर परिसर में छह फुट से ज्यादा पड़े मलबे के नीचे काफी संख्या में लोगों के शव हैं। यह पूछे जाने पर कि क्या अस्थायी तौर पर पूजा का स्थान बदलने पर विचार किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि सरकार द्वारा नियुक्त मुख्य पुजारी के हवाले से इस पर विचार करने के बाद कोई फैसला लिया जाएगा। इस बारे में अभी स्पष्ट रूप से कोई जानकारी नहीं है। पहला काम मंदिर परिसर तक पहुंचना और उसे बहाल करना चुनौती भरा काम है। उधर केदारनाथ त्रासदी के बाद मंदिर के रावल (मुख्य पुजारी) भीमराव लिंगम उखीमठ पहुंच गए हैं। उन्होंने केदारनाथ मंदिर का हवाई सर्वे कर नुकसान का जायजा लिया। उन्होंने बताया कि वर्तमान में पूजा गुप्तकाशी के विश्वनाथ मंदिर में हो रही है। उखीमठ ओंकारेश्वर मंदिर पंच  केदारों का गद्दी स्थल है, इसलिए पूजा उखीमठ में होने पर विचार किया जा रहा है। केदारनाथ मंदिर में शुद्धिकरण के बाद ही पूजा की जाएगी। प्रकृति के कहर के बाद अब दूसरा खतरा हादसे वाले इलाकों में महामारी के रूप में मंडराने लगा है। लाशें सड़ने लगी हैं और असहनीय दुर्गंध से भी अधिक इनसे जानलेवा संक्रमण फैलने का खतरा पैदा होने लगा है। राहत या बचाव के लिए भारतीय सेना के जांबाज देवदूत बनकर आए हैं। अंत में पाठकों को केदारनाथ धाम का महत्व दोहरा दें। मंदिर कैसे अस्तित्व में आया? मंदिर का निर्माण पांडवों या उनके वंशज जन्मेजय ने कराया था। मंदिर का जीर्णोद्धार आदिगुरु शंकराचार्य ने कराया। महाभारत के युद्ध में विजयी होने पर पांडव भ्रातृ हत्या के पाप से मुक्त होना चाहते थे, इसके लिए वे शिवजी का आशीर्वाद प्राप्त करना चाहते थे। शिवजी के दर्शन के लिए वे उनका पीछा करते-करते केदार पर्वत पर पहुंच गए, लेकिन जब तक शिवजी ने बैल का रूप धारण कर लिया  और वहां पर विचरण कर रहे अन्य पशुओं के साथ घुलमिल गए, लेकिन पांडवों को संदेह हुआ और भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दोनों पहाड़ों पर अपने पैर फैला दिए, बाकी पशु तो निकल गए लेकिन शिवजी भला कैसे निकल पाते। भीम भी समझ गए और शिवजी भी। पांडवों की भक्ति और दृढ़ संकल्प को देखकर शिवजी ने उन्हें दर्शन देकर पाप से मुक्त कर दिया। तब से लेकर आज तक बैल की पीठ की आकृति पिंड के रूप में केदारनाथ मंदिर के गर्भगृह में पूजी जाती हैं। ऐसा माना जाता है जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतर्ध्यान हुए तो उनके धड़ के ऊपर का भाग काठमांडू में प्रकट हुआ। वहां शिवजी पशुपतिनाथ के रूप में पूजे जाते हैं। उनकी भुजाएं तेंगनाथ में मुख्य रुद्रनाथ में, नाभि महादेश्वर में, जंघा कल्पेश्वर में प्रकट हुईं। इसीलिए इन धामों सहित केदारनाथ को पंचकेदार कहा जाता है। हर-हर महादेव।

Tuesday, 25 June 2013

ईवीएम में सुधार प्रस्ताव ः वोटर को पता चलेगा उसका वोट कहां गया


 Published on 25 June, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
मतदाता को जल्द ही यह पता लग सकेगा कि उसने चुनाव में ईवीएम के माध्यम से जो वोट डाला है वह उसी उम्मीदवार के पक्ष में गया है कि नहीं जिसके लिए उसने मतदान किया था। इस प्रक्रिया में मतदाता की पुष्टि के लिए एक प्रकाशित पर्ची जारी की जाएगी और निर्वाचन आयोग की ओर से वोटर वैरीफाइड पेपर ऑडिट (वीवीपीएटी) प्रणाली को लागू किए जाने पर जल्द ही यह योजना हकीकत का रूप ले लेगी। निर्वाचन आयोग ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि उसने हाल ही में वीवीपीएटी डिजाइन को मंजूरी दी है और इसे पूरी तरह दुरुस्त बनाने के लिए इसमें कुछ और सुधार की जरूरत है। आयोग ने इस नई व्यवस्था पर विचार-विमर्श करने के लिए राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को भी आमंत्रित किया। आयोग ने उच्च पदस्थ सूत्रों के मुताबिक ईवीएम मशीनों से जोड़ने के लिए जून में करीब 250 प्रिंटर हासिल किए जाएंगे। परीक्षण के बाद उपचुनाव में इन्हें प्रायोगिक स्तर पर लगाया जाएगा। नई प्रणाली सम्भवत देशभर में अगले आम चुनाव में क्रियान्वित नहीं की जाएगी क्योंकि हरेक ईवीएम मशीन से जोड़ने के लिए इस तरह के 13 लाख नए उपकरणों की जरूरत होगी। इस पर करीब 1700 करोड़ रुपए का खर्च आएगा। नई प्रणाली के तहत एक मतदाता ईवीएम में एक बटन दबाकर उस उम्मीदवार का नाम, पार्टी का नाम और सीरियल नम्बर की प्रकाशित पर्ची हासिल कर सकेगा, जिसके पक्ष में उसने अपना वोट डाला है। इस प्रणाली के जरिए मतदाता अपने वोट की पुष्टि कर सकेगा। लेकिन मतदान की गोपनीयता को सुनिश्चित करने के लिए मतदाता को यह पर्ची अपने साथ घर ले जाने की अनुमति नहीं होगी। कुछ राजनीतिक दलों ने इस नई प्रणाली का पक्ष लिया है लेकिन ईवीएम व्यवस्था में लम्बे समय से सुधार की मांग कर रहे कुछ राजनीतिक दल नई व्यवस्था को जांचे-परखे बिना इस पर अपनी कोई राय बनाने से हिचक रहे हैं। भाजपा काफी पहले से ही इस तरह की व्यवस्था अपनाए जाने की वकालत कर रही थी  लेकिन उसकी सहयोगी पार्टियों ने इस बारे में अभी कोई राय नहीं दी। भाजपा के उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा कि हम इसके पक्ष में हैं और निर्वाचन आयोग को आगामी लोकसभा चुनाव में इस नई व्यवस्था को इसकी कमियां दूर कर अपनाए जाने के लिए कहते रहे हैं। कांग्रेस ने हालांकि इस विचार का समर्थन किया लेकिन इस नई व्यवस्था के बारे में अपनी राय नहीं बनाई है। कांग्रेस प्रवक्ता ने कहा कि नई प्रणाली कैसे काम करती है। हम इस पर विचार करेंगे और उसके बाद टिप्पणी। जनता दल (यू) के शरद यादव ने भी कहाöपहले हम नई व्यवस्था देखेंगे और उसके बाद अपनी राय देंगे। भाकपा सचिव डी. राजा ने कहा कि वामदल ईवीएम की विश्वसनीयता बढ़ाए जाने की मांग करते रहे हैं और लगता है कि इस संबंध में यह एक समाधान है। उल्लेखनीय है कि ईवीएम मशीनों को लेकर अकसर विवाद बना रहता है। कई देशों ने इसको इस्तेमाल करके रद्द कर दिया है। भारत में यह मामला विभिन्न अदालतों में भी उठा है। अगर ईवीएम की विश्वसनीयता बढ़ाई जा सकती है तो उसका स्वागत है।  

अफगानिस्तान छोड़ने पर अमेरिकी बेताबी


 Published on 25 June, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने घोषणा कर रखी है कि 2014 में अमेरिका अफगानिस्तान से अपनी फौजें हटा लेगा। जैसे-जैसे यह तिथि करीब आ रही है अमेरिका बेचैन हो रहा है। अब वह इस हद तक जाने को तैयार है कि अपने कट्टर दुश्मन जिसके खिलाफ वह वर्षों से लड़ रहा है से भी बातचीत करने को तैयार है। 9/11 के आतंकी हमले के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान में तालिबान को समाप्त करने का संकल्प लिया था। तालिबान तो खत्म न हो सका, हां उसका सरगना ओसामा बिन लादेन जरूर मारा गया। 2011 की गर्मियों में नाटो सेनाओं की वापसी शुरू हुई और 10,000 अमेरिकी सैनिक वापस वतन लौट चुके हैं। 2013 में औपचारिक रूप से नाटो सेनाओं ने अफगानिस्तान की सुरक्षा स्थानीय सैनिकों को सौंपी। अमेरिका चाहता है कि तालिबान अलकायदा से अपने रिश्ते तोड़ ले। लेकिन तालिबान की जिद्द है कि पहले विदेशी सेनाएं अफगानिस्तान को खाली करें। वह अमेरिकी कैद में पड़े अपने कमांडरों की रिहाई भी चाहता है। इसी को लेकर वार्ता होगी। अफगानिस्तान में शांति और स्थायित्व के लिए अमेरिका अपने धुर विरोधी तालिबान से बातचीत करने को एक बार फिर राजी हो गया है। राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अमेरिका की तालिबान के साथ नियोजित वार्ता को अफगानिस्तान में युद्ध करने की दिशा में उठाया गया पहला महत्वपूर्ण कदम बताया लेकिन साथ ही आगे के मुश्किल सफर को लेकर आगाह भी किया है। अमेरिकी अधिकारियों की कतर में खोले तालिबान के नए कार्यालय में उसके प्रतिनिधियों से मिलने की योजना है। तालिबान ने कतर की राजधानी दोहा में गत दिनों औपचारिक रूप से अपना कार्यालय खोला है। अमेरिकी अधिकारी इस कार्यालय के जरिए तालिबान कमांडरों से सम्पर्प करेंगे। इस पहल में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई की भी स्वीकृति है। अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी भारत-अमेरिकी रणनीतिक वार्ता के चौथे दौर के लिए नई दिल्ली आए हुए हैं। कैरी को अफगानिस्तान संबंधी भारत की चिन्ताओं के बारे में हमें दो टूक बताना चाहिए। चिन्ताजनक तो यह है कि तालिबान ने किसी बुनियादी शर्त पर अपना रुख नहीं बदला। इसके बावजूद अमेरिका उससे सीधी बातचीत के लिए तैयार है। तालिबान ने सिर्प यह रियायत की कि वह करजई सरकार के प्रतिनिधि के सामने वार्ता की मेज पर बैठने को तैयार हो गया, जिसे पहले वह पश्चिमी देशों की कठपुतली बताता था। इसके बावजूद अपने बयान में उसने अफगानिस्तान को `इस्लामी अमीरात'  कहकर सम्बोधित किया। धर्मनिरपेक्ष मौजूदा संविधान की रक्षा के प्रति उसने कोई वचनबद्धता नहीं जताई और न ही अल्पसंख्यकों व महिलाओं के हितों की सुरक्षा का कोई वादा किया। दरअसल वह अमेरिकी मंशा के मुताबिक अलकायदा से अलग होने की सार्वजनिक घोषणा करने पर भी राजी नहीं हुआ है। बस इतना कहा है कि वह दूसरे देशों के लिए खतरा पैदा करने के लिए अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल नहीं होने देगा। इसके बावजूद अमेरिका बातचीत के लिए तैयार हो गया तो उसकी वजह यही मानी जा सकती है कि वह किसी भी कीमत पर अगले साल के मध्य तक अफगानिस्तान से पीछा छुड़ाने को बेताब है। भारत का अफगानिस्तान की अंदरूनी स्थिति पर बहुत कुछ दांव पर लगा है। अमेरिकी विदेश मंत्री के सामने भारत को अपनी आशंकाओं को खुलकर प्रकट करना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि मंजीत सिंह ने कहा कि अफगानिस्तान में पिछले दो महीनों में हुए कई आतंकी हमले यह दर्शाते हैं कि इस देश में सुरक्षा की स्थिति कमजोर हुई है। सिंह ने कहा कि तालिबान में अलकायदा और लश्कर-ए-तैयबा तथा अन्य आतंकी एवं कट्टरपंथी समूहों के गुटों को अलग-थलग करने और समाप्त करने की जरूरत है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सदस्यों से कहा कि यह जरूरी है कि अफगानिस्तान में हो रहे परिवर्तन उसके नेतृत्व में और उसी की ओर से किया जाए। यह परिवर्तन बहुआयामी होना चाहिए, इसे अफगानिस्तान के सभी लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए एवं मानवाधिकारों को प्रोत्साहित करना चाहिए, इसे अफगान सरकार और उसकी संस्थाओं को मजबूत बनाना चाहिए। उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान में स्थिरता और आर्थिक विकास उसके पड़ोसी देशों पर काफी निर्भर करता है। अमेरिका भले ही अब तालिबान के कट्टरपंथी शासन की वापसी की आशंका से चिंतित न हो, अफगानिस्तान की जिन शक्तियों और आसपास के देशों के हितों पर इससे चोट पहुंचेगी, वह चुप नहीं रह सकते। इन देशों में भारत भी है जिसने पिछले एक दशक में वहां की आंतरिक सुरक्षा और बुनियादी ढांचे के विकास में भारी निवेश किया। फिर तालिबान के जरिए अफगानिस्तान-पाकिस्तान का सामरिक गढ़ बन जाए, यह कतई भारत के हितों में नहीं है। इसलिए यह उचित होगा कि इन मुद्दों पर जॉन कैरी से बेलाग बात की जाए।

Sunday, 23 June 2013

आओ सब मिलकर राहत में हाथ बंटाएं


 Published on 23 June, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
उत्तराखंड के जो हालात अब सामने आ रहे हैं उससे साफ है कि देश राष्ट्रीय आपदा की चपेट में आ गया है। जन-धन हानि के बढ़ते आंकड़े सिहरन पैदा करने वाले हैं। मुश्किल यह है कि पांच-छह दिन होने के बाद भी यह जानना कठिन है कि विनाश और विध्वंस की सीमा क्या है? उत्तराखंड की किसी भी सरकारी एजेंसी को यह नहीं मालूम कि 11759 फुट की उंचाई पर स्थित केदारनाथ के दर्शन के लिए कितने लोग आए, कितने लापता हो गए और कितनों की मौत हो चुकी है। लगता यह है कि दरअसल यहां यात्रियों का सही ब्यौरा रखने की कोई व्यवस्था ही नहीं। तबाही वाली रात केदारनाथ और बद्रीनाथ में करीब 30 हजार लोग थे। अभी तक 10 हजार के करीब बाहर निकाले गए हैं। अकेले केदारनाथ और बद्रीनाथ में 20 हजार से ज्यादा लोगों का पता नहीं चल सका। अगर हम पूरे उत्तराखंड की बात करें तो अनुमान है कि 50422 लोग फंसे हुए हैं। रुद्रप्रयाग में 22429, चमोली में 18162 और उत्तरकाशी में 9831। बचाव कार्य में सेना और आईटीबीपी के 6000 जवान लगे हुए हैं। टीवी और अखबारों में हमने देखा और पढ़ा कि किस तरह सेना के जवानों ने जान की बाजी लगाकर लोगों को बचाया। भारतीय सेना ने हर भारतीय का सिर गर्व से उठा दिया है। सेना अगर इतनी सक्रिय न होती तो पता नहीं कितने और मरते। श्री अश्विनी चौबे पूर्व स्वास्थ्य मंत्री बिहार ने अपनी आंखों देखी कुछ यूं बयान की। मैं चार रातों तक केदारनाथ में फंसा रहा। मेरे परिवार के पांच लोग लापता हैं। मैंने लाशों पर रात बिताई, 1800 से ज्यादा लोग मेरे साथ मंदिर में थे। कई तो मेरी आंखों के सामने मर गए। मंदिर के अन्दर लाशें तैर रही थीं। मैंने जिन्दगी में ऐसी आपदा नहीं देखी थी। 15000 से 20,000 से ज्यादा लोगों की मौत हुई है। दिल्ली निवासी शपुंतला गुसांई ने अपनी आपबीती सुनाई जिससे पता लगता है कि मंजर कितना भयानक रहा होगा। हम 16 जून को केदारनाथ दर्शन के बाद वापस लौट रहे थे। बीच में मौसम खराब हुआ तो रामबाड़ा में हम रुक गए। बारिश तेज हो रही थी। मार्केट में भारी चहल-पहल थी। लोग चाय की चुस्कियां ले रहे थे। करीब पांच बजे अचानक पहाड़ हिलने लगा, हमने देखा नीचे वाला गेस्ट हाउस, जिसमें करीब 500 लोग थे ब्लास्ट के साथ नदी में समा गए। आपदा के वक्त रामबाड़ा में करीब 3000 लोग मौजूद थे। पहाड़ के नक्शे से गायब हो चुके रामबाड़ा से लौटीं शपुंतला गुसांई के दोनों पैर सूजे हैं और कमर पर गहरा जख्म है। उन्होंने बताया कि जब जान बचाने के लिए भागे तो करीब 100 लोग थे लेकिन जब पहाड़ की चोटी पर पहुंचे तो हम पांच महिलाओं के साथ कुल तीन लोग ही बचे थे। तेज बारिश से बचने के लिए उन्होंने पड़ी लाशों की पालिथीन और घोड़ों के कपड़े अपने ऊपर ढंके। चार दिन तक बिना खाए-पीए जैसे-तैसे एक खाली जगह पहुंचे, जहां से सेना के हेलीकाप्टर ने उन्हें ट्रेस किया। जैसे ही हेलीकाप्टर नीचे आया तो किनारे खड़े दो लोग उसकी पंखुड़ी की तेज हवा के झोंके से नदी में जा गिरे। उन्होंने बताया कि भगदड़ के वक्त जो भी नीचे गिर गया वह नहीं बच पाया। रामबाड़ा में 50 नहीं बल्कि तीन हजार से ज्यादा लोगों की मौत हुई है। शपुंतला ने बताया कि आपदा के समय वहां केवल अपना जीवन नजर आ रहा था। बचाव कर्मी केवल अपनी जान की फिक्र करने की हिदायत दे रहे थे। आपदा के कारण उत्तरकाशी में न बिजली है और न पानी। बीमार लोगों के इलाज के लिए न कोई डाक्टर है और न ही दवाइयां। गुरुवार सुबह यात्रियों ने गंगोत्री चौकी प्रभारी ठकरियाल को घेर लिया। यात्रियों ने सरकार को जमकर कोसा। उनका कहना था कि लगता है कि गंगोत्री धाम में सरकारी तंत्र नाम की कोई चीज ही नहीं है। अगर हम सरकारी अफसरों की बात करें तो देखिए इनका रवैया। अपनो को खो चुके हजारों पस्तहाल, बीमार तीर्थयात्री मदद की गुहार लगा रहे थे। सभी चाहते थे कि उन्हें पहले निकाला जाए। अगर राजस्थान के तीर्थयात्रियों की मानें तो मौके पर मौजूद पुलिस और प्रशासन के अफसरों का व्यवहार शर्मनाक रहा। सबसे पहले वे ही हेलीकाप्टर से निकल भागे। यह दास्तां बताई केदारनाथ से  बचकर हरिद्वार पहुंचे राजस्थान के तीर्थयात्रियों के एक समूह ने। और तो और सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को फटकार लगाई है। अदालत ने राहत कार्यों में तेजी लाने की सख्त हिदायत दी है। अत्यंत दुख से कहना पड़ता है कि हमारे कुछ भाई लाशों को भी पैसों की खातिर नहीं छोड़ते। केदारनाथ की तबाही ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया है लेकिन केदारनाथ धाम में तपस्या के नाम पर रह रहे कुछ कपटी साधुओं ने धर्म के नाम पर ऐसी करतूत की है जिसे सुनकर हर कोई शर्मिंदा हो जाएगा। यह हरकत की है कुछ ऐसे धूर्त साधुओं ने जो भगवान शिव की तपस्या के नाम पर ग्रीष्मकाल के छह महीने केदारनाथ में तपस्या में लीन रहने का ढोंग करते रहे हैं लेकिन आपदा के समय ऐसा काम किया जो कभी सोचा भी नहीं जा सकता था। त्रासदी की रात साधुओं ने तीर्थयात्रियों को इस कदर लूटा कि पुलिस ने जब उनकी तलाशी ली तो लाशों से उतारे जेवर-नकदी बरामद की। उनके पास तीन करोड़ की नकदी निकली। अभी जांच जारी है। सरकार तो अपने स्तर पर काम कर ही रही है पर हम सभी को भी अपनी-अपनी तरह से हाथ बंटाना होगा। मुख्यमंत्री के रवैये से भी लोगों में गुस्सा और हताशा है। काम इतना बड़ा है कि सभी लगेंगे तब जाकर कुछ परिवारों की मदद होगी। हम भी इस जंग में कूद पड़े हैं। हमारे एक संगठन श्री देवोत्थान सेवा  समिति ने फैसला किया है कि हम कम से कम 500 परिवारों को राहत सामग्री पहुंचाएंगे। हर परिवार को एक पैकेट दिया जाएगा जिसमें एक किलो आटा, एक किलो चावल, एक किलो दाल, एक किलो चीनी और मसाले का पैकेट होगा। हमारा प्रयास है कि हमारी टीम स्वयं जाकर प्रभावित परिवारों को यह पैकेट पहुंचाएगी। बहुत छोटा-सा प्रयास है पर कोई तो शुरू करे और अगर सभी भाई ऐसा करना शुरू करें तो कुछ तबाह हुए परिवारों को मदद पहुंचेगी। आप भी हमारा हाथ बंटाएं। दैनिक वीर अर्जुन, दैनिक प्रताप और सांध्य वीर अर्जुन के इस नेक काम में पैसा या रसद देने की कृपा करें। ओम नम शिवाय। हर-हर महादेव।

Lord Shiva’s shrine stands untouched amidst all-round devastation

Anil Narendra

Still I fail to believe that Uttarakhand has reeled under such devastating floods and faced such ire of the nature that where ever you cast your eyes, nothing but devastation is visible. Whole of the area, excepting the Kedarnath Shiva shrine, has been inundated and devastated. I still remember that day on 19th August 2012, when along with a few friends, I had started for Kedarnath. As soon as we stepped out of Delhi on a three day pilgrim, rains had started and it did not stop till our return back. The Gaurikund Hotel, where we spent the night, Ram Bara, where on way, we had snacks with tea, the small iron bridge, where we did photography and videography, the bazaar, through which we entered the shrine, the hotel, where after having darshan of the diety, we took our lunch, all have been washed away in the floods. How horrifying the sight would be, it is hard to visualize. Miraculously, only the centuries-old shrine of Lord Shiva has been left untouched by the fury of the floods. It was at Ram Bara near Kedarnath shrine that the cloud-burst took place on Sunday night. Kedarnath, Ram Bara and Gaurikund, all have been washed away in the torrents of the mighty floods. Ariel photographs taken from helicopters make one shudder at the devastating fury and might of the floods. An eye witness of the tragic happenings, R Dimri, the SP Rudrapryad, who was posted at the Kedarnath shrine, says that the shrine complex is carpetted with rubble and boulders. Dead bodies have been scattered all over the complex. Flood waters along with rubble have entered the sanctum sanctorum of the shrine. Most of the houses around the shrine have been razed in the incessant rains and the inundating flow of the water. Ram Bara, situated on the seven kilometer long Gaurikund-Kedarnath track has been washed away. At any given time, at least 500-600 people used to be present in the Ram Bara market of around 100-150 shops. The death toll here is yet to be confirmed but hundreds of people must have died here. More than one lakh persons all over the State have been affected by these floods and loss to the tune of crores of rupees is being estimated. Whereabouts of many of them is simply not known.  It was horrifying to view the houses falling like pack of cards on the TV. It could only be the grace and wonders of the Lord Shiva that the jyotirling and the centuries-old dome are intact amidst this devastation. The Shivalingam, established at the ancient Kedarnath shrine situated at a height of 3,597 metres, is among the 12 jyotirlingams in the country. According to the scriptures, the Pandavas had carried penance here to appease Lord Shiva during their agyatvasa. During their stay, they constructed the 80 metre high Lord Kedarnath shrine. During my visit to the shrine, I was impressed by its antiquity. The shrine has statues of Pandavas. The shrine is not well illuminated and I could guess from the structure of the shrine that it must have been constructed thousands of years ago. As you enter the shrine, an unearthly feeling creeps in you, which I am unable to express as it can only be experienced. By coming to this pious place, one feels as if he has come to the land of the Gods. It is said that the majestic shrine was named after Kedar, the king who ruled this land during the period of satayuga. It is also said that the Adi Shankaracharya had got this shrine renovated. In view of adverse weather, the shrine is opened for public only during the period from April to November. Devotees in large number from home and abroad visit this shrine to take darshana of Lord Kedarnath. Kedarnath pilgrimage is one among the pilgrimages to the four prominent abodes (char dhamas). Situated on the Shore of Mandakini River, the Kedarnath shrine is very dark inside and darshan of Lord Shiva can only be made with the help of lighted lamp. This shrine has statues of five Pandavas and also of Draupadi. In the complex outside the Kedarnath shrine, there is an idol of Nandi, the ox, the carrier of Lord Shiva on a six feet high raised square platform. What should we call this catastrophe – a natural calamity, a result of our ever increasing sinful acts or lack of arrangements? I think it is both. The Planning Commission had warned the Uttarakhand Government two months earlier and advised it to pay attention towards the safe discharge of flood waters and make suitable amendment to its present policy in this regard. The Government was also warned about the embankments along the rivers as such constructions hinder the natural flow of the rivers. Not only the flow is affected, but these also stop the development of natural deltas and shut the avenues for the discharge of water. In a letter sent to the State Government in May 2013, the Commission had advised the Government to adopt a policy that does not hinder the development of drainage systems for the rivers. The indiscriminate felling of the trees, the illegal mining, all these amount to disturbing the ecology. It is also true that all over the country, at every level, ecological system is being compromised. If such an apathy towards the ecological system continues, then despite our having the strong calamity management system, it would be impossible for us to avoid such conditions that led to the devastation in Uttarakhand and Himachal Pradesh, in future. It is not a secret that flow of large and small rivers all over the country is being obstructed, but we see no initiative to stop the meddling that is being done with the flow of rivers. It may not be out of place to mention that the rains being witnessed in the month of June itself, is also not a normal phenomenon. It is unprecedented in the history of recording of rains in the country, that the monsoon has taken the whole country in its grip on 16th June itself. Fifty two years ago, in 1961, such an incident was recorded on 21st June, but that year the onset of monsoon had no such devastating effect. The weather has been playing havoc in whole of the region. In the east, the incessant rains have caused heavy loss to lives and property in Bangladesh, Myanmar, Thailand. In neighbouring Pakistan, the torrential rains starting from 26th July last year for about a month played unprecedented and unimaginable havoc in hilly and desert areas. We would like to convey our feelings that we share the grief of the families affected by the recent rains and flood. May the souls of the deceased lie in peace. Om namah Shivay. Har-har Mahadev!

Saturday, 22 June 2013

देश डूब रहा है और नीरो बांसुरी बजा रहे हैं


 Published on 22 June, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
आखिर जिन्न बोतल से बाहर आ ही गया। 10 साल में भारत की अर्थव्यवस्था  अपने निचले स्तर पर आ गई है। रुपए का यह हाल है कि एक डॉलर के बराबर 60 रुपए का रेट पहुंच गया है। वित्त वर्ष 2012-13 में देश का सकल घरेलू उत्पाद घटकर पांच फीसदी दर्ज किया गया है। यह पांच साल में सबसे नीचे स्तर पर है। पखवाड़े पर पहले ही मुख्य आर्थिक सलाहकार रघुराज राजन ने आश्वस्त करने की कोशिश की थी कि रुपए को लेकर घबराने की जरूरत नहीं है। वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने भी अर्थव्यवस्था की सेहत को लेकर भरोसा जताया और संकेत दिए हैं कि सरकार जल्द ही आर्थिक सुधारों को गति देगी। मगर डॉलर के मुकाबले जिस तरह से रुपया धड़ाम से गिरा है उससे समझा जा सकता है कि आर्थिक मोर्चा कितना खराब है। महज तीन महीने में ही रुपया अपने रिकार्ड न्यूनतम स्तर पर आ गया है। मुद्रा के कमजोर होने का सीधा संबंध अर्थव्यवस्था से होता है और उससे भी कहीं अधिक भारत की जनता पर। गिरते रुपए का असर सीधा कच्चे तेल के आयात पर पड़ता है जिस वजह से पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में वृद्धि पर पड़ता है। पेट्रोलियम उत्पादों की वजह से कीमतें बढ़ जाती हैं और पहले से ही महंगाई के बोझ से भर रही जनता और दब जाती है। ऐसा पिछले 10 साल में पहली बार हुआ है कि अर्थव्यवस्था के तीनों घटक भीषण मंदी के शिकार सिद्ध हुए हैं। ये घटक हैं ः मैन्यूफैक्चरिंग यानी विनिर्माण, कृषि और सेवा क्षेत्र। विनिर्माण क्षेत्र का मतलब हमारी अर्थव्यवस्था में मोटे तौर पर औद्योगिक उत्पादन से लगाया जाता है और पिछले माली साल यानी 2012-13 में साल 2011-12 के मुकाबले इस क्षेत्र में रो-पीट कर बमुश्किल एक फीसदी वृद्धि हुई है। यही हाल कृषि क्षेत्र का है। उसमें भी वृद्धि की दर माली साल 2012-13 में  बामुश्किल दो फीसदी रही है। इसके मुकाबले साल 2011-12 में कृषि क्षेत्र में खासा सुर्खरू था यानी इसकी वृद्धि दर साढ़े तीन फीसद से मामूली अधिक थी। जाहिर है कि अर्थव्यवस्था में आम आदमी को रोजगार मुहैया कराने वाले इन दोनों क्षेत्रों की पतली हालत ने सेवा क्षेत्र को भी हांफने के लिए मजबूर कर दिया और उसकी वृद्धि दर भी साल 2012-13 के दौरान फिसर कर रह गई। अब सवाल यह है कि ऐसा आखिर क्यों हुआ? अर्थव्यवस्था की दुर्गति के सरकारी कारण तो तेल के बढ़ते दाम और देश में जरूरी जिन्सों के उत्पादन की मांग के अनुरूप नहीं बढ़ पाना तथा वैश्विक आर्थिक मंदी के गिनाए जा रहे हैं।  लेकिन क्या हमारा निजाम इसके कुप्रबंध के दोष से बच सकता है? शायद नहीं। पिछले दशक भर में कुलाचें भरती अर्थव्यवस्था से मदहोश होकर राजग और संप्रग सरकारों ने देश के कराधान ढांचे से जो खिलवाड़ किया है, वैसी मिसाल कहीं और नहीं दिखती। इससे पैदा हुए कोढ़ में खाज दरअसल फिजूलखर्ची और भ्रष्टाचार ने कर दी है। देश के प्रमुख राजनीतिक दल आम आदमी को स्थिर रोजगार देने की बजाय लैपटॉप, टीवी, मंगल सूत्र और वजीफे देकर वोट बटोरने में लगे हैं। इन्हीं सब कारणों से देश का वित्तीय प्रबंध गोते खा रहा है। रुपया बार-बार डूब-उतरा रहा है, शेयर बाजार पर सटोरियों का कब्जा है, बैंकों पर भारी वित्तीय दबाव है, पैसा न होते हुए भी लोक लुभावने  वाली सरकारी नीतियों पर जबरन अमल पर मजबूर किया जा रहा है, महंगाई निरंकुश है, कर्ज की ब्याज दर आसमान छू रही है और औद्योगिक विस्तार ठप है। देखना अब यह है कि चुनाव के इस मौसम में केंद्र और राज्य सरकारें देश की अर्थव्यवस्था के बिखरे लवाजमे को बटोर कर उसे फिर से पटरी पर लाने के लिए वाकई कोई ठोस उपाय कर पाएंगी अथवा वोटों के चक्कर में भारत रूपी रोम को जलने को छोड़कर हमारे नेता रूपी नीरो इसी तरह चैन से बांसुरी बजाते रहेंगे।

तबाही का ऐसा मंजर पहले कभी नहीं देखा ः आपबीती की जुबानी


 Published on 22 June, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
बुधवार को मिली खबरों और तस्वीरों से लगता है कि केदारनाथ मंदिर तो सुरक्षित है पर मंदिर के आसपास भारी तबाही का मंजर देखा जा सकता है। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने बाढ़ की आपदा को अभूतपूर्व और हिमालयी सुनामी की संज्ञा दी है और कहा कि बहुत बड़ी संख्या में लोगों के हताहत होने की आशंका है और मैं बिना उचित सर्वेक्षण के सही संख्या नहीं बता सकता। बहुगुणा ने कहा कि केदारनाथ तक सड़क मार्ग को सामान्य करने में एक साल लग जाएगा। पहली प्राथमिकता फंसे हुए लोगों को खासकर देश के अनेक भागों से आए तीर्थयात्रियों को बचाने की, उन्हें दवाइयां पहुंचाने की और प्रभावितों को मुआवजा देने की होगी। देवभूमि उत्तराखंड में मंगलवार को मौसम खुला तो बर्बादी के गहरे जख्म दिखने लगे। रविवार को बादल फटने के बाद मंदाकिनी ने भयानक तबाही मचाई। मीडिया में छपी खबरों के अनुसार केदारनाथ मंदिर से ढाई किलोमीटर ऊपर स्थित मारबाड़ी झील ने पूरी घाटी तबाह कर दी। रविवार को भारी बारिश के कारण मारबाड़ी झील में काफी पानी भर गया। झील ओवरफ्लो होने लगी। इसके बाद यहां एक ग्लेशियर टूट गया। इसके  बाद झील टूट गई और पूरी केदार घाटी तबाह हो गई। मंदिर के एक ओर पहले से ही मंदाकिनी नदी बहती थी। ग्लेशियर टूटने से केदार माउंट का मलबा भी नीचे आने लगा। केदारनाथ मंदिर के महंत रवि भट्ट ने बताया कि जब जलजला आया तब हमने मौत को करीब से देखा। केदारनाथ शमशान घाट में बदल गया। जहां-तहां मलबे में लाशें दबी हैं। मंगलवार को मौसम साफ होने से प्रशासन ने सेना के हेलीकाप्टरों की मदद से केदारनाथ में फंसे लगभग 400 तीर्थयात्रियों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचा दिया, जबकि एक हजार से अधिक लोग अभी भी मंदिर में मदद के इंतजार में हैं। आपदा में जैसे-तैसे जान बचाने के बाद तीन दिनों से पेदारनाथ मंदिर के अन्दर फंसे बद्री केदार मंदिर समिति के सहायक वेदपाठी सुशील बेंजवाल और अजय रविन्द्र जब हेलीकाप्टर से गुलाब राय मैदान में पहुंचे तो मानो उन्हें नया जीवन मिल गया है। दैनिक हिन्दुस्तान की वहां पहुंची टीम से जब उन्होंने आप बीती सुनाई तो रौंगटे खड़े हो गए। उन्होंने बताया कि  केदारनाथ का अधिकांश क्षेत्र तबाह हो गया है। मंदिर के अन्दर भी 10 लोग मृत पड़े हैं। जबकि केदारनाथ नगर क्षेत्र में भी बड़ी संख्या में लोगों को जान गंवानी पड़ी है। बेंजवाल के मुताबिक शनिवार को सुबह 8.15 बजे केदारनाथ के चारों ओर से सैलाब आया और वह मंदाकिनी नदी में कूद गए। उस वक्त मंदाकिनी में पानी कम था और वे किनारे लग गए। बाद में यहां नजारा बदल गया। चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था। देखते ही देखते मंदिर में बड़ी संख्या में यात्री, कर्मचारी जमा हो गए। दहशत के बीच जैसे-तैसे रात काटी तो सुबह 6.15 पर फिर यहां पानी भर आया। तीन दिनों तक मंदिर में भूखे, प्यासे रहे। उन्होंने बताया कि केदारनाथ में पानी, बिजली, संचार सेवाएं सब खत्म हो गईं। केदारनाथ में पंडा पंडित रोशन त्रिवेदी का कहना है कि उन्होंने तबाही का ऐसा खौफनाक मंजर पहले न कभी देखा और सुना। उन्होंने बताया कि 16 जून सुबह 8.30 बजे अचानक केदारनाथ मंदिर से चार किलोमीटर दूर गांधी सरोवर तेज आवाज के साथ फटा और पूरे केदारनाथ क्षेत्र में बाढ़ आ गई। उन्होंने किसी तरह भागकर पहाड़ी पर स्थित भैरो बाबा के मंदिर में शरण ली, जहां पहले से कुछ अन्य यात्री पहुंचे हुए थे। दो दिनों तक वहां फंसे रहने के बाद मंगलवार सुबह सरकारी हेलीकाप्टर ने उन्हें सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया। त्रिवेदी ने कहा कि केदारनाथ पूरी तरह से तहस-नहस हो गया। कई होटल, धर्मशालाएं, रेस्त्रा और दुकानों के साथ ही स्टेट बैंक भी नष्ट हो गए हैं। पुलिस महानिदेशक सत्यव्रत ने बताया कि रामबाड़ा, अस्थायी चौकी और आईआरबी के एक सेक्शन में शामिल पुलिस कर्मियों का भी ऊंची तक पता नहीं चल सका है। इनकी संख्या 15 है। सोमवार को केदारनाथ का दर्शन कर लौट रहे लखनऊ के आकाश उपाध्याय ने बताया कि गौरीपुंड से तीन किलोमीटर ऊपर की तरफ से जैसे ही नीचे आ रहे थे तभी रास्ते में एक झरना फूट पड़ा। आगे चल रही एक लड़की ने झरना पार करने की कोशिश की। वह उसकी जद में आ गई और गहरी खाई में गिरी। आकाश ने बताया कि इसी बीच एक आंटी भी उसमें फंस गई। सभी साथियों ने किसी तरह उसे खींचकर बचा लिया। इसके बाद किसी तरह से जान जोखिम में डालकर बचते-बचाते सोनप्रयाग से छह-सात किलोमीटर दूर एक हैलीपैड पहुंचे।

Friday, 21 June 2013

ईरान फिर खड़ा हुआ ऐतिहासिक मोड़ पर


 Published on 21 June, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
ईरान के चुनाव नतीजे लगभग ऐसे ही आए हैं जैसी उम्मीद की जा रही थी। नतीजों से साफ है कि वहां के लोग बदलाव चाहते हैं। राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव में आठ साल बाद एक बार फिर सुधारवादियों को सफलता मिली है। हसन रोहानी ईरान के नए राष्ट्रपति होंगे। पचास फीसद से कुछ अधिक मत पाकर इसकी शर्त उन्होंने पूरी कर ली है। पहले ही दौर में यह लक्ष्य प्राप्त कर लिया। राष्ट्रपति के तौर पर लगातार दो कार्यकाल पूरा कर चुके महमूद अहमदीनेजाद संवैधानिक बंदिश के कारण इस बार चुनाव नहीं लड़ सकते थे पर उनकी विदाई ईरान के सर्वोच्च प्रशासनिक पद पर शख्सियत का ही बदलाव नहीं है। यह एक दौर की विदाई है। जिसमें ईरान अपने विवादित परमाणु कार्यक्रम के कारण, पश्चिमी दुनिया के निशाने पर रहा है। दूसरे पिछले कुछ सालों से ईरान में नागरिक अधिकार लगातार सीमित किए जाते रहे हैं। सुधारवादियों की जीत के दो अर्थ निकलते हैं। पहला कि ईरान के अधिकतर लोग बाहरी दुनिया से संबंध सुधारने के पक्षधर हैं और दूसरा वे चाहते हैं कि नागरिक आजादी पर लगी पाबंदियां हटें। ईरान एक बार फिर ऐतिहासिक मोड़ पर आकर खड़ा हो गया है। सुधारवादी नेता हसन रोहानी के राष्ट्रपति निर्वाचित होने के बाद देश में जबरदस्त उत्साह का माहौल है। रविवार को एक तरफ जहां सड़कों पर लोग खुशी मनाते देखे गए वहीं ईरानी शेयर और मुद्रा बाजार में ऐतिहासिक उछाल देखा गया। शनिवार देर रात जैसे ही रोहानी की जीत की घोषणा हुई उनके हजारों समर्थक सड़कों पर निकल आए। यह सिलसिला रविवार को अपने शबाब पर दिखा। जगह-जगह लोग रोहानी जिन्दाबाद के नारे लगाते नजर आए। पश्चिमी मीडिया की माने तो ईरान की जनता ने रोहानी के रूप में बदलाव को अपना समर्थन दिया है। हसन रोहानी ने अपनी जीत के बाद यह प्रतिक्रिया दी ः यह ज्ञान, उदारवाद, विकास की जीत के साथ अतिवाद व बीमार गुस्से पर प्रतिबद्धता की जीत है। जनता में जिस तरह का उत्साह है उससे पता चलता है कि देश के लोग अपने भविष्य को लेकर कितने आशावादी हैं। हसन रोहानी की जीत से पश्चिमी दुनिया ने राहत की सांस ली है। यहां ब्रिटेन और फ्रांस ने चुनाव परिणाम का स्वागत करते हुए ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर फिर से बातचीत शुरू होने की उम्मीद जताई है, वहीं अमेरिका ने कहा कि वह ईरान के नवनिर्वाचित नरमपंथी राष्ट्रपति हसन रोहानी के साथ मिलकर काम करने को तैयार है। विदेश मंत्री जॉन कैरी ने शनिवार को कहाöहम ईरान की नई सरकार के साथ मिलकर काम करने को तैयार हैं। अमेरिका को उम्मीद है कि नई सरकार अंतर्राष्ट्रीय नियमों का पालन करेगी ताकि उसके परमाणु कार्यक्रम को लेकर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की चिन्ता दूर की जा सके। हालांकि सुधारवादी रोहानी की जीत के बाद भी इजरायल और पश्चिमी देश अब भी आशंकित हैं। दरअसल उन्हें देश के सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह अली खोमैनी को लेकर आशंका है। पश्चिमी जगत को लगता है कि विवादित परमाणु कार्यक्रम को लेकर रोहानी विशेष सुधार नहीं कर पाएंगे। परमाणु नीति खोमैनी तय करेंगे न कि रोहानी।

कांग्रेस संगठन और सरकार दोनों में राहुल गांधी की छाप


 Published on 21 June, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
कांग्रेस ने संगठन और सरकार में बदलाव करके यह संकेत देने का प्रयास किया है कि वह अब आगामी विधानसभा चुनावों और 2014 में लोकसभा चुनाव के लिए तत्पर है और पार्टी व सरकार दोनों सेमीफाइनल और फाइनल के लिए तैयार है। चूंकि आम चुनाव में एक साल से भी कम समय रह गया है इसलिए स्वाभाविक ही है कांग्रेस और सरकार में हुए फेरबदल को चुनावी तैयारी से जोड़ें। इन दोनों फेरबदल और पांच महीने पहले राहुल को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाना और संगठन में उनकी पसंदीदा टीम बनाकर पार्टी ने साफ कर दिया है कि 2014 का लोकसभा चुनाव राहुल गांधी के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। दोनों की टाइमिंग में एक संदेश है। यह कि ऐसे समय जब प्रमुख विपक्षी दल भाजपा वाले राजग का कुनबा बिखर रहा है, वह कलह व अस्थिरता का मोर्चा बन गया है, कांग्रेस की अगुवाई वाला यूपीए स्थिर व विवादरहित है। एकजुटता के साथ गतिशील है। कांग्रेस ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए के प्रति जनता आश्वस्त हो सकती है। ताजा सांगठनिक फेरबदल में राहुल गांधी की छाप साफ दिखाई देती है। हालांकि यह कोई आमूलचूल बदलाव नहीं है पर शायद पहली बार पार्टी में एक व्यक्ति एक पद की नीति अपनाई गई है। दूसरे, संगठन से लेकर कांग्रेस कार्यसमिति तक पार्टी का चेहरा पहले की अपेक्षा युवा दिखता है पर ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, जतिन प्रसाद, जितेन्द्र सिंह जैसे युवा नेताओं को पार्टी संगठन के कामकाज से नहीं जोड़ा गया है। ऐसा लगता है कि अनुभवी और युवा राजनीतिकों का तालमेल बिठाने की कोशिश की गई है। यह चुनाव की चिन्ता का असर होगा कि लम्बे समय बाद पार्टी में बारह महासचिव बनाए गए हैं। सचिवों की यह शिकायत दूर करने का प्रयास किया गया है कि उन्हें पद तो दे दिया गया है पर अधिकतर को राज्य का जिम्मा नहीं सौंपा गया। एक व्यक्ति एक पद के साथ संगठन और मंत्री पद को अलग कर दिया गया है ताकि चुनाव विभाजित सोच से न लड़ा जाए। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद को आंध्र प्रदेश के प्रभार से मुक्त करने के पीछे भी यही सोच है। वह आंध्र के मसले के लिए समय निकाल ही नहीं पा रहे थे, जहां तेलंगाना और जगनमोहन रेड्डी कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौतियां बनी खड़ी हैं। यहां कि जिम्मेदारी दिग्विजय सिंह को देकर पार्टी नेतृत्व ने एक तीर से दो शिकार करने का  प्रयास किया है पहला कि उन्हें उत्तर प्रदेश से हटा दिया गया है, जहां वह फेल हो गए हैं और दूसरा कि अब आप इन दोनों चुनौतियों पर विशेष ध्यान दें। उत्तर प्रदेश में राहुल के करीबी व गुजरात के मधुसूदन मिस्त्राr को प्रभार देना भाजपा की ओर से उत्तर प्रदेश का प्रभारी अमित शाह का जवाब है। अजय माकन की तेज-तर्रार छवि ही मीडिया से प्रभारी होने की अकेली वजह नहीं है। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को निर्विवाद नेता रहने देने के लिए ही माकन को यह गरिमा दी गई। जनार्दन द्विवेदी से मीडिया सेल को लेकर भी उनमें हाई कमान का भरोसा कायम रहा है। अम्बिका सोनी भी कांग्रेस अध्यक्ष की नजदीक हैं और रहेंगी। मंत्रिमंडल विस्तार में उन राज्यों को ज्यादा तरजीह दी गई है, जहां विधानसभा चुनाव होने हैं। शीशराम ओला और गिरिजा व्यास राजस्थान से हैं। मल्लिकार्जुन खड़गे को कर्नाटक में मुख्यमंत्री पद की दावेदारी न पेश करने के पुरस्कार स्वरूप रेल मंत्रालय दिया गया है। तीन नए मंत्रियों में ईएम नचिप्पन को वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय दिया गया है, वह तमिलनाडु से हैं। पिछले दो सालों में घोटालों दर घोटालों की चर्चा से दोनों सरकार व पार्टी लहूलुहान होती रही है। पिछले दो सालों में ऐसा कोई सत्र नहीं गया, जिसमें भारी हंगामा न हुआ हो। 2जी स्पेक्ट्रम, राष्ट्रमंडल खेल, आदर्श सोसाइटी घोटाला, हेलीकाप्टर घोटाला, कोयला घोटाला व रेलवे रिश्वत जैसे मामलों में कांग्रेस की फजीहत होती आई है। इसी माहौल में बाबा रामदेव, अन्ना हजारे सरीखे के गैर-राजनीतिक संगठनों ने भी भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ी मुहिम चलाई है। अरविन्द केजरीवाल तो अब राजनीति में उतर चुके हैं। अब देखना यह है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस को कितना झटका लगा है? हालांकि कांग्रेसी रणनीतिकारों को लगता है कि भारत की जनता की याददाश्त बेहद कमजोर होती है। वह साल-छह महीने में जरूरी से जरूरी मुद्दे भी अतीत मानकर बिसार देती है। बहरहाल यह जरूर कहा जाएगा कि राहुल की अगुवाई में संगठन और सरकार दोनों में नए रंग-रोगन के जरिए कुछ ताजेपन का एहसास दिलाने की कोशिश की गई है।

Thursday, 20 June 2013

भोले शंकरे के मंदिर पर आंच नहीं आई बाकी सब ओर तबाही


 Published on 20 June, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा कि उत्तराखंड में ऐसी बाढ़ आई, कुदरत का कहर टूटा कि पूरे राज्य में तबाही ही तबाही नजर आ रही है। केदारनाथ धाम सिवा  मंदिर को छोड़कर सारा तबाह हो गया है। मेरी नजरों में अभी वह दिन याद है जब पिछले साल 19 अगस्त 2012 को मैं और मेरे कुछ साथी केदारनाथ गए थे। तीन दिन की यात्रा में दिल्ली से निकलते ही बारिश शुरू हो गई और लौटने तक नहीं थमी थी। वह गौरीपुंड का होटल जहां हमने रात बिताई थी, वह रामबाड़ा जहां हमने केदारनाथ जाते समय रुककर चाय-पकौड़े खाए थे, वह छोटा-सा लोहे का ब्रिज जिस पर खड़े होकर फोटो, वीडियो खींची, वह बाजार जिससे गुजरकर हम मंदिर में प्रवेश किए थे, वह होटल जहां हमने दर्शन करके खाना खाया अब सभी साफ हो गए। कितना भयानक मंजर होगा अनुमान भी लगाना मुश्किल है। हां, बचा तो सदियों पुराना मंदिर। मंदिर के नजदीक रामबाड़ा में ही रविवार रात बादल फटा था। केदारनाथ, रामबाड़ा और गौरीपुंड तबाह हो गए हैं। मौके की हेलीकाप्टर से ली गईं तस्वीरें रौंगटे खड़े कर देने वाली हैं। त्रासदी के प्रत्यक्षदर्शी केदारनाथ में तैनात रुद्रप्रयाग के पुलिस उपाधीक्षक आर. डिमरी ने बताया कि मंदिर परिसर मलबे और बोल्डर से पटा हुआ है। परिसर में जहां-तहां शव भी पड़े हुए हैं। मंदिर के गर्भगृह में पानी के साथ मलबा घुस गया है। लगातार बारिश और पानी के तेज बहाव से मंदिर के आसपास के ज्यादातर भवन जमींदोज हो गए हैं। सात किलोमीटर दूर गौरीपुंड-केदारनाथ पैदल मार्ग पर स्थित रामबाड़ा का वजूद ही खत्म हो गया है। 100-150 दुकानों वाला रामबाड़ा बाजार में हमेशा 500-600 लोग मौजूद रहते थे। पता नहीं कितने हताहत हुए हैं। मरने वालों की संख्या सैकड़ों में होगी। पूरे उत्तराखंड में लाख से ज्यादा लोग प्रभावित हुए हैं। करोड़ों रुपयों का नुकसान हुआ है। कितनों का तो पता ही नहीं चला कि वह कहां गए। टीवी पर मकान ताश के पत्तों की तरह गिरते, बहते देखकर बड़ा दुख हुआ। इसे बाबा का प्रताप ही कहेंगे, बाबा का चमत्कार ही कहेंगे कि सब कुछ तबाह होने के बावजूद ज्योतिर्लिंग और उसे आच्छादित किए सदियों पुराना गुम्बद सुरक्षित है। 3,597 मीटर उंचाई पर मौजूद प्राचीन मंदिर केदारनाथ में स्थापित शिवलिंग देश के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। पुराणों के अनुसार अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए यहां तपस्या की थी। इस दौरान उन्होंने 80 फुट उंचे भगवान केदारनाथ के मंदिर का निर्माण किया। जब मैं मंदिर में गया तो बनावट देखकर  लगा मानो हजारों साल पुराना है। इसके अन्दर पांडवों की मूर्तियां लगी हुई हैं। अन्दर लाइट कम है जिससे पता चलता है कि इसको हजारों साल पहले बनाया गया था। एक अद्भुत भाव आता है मंदिर में प्रवेश करके। इसका मैं वर्णन नहीं कर सकता यह केवल उसी समय महसूस कर सकते हैं। सही मायनों में यहां आकर लगता है कि आप देवभूमि में आ गए हैं। ऐसी मान्यता है कि सतयुग काल में राज करने वाले राजा केदार के नाम पर भव्य मंदिर का नाम पड़ा। यह भी कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य ने केदारनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। प्रतिकूल मौसम के कारण मंदिर के कपाट केवल अप्रैल से नवम्बर माह तक ही श्रद्धालुओं के दर्शन हेतु खोले जाते हैं। हर साल भारी संख्या में श्रद्धालु भगवान केदारनाथ के दर्शन करने के लिए देश विदेशों से आते हैं। केदारनाथ यात्रा भारत के चार प्रमुख धाम यात्राओं में से एक है। मंदाकिनी नदी के घाट पर बने इस मंदिर के भीतर घोर अंधकार रहता है। दीपक के सहारे ही भगवान शिव के दर्शन होते हैं। मंदिर में पांच पांडवों समेत द्रोपदी की भी मूर्ति है। छह फुट ऊंचे चौकार चबूतरे पर बने केदारनाथ मंदिर के बाहर प्रांगण में नन्दी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। इस हादसे को प्राकृतिक प्रकोप कहा जाए जो कलयुग में बढ़ते काले कारनामों का परिणाम है या हमारे प्रबंधों में कमी। मैं समझता हूं कि दोनों ही हैं। दो महीने पहले ही योजना आयोग ने उत्तराखंड सरकार को चेतावनी देते हुए कहा था कि बाढ़ के पानी की सुरक्षित निकासी पर विशेष ध्यान दिया जाए और मौजूदा सरकार की नीति में बदलाव किया जाए। उत्तराखंड में नदियों पर बनाए जाने वाले तटबंधों को लेकर सरकार को चेताया गया था कि इस तरह के निर्माण नदियों के प्राकृतिक प्रवाह में बाधा डालते हैं। इससे न सिर्प प्रवाह प्रभावित होता है बल्कि प्राकृतिक तौर पर बनने वाले डेल्टा बनना और बाढ़ के पानी की निकासी के रास्ते बन्द होते हैं। मई 2013 को भेजे गए पत्र में सुझाव दिया गया कि सरकार को ऐसी नीति बनानी चाहिए जिससे नदियों का ड्रेनेज सिस्टम तैयार करने में बाधा न आए। पेड़ों की बेतहाशा कटाई, अवैध खनन का धंधा यह सब पर्यावरण से छेड़छाड़ है। एक सच्चाई यह भी है कि देश में हर स्तर पर पर्यावरण की अनदेखी हो रही है। अगर इस अनदेखी का सिलसिला कायम रहा तो आपदा प्रबंधन के तंत्र को चाहे कितना मजबूत कर लिया जाए उस तरह के हालात से बचना मुश्किल होगा जिस तरह उत्तराखंड और हिमाचल में उत्पन्न हुए हैं। हर कोई इससे परिचित है कि देशभर में छोटी-बड़ी नदियों के प्रवाह को बाधित किया जा रहा है, लेकिन किसी भी स्तर पर ऐसी कोई पहल होती नहीं दिखती जिससे नदियों से हो रही छेड़छाड़ को रोका जा सके। साथ-साथ यह भी कहा जाएगा कि जो बारिश जून के महीने में हो रही है वह सामान्य बात नहीं है। जब से बारिश का रिकार्ड रखा जा रहा है तब से लेकर आज तक कभी भी ऐसा नहीं देखा गया कि मानसून 16 जून में ही देश के चप्पे-चप्पे पर अपनी पकड़ बना ले। अब से 52 साल पहले 1961 में 21 जून को ऐसी घटना दर्ज की गई थी, लेकिन उस साल भी मानसून की आवक के साथ कोई विध्वंसक गतिविधि नहीं जुड़ी थी। पूरे क्षेत्र का मौसम बढ़ रहा है। पूरब में बंगलादेश, म्यांमार, थाइलैंड में लगातार बारिश से भारी जान-माल का नुकसान हुआ है। पड़ोसी पाकिस्तान में 26 जुलाई से शुरू होकर करीब महीनाभर चली बाढ़ ने वहां के पहाड़ी और रेगिस्तान इलाकों में ऐसी तबाही मचाई जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की गई है। इस हादसे में प्रभावित परिवारों को हम कहना चाहेंगे कि आपके दुख में हम भी शामिल हैं। भगवान मरने वालों की आत्मा को शांति प्रदान करें, ओम नम शिवाय। हर-हर महादेव।