Thursday 13 June 2013

असल लड़ाई आडवाणी बनाम मोदी नहीं संघ बनाम आडवाणी है


 Published on 13 June, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
भाजपा के पितृ पुरुष लाल कृष्ण आडवाणी के पार्टी के सभी महत्वपूर्ण पदों से इस्तीफे को लेकर उपजे संकट का अंतत मंगलवार को आडवाणी द्वारा अपना इस्तीफा वापस लिए जाने के निर्णय के बाद पटाक्षेप हो गया। आडवाणी द्वारा इस्तीफा वापस लिए जाने की घोषणा करते हुए स्वयं पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा कि आज दोपहर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर संघ चालक मोहन भागवत ने आडवाणी के साथ फोन पर चर्चा की और भाजपा के संसदीय बोर्ड के निर्णय को मानते हुए राष्ट्रहित में पार्टी का मार्गदर्शन करते रहने का आग्रह किया। दरअसल यह लड़ाई या विवाद आडवाणी बनाम मोदी शुरू से था ही नहीं हमें लगता है यह विवाद-मतभेद आडवाणी बनाम संघ है। कुछ बातें लिखित में लाई जाने वाली बातें नहीं होतीं, लेकिन जो बातें लिखित में लाई गई हैं  उसके अपने अलग अर्थ हैं। आडवाणी ने अपने इस्तीफे में कई बातें लिखी हैं। उसमें सबसे अहम है उसके निशाने पर पार्टी नेतृत्व है। मेरे लिए कुछ समय से यह मुश्किल... पार्टी किस तरह अब काम कर रही है...। आडवाणी के पत्र की यह लाइनें पार्टी के काम करने के तरीके और आगे की दिशा पर सवाल लगाती हैं। आडवाणी कुछ महीनों के घटनाक्रम को देख-समझ रहे थे। अध्यक्ष राजनाथ सिंह के काम करने के तरीके को `डबल गेम' के रूप में देखा जा रहा है। कई तरह की चर्चाओं के बावजूद धर्मेन्द्र प्रधान को फिर से पार्टी पद देना। अपने लोगों को संघ के साथ मिलकर बनवाना। गुजरात में संगीन आरोपों से घिरे अमित शाह को महासचिव बनाकर और फिर यूपी का प्रभावी बनाना यह सब संघ की अनुमति के बाद ही राजनाथ सिंह ने किया है। चर्चा तो यहां तक है कि अमित शाह को यूपी का प्रभारी इसलिए बनाया गया है कि मोदी को यूपी में वाराणसी से चुनाव लड़ने का ऑफर दिया गया है। इस ऑफर से मोदी की उत्तर भारत में एंट्री है और वाराणसी में राजनीति करते रहे डॉ. मुरली मनोहर जोशी की सीट को भी आंच है। आडवाणी ने कभी भी नरेन्द्र मोदी का विरोध नहीं किया। आडवाणी संघ और राजनाथ सिंह से नाराज हैं। आडवाणी जब लगभग तैयार थे तो मोदी मामले पर संघ ने यह प्रचारित क्यों किया कि आडवाणी हों या नहीं हों, मोदी पर फैसला होगा। पार्टी के बड़े नेता के बारे में सम्मान और संयम की भाषा को छोड़कर जो कुछ गोवा और अन्य जगहों पर प्रचारित कराया गया, उसके बाद पार्टी में रहने का मतलब क्या बचता है? भाजपा भले ही अपने रूठे पितामह को मनाने में सफल हुई हो लेकिन लगता है कि संघ अब आडवाणी से मुक्ति चाहता है। संघ के सह सरकार्यवाह सुरेश सोनी के कहने पर ही भाजपा ने गोवा सम्मेलन में नरेन्द्र मोदी को लेकर फैसला किया, जबकि पार्टी का एक बड़ा तबका चाहता था कि यह घोषणा आडवाणी की मौजूदगी में हो। संघ ने साफ कह दिया है कि आडवाणी के इस कदम से भाजपा को नुकसान होना था वह तो हो ही गया। अब उसकी भरपायी नहीं हो सकती है। सूत्रों का कहना है कि संघ ने पिछले दिनों कह दिया था कि आडवाणी से  लेकर डॉ. जोशी समेत उन सभी बुजुर्ग नेताओं को चुनावी राजनीति से हट जाना चाहिए जिनकी उम्र 70 साल की पूरी हो चुकी है। इस पर आडवाणी ने संघ से कहा कि वे अभी स्वस्थ हैं और उनके राजनीति में रहने के लिए उम्र को बाधा नहीं बनाया जाना चाहिए। दरअसल संघ व आडवाणी के बीच सांप-सीढ़ी का खेल लम्बे समय से चल रहा है। नितिन गडकरी की दोबारा ताजपोशी को रुकवाने में आडवाणी की भूमिका को संघ भूला नहीं है। संघ किसी भी कीमत पर भाजपा को अपने हाथों में रखना चाहता है जबकि आडवाणी समेत पार्टी का एक बहुत बड़ा तबका भाजपा को संघ के चंगुल से निकालना चाहता है और राजनाथ सिंह संघ का खेल खेल रहे हैं। आडवाणी और संघ खेमे के बीच प्रमुख वार्ताकारों की भूमिका में शामिल पार्टी के एक वरिष्ठ नेता की मानें तो एक तरफ संघ ने जहां आडवाणी को इस बात के लिए राजी कर लिया कि वह चुनाव प्रचार समिति के इतर किसी और समिति के गठन की अपनी मांग को छोड़ देंगे, साथ ही गोवा में हुए फैसले का वह सम्मान करेंगे वहीं दूसरी तरफ संघ ने आडवाणी को आश्वासन दिया कि भविष्य में पार्टी द्वारा जब भी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार तय किया जाएगा। वह उस निर्णय में उनसे सलाह लिए बिना कतई आगे नहीं बढ़ेगी साथ ही संघ संचालक ने पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह को पार्टी के बुजुर्ग नेताओं की सलाह पर विशेष ध्यान देना होगा। राम लाल की भूमिका और सुरेश सोनी की कार्यप्रणाली पर समीक्षा करने का संघ ने आडवाणी को आश्वासन दिया है। इस पूरे प्रकरण से एक बात तो स्पष्ट हो गई है कि पार्टी के भीतर और बाहर जो लोग आडवाणी को  समाप्त मान चुके थे उनको एक बार फिर दिखा दिया गया कि अभी पार्टी में उनको दरकिनार करके  एकतरफा  निर्णय करना कतई आसान नहीं है।

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