Thursday 20 June 2013

भोले शंकरे के मंदिर पर आंच नहीं आई बाकी सब ओर तबाही


 Published on 20 June, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा कि उत्तराखंड में ऐसी बाढ़ आई, कुदरत का कहर टूटा कि पूरे राज्य में तबाही ही तबाही नजर आ रही है। केदारनाथ धाम सिवा  मंदिर को छोड़कर सारा तबाह हो गया है। मेरी नजरों में अभी वह दिन याद है जब पिछले साल 19 अगस्त 2012 को मैं और मेरे कुछ साथी केदारनाथ गए थे। तीन दिन की यात्रा में दिल्ली से निकलते ही बारिश शुरू हो गई और लौटने तक नहीं थमी थी। वह गौरीपुंड का होटल जहां हमने रात बिताई थी, वह रामबाड़ा जहां हमने केदारनाथ जाते समय रुककर चाय-पकौड़े खाए थे, वह छोटा-सा लोहे का ब्रिज जिस पर खड़े होकर फोटो, वीडियो खींची, वह बाजार जिससे गुजरकर हम मंदिर में प्रवेश किए थे, वह होटल जहां हमने दर्शन करके खाना खाया अब सभी साफ हो गए। कितना भयानक मंजर होगा अनुमान भी लगाना मुश्किल है। हां, बचा तो सदियों पुराना मंदिर। मंदिर के नजदीक रामबाड़ा में ही रविवार रात बादल फटा था। केदारनाथ, रामबाड़ा और गौरीपुंड तबाह हो गए हैं। मौके की हेलीकाप्टर से ली गईं तस्वीरें रौंगटे खड़े कर देने वाली हैं। त्रासदी के प्रत्यक्षदर्शी केदारनाथ में तैनात रुद्रप्रयाग के पुलिस उपाधीक्षक आर. डिमरी ने बताया कि मंदिर परिसर मलबे और बोल्डर से पटा हुआ है। परिसर में जहां-तहां शव भी पड़े हुए हैं। मंदिर के गर्भगृह में पानी के साथ मलबा घुस गया है। लगातार बारिश और पानी के तेज बहाव से मंदिर के आसपास के ज्यादातर भवन जमींदोज हो गए हैं। सात किलोमीटर दूर गौरीपुंड-केदारनाथ पैदल मार्ग पर स्थित रामबाड़ा का वजूद ही खत्म हो गया है। 100-150 दुकानों वाला रामबाड़ा बाजार में हमेशा 500-600 लोग मौजूद रहते थे। पता नहीं कितने हताहत हुए हैं। मरने वालों की संख्या सैकड़ों में होगी। पूरे उत्तराखंड में लाख से ज्यादा लोग प्रभावित हुए हैं। करोड़ों रुपयों का नुकसान हुआ है। कितनों का तो पता ही नहीं चला कि वह कहां गए। टीवी पर मकान ताश के पत्तों की तरह गिरते, बहते देखकर बड़ा दुख हुआ। इसे बाबा का प्रताप ही कहेंगे, बाबा का चमत्कार ही कहेंगे कि सब कुछ तबाह होने के बावजूद ज्योतिर्लिंग और उसे आच्छादित किए सदियों पुराना गुम्बद सुरक्षित है। 3,597 मीटर उंचाई पर मौजूद प्राचीन मंदिर केदारनाथ में स्थापित शिवलिंग देश के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। पुराणों के अनुसार अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए यहां तपस्या की थी। इस दौरान उन्होंने 80 फुट उंचे भगवान केदारनाथ के मंदिर का निर्माण किया। जब मैं मंदिर में गया तो बनावट देखकर  लगा मानो हजारों साल पुराना है। इसके अन्दर पांडवों की मूर्तियां लगी हुई हैं। अन्दर लाइट कम है जिससे पता चलता है कि इसको हजारों साल पहले बनाया गया था। एक अद्भुत भाव आता है मंदिर में प्रवेश करके। इसका मैं वर्णन नहीं कर सकता यह केवल उसी समय महसूस कर सकते हैं। सही मायनों में यहां आकर लगता है कि आप देवभूमि में आ गए हैं। ऐसी मान्यता है कि सतयुग काल में राज करने वाले राजा केदार के नाम पर भव्य मंदिर का नाम पड़ा। यह भी कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य ने केदारनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। प्रतिकूल मौसम के कारण मंदिर के कपाट केवल अप्रैल से नवम्बर माह तक ही श्रद्धालुओं के दर्शन हेतु खोले जाते हैं। हर साल भारी संख्या में श्रद्धालु भगवान केदारनाथ के दर्शन करने के लिए देश विदेशों से आते हैं। केदारनाथ यात्रा भारत के चार प्रमुख धाम यात्राओं में से एक है। मंदाकिनी नदी के घाट पर बने इस मंदिर के भीतर घोर अंधकार रहता है। दीपक के सहारे ही भगवान शिव के दर्शन होते हैं। मंदिर में पांच पांडवों समेत द्रोपदी की भी मूर्ति है। छह फुट ऊंचे चौकार चबूतरे पर बने केदारनाथ मंदिर के बाहर प्रांगण में नन्दी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। इस हादसे को प्राकृतिक प्रकोप कहा जाए जो कलयुग में बढ़ते काले कारनामों का परिणाम है या हमारे प्रबंधों में कमी। मैं समझता हूं कि दोनों ही हैं। दो महीने पहले ही योजना आयोग ने उत्तराखंड सरकार को चेतावनी देते हुए कहा था कि बाढ़ के पानी की सुरक्षित निकासी पर विशेष ध्यान दिया जाए और मौजूदा सरकार की नीति में बदलाव किया जाए। उत्तराखंड में नदियों पर बनाए जाने वाले तटबंधों को लेकर सरकार को चेताया गया था कि इस तरह के निर्माण नदियों के प्राकृतिक प्रवाह में बाधा डालते हैं। इससे न सिर्प प्रवाह प्रभावित होता है बल्कि प्राकृतिक तौर पर बनने वाले डेल्टा बनना और बाढ़ के पानी की निकासी के रास्ते बन्द होते हैं। मई 2013 को भेजे गए पत्र में सुझाव दिया गया कि सरकार को ऐसी नीति बनानी चाहिए जिससे नदियों का ड्रेनेज सिस्टम तैयार करने में बाधा न आए। पेड़ों की बेतहाशा कटाई, अवैध खनन का धंधा यह सब पर्यावरण से छेड़छाड़ है। एक सच्चाई यह भी है कि देश में हर स्तर पर पर्यावरण की अनदेखी हो रही है। अगर इस अनदेखी का सिलसिला कायम रहा तो आपदा प्रबंधन के तंत्र को चाहे कितना मजबूत कर लिया जाए उस तरह के हालात से बचना मुश्किल होगा जिस तरह उत्तराखंड और हिमाचल में उत्पन्न हुए हैं। हर कोई इससे परिचित है कि देशभर में छोटी-बड़ी नदियों के प्रवाह को बाधित किया जा रहा है, लेकिन किसी भी स्तर पर ऐसी कोई पहल होती नहीं दिखती जिससे नदियों से हो रही छेड़छाड़ को रोका जा सके। साथ-साथ यह भी कहा जाएगा कि जो बारिश जून के महीने में हो रही है वह सामान्य बात नहीं है। जब से बारिश का रिकार्ड रखा जा रहा है तब से लेकर आज तक कभी भी ऐसा नहीं देखा गया कि मानसून 16 जून में ही देश के चप्पे-चप्पे पर अपनी पकड़ बना ले। अब से 52 साल पहले 1961 में 21 जून को ऐसी घटना दर्ज की गई थी, लेकिन उस साल भी मानसून की आवक के साथ कोई विध्वंसक गतिविधि नहीं जुड़ी थी। पूरे क्षेत्र का मौसम बढ़ रहा है। पूरब में बंगलादेश, म्यांमार, थाइलैंड में लगातार बारिश से भारी जान-माल का नुकसान हुआ है। पड़ोसी पाकिस्तान में 26 जुलाई से शुरू होकर करीब महीनाभर चली बाढ़ ने वहां के पहाड़ी और रेगिस्तान इलाकों में ऐसी तबाही मचाई जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की गई है। इस हादसे में प्रभावित परिवारों को हम कहना चाहेंगे कि आपके दुख में हम भी शामिल हैं। भगवान मरने वालों की आत्मा को शांति प्रदान करें, ओम नम शिवाय। हर-हर महादेव।

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