Published on 22 June,
2013
अनिल नरेन्द्र
आखिर जिन्न बोतल से बाहर आ ही गया। 10 साल में भारत
की अर्थव्यवस्था अपने निचले स्तर पर आ गई है।
रुपए का यह हाल है कि एक डॉलर के बराबर 60 रुपए का रेट पहुंच गया है। वित्त वर्ष
2012-13 में देश का सकल घरेलू उत्पाद घटकर पांच फीसदी दर्ज किया गया है। यह पांच साल
में सबसे नीचे स्तर पर है। पखवाड़े पर पहले ही मुख्य आर्थिक सलाहकार रघुराज राजन ने
आश्वस्त करने की कोशिश की थी कि रुपए को लेकर घबराने की जरूरत नहीं है। वित्त मंत्री
पी. चिदम्बरम ने भी अर्थव्यवस्था की सेहत को लेकर भरोसा जताया और संकेत दिए हैं कि
सरकार जल्द ही आर्थिक सुधारों को गति देगी। मगर डॉलर के मुकाबले जिस तरह से रुपया धड़ाम
से गिरा है उससे समझा जा सकता है कि आर्थिक मोर्चा कितना खराब है। महज तीन महीने में
ही रुपया अपने रिकार्ड न्यूनतम स्तर पर आ गया है। मुद्रा के कमजोर होने का सीधा संबंध
अर्थव्यवस्था से होता है और उससे भी कहीं अधिक भारत की जनता पर। गिरते रुपए का असर
सीधा कच्चे तेल के आयात पर पड़ता है जिस वजह से पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में
वृद्धि पर पड़ता है। पेट्रोलियम उत्पादों की वजह से कीमतें बढ़ जाती हैं और पहले से
ही महंगाई के बोझ से भर रही जनता और दब जाती है। ऐसा पिछले 10 साल में पहली बार हुआ
है कि अर्थव्यवस्था के तीनों घटक भीषण मंदी के शिकार सिद्ध हुए हैं। ये घटक हैं ः मैन्यूफैक्चरिंग
यानी विनिर्माण, कृषि और सेवा क्षेत्र। विनिर्माण क्षेत्र का मतलब हमारी अर्थव्यवस्था
में मोटे तौर पर औद्योगिक उत्पादन से लगाया जाता है और पिछले माली साल यानी 2012-13
में साल 2011-12 के मुकाबले इस क्षेत्र में रो-पीट कर बमुश्किल एक फीसदी वृद्धि हुई
है। यही हाल कृषि क्षेत्र का है। उसमें भी वृद्धि की दर माली साल 2012-13 में बामुश्किल दो फीसदी रही है। इसके मुकाबले साल
2011-12 में कृषि क्षेत्र में खासा सुर्खरू था यानी इसकी वृद्धि दर साढ़े तीन फीसद
से मामूली अधिक थी। जाहिर है कि अर्थव्यवस्था में आम आदमी को रोजगार मुहैया कराने वाले
इन दोनों क्षेत्रों की पतली हालत ने सेवा क्षेत्र को भी हांफने के लिए मजबूर कर दिया
और उसकी वृद्धि दर भी साल 2012-13 के दौरान फिसर कर रह गई। अब सवाल यह है कि ऐसा आखिर
क्यों हुआ? अर्थव्यवस्था की दुर्गति के सरकारी कारण तो तेल के बढ़ते दाम और देश में
जरूरी जिन्सों के उत्पादन की मांग के अनुरूप नहीं बढ़ पाना तथा वैश्विक आर्थिक मंदी
के गिनाए जा रहे हैं। लेकिन क्या हमारा निजाम
इसके कुप्रबंध के दोष से बच सकता है? शायद नहीं। पिछले दशक भर में कुलाचें भरती अर्थव्यवस्था
से मदहोश होकर राजग और संप्रग सरकारों ने देश के कराधान ढांचे से जो खिलवाड़ किया है,
वैसी मिसाल कहीं और नहीं दिखती। इससे पैदा हुए कोढ़ में खाज दरअसल फिजूलखर्ची और भ्रष्टाचार
ने कर दी है। देश के प्रमुख राजनीतिक दल आम आदमी को स्थिर रोजगार देने की बजाय लैपटॉप,
टीवी, मंगल सूत्र और वजीफे देकर वोट बटोरने में लगे हैं। इन्हीं सब कारणों से देश का
वित्तीय प्रबंध गोते खा रहा है। रुपया बार-बार डूब-उतरा रहा है, शेयर बाजार पर सटोरियों
का कब्जा है, बैंकों पर भारी वित्तीय दबाव है, पैसा न होते हुए भी लोक लुभावने वाली सरकारी नीतियों पर जबरन अमल पर मजबूर किया
जा रहा है, महंगाई निरंकुश है, कर्ज की ब्याज दर आसमान छू रही है और औद्योगिक विस्तार
ठप है। देखना अब यह है कि चुनाव के इस मौसम में केंद्र और राज्य सरकारें देश की अर्थव्यवस्था
के बिखरे लवाजमे को बटोर कर उसे फिर से पटरी पर लाने के लिए वाकई कोई ठोस उपाय कर पाएंगी
अथवा वोटों के चक्कर में भारत रूपी रोम को जलने को छोड़कर हमारे नेता रूपी नीरो इसी
तरह चैन से बांसुरी बजाते रहेंगे।
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