Tuesday 25 June 2013

अफगानिस्तान छोड़ने पर अमेरिकी बेताबी


 Published on 25 June, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने घोषणा कर रखी है कि 2014 में अमेरिका अफगानिस्तान से अपनी फौजें हटा लेगा। जैसे-जैसे यह तिथि करीब आ रही है अमेरिका बेचैन हो रहा है। अब वह इस हद तक जाने को तैयार है कि अपने कट्टर दुश्मन जिसके खिलाफ वह वर्षों से लड़ रहा है से भी बातचीत करने को तैयार है। 9/11 के आतंकी हमले के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान में तालिबान को समाप्त करने का संकल्प लिया था। तालिबान तो खत्म न हो सका, हां उसका सरगना ओसामा बिन लादेन जरूर मारा गया। 2011 की गर्मियों में नाटो सेनाओं की वापसी शुरू हुई और 10,000 अमेरिकी सैनिक वापस वतन लौट चुके हैं। 2013 में औपचारिक रूप से नाटो सेनाओं ने अफगानिस्तान की सुरक्षा स्थानीय सैनिकों को सौंपी। अमेरिका चाहता है कि तालिबान अलकायदा से अपने रिश्ते तोड़ ले। लेकिन तालिबान की जिद्द है कि पहले विदेशी सेनाएं अफगानिस्तान को खाली करें। वह अमेरिकी कैद में पड़े अपने कमांडरों की रिहाई भी चाहता है। इसी को लेकर वार्ता होगी। अफगानिस्तान में शांति और स्थायित्व के लिए अमेरिका अपने धुर विरोधी तालिबान से बातचीत करने को एक बार फिर राजी हो गया है। राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अमेरिका की तालिबान के साथ नियोजित वार्ता को अफगानिस्तान में युद्ध करने की दिशा में उठाया गया पहला महत्वपूर्ण कदम बताया लेकिन साथ ही आगे के मुश्किल सफर को लेकर आगाह भी किया है। अमेरिकी अधिकारियों की कतर में खोले तालिबान के नए कार्यालय में उसके प्रतिनिधियों से मिलने की योजना है। तालिबान ने कतर की राजधानी दोहा में गत दिनों औपचारिक रूप से अपना कार्यालय खोला है। अमेरिकी अधिकारी इस कार्यालय के जरिए तालिबान कमांडरों से सम्पर्प करेंगे। इस पहल में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई की भी स्वीकृति है। अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी भारत-अमेरिकी रणनीतिक वार्ता के चौथे दौर के लिए नई दिल्ली आए हुए हैं। कैरी को अफगानिस्तान संबंधी भारत की चिन्ताओं के बारे में हमें दो टूक बताना चाहिए। चिन्ताजनक तो यह है कि तालिबान ने किसी बुनियादी शर्त पर अपना रुख नहीं बदला। इसके बावजूद अमेरिका उससे सीधी बातचीत के लिए तैयार है। तालिबान ने सिर्प यह रियायत की कि वह करजई सरकार के प्रतिनिधि के सामने वार्ता की मेज पर बैठने को तैयार हो गया, जिसे पहले वह पश्चिमी देशों की कठपुतली बताता था। इसके बावजूद अपने बयान में उसने अफगानिस्तान को `इस्लामी अमीरात'  कहकर सम्बोधित किया। धर्मनिरपेक्ष मौजूदा संविधान की रक्षा के प्रति उसने कोई वचनबद्धता नहीं जताई और न ही अल्पसंख्यकों व महिलाओं के हितों की सुरक्षा का कोई वादा किया। दरअसल वह अमेरिकी मंशा के मुताबिक अलकायदा से अलग होने की सार्वजनिक घोषणा करने पर भी राजी नहीं हुआ है। बस इतना कहा है कि वह दूसरे देशों के लिए खतरा पैदा करने के लिए अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल नहीं होने देगा। इसके बावजूद अमेरिका बातचीत के लिए तैयार हो गया तो उसकी वजह यही मानी जा सकती है कि वह किसी भी कीमत पर अगले साल के मध्य तक अफगानिस्तान से पीछा छुड़ाने को बेताब है। भारत का अफगानिस्तान की अंदरूनी स्थिति पर बहुत कुछ दांव पर लगा है। अमेरिकी विदेश मंत्री के सामने भारत को अपनी आशंकाओं को खुलकर प्रकट करना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि मंजीत सिंह ने कहा कि अफगानिस्तान में पिछले दो महीनों में हुए कई आतंकी हमले यह दर्शाते हैं कि इस देश में सुरक्षा की स्थिति कमजोर हुई है। सिंह ने कहा कि तालिबान में अलकायदा और लश्कर-ए-तैयबा तथा अन्य आतंकी एवं कट्टरपंथी समूहों के गुटों को अलग-थलग करने और समाप्त करने की जरूरत है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सदस्यों से कहा कि यह जरूरी है कि अफगानिस्तान में हो रहे परिवर्तन उसके नेतृत्व में और उसी की ओर से किया जाए। यह परिवर्तन बहुआयामी होना चाहिए, इसे अफगानिस्तान के सभी लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए एवं मानवाधिकारों को प्रोत्साहित करना चाहिए, इसे अफगान सरकार और उसकी संस्थाओं को मजबूत बनाना चाहिए। उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान में स्थिरता और आर्थिक विकास उसके पड़ोसी देशों पर काफी निर्भर करता है। अमेरिका भले ही अब तालिबान के कट्टरपंथी शासन की वापसी की आशंका से चिंतित न हो, अफगानिस्तान की जिन शक्तियों और आसपास के देशों के हितों पर इससे चोट पहुंचेगी, वह चुप नहीं रह सकते। इन देशों में भारत भी है जिसने पिछले एक दशक में वहां की आंतरिक सुरक्षा और बुनियादी ढांचे के विकास में भारी निवेश किया। फिर तालिबान के जरिए अफगानिस्तान-पाकिस्तान का सामरिक गढ़ बन जाए, यह कतई भारत के हितों में नहीं है। इसलिए यह उचित होगा कि इन मुद्दों पर जॉन कैरी से बेलाग बात की जाए।

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