Wednesday 12 June 2013

नरेन्द्र मोदी ने पहना कांटों का ताज ः अन्दर-बाहर दोनों जगह चुनौतियां


 Published on 12 June, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 

 आखिरकार वही हुआ जिसकी उम्मीद की जा रही थी। बीजेपी में नरेन्द्र मोदी का तूफान किसी के रोके नहीं रुका और गोवा में चुनाव प्रचार की कमान गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को सौंप दी गई। भाजपा पर नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जरिए हावी होकर खुद को पार्टी के भावी नेता के रूप में पेश करवाया उस पर विवाद होना स्वाभाविक ही था। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि आज की तारीख में भारतीय जनता पार्टी में अगर कोई करिश्माई चेहरा है तो वह नरेन्द्र मोदी हैं। 2014 के चुनाव में अगर भाजपा को 200 से ज्यादा लोकसभा सीटें लानी हैं तो मोदी को आगे करना पड़ेगा पर इसके साथ-साथ यह भी जरूरी है कि मोदी सबको साथ लेकर चलें। इस साल के अंत तक कई महत्वपूर्ण राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, दिल्ली जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में विधानसभा चुनाव होंगे। इन चुनावों का सीधा असर 2014 के लोकसभा चुनावों पर पड़ेगा। इन राज्यों में वहां की सरकार, मुख्यमंत्री की छवि, सरकार की कारगुजारी यह महत्वपूर्ण बिन्दु होंगे जिन पर मतदाता वोट देगा। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में श्री शिवराज चौहान व डॉ. रमन सिंह के काम पर वोट मिलेगा। वहां मोदी के चेहरे का शायद ही कोई लाभ मिले। इस दृष्टि से विभिन्न भाजपा शासित राज्यों में वहां के मुख्यमंत्रियों की भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण बन जाती है जितनी राष्ट्रीय स्तर पर नरेन्द्र मोदी की है। इन्हें नजरअंदाज करना भारी पड़ सकता है। हर चुनाव से पहले ऐसी समिति गठित होती है और उसकी कमान किसी कद्दावर नेता को सौंपी जाती रही है पर पहली बार चुनाव अभियान के नेतृत्व का मसला घोर संशय और विवाद के माहौल में तय हुआ। यह भी शायद पहली बार हुआ कि लाल कृष्ण आडवाणी कार्यकारिणी की बैठक में शामिल नहीं हुए। यह किसी से छिपा नहीं कि मोदी को अभी से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश करने की पार्टी के भीतर चल रही कोशिशों से आडवाणी खेमा खफा है। हालांकि जिस चालाकी से राजनाथ सिंह ने संघ के इशारों पर मोदी को चुनाव  प्रमुख बनाकर यह दर्शाने की कोशिश की कि इस पद की दौड़ में मोदी की टक्कर का कोई और नेता नहीं उसका विरोध अब सामने आ रहा है। भारतीय जनता पार्टी एक लोकतांत्रिक पार्टी है, प्राइवेट लिमिटेड नहीं, जहां कुछ  लोग अपनी मर्जी सभी पर जबरन थोप सकें। इस हिसाब से तो कांग्रेस और भाजपा दोनों ही एक समान हो जाएंगी जहां एक तरफ सोनिया गांधी हर बात का अंतिम फैसला करेगी और यहां नरेन्द्र मोदी करेंगे। वर्षों से कड़ी मेहनत-मशक्कत करने वाले नेताओं को यूं नजरअंदाज करना भाजपा के हित में नहीं है। सबको साथ लेकर चलना चाहिए और यह अंदाज दुर्भाग्य से नरेन्द्र मोदी में नहीं है। वह आमतौर पर हिटलरी स्टाइल से काम करते हैं। कुछ मामलों में हालांकि ऐसे ही स्टाइल की जरूरत है पर कुछ में सबको साथ लेकर चलने की। नरेन्द्र मोदी और उनके समर्थक प्री-पोल एलायंस से चिंतित नहीं हैं, चुनाव में कौन साथ आता है या नहीं, इसकी उन्हें कतई चिन्ता नहीं  लगती, वह इसकी जगह पोस्ट-पोल एलायंस में ज्यादा विश्वास करते हैं। उनका नजरिया साफ है, पहले भाजपा अपने दम-खम पर इतनी सीटें तो लाए कि एनडीए वजूद में आ सके। अभी से नीतीश कुमार एंड कम्पनी की चिन्ता करने लगे तो 2014 का लोकसभा चुनाव कैसे लड़ेंगे? अगर पार्टी अच्छी संख्या में सांसद लाती है तो विभिन्न दल अपने आप उसके पास सरकार बनाने के लिए आएंगे। राजनाथ सिंह और संघ को लगता है कि मोदी की हाल में जो छवि और लोकप्रियता बनी है उसका पार्टी को लाभ मिल सकता है। उन्हें यकीन है कि मध्य वर्ग के साथ-साथ युवा पीढ़ी भी मोदी को ही पसंद करती है। राहुल गांधी की माडर्न इमेज के मुकाबले मोदी ही खड़े हो सकते हैं, आडवाणी नहीं। बहरहाल, यह वैचारिक टकराव किसी एक व्यक्ति को आगे बढ़ाने से खत्म नहीं होने वाला। दोनों पक्षों की दलीलें अपनी जगह दमदार हैं।  लेकिन भाजपा का दुर्भाग्य यह है कि अपने वैचारिक संकटों के कारण वह हमेशा ही एक दुविधाग्रस्त पार्टी के रूप में नजर आती है। इसका कार्यकर्ताओं और जनता में गलत संदेश जाता है। यही कारण है कि इतनी अनुकूल परिस्थितियों के चलते भी भाजपा इसका लाभ नहीं उठा पा रही है, कांग्रेस का स्वाभाविक विकल्प नहीं बन पा रही। जनता की नब्ज जांचने-परखने वाले नरेन्द्र मोदी को भाजपा की तरफ से न केवल जिम्मेदारी ही नहीं बल्कि कांटों का ताज मिला है। वह भाजपा की अंदरूनी राजनीति के साथ-साथ दूसरे दलों के नेताओं के सीधे निशाने पर आ गए हैं। गोवा के समुद्रतट पर बने मेरियट होटल में चले दो दिन के मंथन से एक नए मोदी का जन्म हुआ है। उन्हें भाजपा कार्यकर्ताओं व संघ की अपेक्षा के अनुकूल जिम्मेदारी मिली है, लेकिन इस जिम्मेदारी को सम्भालने में उन्हें बड़ी चुनौतियों का भी सामना करना पड़ेगा। उन्हें अपनी पार्टी में उन नेताओं से चुनौती मिलेगी जो वर्षों से प्रधानमंत्री पद की लाइन में खड़े हैं, वे हथियार डालने वाले नहीं हैं। मोदी ने गुजरात परिवहन निगम की कैंटीन से काम की शुरुआत की थी। आरएसएस से जुड़े होने के कारण वह काम छोड़कर संघ के पूर्णकालिक प्रचारक बने। पार्टी ने उन्हें हिमाचल का प्रभारी बनाया और फिर गुजरात भेजा और वह पार्टी के महासचिव बने। केशूभाई पटेल को हटाने के बाद उन्हें 2002 में गुजरात का मुख्यमंत्री बनाया गया। तभी गुजरात के दंगे हो गए। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें हटाने की तैयारी कर ली थी लेकिन लाल कृष्ण आडवाणी ने उन्हें बचा लिया और मोदी मजबूत होते चले गए। हरेन  पाठक का टिकट कटवाने से लेकर अमित शाह को यूपी की कमान सौंपवाने तक नरेन्द्र मोदी ने यह साबित कर दिया है कि वे अपने मन की ही करते हैं। वे राजनीति में ऐसे महमूद गजनबी हैं जो अपने ही दल के नेताओं का भविष्य कुचलने से कतराते नहीं। उनकी इस हिटलरी शैली से खुद संघ और विहिप भी ज्यादा खुश नहीं है पर उनकी मुसीबत यह है कि इन संगठनों को उसमें अपना-अपना लक्ष्य हासिल करने की उम्मीद नजर आती है। मोदी को आगे लाना बीजेपी के लिए एक सही कदम है या गलत, यह तो समय ही बताएगा। मुकम्मल तौर पर यह दिख रहा है कि अब तक नरेन्द्र मोदी को लेकर पुंठा और आशा के विरोधी अंतर्द्वंद्वों में पार्टी झूल रही थी उससे वह बाहर निकलने में सफल हुई है।


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