Published on 21 June,
2013
अनिल नरेन्द्र
कांग्रेस ने संगठन और सरकार में
बदलाव करके यह संकेत देने का प्रयास किया है कि वह अब आगामी विधानसभा चुनावों और
2014 में लोकसभा चुनाव के लिए तत्पर है और पार्टी व सरकार दोनों सेमीफाइनल और फाइनल
के लिए तैयार है। चूंकि आम चुनाव में एक साल से भी कम समय रह गया है इसलिए स्वाभाविक
ही है कांग्रेस और सरकार में हुए फेरबदल को चुनावी तैयारी से जोड़ें। इन दोनों फेरबदल
और पांच महीने पहले राहुल को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाना और संगठन में उनकी पसंदीदा
टीम बनाकर पार्टी ने साफ कर दिया है कि 2014 का लोकसभा चुनाव राहुल गांधी के नेतृत्व
में ही लड़ा जाएगा। दोनों की टाइमिंग में एक संदेश है। यह कि ऐसे समय जब प्रमुख विपक्षी
दल भाजपा वाले राजग का कुनबा बिखर रहा है, वह कलह व अस्थिरता का मोर्चा बन गया है,
कांग्रेस की अगुवाई वाला यूपीए स्थिर व विवादरहित है। एकजुटता के साथ गतिशील है। कांग्रेस
ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए के प्रति जनता आश्वस्त
हो सकती है। ताजा सांगठनिक फेरबदल में राहुल गांधी की छाप साफ दिखाई देती है। हालांकि
यह कोई आमूलचूल बदलाव नहीं है पर शायद पहली बार पार्टी में एक व्यक्ति एक पद की नीति
अपनाई गई है। दूसरे, संगठन से लेकर कांग्रेस कार्यसमिति तक पार्टी का चेहरा पहले की
अपेक्षा युवा दिखता है पर ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, जतिन प्रसाद, जितेन्द्र
सिंह जैसे युवा नेताओं को पार्टी संगठन के कामकाज से नहीं जोड़ा गया है। ऐसा लगता है
कि अनुभवी और युवा राजनीतिकों का तालमेल बिठाने की कोशिश की गई है। यह चुनाव की चिन्ता
का असर होगा कि लम्बे समय बाद पार्टी में बारह महासचिव बनाए गए हैं। सचिवों की यह शिकायत
दूर करने का प्रयास किया गया है कि उन्हें पद तो दे दिया गया है पर अधिकतर को राज्य
का जिम्मा नहीं सौंपा गया। एक व्यक्ति एक पद के साथ संगठन और मंत्री पद को अलग कर दिया
गया है ताकि चुनाव विभाजित सोच से न लड़ा जाए। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी
आजाद को आंध्र प्रदेश के प्रभार से मुक्त करने के पीछे भी यही सोच है। वह आंध्र के
मसले के लिए समय निकाल ही नहीं पा रहे थे, जहां तेलंगाना और जगनमोहन रेड्डी कांग्रेस
के लिए बड़ी चुनौतियां बनी खड़ी हैं। यहां कि जिम्मेदारी दिग्विजय सिंह को देकर पार्टी
नेतृत्व ने एक तीर से दो शिकार करने का प्रयास
किया है पहला कि उन्हें उत्तर प्रदेश से हटा दिया गया है, जहां वह फेल हो गए हैं और
दूसरा कि अब आप इन दोनों चुनौतियों पर विशेष ध्यान दें। उत्तर प्रदेश में राहुल के
करीबी व गुजरात के मधुसूदन मिस्त्राr को प्रभार देना भाजपा की ओर से उत्तर प्रदेश का
प्रभारी अमित शाह का जवाब है। अजय माकन की तेज-तर्रार छवि ही मीडिया से प्रभारी होने
की अकेली वजह नहीं है। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को निर्विवाद नेता रहने
देने के लिए ही माकन को यह गरिमा दी गई। जनार्दन द्विवेदी से मीडिया सेल को लेकर भी
उनमें हाई कमान का भरोसा कायम रहा है। अम्बिका सोनी भी कांग्रेस अध्यक्ष की नजदीक हैं
और रहेंगी। मंत्रिमंडल विस्तार में उन राज्यों को ज्यादा तरजीह दी गई है, जहां विधानसभा
चुनाव होने हैं। शीशराम ओला और गिरिजा व्यास राजस्थान से हैं। मल्लिकार्जुन खड़गे को
कर्नाटक में मुख्यमंत्री पद की दावेदारी न पेश करने के पुरस्कार स्वरूप रेल मंत्रालय
दिया गया है। तीन नए मंत्रियों में ईएम नचिप्पन को वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय दिया
गया है, वह तमिलनाडु से हैं। पिछले दो सालों में घोटालों दर घोटालों की चर्चा से दोनों
सरकार व पार्टी लहूलुहान होती रही है। पिछले दो सालों में ऐसा कोई सत्र नहीं गया, जिसमें
भारी हंगामा न हुआ हो। 2जी स्पेक्ट्रम, राष्ट्रमंडल खेल, आदर्श सोसाइटी घोटाला, हेलीकाप्टर
घोटाला, कोयला घोटाला व रेलवे रिश्वत जैसे मामलों में कांग्रेस की फजीहत होती आई है।
इसी माहौल में बाबा रामदेव, अन्ना हजारे सरीखे के गैर-राजनीतिक संगठनों ने भी भ्रष्टाचार
के खिलाफ बड़ी मुहिम चलाई है। अरविन्द केजरीवाल तो अब राजनीति में उतर चुके हैं। अब
देखना यह है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस को कितना झटका लगा है? हालांकि कांग्रेसी
रणनीतिकारों को लगता है कि भारत की जनता की याददाश्त बेहद कमजोर होती है। वह साल-छह
महीने में जरूरी से जरूरी मुद्दे भी अतीत मानकर बिसार देती है। बहरहाल यह जरूर कहा
जाएगा कि राहुल की अगुवाई में संगठन और सरकार दोनों में नए रंग-रोगन के जरिए कुछ ताजेपन
का एहसास दिलाने की कोशिश की गई है।
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