Published on 11 June,
2013
अनिल नरेन्द्र
उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार वोट बैंक की राजनीति
के चलते बार-बार न्यायपालिका से टकरा रही है। ताजा केस है यूपी के विभिन्न जिलों में
संदिग्ध आतंकियों के खिलाफ दर्ज केस वापस लेने का। इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ
पीठ ने प्रदेश में हुए सीरियल बम धमाके के कथित आतंकियों को राज्य सरकार द्वारा बरी
किए जाने एवं मुकदमों को वापस लेने की प्रक्रिया पर अंतरिम रोक लगा दी है। पीठ ने मामले
की सुनवाई के लिए वृहद पीठ को संदर्भित कर दिया है। लखनऊ पीठ ने याचिका को विचार के
लिए स्वीकार कर लिया है। जस्टिस राजीव शर्मा और महेन्द्र दयाल की खंडपीठ ने यह आदेश
रंजना अग्निहोत्री सहित छह वकीलों की ओर से दायर याचिका पर एडवोकेट हरिशंकर जैन को
सुनने के बाद दिया है। सरकार ने पीठ के आदेश पर संक्षिप्त हलफनामा पेश किया जिसमें
आतंकी मामलों से जुड़े आठ मुकदमों का हवाला दिया गया। सरकार की ओर से दलील दी गई कि
याचिका जनहित याचिका के रूप में विचारणीय नहीं है, इसे खारिज किया जाना चाहिए। साथ
ही कहा कि इसमें पूर्व इलाहाबाद और लखनऊ में दो मामलों में पीठ ऐसी याचिकाएं खारिज
कर चुकी है। जवाब में याचिकाकर्ता के वकील हरिशंकर जैन ने कहा कि पूर्व में दायर याचिकाओं
के मामलों में न तो केंद्र सरकार से सहमति लेने का मुद्दा उठा और न ही पीठ ने इस पर
विचार ही किया। ऐसी स्थिति में याचिका विचार योग्य है। याचिकाकर्ता की दलील थी कि आतंकवाद
से जुड़े इन मुकदमों को प्रदेश सरकार केंद्र की सहमति के बिना वापस नहीं ले सकती। यह
भी कहा गया कि सरकार धार्मिक आधार पर भी ऐसा कोई फैसला नहीं ले सकती। पूरी दलील सुनने
के बाद हाई कोर्ट ने मुकदमें वापस लेने की प्रक्रिया रोकने के आदेश दिए। साथ ही कहा
कि यह मामला बेहद महत्वपूर्ण है, लिहाजा बड़ी पीठ में सुनवाई सौंपे जाने की संस्तुति
इलाहाबाद हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस से की गई है। याचिका में यह भी तर्प दिया गया कि
सीरियल ब्लास्ट मामलों में एटीएस ने काफी कोशिश कर अनेक आतंकियों को गिरफ्तार किया
है। कहा गया कि राज्य सरकार का यह काम गलत है और इससे देश की अखंडता व शांति में बाधा
उत्पन्न होगी। यह भी कहा गया कि फैजाबाद, बनारस व लखनऊ की अदालतों में तथा देश के अनेक
शहरों जैसे मुंबई, अहमदाबाद, हैदराबाद एवं अनेक धार्मिक स्थलों पर विस्फोट करने के
गुनाह में गिरफ्तार किए गए कथित आतंकियों को बरी किया जाना कानून की मंशा के खिलाफ
है। जहां हम उत्तर प्रदेश सरकार के स्टैंड से सहमत नहीं वहीं यह भी कहना चाहेंगे कि
अदालतों को ऐसे मामलों में जल्द फैसले लेने चाहिए। अगर कोई निर्दोष पुलिस द्वारा जबरन
फंसाया गया है तो उसे न्याय जरूर मिलना चाहिए और वह भी जल्द से जल्द। सालों-साल ऐसे
संवेदनशील मामले लटके रहते हैं, तारीख पर तारीख पड़ती रहती है और अंत में वह निर्दोष
पाए जाते हैं। यह नहीं होना चाहिए। अदालतों को ऐसे केसों में छोटी-छोटी तारीखें देकर
मामले को निपटा देना चाहिए। अदालत इतना तो कर ही सकती है कि वह शुरुआती दौर में यह
देखने का प्रयास करे कि प्रथमदृष्टय अमुक व्यक्ति आतंकी गतिविधि में शामिल लगता है
या फिर जबरन पुलिस ने उसे लपेटा है?
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