Thursday 6 June 2013

सीआईसी का ऐतिहासिक फैसला, पार्टियों की आरटीआई में जवाबदेही


 Published on 6 June, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
केंद्रीय सूचना आयोग ने राजनीति में पारदर्शिता लाने की राह प्रशस्त करते हुए ऐतिहासिक फैसला दिया है। सीआईसी ने कहा है कि राजनीतिक दल आरटीआई एक्ट के दायरे में आते हैं। सीआईसी ने सोमवार को अपने 54 पन्नों के फैसले में कहा कि राजनीतिक दल सरकार से आर्थिक सहायता लेते हैं। साथ ही दफ्तरों के लिए जमीन और धारा 13(ए) के तहत आयकर छूट लेते हैं। यह अप्रत्यक्ष सरकारी फंडिंग है। इसलिए उन्हें आरटीआई के दायरे में रखा जाना चाहिए। आयोग के अध्यक्ष मुख्य सूचना आयुक्त सत्येन्द्र मिश्रा की फुल बैंच ने कांग्रेस, भाजपा, भाकपा, माकपा, एनसीपी और बसपा को आरटीआई के तहत मांगी गई सूचनाओं का जवाब देने का निर्देश देते हुए कहा कि सभी सार्वजनिक प्राधिकरण आरटीआई एक्ट के दायरे में हैं। आयोग ने कहा कि संविधान की 10वीं अनुसूची के तहत वे संवैधानिक दर्जा भी रखते हैं। उन्हें किसी भी चुने हुए प्रतिनिधि सांसद या विधायक को दलबदल करने पर दल से बाहर करने की शक्ति भी प्राप्त है। चुनावों के दौरान उन्हें सरकार से फ्री बैलट पेपर, प्रचार के लिए टीवी और रेडियो पर समय मिलता है। वहीं पंजीकृत होने पर चुनाव आयोग उन्हें धारा 29 के तहत चुनाव चिन्ह आवंटित करता है। चुनाव के दौरान वह उनसे खर्चे का हिसाब भी मांगता है। धारा 29 के तहत पार्टियों को 20 हजार रुपए से ज्यादा के दान का ब्यौरा आयोग को देना होता है। पीठ ने एनसीपी का यह तर्प खारिज कर दिया कि पार्टियों को आरटीआई के अन्दर लाने से चुनाव के समय विरोधी दल अनावश्यक अर्जियां दायर कर परेशान करेंगे और उनका काम करना मुश्किल कर देंगे। पीठ ने कहा कि किसी भी कानून की वैधता को उसके दुरुपयोग की आशंका के आधार पर गलत नहीं ठहराया जा सकता। लोगों को यह जानने का अधिकार है कि चुनाव के दौरान किए खर्चे का स्रोत क्या है? राजनीतिक पार्टियों को सूचना अधिकार कानून के तहत घेरना लोकतंत्र के लिए अच्छी खबर मानी जानी चाहिए। अब पार्टियों को जनता के सामने हिसाब रखना होगा कि उन्हें कहां से कितना पैसा मिला और इसका इस्तेमाल कैसे हुआ। इस क्रांतिकारी फैसले के लिए जहां हम सूचना आयोग को बधाई देना चाहते हैं वहीं यह भी बताना चाहते हैं कि हमारे राजनेताओं को शायद ही यह फैसला स्वीकार्य हो। सूचना आयोग इस मसले पर एक साल से सुनवाई कर रहा था और एक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़कर बाकी तमाम पार्टियां इसका विरोध कर रही थीं। लोकतांत्रिक सत्ता व व्यवस्था की बुनियाद चुनाव प्रक्रिया पर टिकी होती है और यही राजनीतिक पार्टियों का अस्तित्व बनता है। पार्टियों को संगठन चलाने और चुनावी खर्च के लिए पैसे जुटाने का अधिकार संविधान देता है। दफ्तरों के लिए महंगी जमीन और कौड़ियों के भाव भवन दिए जाते हैंöइनकी घोषित आमदनी को आयकर से छूट मिलती है। तब अपनी आमदनी और खर्च का स्रोत बताने या ब्यौरा देने में इतनी आनाकानी क्यों? हमारे राजनीतिक दलों का बेशक खुद का स्वरूप गैर-सरकारी होता है पर जब वह चुनाव लड़ते हैं तो यही स्वरूप सरकार में बदल जाता है और जब वह सरकार का रूप धारण कर लेती हैं तो देशहित में कानून बनाने का अधिकार भी उन्हें भारत का संविधान  देता है और सरकार में पारदर्शिता लाने के उद्देश्य से ही आरटीआई बना। अब यही पार्टियां विरोध कर रही हैं। कांग्रेस के मीडिया प्रभारी व महासचिव जनार्दन द्विवेदी कह रहे हैं कि हम इससे पूरी तरह असहमत हैं। हमें यह स्वीकार्य नहीं। उन्होंने कहा कि कहीं ऐसा न हो कि इस तरह के अति क्रांतिकारिता के चक्कर में हम कहीं बड़ा नुकसान न कर लें। कांग्रेस की राय से माकपा और भाजपा के सहयोगी दल जद (यू) भी सहमत नजर आए। सवाल यह है कि आखिर ऐसा क्या है जिसे छिपाने में इन दलों को देशहित व लोकतंत्र के हित में लगता है? राजनीतिक पार्टियों की आमदनी आज सैकड़ों करोड़ों में है बावजूद इसका ब्यौरा देने की जिम्मेदारी से भागना अगर `दाल में काला' जैसी शंका जगाता है तो आश्चर्य कैसा। पार्टियों में वैसे ही लोकतंत्र का अभाव है और व्यक्ति या परिवार विशेष के इर्द-गिर्द पार्टी की कमान से सिमटने के पीछे इस अकूत आमदनी के गैर जिम्मेदाराना इस्तेमाल की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। हमारा तो मानना है कि सूचना आयोग का यह कदम अगर विभिन्न राजनीतिक दल मान लें तो उनकी न केवल छवि ही सुधरेगी बल्कि वे अधिक जिम्मेदार और प्रोफेशनल बनेंगे।

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