Saturday 29 June 2013

औपचारिक और निराशाजनक रही जॉन कैरी की यात्रा


 Published on 29 June, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन कैरी बतौर सीनेटर कई बार भारत आए हैं पर अमेरिका के विदेश मंत्री के रूप में वह भारत पहली बार आए और वह भी महत्वपूर्ण रणनीतिक वार्ता के मकसद से। दोतरफा एवं अंतर्राष्ट्रीय महत्व के अनेक मुद्दों पर भारत और अमेरिका सहमत नहीं हैं, दोनों देशों के बीच चौथे दौर की रणनीतिक वार्ता का यही निष्कर्ष निकलता है। शायद कोई सकारात्मक नतीजा निकलने की उम्मीद भी कम थी। क्योंकि कुछ दिनों से दोनों देशों के बीच कई मुद्दों पर खटास दिखाई दे रही थी। देशों के रिश्तों या उनकी आपसी बातचीत को काफी महत्व देना हो तो उसे रणनीतिक कहने का पिछले कुछ वर्षों से चलन हो गया है। लेकिन अगर वार्ता के एजेंडे पर बुनियादी मतभेद पहले से ही दिख रहे हों तो उस पर होने वाली वार्ता को स्वाभाविक रूप पर रणनीतिक नहीं कहा जा सकता। जॉन कैरी की भारत यात्रा से पहले ही भारत को रास न आने वाली बातें शुरू हो गई थीं। वैसे तो भारत-अमेरिका के बीच कई महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जिन पर विचार-विमर्श करना जरूरी है पर एक महत्वपूर्ण मुद्दा इस समय अमेरिका की अफगानिस्तान नीति है। इस मुद्दे पर जॉन कैरी के दिल्ली में दिए बयानों से जाहिर हुआ कि अफगानिस्तान से हटने का मकसद पूरा करने के लिए तालिबान से बातचीत करने को तैयार हुआ अमेरिका फिलहाल ऐसा कुछ नहीं करना या कहना चाहता जो पाकिस्तान को अच्छा न लगे। सम्भवत इसलिए कि तालिबान की डोर कुछ हद तक पाकिस्तान के हाथ में है। नतीजतन 26/11 के आतंकी हमले में मारे गए लोगों को याद करने की तब से बनी रवायत कैरी भूल गए। उलटे यह सलाह दे डाली कि भारत और पाकिस्तान एक-दूसरे के साथ अपने रिश्तों में निवेश करें, तभी दुनिया उनमें निवेश करेगी। नसीहत तो ठीक है पर इस बयान से इस सवाल का जवाब नहीं मिलता कि अगर पाकिस्तान अपनी जमीन से आतंकवादियों को गतिविधियां चलाने की इजाजत देता रहेगा, आतंकवाद के जरिए अपने रणनीतिक मकसदों को पाने का इरादा नहीं छोड़ेगा और अफगानिस्तान को अपनी सामरिक नीति की अग्रिम चौकी बनाने की कोशिश में जुटा रहेगा तो भारत उस पर भरोसा करके निवेश कैसे कर सकता है? वार्ता के बाद जारी साझा बयान में ईरान, सीरिया और अमेरिका द्वारा बड़ी मात्रा में भारत की जासूसी करने जैसे मुद्दे पर जिक्र तक न होना इस बात का संकेत है कि भारत और अमेरिका के मतभेद अब भी कायम हैं। राष्ट्रपति बराक ओबामा के पहले कार्यकाल में भारत-अमेरिकी रिश्तों में गर्मजोशी दिख रही थी पर यह आम धारणा रही है कि उनकी दूसरी पारी में इसमें ठहराव आया है। हो सकता है, एक कारण यह भी है कि दोनों देशों की अर्थव्यवस्था सुस्ती के दौर से गुजर रही है। विदेश व्यापार और बाहरी निवेश ठंडा हुआ पड़ा है। अमेरिका में संरक्षणवादी कदम उठाने का दबाव बढ़ा है। परमाणु करार को आगे बढ़ाने के लिए अमेरिका चाहता है कि भारत अपने एटमी उत्तरदायित्व कानून और नरम करे। काफी विवाद के बाद इस कानून को संसद की मंजूरी दिला पाने में सफल हुई यूपीए सरकार के लिए इसमें और संशोधन करा पाना आसान नहीं होगा। दूसरी ओर भारत चाहता है कि उसे परमाणु अप्रसार एजेंसी में जगह दिलाने में अमेरिका सहयोग करे। लिहाजा इस कही गई रणनीतिक वार्ता के नाम पर संबंध और मजबूत करने की औपचारिक घोषणाएं ही हो सकीं और यह वार्ता महज रस्मी बनकर रह गई। भारतीय आईटी कर्मियों के लिए अमेरिका वीजा में रुकावटों और आउटसोर्सिंग के खिलाफ ओबामा प्रशासन की नीति आदि मुद्दों ने दोनों देशों के व्यापारिक संबंधों को पेचीदा बना रखा है। इनके दूर होने का कोई भरोसा कैरी ने नहीं दिया। अमेरिकी उपराष्ट्रपति जोबाइडेन अगले महीने भारत आएंगे तो सितम्बर में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अमेरिका यात्रा अब लगभग पक्की हो गई है। अब देखने की बात यह होगी कि दोनों देशों के बीच विवादास्पद मुद्दे सुलटते हैं या नहीं। जॉन कैरी की इस यात्रा से तो कुछ हासिल नहीं हुआ और यह निराशाजनक रही।

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