Published on 11 June,
2013
अनिल नरेन्द्र
देश की आंतरिक सुरक्षा पर विचार के लिए बुलाई गई मुख्यमंत्रियों
की बैठक का राजनीतिक घमासान में बदलना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण और अफसोसजनक है। इस बात
की जरूरत तो सभी मानते हैं कि आतंकवाद से कारगर ढंग से निपटने के लिए राष्ट्रीय स्तर
पर एक तंत्र गठित किया जाए। इसलिए कि आतंकवाद ऐसा संगठित अपराध है जिसके तार पूरे देश
में फैले हैं और सीमापार भी। मगर इस दिशा में एनसीटीसी यानी राष्ट्रीय आतंकवाद निरोधक
केंद्र के तौर पर केंद्रीय गृह मंत्रालय की पहल का फिलहाल कोई सार्थक नतीजा शायद ही
निकले। आंतरिक सुरक्षा के मसले पर गत बुधवार को केंद्र की ओर से बुलाई गई मुख्यमंत्रियों
की बैठक में एक बार फिर जिस तरह से राज्यों के एतराज सामने आए उससे लगता है कि एनसीटीसी
का गठन फिलहाल तो अधर में लटक गया है और शायद 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले गठन सम्भव
न हो। इस बैठक में न तो आतंकवाद निरोधक केंद्र अर्थात एनसीटीसी पर कोई सहमति बनी और
न ही इस पर नक्सलवाद से कैसे लड़ा जाए इस पर हो? चूंकि एनसीटीसी के कुछ प्रावधानों
पर कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने भी एतराज जताया इसलिए केंद्र सरकार केवल गैर-कांग्रेस
शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों पर ही यह दोष नहीं मढ़ सकती कि वे आंतरिक सुरक्षा
के सवाल पर राजनीति कर रहे हैं। एनसीटीसी पर राज्यों की आपत्तियों को कतई निराधार नहीं
कहा जा सकता। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बैठक में बिना लाग-लपेट के सरकार
और कांग्रेस को बेनकाब किया। उन्होंने जहां इशरत जहां मामले में मुठभेड़ में खुद को
फंसाने का आरोप लगाया वहीं प्रधानमंत्री को भी चुनौती दी कि यदि आपको हमसे लड़ना है
तो राजनीतिक रूप से लड़िए। इसमें एजेंसियों का इस्तेमाल गलत है। मोदी ने मुख्यमंत्रियों
की भरी सभा में यह कहकर सबको सन्न कर दिया। अपने भाषण में मोदी ने इस आयोजन की प्रासंगिकता
को ही सिरे से खारिज कर दिया। नक्सलवाद व आतंकवाद पर सरकारी नीतियों को आड़े हाथों
लेते हुए सीधे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार समिति में माओवादियों
के होने का बयान देकर सत्ता तंत्र पर सीधा हमला बोल दिया। मोदी ने कहा कि पिछले 10
साल में ऐसी कई बैठकें हुईं, लेकिन मुख्यमंत्रियों के सुझावों पर केंद्र सरकार ने क्या
कार्रवाई की, इस बारे में देश के सामने श्वेत पत्र पेश किया जाना चाहिए। पिछले दिनों
हुई नक्सली हिंसा की घटना के परिप्रेक्ष्य
में उन्होंने संप्रग सरकार को ही इस हालात के लिए जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कटाक्ष
किया कि जो लोग नक्सलियों के साथ जुड़े हैं, उन्हें कभी योजना आयोग, तो कभी राष्ट्रीय
सलाहकार परिषद (एनएसी) में भर्ती किया जाता है। नरेन्द्र मोदी के इस आरोप को भी हल्के
से नहीं लिया जा सकता है कि देश की दो प्रमुख जांच एजेंसियों आईबी और सीबीआई को एक
दूसरे के मुकाबले खड़ा कर दिया गया है। मोदी के इस आरोप के पीछे कुख्यात इशरत मुठभेड़
कांड है जिसमें चन्द कथित आतंकियों को पुलिस ने मार गिराया था। इस मुठभेड़ की जांच
सीबीआई कर रही है जबकि जांच के दायरे में आईबी
के एक पूर्व अधिकारी भी आ गए हैं, जिन पर गलत सूचना देने का संदेह व्यक्त किया जा रहा
है। पी. चिदम्बरम इस आरोप को सीबीआई के कामकाज में दखल बताकर मोदी की आलोचना कर रहे
हैं। दूसरी ओर जब मोदी ने आतंक के खिलाफ प्रभावी कानून की मांग की तो चिदम्बरम पोटा
और टाडा जैसे कुख्यात आतंक विरोधी कानूनों का हवाला देकर बीजेपी को अल्पसंख्यक विरोधी
बताते हुए जमकर राजनीति हुई थी और बाद में इन्हें निरस्त कर दिया गया। अब बताइए कि
इस बैठक में नक्सली, माओवादी आतंक जैसी ज्वलंत समस्या का उपाय ढूंढा जा रहा था या आगामी
लोकसभा चुनावों में वोट बटोरने की राजनीति चल रही थी। शुक्र रहा कि अंत में नक्सल प्रभावित
राज्यों को यह सुध आई कि वे किस कारण एकत्र हुए हैं। तय हुआ कि नक्सलियों की कमर तोड़ने
के लिए उनके अर्थतंत्र पर वार किया जाए और इसके लिए जंगलों में तेंदुपत्ते के व्यापार
को निजी ठेकेदारों के हाथ से निकालकर सरकारी हाथों में लिया जाए। बेशक बीड़ी बनाने
में इस्तेमाल होने वाले तेंदुपत्तों के कारोबार में लिप्त व्यापारियों से नक्सली भारी
उगाही करते हैं। लेकिन सरकारी हाथों में आने के बाद इस पर नियंत्रण की क्या गारंटी
है? क्या सरकारी कर्मचारी नक्सलियों के गढ़ में घुसने का साहस दिखा पाएंगे?
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