Saturday, 31 December 2011

ईरान पर हमला करने के लिए अमेरिका तैयार है

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 31st December 2011
अनिल नरेन्द्र
ईरान और अमेरिका के संबंध दरअसल तब से ज्यादा खराब हुए हैं जब से ईरान ने अमेरिकी ड्रोन विमान गिराकर उसका खुला प्रदर्शन किया। ईरानी टीवी ने दिखाया कि किस तरह ईरानी सैनिक अधिकारी आरक्यू-170 सेंटिनेल ड्रोन का निरीक्षण कर रहे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ईरानी राष्ट्रपति से अपील भी की कि वह ड्रोन को लौटा दें पर ईरान इसके लिए तैयार नहीं था। इसके बाद आया यूरोपीय संघ के ईरान पर प्रतिबंध का मामला। यूरोपीय संघ ने ईरान के विवादास्पद परमाणु कार्यक्रम की वजह से 180 ईरानी अधिकारियों और कम्पनियों पर ताजा प्रतिबंध लगाने का फैसला किया। यूरोपीय संघ के विदेश मंत्रियों की हाल में ब्रुसेल्स में हुई बैठक में ईरान के ऊर्जा क्षेत्र को लक्ष्य बनाकर कुछ अन्य कदमों पर भी सहमति हुई। ये प्रतिबंध संयुक्त राष्ट्र की उस रिपोर्ट के बाद लगाए जा रहे हैं जिसमें ईरान के परमाणु कार्यक्रम को परमाणु हथियारों के विकास से जोड़ा गया था। ब्रिटेन ने पहले ही ऐलान कर दिया था कि वह लंदन से ईरान के साथ सभी कूटनीतिज्ञों को निष्कासित कर रहा है। ईरान ने जवाबी कार्रवाई करते हुए कहा कि अगर उसके परमाणु कार्यक्रम पर अंकुश लगाने के इरादे से उसके तेल निर्यात पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने रोक लगाई तो वह स्टेट ऑफ हार्मुज बन्द कर देगा। ईरान की तरफ से यह चेतावनी देश के उपराष्ट्रपति रजा रहीमी ने दी। रहीमी ने कहा कि अगर पश्चिमी देशों ने ईरान के तेल निर्यात पर प्रतिबंध लगाया तो फिर खाड़ी देशों का एक भी बूंद तेल स्टेट ऑफ हार्मुज से नहीं गुजरेगा। ईरान दुनिया का चौथा सबसे बड़ा तेल निर्यातक है। तेल की बिक्री से ईरानी सरकार को पैसा, राजनीतिक ताकत मिलती है और साथ ही परमाणु कार्यक्रम को जारी रखने के लिए जरूरी मदद भी मिलती है। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को भी ईरान की इस रणनीति के बारे में जानकारी है। इसी के चलते यूरोपीय संघ के विदेश मंत्रियों ने ईरान के तेल निर्यात पर प्रतिबंध लगाने की सम्भावना जाहिर की है। हालांकि स्टेट ऑफ हार्मुज को बंद करना ईरान के लिए आसान नहीं होगा। खाड़ी में ईरान के अलावा और भी देशों की नौसेनाएं तैनात हैं। ईरान की धमकी पर अमेरिका ने कड़ी जवाबी प्रतिक्रिया दी है। अमेरिकी रक्षा मंत्रालय पेंटागन के प्रवक्ता जॉर्ज लिटिल का कहना है, `स्टेट ऑफ हार्मुज न सिर्प इस इलाके की सुरक्षा और स्थायित्व के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि ये ईरानी समेत खाड़ी देशों की अर्थव्यवस्था की जीवन रेखा है।' अमेरिका के लिए यह रास्ता बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी रास्ते से वह तेल ले जाता है। अमेरिकी नौसेना ने कहा कि वह इसको बर्दाश्त नहीं करेगा। स्टेट ऑफ हार्मुज खाड़ी और तेल उत्पादक देशोंöबहरीन, कुवैत, कतर, सऊदी अरब, यूएई को हिन्द महासागर से जोड़ता है। ईरान की धमकी पर प्रतिक्रिया देते हुए अमेरिकी नौसेना के पांचवें बेड़े की प्रवक्ता ने कहा, `हम लोग गलत नीयत से उठाए गए किसी भी कदम से निपटने के लिए हमेशा तैयार हैं।' तेल के आवागमन को जारी रखने के लिए अमेरिका खाड़ी में अपना एक नौसैनिक बेड़ा रखता है। इससे पहले अमेरिकी विदेश मंत्रालय के उपप्रवक्ता मार्प टोनर ने कहा था कि ईरानी धमकी का मुख्य उद्देश्य उनके परमाणु कार्यक्रम के असल मुद्दे से ध्यान हटाना है।
ईरान और अमेरिका के संबंध दरअसल तब से ज्यादा खराब हुए हैं जब से ईरान ने अमेरिकी ड्रोन विमान गिराकर उसका खुला प्रदर्शन किया। ईरानी टीवी ने दिखाया कि किस तरह ईरानी सैनिक अधिकारी आरक्यू-170 सेंटिनेल ड्रोन का निरीक्षण कर रहे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ईरानी राष्ट्रपति से अपील भी की कि वह ड्रोन को लौटा दें पर ईरान इसके लिए तैयार नहीं था। इसके बाद आया यूरोपीय संघ के ईरान पर प्रतिबंध का मामला। यूरोपीय संघ ने ईरान के विवादास्पद परमाणु कार्यक्रम की वजह से 180 ईरानी अधिकारियों और कम्पनियों पर ताजा प्रतिबंध लगाने का फैसला किया। यूरोपीय संघ के विदेश मंत्रियों की हाल में ब्रुसेल्स में हुई बैठक में ईरान के ऊर्जा क्षेत्र को लक्ष्य बनाकर कुछ अन्य कदमों पर भी सहमति हुई। ये प्रतिबंध संयुक्त राष्ट्र की उस रिपोर्ट के बाद लगाए जा रहे हैं जिसमें ईरान के परमाणु कार्यक्रम को परमाणु हथियारों के विकास से जोड़ा गया था। ब्रिटेन ने पहले ही ऐलान कर दिया था कि वह लंदन से ईरान के साथ सभी कूटनीतिज्ञों को निष्कासित कर रहा है। ईरान ने जवाबी कार्रवाई करते हुए कहा कि अगर उसके परमाणु कार्यक्रम पर अंकुश लगाने के इरादे से उसके तेल निर्यात पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने रोक लगाई तो वह स्टेट ऑफ हार्मुज बन्द कर देगा। ईरान की तरफ से यह चेतावनी देश के उपराष्ट्रपति रजा रहीमी ने दी। रहीमी ने कहा कि अगर पश्चिमी देशों ने ईरान के तेल निर्यात पर प्रतिबंध लगाया तो फिर खाड़ी देशों का एक भी बूंद तेल स्टेट ऑफ हार्मुज से नहीं गुजरेगा। ईरान दुनिया का चौथा सबसे बड़ा तेल निर्यातक है। तेल की बिक्री से ईरानी सरकार को पैसा, राजनीतिक ताकत मिलती है और साथ ही परमाणु कार्यक्रम को जारी रखने के लिए जरूरी मदद भी मिलती है। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को भी ईरान की इस रणनीति के बारे में जानकारी है। इसी के चलते यूरोपीय संघ के विदेश मंत्रियों ने ईरान के तेल निर्यात पर प्रतिबंध लगाने की सम्भावना जाहिर की है। हालांकि स्टेट ऑफ हार्मुज को बंद करना ईरान के लिए आसान नहीं होगा। खाड़ी में ईरान के अलावा और भी देशों की नौसेनाएं तैनात हैं। ईरान की धमकी पर अमेरिका ने कड़ी जवाबी प्रतिक्रिया दी है। अमेरिकी रक्षा मंत्रालय पेंटागन के प्रवक्ता जॉर्ज लिटिल का कहना है, `स्टेट ऑफ हार्मुज न सिर्प इस इलाके की सुरक्षा और स्थायित्व के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि ये ईरानी समेत खाड़ी देशों की अर्थव्यवस्था की जीवन रेखा है।' अमेरिका के लिए यह रास्ता बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी रास्ते से वह तेल ले जाता है। अमेरिकी नौसेना ने कहा कि वह इसको बर्दाश्त नहीं करेगा। स्टेट ऑफ हार्मुज खाड़ी और तेल उत्पादक देशोंöबहरीन, कुवैत, कतर, सऊदी अरब, यूएई को हिन्द महासागर से जोड़ता है। ईरान की धमकी पर प्रतिक्रिया देते हुए अमेरिकी नौसेना के पांचवें बेड़े की प्रवक्ता ने कहा, `हम लोग गलत नीयत से उठाए गए किसी भी कदम से निपटने के लिए हमेशा तैयार हैं।' तेल के आवागमन को जारी रखने के लिए अमेरिका खाड़ी में अपना एक नौसैनिक बेड़ा रखता है। इससे पहले अमेरिकी विदेश मंत्रालय के उपप्रवक्ता मार्प टोनर ने कहा था कि ईरानी धमकी का मुख्य उद्देश्य उनके परमाणु कार्यक्रम के असल मुद्दे से ध्यान हटाना है।

कई मायनों में ऐतिहासिक रहा वर्ष 2011

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 31st December 2011
अनिल नरेन्द्र
वर्ष 2011 कई मायनों में एक ऐतिहासिक साल रहा। 2011 में जो कुछ हुआ वह स्वतंत्र भारत के इतिहास में शायद ही पहले हुआ हो। अगर इस साल को घोटालों के पर्दाफाश का साल कहा जाए तो गलत नहीं होगा। एक तरफ घोटाले तो दूसरी तरफ बढ़ते भ्रष्टाचार के खिलाफ जन आंदोलन। भ्रष्टाचार के खिलाफ मजबूत लोकपाल की मांग को लेकर किए गए समाजसेवी अन्ना हजारे के गैर-राजनीतिक आंदोलन ने निश्चित रूप से देश की राजनीति को इस साल सबसे ज्यादा प्रभावित किया। सरकार ही नहीं, दूसरे दल भी अन्ना को मिले व्यापक जन समर्थन के आगे बौने नजर आए। अन्ना के दबाव का ही नतीजा था कि सरकार संसद में लोकपाल का विधेयक पेश करने पर मजबूर हुई। साल की बड़ी घटनाओं में स्वामी रामदेव के कालेधन के खिलाफ चलाए जा रहे आंदोलन बेशक अभी तक रंग नहीं ला सका पर उसने एक माहौल बनाने में तो मदद की। 4 जून की वह याद भी वर्षों तक याद रहेगी जब पुलिस ने रामलीला मैदान में शांतिप्रिय धरना दे रहे रामदेव समर्थकों को इतनी बेरहमी से पीटा कि एक भक्त राज बाला तो मार से चल बसी। पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की जीत इस साल की एक बहुत महत्वपूर्ण घटना थी। ममता बनर्जी ने सूबे का 34 वर्षों का इतिहास बदल कर रख दिया और कामरेडों को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया। तमिलनाडु में जयललिता ने करुणानिधि एण्ड कम्पनी का बोरिया-बिस्तर समेट दिया। करुणानिधि के लिए तो वर्ष 2011 न भूलने वाला साल रहा। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में पहले उनकी पार्टी के ए. राजा तिहाड़ जेल पहुंचे, रही-सही कसर पुत्री कनिमोझी के तिहाड़ पहुंचने से पूरी हो गई। कॉमनवेल्थ गेम्स के सफल आयोजन का श्रेय सरकार को नहीं मिला क्योंकि सांसद व आयोजन समिति के प्रमुख सुरेश कलमाड़ी को भ्रष्टाचार के मामले में जेल जाना पड़ा। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में तो कई नामी-गिरामी नेता, अफसर गण तिहाड़ पहुंचे। तिहाड़ वीवीआईपी जेल इस साल बन गई। जनता पार्टी के नेता डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने 2जी स्पेक्ट्रम मामले में गृहमंत्री पी. चिदम्बरम की भूमिका को अदालत में चुनौती दे रखी है। चिदम्बरम जिन्होंने मजबूती से अपना काम शुरू किया था, साल समाप्त होते-होते एक बहुत कमजोर और लाचार, मुंह लटकाए हुए गृहमंत्री साबित हुए। अभी तो अदालत में चल रही कार्रवाई का परिणाम सामने आना है। कैश फॉर वोट कांड में राज्यसभा सांसद अमर सिंह, भाजपा के पूर्व सांसद महावीर भगोरा और फग्गन सिंह कुलस्ते को तिहाड़ जाना पड़ा। भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने कालेधन और भ्रष्टाचार को लेकर देशव्यापी यात्रा की। राजस्थान में भंवरी देवी मामला सारा साल सुर्खियों में रहा। इंटरनेट और सोशल मीडिया की शक्ति का पहली बार इस साल अहसास हुआ जब मध्य-पूर्व के कई देशों में जनक्रांति का आगाज हुआ और कई देशों में सत्ता परिवर्तन हुआ। निश्चित रूप से साल 2011 सोशल मीडिया के लिए मील का पत्थर रहा। फेसबुक के लिए तो बेहद खास। सोशल मीडिया के रूप में आम आदमी के हाथों में आई इस तोप का धमाका 2011 में सुनाई दे चुका है और आने वाले वर्षों में यह और ताकतवर होगा। कुल मिलाकर कई मायनों में यह साल महत्वपूर्ण रहा। मैं अपनी और अपने तमाम साथियों की ओर से आपको नव वर्ष की शुभकामनाएं देता हूं और उपर वाले से प्रार्थना करता हूं कि वर्ष 2012 सबके लिए मंगलमय रहे।
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Friday, 30 December 2011

लोकपाल बिल का यह हश्र होगा, सभी को मालूम था

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 30th December 2011
अनिल नरेन्द्र
हकीकत तो यह है कि लोकपाल बिल को लेकर न तो मनमोहन सरकार गम्भीर थी और न ही विपक्ष। हमें तो लगता यह है कि सरकार और कांग्रेस पार्टी लोकपाल बिल को सिर्प लोकसभा और राज्यसभा में पेश करना चाहती थी। पारित हो जाता तो भी ठीक था, न होता तो भी ठीक था। जोर-जबरदस्ती से लोकसभा में पारित तो करवा लिया पर उसे संवैधानिक दर्जा दिलवाने में फेल हो गई। उधर विपक्ष का कभी भी इरादा इसे पास कराने व संवैधानिक दर्जा देने का नहीं था। इसलिए उसने बहस में हिस्सा तो लिया पर वोट करने के समय बटन नहीं दबाया। भारतीय जनता पार्टी और मार्क्सवादी पार्टी को लोकपाल के वर्तमान स्वरूप पर ऐतराज था और उसने लोकपाल के मूल रूप में कुछ संशोधन चाहे। पर सरकार इन संशोधनों को मानी नहीं इसलिए विपक्ष ने बिल के समर्थन में वोट नहीं दिया। कांग्रेस अब यह कह रही है कि हमने तो लोकपाल बिल पारित करवा दिया है पर भाजपा ने बटन न दबाकर अपने आपको एक्सपोज कर दिया है। भाजपा का कहना है कि ऐसे अपभावी लोकपाल बिल का समर्थन करके हमने अपनी नाक नहीं कटानी थी। हम ऐसे खोखले लोकपाल बिल का समर्थन कैसे कर सकते हैं? कांग्रेस का मकसद पभावी लोकपाल लाने का कभी था ही नहीं वह तो बस संसद में इसे पेश करना चाहती थी ताकि आगामी पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में इसकी पार्टी को लाभ मिल सके ताकि वह जनता के बीच यह कह सके कि देखो हम तो ले आए पर भाजपा ने बटन नहीं दबाया और अपने आपको एक्सपोज कर दिया है। लोकसभा में जिस तरह सरकार की इस बिल को संवैधानिक दर्जा देने की कोशिश में किरकिरी हुई उससे भी ज्यादा किरकिरी राज्सभा में होगी। राज्यसभा में तो विपक्ष का बोलबाला है। कांग्रेस और उनके सारे सहयोगी दलों की संख्या 99 होती है। नामित 8 और निर्दलीय 6 को भी अगर सरकार अपने पक्ष में जोड़ ले तब भी हार का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि विपक्ष की कुल संख्या 131 सांसदों की है और इनमें ऐसे दल हैं जो किसी भी हालत में सरकार का साथ नहीं दे सकते। इसलिए राज्यसभा में भी सरकार इस बिल को संवैधानिक दर्जा नहीं दिलवा सकती। इस पूरे पकरण को कैसे आंका जाए? एक दृष्टि से सिवाय दो-तीन बिन्दुओं के बाकी में तो सफलता मिली ही है, जो काम पिछले 40 सालों में नहीं हो सका वह पहली बार यहां तक पहुंचा है। इसके साथ यह भी ठीक है कि जिस मकसद से अन्ना हजारे ने अपना आंदोलन किया वह मकसद पूरा नहीं हुआ। लोकसभा में आंकड़ों की अग्निपरीक्षा के बाद सरकारी लोकपाल की तस्वीर भी बदल चुकी है। संशोधनों के साथ राज्यसभा की मुहर का इंतजार कर रहा लोकपाल अब न तो संवैधानिक संस्था होगा और न ही इसके जरिए लोकायुक्त की स्थापना राज्यों के लिए बाध्यता होगी। लोकपाल में सांसदों के खिलाफ शिकायत पर कार्रवाई को लेकर लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा सभापति की रिपोर्ट का पावधान तीखे विरोध के बाद सरकार ने ही वापस ले लिया। बदले हुए पावधानों के मुताबिक पधानमंत्री के विरुद्ध किसी शिकायत की जांच शुरू करने के लिए नौ सदस्यों वाले लोकपाल में अब दो-तिहाई सदस्यों की सहमति जरूरी है। पहले इसके लिए तीन-चौथाई सदस्यों की मंजूरी निर्धारित की गई थी। लोकपाल विधेयक में टकराव का सबसे बड़ा बिंदु रहा लोकायुक्त स्थापना के राज्यों के अधिकार का अतिकमण। सूबों में लोकायुक्त स्थापना की बाध्यता खत्म कर इसे वैकल्पिक बनाने की बात भी सरकार को माननी पड़ी। लोकपाल के दायरे में सशस्त्र सेनाओं को भी बाहर कर दिया गया है। गोया चालीस वर्षों से देश के साथ आंख मिचौली खेल रहा यह ब्रह्मास्त्र अब भी फायरिंग मूड में नहीं दिख रहा है। वह तो भला हो अन्ना हजारे और उनके अनशन आंदोलन का कि भ्रष्टाचार पर पहली बार आम आदमी की त्योरियां चढ़ीं और लोकपाल कानून जन-जन का संवाद बन पाया। अब सरकार लोकपाल बिल राज्यसभा में लाने के बजाए उसे पारित कराने के लिए संसद का संयुक्त सत्र आयोजित कर सकती है। यह रास्ता भी आसान नहीं होगा। क्योंकि एक तो संवैधानिक तौर तरीकों का सवाल सतह पर है और दूसरे सरकार के सहयोगी दलों की नाराजगी खत्म होने का नाम नहीं ले रही। यह विचित्र है कि खुद सत्ता में साझीदार राजनीतिक दल लोकपाल के मौजूदा पावधानों से सहमत नहीं। तृणमूल कांग्रेस को अब भी लग रहा है कि यह विधेयक राज्यों के अधिकारों का अतिकमण करने वाला है। लोकपाल को संवैधानिक दर्जा न हासिल हो पाने के लिए विरोधी दलों पर उबल रहे सत्तापक्ष को पहले इस सवाल का जवाब देना चाहिए कि क्या उसके सहयोगी दल पूरी तरह इस मुद्दे पर उसके साथ हैं? लोकसभा में बहसों के रंग देखकर आश्चर्य भी हुआ कि देश की बुनियाद खोद रहे भ्रष्टाचार के खात्मे को लेकर हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की शीर्षस्थ संस्था इतने तनाव में क्यों है? ऐसे तर्प गढ़े जा रहे हैं कि एक असरदार लोकपाल हमारे लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। जो ऊर्जा भ्रष्टाचार के खात्मे के उपाय ढूंढने में लगानी चाहिए उसे अन्ना या नागरिक समाज को निशाना बनाने में क्यों खर्च किया जा रहा है? यह भी आश्चर्य हुआ कि कड़े निर्देश, व्हिप जारी करने के बावजूद सत्ताधारी गठबंधन के दो दर्जन से अधिक सांसद कैसे ऐन मौके पर गायब मिले और अपनी ही सरकार की किरकिरी करवाने के जिम्मेदार बने। इनमें खुद कांग्रेस के करीब डेढ़ दर्जन सांसद शामिल थे। देश जिस मुद्दे पर उबल रहा है उस पर हमारे जन पतिनिधि क्या इतने असंवेदनशील हैं। इस लोकसभा में लोकपाल विधेयक पारित हो जाने का दबाव कहें या फिर अपेक्षा के अनुरूप समर्थकों की भीड़ न जुटा पाने का असर कि बुधवार को अन्ना हजारे ने अपना अनशन बीच में ही तोड़ दिया। यही नहीं उन्होंने 30 दिसम्बर से सांसदों के आवासों पर पस्तावित धरना और जेल भरो अभियान भी स्थगित कर देने का ऐलान किया है। आंदोलन से इस तरह पीछे हटने को टीम अन्ना का हौसला टूटने के तौर पर देखा जा रहा है। अन्ना मुंबई में तीन दिन ही अनशन पर बैठे, हालांकि उन्हें पहले से ही बुखार की शिकायत थी मगर वे अनशन के अपने फैसले पर अडिग रहे। इसके बाद कई बार उनकी हालत काफी बिगड़ी और डाक्टर सहयोगियों ने उनको उपवास खत्म करने की सलाह भी दी, लेकिन वे इंकार करते रहे। बुधवार की शाम अन्ना ने मंच पर आकर लोगों को संबोधित किया और इसी दौरान अनशन तोड़ने की घोषणा की। अन्ना ने कहा संसद में जो कुछ हुआ वह दुखद है। अब हमारे पास एक ही रास्ता है। हम नया कार्यकम बनाएंगे और राज्यों में जाकर भ्रष्टाचार के खिलाफ जनजागरण चलाएंगे। लोगों को बताया जाएगा कि मौजूदा केन्द्र सरकार ने किस तरह देश की जनता के साथ विश्वासघात किया। लोकपाल बिल का यही हश्र होगा इस पर हमें शुरू से अंदाजा था।
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रूस में भगवत गीता पर पतिबंध की तलवार हटी

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Published on 30th December 2011
अनिल नरेन्द्र
रूस में रहने वाले हिंदुओं ने बुधवार को एक कानूनी लड़ाई जीत ली। रूसी पांत साइबेरिया के शहर तोमस्क की एक अदालत ने हिंदू धर्मग्रंथ श्रीमद् भगवत गीता के रूसी संस्करण को पतिबंधित करने की मांग वाली याचिका खारिज कर दी। अदालत के इस फैसले से रूस सहित दुनियाभर के हिंदुओं व भारतीयों में हर्ष की लहर दौड़ना स्वाभाविक ही था। फैसले से खुश रूसी हिंदू कौंसिल के अध्यक्ष और इस्कॉन नेता साधु पिय दास ने कहा कि छह महीने तक चले कानूनी दाव-पेंच के बाद हम जीत गए। न्यायाधीश ने गीता पर रोक की मांग वाली याचिका कि भगवत गीता का रूसी भाषा में संस्करण सामाजिक कटुता बढ़ाने और दूसरे धर्मों के लोगों के पति घृणा फैलाता है और गीता के रूसी संस्करण को भी उग्रवादी सामग्री में शामिल किया जाए को सिरे से खारिज कर दिया। इस्कॉन की ओर से दलील दी गई कि भगवत गीता हिंदू धर्म की एक पवित्र पुस्तक है और यह अनुवादित संस्करण में एसी भक्तिवेदांता स्वामी पभुपाद की टिप्पणियां है। इस्कॉन सदस्यों ने आरोप लगाया कि रूस का आर्थोडॉक्स चर्च अदालती मामले के पीछे है और वह हमारी गतिविधियों को मिश्रित करना चाहता है। फैसले पर विदेश मंत्रालय के पवक्ता सैयद अकबरुद्दीन ने कहा कि हम इस संवेदनशील मुद्दे के विवेकापूर्ण समाधान की सराहना करते हैं और इस पकरण के समापन का स्वागत करते हैं। उन्होंने कहा कि भारत रूस में अपने सभी मित्रों के पयत्नों की सराहना करता है जिनकी वजह से यह नतीजा सम्भव हो सका। उन्होंने कहा कि एक बार फिर पदर्शित करता है कि भारत और रूस के लोगों को एक-दूसरे की संस्कृति की गहरी समझ है और हमारी सभ्यता के साझे मूल्यों का महत्व कम करने के किसी भी पयास को हम हमेशा खारिज करेंगे। हम रूस की जनता और रूस की सरकार का शुकियाअदा करते हैं कि इस बिना वजह की बहस को समाप्त करने में उन्होंने मदद की। जय श्री कृष्ण।
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Thursday, 29 December 2011

माता वैष्णो देवी की बढ़ती महिमा ः एक करोड़ करेंगे दर्शन

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Published on 29th December 2011
अनिल नरेन्द्र
माता वैष्णो देवी की मान्यता बढ़ती जा रही है। हालांकि यह यात्रा आसान नहीं पर इससे माता के भक्तों पर कोई असर नहीं पड़ता। उत्तर भारत का यह निश्चित रूप से सबसे बड़ा तीर्थस्थल बन गया है। 2011 में यहां श्रद्धालुओं की संख्या एक करोड़ पार कर जाएगी। हालांकि वैष्णो देवी स्थापना बोर्ड को पिछले साल ही यह संख्या पार करने की उम्मीद थी पर उसे 87 लाख की संख्या वाले नए रिकॉर्ड से ही संतोष करना पड़ा। लेकिन इस साल यह संख्या एक करोड़ पार कर लेगी। यह तब है कि जब इस समय कश्मीर के साथ-साथ कटरा और वैष्णो देवी में भी कड़ाके की सर्दी पड़ रही है। साल के अंतिम सप्ताह में तो इतनी भीड़ होती है कि श्रद्धालुओं के लिए रहने की जगह कम पड़ जाती है। बेशक बोर्ड ने सारे रास्ते पर भारी व्यवस्था कर रखी है पर पहाड़ी इलाका होने के कारण पशासनिक मुश्किलें तो आती ही हैं। भारी सर्दी, बारिश के कारण फिसलन भी माता के भक्तों के कदम नहीं रोक पा रही है। यह इसी से साबित होता है कि अभी भी पतिदिन 15 से 16 हजार श्रद्धालु दर्शनार्थ आ रहे हैं। वैसे श्राइन बोर्ड के अधिकारियों को सर्दी की छुट्टियों में इस भीड़ में इजाफा होने की उम्मीद है और इसी उम्मीद के साथ ही यह भी आस बंध गई है कि यात्रा का आंकड़ा नया रिकार्ड बनाएगा। वैसे तो यह रिकॉर्ड पिछले साल ही बढ़ जाता पर पिछले साल घाटी में असंतोष पत्थर बाजी इत्यादि से श्रद्धालु रुक गए। बहुत से लोग डर गए और यह नहीं समझ पाए कि कश्मीर घटी के हालातों का कटरा, वैष्णो देवी पर असर नहीं पड़ता। फिर कई बार यह चेतावनी दी गई कि वैष्णो देवी आतंकवादियों के निशाने पर है, ने भी श्रद्धालुओं के बढ़ते कदमों को रोका। लोगों ने अपनी तय की हुई यात्राएं कैंसिल कर दी। पर इस साल एक करोड़ संख्या पार करने से श्राइन बोर्ड में भारी उत्साह है, होना भी चाहिए। यात्रियों की सुविधा में हमेशा सुधार का तत्पर श्राइन बोर्ड नई-नई स्कीमें ला रहा है। इनमें एक है कटरा के बेस कैम्प से लेकर वैष्णो देवी भवन और भवन से लेकर भैरो घाटी तक रोप वे की स्कीम। यह स्कीम जोरों से चल रही है। इससे उन यात्रियों को जरूर सुविधा हो जाएगी जो उम्र या बीमारी की वजह से पहाड़ पर नहीं चढ़ सकते। इसके साथ ही कटरा से लेकर भवन तक के 13 किलोमीटर के रास्ते पर सुविधाओं को बढ़ाया जा रहा है। दरअसल बढ़ती भीड़ के कारण हर बार श्राइन बोर्ड की व्यवस्थाएं कम पड़ जाती हैं। खासकर गर्मियों की छुट्टियों और नवरात्रों में भीड़ के कारण उसे हर बार शर्मिंदा होना पड़ता है। पर यह भी सच्चाई है कि श्राइन बोर्ड की तमाम कोशिशों के बावजूद भक्तों की शिकायतें अब भी बरकरार हैं। सबसे ज्यादा शिकायतें भक्तों की पवित्र गुफा के भीतर माता की पिंडियों के दर्शनार्थ मिलने वाले के समय के पति है। भारी भीड़ के कारण पंडित उन्हें इतना भी समय माता के दरबार के सामने नहीं देते कि वह अपनी दिल की मुराद कह सकें। इसलिए कुछ भक्त तो गुफा में घुसते ही अपनी मुराद मांगना शुरू कर देते हैं। पर पंडों को भी दोष नहीं दिया जा सकता जब भक्तों की भीड़ इतनी ज्यादा हो जाएगी तो उन्हें जल्दबाजी करनी ही पड़ती है। कुछ वर्ष पहले सुपीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में माता वैष्णो देवी स्थापना बोर्ड के सरकारी संस्थान होने का दावा करने वाली एक विशेष अनुमति याचिका को खारिज कर दिया था। इसके बाद अब वैष्णो देवी स्थापना बोर्ड एक गैर सरकारी संस्था मानी गई और उसके खिलाफ कोई रिट याचिका नहीं की जा सकती। जय माता दी।
Anil Narendra, Daily Pratap, Jammu Kashmir, Mata Vaishno Devi, Vir Arjun

मायावती को राइट ऑफ करना भारी भूल होगी

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 29th December 2011
अनिल नरेन्द्र
उत्तर पदेश विधानसभा चुनाव तिथियों की घोषणा से यूपी की तमाम विपक्षी पार्टियों में उत्साह आ गया है। सब अपनी-अपनी हांकने में लग गए हैं। सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी को तो उन्होंने मान लिया है कि वह आगामी चुनाव में मुंह की खाएगी। पर हमें नहीं लगता कि मायावती को एक समाप्त फोर्स मानकर चलना समझदारी होगी। अनुमान भले ही मायावती सरकार के बारे में व्यवस्था विरोधी माहौल के लगाए जा रहे हों पर धरातल पर बसपा उतनी कमजोर नहीं है, जितनी उसे कांग्रेस, सपा और भाजपा मानकर चल रही हैं। मायावती ने अपनी चुनावी तैयारियां एक साल पहले से ही शुरू कर दी थीं। सूबे के सभी 403 सीटों पर बसपा ने अपने उम्मीदवार डेढ़ साल पहले ही तय कर दिए थे। यह अलग बात है कि बहन जी ने इनमें से कुछ को बाद में बदला है। पर कांग्रेस, सपा और भाजपा को तो अपने उम्मीदवार फाइनल करने में भी भारी दिक्कतें आ रही हैं और इनमें विद्रोह की स्थिति बनी हुई है। यह सही है कि बहन जी इस बार मतदाताओं के सामने अपनी किसी विफलता का कोई बहाना नहीं बना पाएंगी। चमत्कार करते हुए मतदाताओं ने 2007 के चुनाव में बसपा को 206 सीटें देकर स्पष्ट बहुमत दिया था। इसी के दम पर मायावती सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया। जबकि उनसे पहले की तीन सरकारें न केवल अपना कार्यकाल ही पूरा कर पाईं बल्कि वे भाजपा के समर्थन पर टिकी थीं। इस बार मायावती को पूरे पांच साल तक काम करने की खुली इजाजत मिली हुई थी। इसलिए वे मतदाताओं से अपने काम के आधार पर ही एक और मौका पाने की अपील करेंगी। जहां तक कांग्रेस का सवाल है बेशक राहुल गांधी अपना मिशन 2012 के लिए दिन-रात एक किए हुए हैं, यूपी सियासत को समझने वालों का कहना है कि कांग्रेस की ज्यादा स्थिति हवाई है। 2009 के लोकसभा चुनाव में 21 सीटों पर जीत मिल जाने से कांग्रेस यह खुशफहमी पाल बैठी है कि यूपी के मतदाता उसे 1989 से पहले की मजबूत जनाधार वाली स्थिति में पहुंचा देंगे। पर कांग्रेस इस तथ्य को नजरअन्दाज कैसे कर सकती है कि 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद जितनी भी विधानसभा बाई इलेक्शन हुई हैं कांग्रेस एक सीट भी नहीं जीत सकी। कहीं दूसरे नंबर पर रही तो कहीं तीसरे नंबर पर। शायद यह जानते हुए कि पार्टी ने अजीत सिंह के आगे घुटने टेकते हुए उनसे चुनावी तालमेल किया है। यह जानते हुए भी इस गठबंधन से अजीत सिंह की पार्टी को ज्यादा फायदा होगा। कांग्रेस की स्थिति तो वहीं की वहीं रहने की संभावना है। मायावती सुनियोजित रणनीति के तहत लगातार कांग्रेस पर ही वार कर रही हैं। दरअसल वह चाहती हैं कि मतदाता को लगे कि मुकाबला बस बसपा और कांग्रेस के बीच ही है। भाजपा और सपा दोनों की जानबूझकर मायावती अनदेखी कर रही हैं। यह जानते हुए कि असल टक्कर बसपा और सपा के बीच होगी। पिछले चुनाव में बसपा को 206, सपा को 91, भाजपा को 51, कांग्रेस को 22 और रालोद को दस सीटें मिली थीं। मुलायम को कमजोर करने के लिए मायावती इस रणनीति पर चल रही हैं कि मुसलमान वोट एकमुश्त किसी को न मिले। सपा से टूटकर यह या तो उनके साथ आए या फिर कांग्रेस के साथ चला जाए। वैसे इस बार पीस पार्टी भी पूरे जोरों के साथ मैदान में उतर रही है और निश्चित रूप से वह मुसलमान वोट काटेगी। इसलिए यह कहा जा सकता है कि इस बार मुस्लिम वोट एकमुश्त किसी को शायद ही मिले। जहां तक बसपा के पुख्ता वोट बैंक का सवाल है हमें नहीं लगता कि यह कहीं और जाने वाला है। सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय का बहन जी का नारा भले ही अगड़ो के छिटकने की आशंका से इस बार उतनी कामयाब न हो पर दलित और अति पिछड़ी जातियां आज भी उनके साथ हैं। चूंकि मुकाबला बहुकोणीय होगा इसलिए जिसको भी एकमुश्त वोट मिलेगा वही जीत पाएगा पर एक-दो क्षेत्र हैं जहां जरूर बसपा कमजोर पड़ रही है। पहला तो उनकी पार्टी में भारी भ्रष्टाचार है, जिसके चलते मायावती को बहुत से मंत्रियों, सिटिंग विधायकों की टिकटें व कुर्सी काटनी पड़ी है। इससे उन्हें नुकसान हो सकता है। बसपा अपनी सरकार के भ्रष्टाचार को मामूली बताकर मुद्दे को हलका करने की कोशिश में है पर अन्ना के आंदोलन का इतना असर जरूर हुआ है कि आज पूरे देश में एक भ्रष्टाचारी विरोध माहौल बन गया है। बाबा रामदेव भी इस बार यूपी में दबकर पचार करेंगे। इसका खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ सकता है। कुल मिलाकर बहुजन समाज पार्टी बेशक आज की स्थिति को देखते हुए सरकार अपने बूते पर न बना सके पर इसमें हमें तो कोई संदेह नहीं कि बसपा यूपी विधानसभा चुनाव 2012 में सबसे बड़ा दल बनकर उभरेगी।
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Wednesday, 28 December 2011

लंदन-पेरिस से भी ठंडी दिल्ली

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 28th December 2011
अनिल नरेन्द्र
दिल्लीवासियों को लग रहा था कि इस साल दिल्ली में ठंड उतनी नहीं पड़ेगी जितनी पड़ती है। लेकिन देर से ही सही जब ठंड अपने रंग में आई तो रिकॉर्ड तोड़ दिया। ढलते साल में यदि आप लंदन-पेरिस या न्यूयॉर्प गए हों तो अपनी यादें ताजा कर लें। इस साल न्यू ईयर मनाने के लिए आपको लंदन-पेरिस जाने की जरूरत नहीं होगी क्योंकि दिल्ली, लंदन-पेरिस व न्यूयॉर्प से ज्यादा ठंडी हो गई है। वहां गए बगैर आप दिल्ली में ही यूरोप का मजा ले लें। दरअसल सूरज छिपते ही अपनी दिल्ली बिल्कुल इन्हीं शहरों की तरह हो जा रही है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में रविवार को न्यूनतम तापमान 2.9 डिग्री पहुंच गया। पिछले दस सालों में दिल्ली में सर्दी का यह रिकॉर्ड है। दिल्ली का न्यूनतम तापमान लंदन और पेरिस से भी कम हो गया। इन दोनों शहरों में न्यूनतम तापमान 4 डिग्री सेल्सियस रहा। यह और बात है कि वहां का अधिकतम तापमान दिल्ली की तुलना में काफी कम है। लंदन में यह 7 तो पेरिस में 11 डिग्री सेल्सियस रहा। इस कारण वहां की राहत तो सर्द है ही, दिन भी राहत देने वाला नहीं। दिल्ली में तो कम से कम थोड़ी राहत है और दिन का तापमान 19-20 डिग्री के बीच है। हां दिल्लीवासियों के लिए थोड़ी सुकून की बात यह जरूर रही कि इन दिनों कोहरे का जोर उतना नहीं है जितना इन दिनों में गत सालों में हमने देखा। दिन में सूर्य देव के दर्शन हो जाते हैं। यही कारण है कि दिन का तापमान अधिक है। यानी दिन में मजे की धूप सेंकिए और तैयार हो जाइए रात में लंदन-पेरिस का आनंद उठाने के लिए। यह सिलसिला और कितने दिन चलता है देखिए। दिलचस्प और अजीब बात तो यह है कि उत्तरी भारत के मैदानी इलाको में पहाड़ों से भी ज्यादा ठंड पड़ रही है। उदाहरण के तौर पर राजस्थान में शुरू में रविवार को 1.4 डिग्री तापमान था। हरियाणा के झज्जर में 0.3 और हिसार में 0.0 जबकि अमृतसर में यह 0.6 रहा। उधर हिमाचल के शिमला में 6 डिग्री तापमान था, नैनीताल में भी 6 डिग्री, मसूरी में 4.3। अगर हम यूरोप की बात करें तो रोम में 8, लंदन 7, पेरिस 5, बर्लिन में 2 डिग्री सेल्सियस रहा। मौसम की भी अजब बाजीगरी है। जहां किसमस में बर्प की उम्मीद की जाती है, वहां पारा ऊपर चढ़ रहा है। इसके विपरीत हरियाणा के झज्जर के खेतों में बर्प की दो सेंटीमीटर मोटी परत जम गई। तकरीबन पूरे उत्तर भारत में नश्तर चुनौती हवाओं से जन-जीवन में अस्त-व्यस्तता है। ठंड की वजह से 131 लोग दम तोड़ चुके हैं और मौसम विभाग के अनुसार आने वाले दिनों में भी ठंड से कोई राहत मिलने की उम्मीद नहीं है। माउंट आबू में तो 65 से 75 साल का रिकार्ड तोड़ दिया है। यहां पारा शून्य से 4.3 डिग्री नीचे चला गया। इससे यहां मकानों की खिड़कियों, कारों के शीशों, पेड़ की पत्तियों और झील पर बर्प की चादर चढ़ गई। लद्दाख क्षेत्र के लेह जिले में भी सत्र का सबसे कम तापमान शून्य से 18.2 डिग्री सेल्सियस नीचे रहा। गुलमर्ग और पहलगाम में न्यूनतम तापमान शून्य से कमश 8.4 और 7.4 डिग्री सेल्सियस नीचे रहा। उत्तर पदेश में कानपुर सबसे ठंडा रहा। जहां तापमान 0.5 डिग्री सेल्सियस रिकार्ड किया गया। पिछले 24 घंटों के दौरान आगरा में न्यूनतम तापमान एक डिग्री रहा जो सामान्य से सात डिग्री कम था। राजधानी लखनऊ का न्यूनतम तापमान 2.9 डिग्री, फैजाबाद में 3.3 और गोरखपुर में 4.9 डिग्री सेल्सियस रहा। क्या यह ग्लोबल वार्मिंग का असर है? इस हिसाब से वह दिन भी आ सकते हैं जब दिल्ली में बर्प पड़ने लगे।
Anil Narendra, Cold Wave, Daily Pratap, India, London, Paris, Vir Arjun

क्या पाकिस्तान में आया सियासी भूचाल थमेगा?

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 28th December 2011
अनिल नरेन्द्र
पाकिस्तान की सियासत एक निहायत खतरनाक दौर से गुजर रही है। लड़ाई अब जरदारी, गिलानी की चुनी हुई सरकार बनाम एक तरफ जनरल कयानी, अहमद शुजा पाशा तो दूसरी तरफ इंसाफ पार्टी के इमरान खान के बीच छिड़ गई है। पहले हम बात करते हैं जरदारी बनाम कयानी जंग की। पाक पधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने मुल्क की सेना को दो टूक चेतावनी दी है कि सेना खुद को मुल्क में सत्ता का दूसरा केन्द्र नहीं माने। उन्होंने कहा कि उनकी सरकार के खिलाफ तख्ता पलट की साजिशें रची जा रही हैं। गिलानी ने बृहस्पतिवार को मुल्क में ओसामा बिन लादेन की मौजूदगी का पता लगाने के लिए रही नाकामी के लिए भी सेना को आड़े हाथों लिया। उन्होंने कहा कि 2008 में मुंबई हमलों के बाद हमारी सरकार अन्य संस्थाओं के साथ खड़ी रही थी। उनका इशारा सेना और आईएसआई की तरफ था। खबर यह है कि पाकिस्तान सरकार ताकतवर सेना पमुख जनरल अशफाक कयानी और आईएसआई पमुख लेफ्टिनेंट जनरल अहमद शुजा पाशा को हटाने पर भी अब गम्भीरता से विचार कर रही है। समाचार पत्र `द न्यूज' ने सूत्रों के हवाले से कहा है कि सरकार कयानी तथा पाशा से नाखुश है और यह अब एक खुला राज है। कयानी को तीन साल का सेवा विस्तार दिया गया है। पाशा का कार्यकाल पिछले वर्ष एक साल के लिए बढ़ाया गया था। गिलानी ने यह भी माना कि कोई भी संस्थान देश की व्यवस्था के भीतर किसी दूसरी व्यवस्था की तरह नहीं हो सकता। इस देश का हर संस्थान पधानमंत्री के नीचे आता है। ऐसा दावा कोई नहीं कर सकता कि वह सरकार के नियंत्रण से बाहर है। हम निर्वाचित और पाकिस्तान की जनता के चुने हुए पतिनिधि हैं। गिलानी का साफ इशारा पाक सेना व आईएसआई की ओर था। उधर सियासी पंट पर पाकिस्तान के पूर्व किकेट खिलाड़ी और तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के पमुख इमरान खान ने लाहौर, कसूर और पाकिस्तान के अन्य शहरों के बाद अब कराची में अपना शक्ति पदर्शन किया है। इमरान ने पाक संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की समाधि के पास एक जलसे में एक बार फिर सत्ताधारी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और पमुख विपक्षी दल मुस्लिम लीग नवाज की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि अगले आम चुनाव में किसी उम्मीदवार को उस समय तक उनकी पार्टी का टिकट नहीं मिलेगा जब तक वह अपनी सम्पत्ति की घोषणा नहीं करता। उन्होंने संकल्प लिया कि वह पाकिस्तान को कल्याणकारी इस्लामी राज्य बनाएंगे, उनकी टीम में किसी सिफारिशी को जगह नहीं मिलेगी। उन्होंने कहा कि उनकी सरकार की नीतियां 90 फीसदी जनता के लिए होंगी जिसके तहत स्वास्थ्य, शिक्षा और न्याय मुफ्त मिलेगा। उन्होंने यह भी कहा कि जरदारी अब ज्यादा दिनों के मेहमान नहीं हैं। नवाज शरीफ को ललकारते हुए इमरान ने कहा कि वह मेरे साथ मैच खेलना चाहते हैं तो जल्दी करें, ऐसा न हो कि उन्हें कोई टीम भी न मिले। उनके मुताबिक वे आसिफ अली जरदारी के साथ भी मैच खेलना चाहते थे लेकिन वे अब बूढ़े हो गए हैं। इमरान को जैसा जन समर्थन मिल रहा है उससे कहा जा सकता है कि भविष्य में वह एक बड़े सियासी खिलाड़ी बन सकते हैं। दूसरी ओर पाक सेना अध्यक्ष कयानी ने पहली बार गुप्त ज्ञापन (मेमोगेट) दस्तावेज के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए उसे सेना के साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा के खिलाफ षड्यंत्र करार देकर इस पूरे मामले की गहन जांच की मांग की है। मीडिया में पकाशित खबरों में कहा गया है कि कयानी ने यह टिप्पणी सुपीम कोर्ट में दायर अपने जवाब में की है। आईएसआई पमुख ले. जनरल अहमद शुजा पाशा ने अलग से दिए गए जवाब में कहा कि वह गुप्त ज्ञापन के बारे में मंसूर एजाज की ओर से दिए गए सबूतों से संतुष्ट हैं। कयानी ने कहा कि उस गुप्त ज्ञापन की सच्चाई सामने आनी ही चाहिए जो कि अमेरिकी सेना को भेजा गया था। जियो न्यूज चैनल ने कयानी के हवाले से कहा कि उस पूरे मामले ने पाक की राष्ट्रीय सुरक्षा को पभावित किया। गुप्त ज्ञापन का मकसद उन सैनिकों के हौसले व मनोबल को पभावित करना था जो लोकतांत्रिक स्वतंत्रता और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बलिदान कर रहे हैं। पाकिस्तानी सियासत में आया भूचाल अब थमने वाला नहीं लगता। सियासत के जरिए से आसिफ जरदारी-गिलानी की सरकार बहुत कमजोर विकेट पर है। उसे एक तरफ इमरान से खतरा है तो दूसरी तरफ नवाज व अन्यों से। कट्टरपंथी पार्टियां भी उसके अमेरिकी पेम से नाराज हैं। दूसरी ओर जनरल कयानी और जनरल पाशा हर हालत में जरदारी को हटाने पर तुले हैं, हालांकि कयानी यह भी कह रहे हैं कि उनका तख्ता पलट का कोई इरादा नहीं। इसका मतलब साफ है कि वह पाकिस्तान में लोकतांत्रिक व्यवस्था तो बरकरार रखना चाहते हैं पर जरदारी को हटाने पर तुले हैं।
Anil Narendra, Asif Ali Zardari, Daily Pratap, General Kayani, Pakistan, Vir Arjun

Tuesday, 27 December 2011

तो बिछ गई है पांच राज्यों में चुनावी बिसात

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 27th December 2011
अनिल नरेन्द्र
देश की भावी रणनीति तय करने वाले उत्तर पदेश समेत पांच राज्यों में बिछ गई है चुनाव की बिसात। शनिवार को चुनाव आयोग ने पांचों राज्यों में विधानसभा चुनावों की तारीखों की घोषणा कर दी। उत्तर पदेश में 5 चरणों में चुनाव होंगे। यहां चार फरवरी, आठ फरवरी, 11 फरवरी, 15 फरवरी, 19 फरवरी, 23 फरवरी और 28 फरवरी को मतदान होगा। जबकि उत्तराखंड और पंजाब में एक ही चरण में 30 जनवरी को मतदान होगा। गोवा में तीन मार्च और मणिपुर में 28 जनवरी को मतदान कराया जाएगा। पाचों राज्यों के चुनावों की मतगणना एक ही दिन चार मार्च को होगी। चुनाव आयोग द्वारा तय की गई पांच राज्यों की चुनावों की तारीखों से कांग्रेस पार्टी तो खुश होगी। उसे केन्द्र सरकार द्वारा घोषित हालिया जन लुभावन योजनाओं का लाभ मिलने की उम्मीद है और जाड़े का मौसम होने के चलते साग-सब्जी तथा दूसरी खाद्य वस्तुओं के दाम कम हो जाने का फायदा भी उसे दिख रहा है। मणिपुर और गोवा जैसे छोटे राज्यों में उसे सत्ता विरोधी जनमत का सामना करना है। वहीं पंजाब और उत्तराखंड में वह सत्ताधारी दलों की अकेली विकल्प है। यानि सत्ता विरोधी मतों का उसे सीधा लाभ मिलेगा। यदि मणिपुर और गोवा में सरकार में होने का उसे नुकसान होता है तो उसकी कुछ हद तक भरपाई वह पंजाब और उत्तराखंड में कर सकती है। मणिपुर और गोवा के मुकाबले में दोनों राज्य ज्यादा सियासी महत्व नहीं रखते। कांग्रेस अध्यक्ष तो यहां तक कह चुकी हैं कि पंजाब और उत्तराखंड में उनकी पार्टी सत्ता बदलेगी। असल सवाल तो उत्तर पदेश का है। उत्तर पदेश में किसी तरह अपनी खोई जमीन को वापस पाने की कवायद में जुटे दोनों पमुख राजनीतिक दल कांग्रेस और भाजपा की चुनावी तैयारियां बाकी राज्यों में पिछड़ सी गई हैं। खासतौर से पंजाब और उत्तराखंड में जहां दोनों दलों का सीधा मुकाबला है पर यहां दोनों दल ही अभी तक अपने उम्मीदवारों का चयन तक नहीं कर सके। दरअसल, चुनावी कैलेंडर के लिहाज से पंजाब और उत्तराखंड में पहले चुनाव होने थे, लेकिन सभी ने भांप लिया था कि उत्तर पदेश में भी समय से पहले चुनाव हो सकते हैं। यही कारण है कि राज्य के दो पमुख दल बसपा और सपा हैं या फिर भाजपा और कांग्रेस सभी ने अपनी पूरी ताकत उत्तर पदेश में झोंक दी थी। रोड शो से लेकर रैलियां, आरोप-पतिआरोप, दावों और राज्य की बसपा व केन्द्र की कांग्रेस सरकार के बीच लोक-लुभावन घोषणाओं की जंग करीब तीन महीने पहले से ही छिड़ गई थी। उत्तर पदेश में 28 फरवरी तक चलने वाले चुनाव का असर केन्द्राrय बजट के कार्यकमों में भी पड़ सकता है। दरअसल गोवा चुनाव के कारण 3 मार्च तक लागू आचार संहिता के बीच ही बजट सत्र भी होगा और 29 फरवरी तक दोनों रेल व आम बजट पेश करने की बाध्यता भी होगी। लिहाजा केन्द्र को आचार संहिता की आंच से बचने के लिए सीमित रास्तों को तलाशना होगा जिसमें संबंधित राज्यों के लिए घोषणाएं टालने या विशेष परिस्थितियों में रेल और आम बजट पेश करने का समय या तिथि बदलने की उम्मीद को भी नकारा नहीं जा सकता। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने राज्य में चुनाव की तिथियों में परिवर्तन करने की मांग की है। उनका कहना है कि जनवरी में उत्तराखंड में कड़ाके की ठंड होती है और दूसरा 30 जनवरी को शहीद दिवस होता है। इस दिन चुनाव करवाना ठीक नहीं है। उत्तराखंड में 30 जनवरी को ही मतदान है जबकि वहां की विधानसभा का कार्यकाल 12 मार्च तक का है। उत्तर पदेश की मौजूदा विधानसभा का कार्यकाल 20 मई 2012, पंजाब विधानसभा का 14 मार्च, उत्तराखंड का 12 मार्च, मणिपुर का 15 मार्च और गोवा विधानसभा का 14 जून तक है। सामान्य तौर पर उत्तराखंड के चुनाव फरवरी और मार्च के पहले हफ्ते सम्पन्न कराए जाते हैं लेकिन इस बार जनवरी में ही कराए जा रहे हैं। कांग्रेस की सारी जान यूपी में टिकी हुई है। पार्टी के दोनों शीर्ष नेता सोनिया व राहुल इसी सूबे से सांसद हैं। राहुल गांधी जमकर मेहनत कर रहे हैं। पश्चिमी उत्तर पदेश में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए पार्टी ने रालोद से भी हाथ मिलाया है। मुस्लिम वोटों को घेरने के लिए पार्टी ने साढ़े चार फीसदी आरक्षण का कार्ड खेला है। पिछली बार कांग्रेस को 12 फीसदी मुसलमानों ने वोट दिया था इस बार उसे यह आंकड़ा बढ़ने की उम्मीद है। बुनकरों के लिए मोटा आर्थिक पैकेज, किसानों के लिए दो बड़ी सिंचाई योजनाओं की घोषणा केन्द्र सरकार कर चुकी है। उसका लाभ भी उसे मिलने की उम्मीद है। ऐसे में उसे अगड़ी जातियों, खासकर ब्राह्मणों को बसपा से तोड़ने में सफलता मिलने की उम्मीद पार्टी को है। पार्टी के दोनों पदेश अध्यक्ष तथा विधानमंडल दल के नेता ब्राह्मण हैं, रीता बहुगुणा जोशी और पमोद तिवारी जबकि ठाकुर नेता के रूप में पदेश पभारी हैं दिग्विजय सिंह। कांग्रेस को एक वर्ग की मुराद कि चुनाव जल्दी हो चुनाव आयोग ने पूरी कर दी है।
हर सत्तारूढ़ पार्टी को एंटी एनकंवैंसी फैक्टर के भूत से निपटना होता है। कुछ हद तक बहुजन समाज पार्टी को भी इसका नुकसान हो सकता है। बहनजी द्वारा काफी सिटिंग एमएलए के टिकट काटने से पार्टी में विद्रोह की स्थिति बनी हुई है। बसपा का मूल आधार गरीब और कमजोर दलित वर्ग है। भ्रष्टाचार, पार्प, मूर्तियां बनाना भी पार्टी के खिलाफ चुनावी मुद्दे होंगे। सपा सुपीमो मुलायम सिंह यादव की पार्टी पहले से बेहतर हुई है। उनके युवा बेटे ने एक युवा नेता के तौर पर अपनी यात्राओं से पार्टी के लिए अच्छा माहौल बनाया है, उन्होंने अपनी धाक जमाई है। मुसलमान वोटों पर अब भी मुलायम सिंह की पकड़ बरकरार है। राजपूत भी उनके साथ हैं। बसपा का मुकाबला मुलायम ही कर सकते हैं ऐसी हवा बनाकर सपा को फायदा मिलने की उम्मीद है। मुलायम की मिलनसार छवि पतिद्वंद्वियों पर भारी पड़ सकती है पर उनका इतिहास उनके खिलाफ जरूर रहेगा। पार्टी थाने चलाती है, यह छवि टूट नहीं पाई है। मुसलमान वोटों का बंटवारा तय है। कांग्रेस, बसपा में यह वोट बटेगा, मुलायम यह नहीं मान कर चल सकते कि मुस्लिम वोट एक ब्लाक उन्हें पड़ेगा। रही बात भाजपा की पार्टी को उम्मीद है कि मुस्लिमों को आरक्षण का मुद्दा उसके हक में जाएगा। सवर्ण वोट का धुवीकरण होगा। अन्ना हजारे के आंदोलन का सबसे ज्यादा फायदा उसें ही मिलने का चांस है। राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र और आडवाणी की यात्राओं से सरकार विरोधी माहौल जो बना है, भाजपा को उम्मीद है कि चुनाव में पार्टी को इसका फायदा मिलेगा पर राज्य में स्थानीय नेताओं के आपसी संघर्ष पार्टी को भारी पड़ सकता है। कुल मिलाकर अब जब मतदान की तिथि की घोषणा हो चुकी है तो सभी राज्यों में सियासत तेज होगी। कांग्रेस के लिए जहां उत्तर पदेश सबसे बड़ी चुनौती होगी वहीं भारतीय जनता पार्टी के लिए पंजाब व उत्तराखंड में अपनी सरकारों को पुन जिताना जरूरी होगा। वैसे उत्तराखंड में आज तक कोई सत्तारूढ़ पार्टी फिर से अगली बार नहीं जीती। क्या पता इस बार यह इतिहास भुवनचन्द्र खंडूरी बदल दें।
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सीबीआई की सरकार के चंगुल से मुक्ति पाने का स्वप्न टूटा

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 27th December 2011
अनिल नरेन्द्र
सीबीआई के भविष्य को लेकर सरकार व टीम अन्ना और विपक्ष आमने-सामने आ गए हैं। सीबीआई पर अन्ना हजारे की मांग खारिज कर दी गई है। सरकार ने इसे लोकपाल के दायरे से बाहर रखा है। सीबीआई का कोई स्वतंत्र अभियोजन सीधे तौर पर लोकपाल के तहत नहीं रखा गया है। लेकिन लोकपाल भ्रष्टाचार से जुड़े किसी मामले के जांच की सिफारिश सीबीआई से कर सकती है। सीबीआई पमुख की नियुक्ति एक पैनल करेगा, जिसमें पधानमंत्री, नेता पतिपक्ष और चीफ जस्टिस शामिल होंगे। सीबीआई में एसपी व उससे ऊपर के अफसरों की नियुक्ति एक समिति करेगी। इसमें सीवीसी, विजिलैंस कमिश्नर, गृह सचिव व कार्मिक विभाग के सचिव होंगे। सीबीआई की जांच शाखा के लिए जांच निदेशक का पद बनाया गया है। लोकपाल के पस्तावित रूप से सीबीआई में गहरी निराशा है। इससे जांच एजेंसी की सरकार के चंगुल से मुक्ति पाने की उम्मीदों पर पानी फिर गया है। इसके साथ ही लोकपाल द्वारा सौंपे गए मामलों में चार्जशीट के लिए पूर्व अनुमति लेने का पावधान से उसकी मौजूदा स्वायत्तता पर भी सवालिया निशान लगा रहे हैं। राहत की बात सिर्प इतनी है कि नियुक्ति की पकिया में पधानमंत्री, नेता विपक्ष और भारत के मुख्य न्यायाधीश के शामिल होने से सीबीआई निदेशक के पद की गरिमा बढ़ गई है। एक अधिकारी के मुताबिक एजेंसी की स्वतंत्रता की बात बेमानी है। सीबीआई अधिकारियों की पतिनियुक्ति व पोन्नति से लेकर छोटे-छोटे खर्च तक के लिए सरकार का मुंह ताकना पड़ेगा। ऐसे में जांच एजेंसी से संसद की स्थायी समिति द्वारा बनाए लोकपाल के पारूप पर छह आपत्तियां जताई गई हैं। इसे लेकर सीबीआई निदेशक खुद पधानमंत्री से मिले थे। लेकिन इन छह आपत्तियों में से एक पूरी और एक आधी दूर की गई। सीबीआई निदेशक की नियुक्ति में पीएम, नेता विपक्ष और संवैधानिक संस्था के पमुख को शामिल करने की मांग पूरी की गई लेकिन एफआईआर और चार्जशीट दाखिल करने की स्वायत्तता में जांच एजेंसी को समझौता करने के लिए मजबूर किया गया है। इसके तहत लोकपाल द्वारा सौंपे गए मामलों में सीबीआई चार्जशीट करने के लिए स्वतंत्र नहीं होगी। सीबीआई का कहना है कि जांच एजेंसी पुलिस अथवा सीबीआई के अधिकारी मामले की छानबीन करते हैं। छानबीन के आधार पर आईओ अपनी फाइनल रिपोर्ट अदालत में पेश करता है। ये रिपोर्ट चार्जशीट तथा क्लोजर दोनों में से कुछ हो सकती है। आईओ छानबीन के आधार पर यह तय करता है कि चार्जशीट होगा या फिर क्लोजर रिपोर्ट। लेकिन लोकपाल बिल की धारा 20 (7) में यह पावधान किया गया है कि उस रिपोर्ट को कोर्ट में पेश किए जाने से पहले लोकपाल के सामने रखा जाए और वह तय करेगा कि मामले में क्या करना है। जबकि लोकपाल से जुड़ा शख्स पुलिस अधिकारी नहीं होगा और इस तरह यह सीआरपीसी की धारा-173 के पावधानों के विपरीत होगा। सीबीआई के मुताबिक उसे आर्थिक और पशासनिक स्वायत्तता की जरूरत है। सीबीआई अभी भी सरकार पर आर्थिक और पशासनिक तौर पर निर्भर है। इसी कारण लोगों में अवधारणा है कि सीबीआई को पभावित किया जा सकता है। लोकपाल बिल में इसके बारे में भी कोई पावधान नहीं है। कुल मिलाकर लोकपाल के पस्तावित पारूप से सीबीआई में गहरी निराशा है। इससे जांच एजेंसी की सरकार के चंगुल से मुक्ति पाने की उम्मीदों पर पानी फिर गया है।
Anil Narendra, CBI, Daily Pratap, Lokpal Bill, Vir Arjun

Monday, 26 December 2011

US leave Iraq after nine years

- Anil Narendra
Nine years after the war to remove Saddam Hussain from power, the last of the US troops stationed in Iraq crossed the Iraqi border and entered Kuwait. With this, the occupation of Iraq by US has virtually come to an end. With the lowering of US flag in a simple ceremony, the nine year old US operations stopped. What an irony, when the last batch of US troops was leaving Iraq, the Iraqi soldiers were resting in their barracks. The Iraqi troops, which fought the 'war on terror' in alliance with the US troops, were relieved to see the US leaving their country. Now, only a few hundred marines are left at the US Embassy in Iraq. Once, there were about 170 thousand US troops stationed at 505 bases all over the Iraq. After stepping down from his vehicle at Kuwait, Sergeant Human Austin said that it was 'really good to step out of Iraq'. During the 'War on terror and destruction of mass destruction weapons' launched by the former US President, George Bush II, about 4,500 US troops lost their lives and about 100 thousand Iraqi civilians were killed. Besides, this devastating war led US to the brink of bankruptcy and the US treasury had to shell out a hefty sum of $ 800 billion. About 175 million Iraqis were displaced. With the return of the troops, concerns are being expressed about the return of communal tensions, violence and political instability in Iraq. US is patting its back. US Secretary of Defence, Leon Panetta has said that after blood-shedding of US and Iraqi citizens, ultimately, the objective of self-governance by Iraqis and ensuring their national security has been achieved. Saddam Husaain was hanged, but at what cost? Now, Iraq is more instable and state of political uncertainty continues to hound Iraqis. It is still to overcome the problems of Sunni-Shia conflicts, critical power sharing, corruption and weak economy. Al Qaeda has established its headquarters at Fazulka in Iraq, where the withdrawal of US troops was celebrated with enthusiasm. During rallies people burnt American flags and waved photos of their relatives killed during the war. President Barak Obama told Nouri al-Maliki, Prime Minister of Iraq that Washington would continue to be Iraq's royal partner, even after the return of its troops. Even today, we fail to understand that why did Bush invaded Iraq. It was said that Saddam had weapons of mass destruction in Iraq and these weapons must be seized, but not a single such weapon or weapon-producing factory could be unearthed in Iraq, which could have supported the allegations made by the US. Neither a single nuclear weapon could be found in Iraq, nor could the people of Iraq be 'liberated'. Instead, rebellion against the 'invading forces' in Iraq continued till the last of the foreign troops left the country secretly. Was America afraid of attack on its retreating troops by the rebels? The fact is that US could not win this war, nor it was able to achieve a political victory. Instead, those, who  were supporting the US in its war, also left it in the lurch. The new rulers who came to power with the indirect US support, too, were unable to follow US directions till long. It appears that US has lost Iraq. The fact is that Washington had never been able to win over Baghdad. Does it mean that Iraqis have won the war against foreign occupation? Does it mean that US military operation has met the same fate in Iraq, as it had in Vietnam? No doubt, US claim to have won this war, but in fact, it has faced a defeat here too. At least it has failed to achieve the objective, with which in mind, it had invaded Iraq. Perhaps, today, the most important challenge before Iraq is to bring stability, political stability, economic stability to the country and this will not be an easy task. The US military operations in Iraq have led to increase in militancy in whole of the Middle East. Al Qaeda got an opportunity to spread its tentacles. Then, the Sunni, Shia and Kurd struggles too, got momentum. Iraq of today, has been divided into several power centres. In fact in Iraq, nothing is left in the name of Iraqi nationalism. The Americans have left behind a divided Iraqi society. They have also left behind weapons worth $ 300 million for possible use by Iraqi Army, as the cost of taking these to Afghanistan or back to America could have been exorbitant. From US's point of view, President Barak Obama has undoubtedly kept his promise. During his Presidential election campaign, he had launched an anti-Iraq war campaign and he has fulfilled his promise much before the 2012 Presidential election campaign. It is hoped that with the conclusion of this devastating military operation in Iraq, the US economy would receive some healing touch and also the burden it was feeling since long, would mitigate to some extent. But the American history would definitely ask what gains did America make in this Iraq operation and what were its losses? Was George Bush a hero or was he a villain?  

Why not provide refuge to Oppressed Pak Hindu families

- Anil Narendra
The matter relating to coming to India of oppressed Pak Hindu families and giving them Indian citizenships was raised in Rajya Sabha last week. It may be mentioned that Hindus settled in Pakistan are being subjected to severe oppression and atrocities. They are very much concerned about their own security in Pakistan. These Hindu families had come to India on religious visa and now they want to stay here. They have, therefore, asked for Indian citizenships. An appeal has also been filed in this regard in the Delhi High Court and the Court has stayed the repatriation of these 157 Pakistani Hindus. Their visas have expired three months' back. The High Court has asked the Government, why these persons should not be given Indian citizenship? The Government has to file its reply to this question by February. But, since there is no clear-cut policy in such matters and the Government decides these matters on the case-to-case basis, as such these terrified families are apprehensive about Government's decision. We feel that clear policies to deal with such matters must be devised. The people of Indian nationality, living in foreign countries and desirous of returning to India to settle here, should be allowed to do so. In the absence of a clear cut policy, such people of Indian origin enter India surreptitiously and stay here. It may be noted, such incidents have been witnessed in the past. In 1971, lakhs of Bangladeshi Hindus, who were apprehensive of their security in the erstwhile East Pakistan, and felt that the Pakistan Army would massacre them, fled to India. Hundreds of Sikh families came to India from Afghanistan escaping Taliban atrocities. Lakhs of Buddhists in Tibet, fled Chinese persecution and settled in India. Then why these families, coming from Pakistan cannot settle in India? We would like to remind the Government of India that lakhs of Bangladeshi Muslims have illegally entered India and have settled here. They have, got not only their ration cards, but their election cards made and Government of India dare not oust these people from India. This matter has been raised in various Courts , but every time, a few Bangladeshis are sent back and further action is stopped.  We request the Government to allow these unfortunate 157 Hindu families, who have got uprooted from Pakistan to settle in India, so that they can start their life again here.  The Government of India has recently contacted people of Indian origin living abroad. The Ministry of Overseas Indians, Government of India will have to take initiative in this regard, as it is in their constant touch and understands their agony.  The Ministry will have to formulate such policies, that would allow those people of Indian origin, who have been living abroad to continue their links with the land of their origin and to settle in India, if they so desire. We must not forget that a number of Indians go abroad under one or the other compulsion. We must welcome Indians of different faiths including Hindus, Sikhs, Muslims.

Sunday, 25 December 2011

पाकिस्तान के सताए हिन्दू परिवारों को भारत में शरण क्यों नहीं


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 25th December 2011
अनिल नरेन्द्र
गत सप्ताह राज्यसभा में पाकिस्तान के सताए हिन्दू परिवारों का भारत आना और यहां की नागरिकता लेने का मामला उठा। उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान में बसे हिन्दुओं पर वहां बहुत अत्याचार व जुल्म हो रहे हैं। उनके भीतर अपनी सुरक्षा को लेकर भारी चिन्ता है। यह हिन्दू परिवार भारत धार्मिक वीजा पर आए थे पर अब यह चाहते हैं कि अपने देश में ही रह जाएं। इसलिए उन्होंने सरकार से भारतीय नागरिकता मांगी है। दिल्ली हाई कोर्ट में इसी मांग को लेकर एक याचिका भी दायर हुई और दिल्ली हाई कोर्ट ने इन 157 पाकिस्तानी हिन्दुओं को पाकिस्तान वापस भेजने पर रोक लगा दी है। इनके वीजा तीन महीने पहले समाप्त हो गए थे। अदालत ने सरकार से पूछा है कि इन्हें भारत की नागरिकता क्यों न दी जाए? सरकार के पास फरवरी तक का समय है इस प्रश्न का उत्तर देने का। पर चूंकि भारत सरकार की इस मामले में कोई तयशुदा नीति नहीं है और वह केस टू केस ही फैसला करती है इसलिए इन डरे परिवारों में सरकार के फैसले को लेकर आशंका बनी हुई है। हमारी राय में तो सरकार को ऐसे मामलों से निपटने के लिए कोई ठोस नीति बनानी चाहिए। भारतीय मूल के देशवासी जो विदेशों में रहते हैं चाहे वह किसी मजहब के क्यों न हों अगर वापस भारत आकर बसना चाहते हैं तो उन्हें ऐसा कर देना चाहिए। हो यह रहा है कि यह किसी ठोस नीति के अभाव में चोरी-छिपे, गलत रास्तों से भारत आ जाते हैं और यहीं रहने लग जाते हैं। उल्लेखनीय है कि ऐसा पहले भी देखने को मिला है जब 1971 की बंगलादेश जंग के बाद लाखों बंगलादेशी हिन्दू जिन्हें संदेह था कि पाकिस्तानी फौज उनका कत्लेआम कर देगी भारत आए। अफगानिस्तान में तालिबान के कहर से बचने के लिए सैकड़ों सिख परिवार भारत आए हैं। तिब्बत में चीनी अत्याचार से बचने के लिए लाखों बौद्ध भारत आ बसे। ऐसे में पाकिस्तान से आए हिन्दू परिवार भारत में क्यों नहीं बस सकते। हम भारत सरकार को याद कराना चाहेंगे कि आज की तारीख में लाखों की संख्या में बंगलादेशी मुसलमान भारत में आकर बस गए हैं। यह सब अवैध तरीके से घुसे हैं। इनके राशन कार्ड भी बन गए हैं, पहचान पत्र तक बन गए हैं और भारत सरकार में इतनी हिम्मत नहीं कि इन्हें बाहर निकाल सके। कई बार अदालतों में भी यह मामला उठा है पर हर बार दो-चार बंगलादेशियों को निकालने पर कार्रवाई रुक जाती है। हमारा सरकार से अनुरोध है कि किस्मत के मारे इन 157 हिन्दू परिवारों को जो पाकिस्तान से उजड़कर आए हैं उन्हें भारत आने, बसने की इजाजत दे ताकि वह अपना जीवन फिर से शुरू कर सकें। भारत सरकार ने हाल के सालों में विदेशों में बसे भारतीय मूल के लोगों से सम्पर्प बनाया है। सरकार की मिनिस्ट्री ऑफ ओवरसीज इंडियंस को पहल करनी होगी क्योंकि वही इनसे सम्पर्प में है और इनका दुःख-दर्द समझती है। मंत्रालय को ऐसी नीति बनानी होगी जिससे विदेशों में बसे भारतीय अपनी सरजमीं से हमेशा जुड़े रहें और जब वह वापस आकर यहां सैटल होना चाहें तो उन्हें ऐसा करने की इजाजत होनी चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बहुत से भारतीय विदेशों में किसी न किसी मजबूरी के चलते ही जाते हैं। हमें अपने हिन्दू, सिख, मुस्लिम व अन्य किसी धर्म से जुड़े भारतीयों का स्वागत करना चाहिए।
Anil Narendra, Daily Pratap, Pakistan, Pakistani Hindu, Vir Arjun

Saturday, 24 December 2011

नौ साल बाद अमेरिकी इराक से खिसके


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 25th December 2011
अनिल नरेन्द्र
सद्दाम हुसैन को सत्ता से हटाने के लिए छेड़ी गई जंग के नौ साल बाद इराक में तैनात अमेरिका के आखिरी सैनिक ने रविवार तड़के इराकी सीमा पार कर कुवैत में प्रवेश किया और इसके साथ ही अमेरिका का इराक पर कब्जा एक तरह से समाप्त हो गया। एक सादे समारोह में अपने सैन्य धड़े को उतारने के साथ पिछले नौ सालों से चल रही अमेरिकी सैन्य कार्रवाई की समाप्ति हो गई। विडम्बना देखिए कि जब अमेरिकी सैनिकों की आखिरी टुकड़ी इराक छोड़ रही थी उस समय इराकी सैनिक बैरकों में सो रहे थे। जिन सैनिकों ने नौ सालों तक अमेरिकी गठबंधन के साथ कंधे से कंधा मिलाकर `वॉर ऑन टेरर' लड़ी थी उन्होंने शुक्र मनाया कि अमेरिकी उनके देश से हटे। अब अमेरिकी दूतावास पर कुछ सौ सैनिक ही बचे हैं। एक वक्त था जब इराक में 505 ठिकानों में तकरीबन एक लाख 70 हजार सैनिक थे। सार्जेंट हुमान आस्टिन ने कुवैत में अपने वाहन से निकलने के बाद कहा कि इराक से निकलना `अच्छा लगा, सचमुच अच्छा लगा।' पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश द्वितीय द्वारा वॉर ऑन टेरर एण्ड डिस्ट्रक्शन ऑफ मॉस डिस्ट्रक्शन वैपेंस अभियान में करीब साढ़े चार हजार अमेरिकी और एक लाख इराकी लोगों की जानें गईं। इसके साथ ही इस घातक जंग ने अमेरिका को दिवालिया बना दिया और अमेरिकी खजाने से 800 अरब डालर खर्च हुए। 17.5 करोड़ इराकी विस्थापित हो गए। अमेरिकी सैनिकों की वापसी के साथ ही इराक में सांप्रदायिक तनाव, हिंसा और राजनीतिक अस्थिरता की चिन्ता सत्ता रही है। अमेरिका अपनी पीठ ठोंक रहा है। अमेरिकी रक्षामंत्री लियोन पेनेटा ने कहा कि अमेरिकी और इराकी लोगों के खून बहाने के बाद आखिरकार इराक के खुद पर शासन कर पाने और अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने का लक्ष्य पूरा हो गया। सद्दाम हुसैन को तो फांसी पर लटका दिया पर परिणाम क्या निकला? पहले से ज्यादा अस्थिरता हो गई है और आज देश में राजनीतिक ऊहापोह की हालत बनी हुई है। इराक आज भी सुन्नी-शिया संघर्ष, नाजुक सत्ता साझेदारी, भ्रष्टाचार और कमजोर अर्थव्यवस्था के साथ संघर्ष कर रहा है। अलकायदा ने इराक के फाजुल्का को अपना गढ़ बना लिया है और वहां अमेरिकी वापसी का बाकायदा जश्न मनाया गया। लोगों ने अमेरिकी झंडे जलाए और अपने मृत रिश्तेदारों की तस्वीरें हवा में लहराईं। राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इराकी प्रधानमंत्री नूरी अल मलिकि को बताया कि वाशिंगटन अपने सैनिकों की वापसी के बाद भी उसका रॉयल पार्टनर बना रहेगा। आज तक हमें यह नहीं समझ आया कि बुश ने आखिर इराक पर हमला क्यों किया? कहा गया था कि इराक में सद्दाम के पास वैपेंस ऑफ मॉस डिस्ट्रक्शन है और इन पर कब्जा करना जरूरी है पर नौ सालों में अमेरिका एक भी ऐसा हथियार या फैक्ट्री नहीं दिखा सका जिससे यह आरोप साबित होता। न तो इराक में कोई परमाणु हथियार मिला और न ही वहां की जनता को `मुक्ति' मिली। इसके विपरीत `आक्रामणकारी सेना' के खिलाफ इराक में विद्रोह तब तक जारी रहा, जब तक आखिरी विदेशी सैनिक ने गुपचुप तरीके से देश नहीं छोड़ा। क्या अमेरिका को यह डर था कि जाते हुए सैनिकों पर विद्रोही हमला कर देंगे? वास्तविक अर्थों में अमेरिका यह युद्ध जीत नहीं पाया और न ही उसे राजनीतिक विजय ही मिली। जो अमेरिका के पक्ष में खड़े थे, वे भी साथ छोड़ गए। नए शासक जो परोक्ष रूप से अमेरिका की सहायता से सत्ता में आए, ज्यादा दिनों तक अमेरिकी सलाह से बंधे हुए नहीं रहे। ऐसा लगता है कि इराक को अमेरिका ने गंवा दिया है। सही बात तो यह है कि वाशिंगटन कभी भी बगदाद को जीत नहीं सका। क्या इसका मतलब यह है कि इराकियों ने विदेशी कब्जे के खिलाफ लड़ाई जीत ली है। क्या यह माना जाए कि अमेरिकी सैन्य अभियान का भी वही हश्र हुआ है जो इसका वियतनाम में हुआ था। बेशक आज अमेरिका दावा करे कि उसने यह जंग जीत ली है पर हकीकत यह है कि अमेरिका यहां भी हार गया है। कम से कम वह उद्देश्य पूरा नहीं कर सका जिसके लिए वह इराक गया था। इराक के सामने शायद आज सबसे बड़ी चुनौती देश में स्थिरता लाने की है, राजनीतिक स्थिरता, आर्थिक स्थिरता और यह काम आसान नहीं होगा। अमेरिकी सैन्य अभियान के कारण पूरे मध्य पूर्व में कट्टरवाद को बढ़ावा मिला है। अलकायदा को पांव पसारने का मौका मिला है। फिर सुन्नी, शिया, कुर्द संघर्ष तेज हुआ है। आज इराक में कई सत्ता केंद्र बन गए हैं। देखा जाए तो युद्ध के बाद इराकी राष्ट्रवाद के नाम पर कुछ नहीं बचा है। बिल्कुल बंटा हुआ समाज छोड़कर अमेरिकी भागे हैं। अमेरिकी अपने पीछे 30 करोड़ डालर के हथियार इराकी सेना के सम्भावित उपयोग के लिए छोड़ गए हैं, क्योंकि उन्हें अफगानिस्तान या वापस अमेरिका ले जाने का खर्चा बहुत ज्यादा हो सकता था। अमेरिकी नजरिये से देखा जाए तो इसमें कोई संदेह नहीं कि राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपना वादा निभाया। राष्ट्रपति चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने इराक युद्ध के खिलाफ अभियान चलाया था और 2012 के राष्ट्रपति चुनाव का सामना करने से काफी पहले ही उन्होंने यह वादा निभा दिया है। उम्मीद है कि इराक में इस घातक सैन्य अभियान की समाप्ति से अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर भी मरहम लगेगी और उस पर जो इतना बोझ था वह कम होगा। अमेरिकी इतिहास में यह जरूर पूछा जाएगा कि अमेरिका ने इराकी सैन्य अभियान में क्या खोया और क्या पाया? जॉर्ज बुश हीरो थे या विलेन?
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जज अंकल, जंक फूड को प्लीज बैन करो

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 24th December 2011
अनिल नरेन्द्र
बुधवार को दिल्ली हाई कोर्ट में एक अजब ही नजारा था। मामला था दिल्ली के स्कूलों और कॉलेजों में जंक फूड को बैन करने का। आमतौर पर हाई कोर्ट में वादी और प्रतिवादी के वकील अपनी-अपनी दलीलें पेश करते नजर आते हैं पर बुधवार को कुछ स्कूली बच्चे अदालत में पेश हुए और जंक फूड को बैन करने के लिए अदालत से गुहार लगाई। एक्टिंग चीफ जस्टिस एके सीकरी की अगुवाई वाली बैंच ने बच्चों की दलीलों को काफी गम्भीरता से लिया और दूसरे पक्षों से जवाब दाखिल करने को कहा। बच्चों ने जज अंकल से कहा, `जंक फूड को बैन करो, प्लीज।' बच्चों ने अनुरोध किया कि जंक फूड पर स्कूलों की कैंटीन और उसके आसपास बिक्री पर बैन लगाया जाना चाहिए। अदालत के सामने गौतम नगर स्थित फादर एग्नल स्कूल के कुछ बच्चे हाई कोर्ट में पेश हुए। करीब 12 से 16 साल के इन स्कूली बच्चों के साथ इनकी टीचर भी थीं। स्कूली बच्चों के वकील ने माननीय न्यायाधीशों से कहा कि इन बच्चों ने जंक फूड के खिलाफ एक अभियान चलाया है और ये अदालत से कुछ कहना चाहते हैं। फिर हाई कोर्ट की डबल बैंच उनसे मुखातिब हुई। बच्चों के ग्रुप से एक लड़की आगे बढ़ी और कहा कि हम सब फादर एग्नल स्कूल से हैं और हम जंक फूड पर बैन चाहते हैं। साथ ही उसने जस्टिसों की तरफ अपना रिप्रेंजेंटेशन और पोस्ट कार्ड बढ़ाया। करीब 15 साल की इस लड़की ने हाई कोर्ट के जजों से कहा कि वह तमाम स्टूडेंट की तरफ से उन्हें आवेदन दे रही है, जिस पर गौर किया जाना चाहिए। बच्चों की इस रिप्रेंजेंटेशन में कहा गया कि यह मामला काफी महत्वपूर्ण है। जंक फूड खाने से बच्चे आलसी हो रहे हैं और भविष्य के लिए यह फूड खतरनाक है। कई रिसर्चों से पता चला है कि इसमें बच्चों का आईक्यू लेवल कमजोर होता है और उनकी क्षमता कमजोर हो रही है। जंक फूड एक लत की तरह होता है, जो स्लो डैथ की तरफ ले जाता है। अपने रिप्रेंजेंटेशन में बच्चों ने कहा कि सरकार की यह संवैधानिक जिम्मेदारी है कि वह बच्चों के अधिकारों की रक्षा करे। बच्चों को तो यह पता नहीं होता कि उनके लिए अच्छा क्या है और बुरा क्या। यूएनके चार्टर में भी बच्चों के अधिकारों के संरक्षण की बात कही गई है। अगर बच्चों की सेहत खराब होगी तो देश का भविष्य प्रभावित होगा और देश को दूरगामी नुकसान होगा। माननीय न्यायाधीशों ने कहा कि बच्चों द्वारा उठाए गए सवाल काफी अहम हैं। उन्होंने फूड प्रोसैसिंग व वितरण कम्पनियों की एसोसिएशन व केंद्र सरकार से इस मामले पर एक सप्ताह में जवाब मांगा है। इतना ही नहीं, पीठ ने कम्पनियों की एसोसिएशन से पौष्टिक आहार का विकल्प भी तैयार करने को कहा। वहीं केंद्र सरकार की ओर से अतिरिक्त महाधिवक्ता एएस मांडिहोक ने कहा कि शिक्षण संस्थानों व इसके आसपास जंक फूड की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने के लिए सभी राज्य सरकारों और विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को निर्देश जारी किए गए थे। जिसका जवाब आने लगा है। उन्होंने कहा कि अगली सुनवाई 11 जनवरी को इन्हें पेश कर दिया जाएगा। जंक फूड से न सिर्प मोटापा ही बढ़ता है बल्कि मधुमेह (डायबिटीज) जैसी गम्भीर बीमारियां भी हो रही हैं। हाल ही में एक सर्वे से यह साबित हुआ है। बच्चों ने अब खुद ही बीड़ा उठाया है। देखें कि उनका यह अभियान क्या रंग लाता है। सारी दुनिया में अब इस जंक फूड का विरोध हो रहा है।
Anil Narendra, Daily Pratap, Delhi High Court, Junk Food, Vir Arjun

और अब मुस्लिम आरक्षण का पत्ता

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 24th December 2011
अनिल नरेन्द्र

केंद्रीय कैबिनेट ने गुरुवार को अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण का रास्ता साफ कर दिया। अब पिछड़े वर्गों के लिए तय 27 फीसदी आरक्षण में साढ़े चार फीसदी हिस्सा अल्पसंख्यकों का होगा। इसे आगामी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का जनाधार के तौर पर देखा जा रहा है। भ्रष्टाचार, लोकपाल, ब्लैक मनी जैसे ज्वलंत मुद्दों से घिरी संप्रग सरकार ने विपक्ष में विभाजन और देश का ध्यान ज्वलंत समस्याओं से हटाने के लिए यह कदम उठाया लगता है। गुरुवार को भोजन का अधिकार देने वाले बिल को संसद में पेश करने वाली मनमोहन सरकार ने राज्य में शिक्षा संस्थानों और नौकरी में अल्पसंख्यकों को आरक्षण का रास्ता साफ करके एक तीर से कई निशाने साधने का प्रयास किया है। कुछ साल पहले रंगनाथ मिश्र आयोग ने मुसलमानों की हालत को बेहतर करने के लिए आरक्षण की सिफारिश की थी। लेकिन संविधान धर्म के आधार पर आरक्षण देने की इजाजत नहीं देता। इसलिए पिछले वर्ग की सूची में अल्पसंख्यकों को आरक्षण देकर मुसलमानों को लाभ देने की कोशिश कितनी कारगर होगी, यह तो भविष्य ही बताएगा। राजनीतिक मजबूरियों के चलते सरकार ने मुस्लिम आरक्षण बेशक कर दिया हो या करने की नीयत साफ कर दी हो पर सुप्रीम कोर्ट में यह मामला ठहर पाता है या नहीं? सुप्रीम कोर्ट 10 साल पहले उत्तर प्रदेश की तत्कालीन भाजपा सरकार की ऐसी पहल पर रोक लगा चुका है। उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री रहने के दौरान राजनाथ सिंह ने पिछड़ों के 27 फीसदी कोटे में से ही अतिपिछड़ों को अलग से आरक्षण के लिए सामाजिक न्याय समिति बनाई थी। समिति की ही सिफारिश पर उत्तर प्रदेश सरकार ने विधानसभा से पारित उत्तर प्रदेश लोक सेवा (अनुसूचित जाति/जनजाति व अन्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण) संशोधन अधिनियम 2001 लागू तो कर दिया, लेकिन उसी सरकार के पर्यटन मंत्री रहे अशोक यादव ने उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी जबकि कुछ अन्य संगठन भी सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गए थे। उस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राजनाथ सिंह सरकार के उस फैसले पर रोक लगा दी थी। इस बीच पिछड़ों के ही कोटे से मुसलमानों को आरक्षण की पहल पर यादव ने कहा, `चूंकि कोटे के भीतर एक और कोटे' पर सुप्रीम कोर्ट 10 साल पहले रोक लगा चुका है। ऐसे में केंद्र सरकार मुस्लिम आरक्षण को लेकर यदि वाकई गम्भीर है तो संविधान में संशोधन कराए। हकीकत तो यह है कि अलग-अलग पार्टियों की अगुवाई करने वाले पिछड़े वर्गों के कई नेता जिनमें मुसलमान भी शामिल हैं, पिछड़ों के कोटे से मुस्लिम आरक्षण के खिलाफ है, लेकिन मुस्लिम वोट के चलते वे खुलकर इसका विरोध नहीं करना चाहते। राजनीतिक दल ऐसा सिर्प इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि वह आने वाले चुनावों में मुस्लिम समुदाय के थोक वोट हासिल करना चाहते हैं। मुस्लिम आरक्षण की वकालत करने वाले दलों के पास इस सवाल का शायद ही कोई जवाब हो कि उन्हें अभी तक इस सप्रदाय का पिछड़ापन क्यों नहीं दिखा? क्या आरक्षण से मुस्लिम समुदाय की समस्याएं खत्म हो जाएंगी? हमारे मुसलमान भाइयों की एक बड़ी समस्या यह भी रही है कि इतने सालों के बाद भी उन्हें सही नेतृत्व नहीं मिल सका और जो नेता खुद को इनका हितैषी बताते हैं उनकी दिलचस्पी सिर्प उनके वोट लेने में है। यह एक सच्चाई है कि मुस्लिम समुदाय पिछड़ेपन से ग्रस्त है, लेकिन इस आधार पर उसे मुख्यधारा से बाहर करार देना उसे जानबूझ कर संकुचित दायरे में सीमित करना है। तालीम की एक बहुत बड़ी समस्या है। पिछले दिनों एक सम्मेलन हुआ था उसमें बताया गया कि दिल्ली के मदरसों में सैकड़ों पद खाली पड़े हुए हैं, इन्हें भरने की किसी ने कोई कोशिश नहीं की। सच्चर कमेटी की सिफारिशें भी मुस्लिम समुदाय का स्तर बढ़ा सकती हैं पर अफसोस से कहा जाएगा कि उस पर कोई अमल नहीं हुआ। जब तक मुस्लिम समाज में तालीम नहीं बढ़ाई जाती, हमें तो उसका उद्धार होता मुश्किल लग रहा है। आवश्यकता तो आज इस बात की है कि ऐसी कोई व्यवस्था बनाएं जिसमें भारतीय समाज के जो भी वंचित निर्धन हैं उन सभी का उत्थान हो भले ही वह किसी भी जाति, समुदाय, क्षेत्र अथवा मजहब के हों।
Anil Narendra, Congress, Daily Pratap, Minority, Muslim Reservation, Rangnath Misra, Uttar Pradesh, Vir Arjun

Friday, 23 December 2011

एक कम्युनिस्ट तानाशाह की मौत

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 23rd December 2011
अनिल नरेन्द्र
दुनिया में एक और तानाशाह का अन्त हो गया है। उत्तर कोरिया के 69 वर्षीय सुप्रीम नेता और वर्पर्स पार्टी ऑफ कोरिया के प्रमुख किम जोंग इल का निधन हो गया है। किम जोंग इल का निधन यूं तो 13 दिसम्बर को हुआ था पर उनकी आधिकारिक घोषणा दो दिन बाद हुई। किसी देश का नेता जब दुनिया को अलविदा कहता है तो अक्सर गम का माहौल बन जाता है लेकिन तानाशाहों के मामले में ऐसा नहीं होता। उनके जाने से दुनिया राहत की सांस लेती है। किम जोंग के बारे में भी ऐसी ही भावना बनी। जापान ने तो उनके निधन की खबर सुनने के बाद बाकायदा सुरक्षा बैठक की और पूरे देश से किसी भी हालात के लिए तैयार रहने को कहा। अमेरिका और पश्चिमी देशों ने राहत की सांस ली। उत्तर कोरिया का एक मात्र दोस्त चीन भी चिंतित है, क्योंकि प्योंग यांग की सत्ता में कोई बदलाव उसके उन समीकरणों को बिगाड़ सकता है जिसके भरोसे चीन ने जापान, वियतनाम जैसे पड़ोसियों के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है। इसमें कोई शक नहीं कि किम जोंग इल के शासन में उत्तरी कोरिया एक परमाणु शक्ति के रूप में उभरा पर इसके साथ-साथ ही यह भी सच है कि उन्हीं के शासनकाल में उत्तरी कोरिया ने इतिहास का सबसे बड़ा दुर्भिक्ष भी झेला, जिसमें लाखों लोग भूख से बेमौत मारे गए। उत्तरी कोरिया वैसे तो एक समाजवादी देश समझा जाता था लेकिन अगर गौर से देखें तो वह किसी धार्मिक कट्टर जैसा लगता है, जहां एक व्यक्ति और उसका परिवार देश का पर्याय बन जाता है। 1994 में पिता के निधन के बाद वह आसानी से अपने देश के सर्वोच्च नेता बन गए। तब लगता था कि वह ज्यादा दिन शासन नहीं चला पाएंगे। पश्चिमी विशेषज्ञ दरअसल किम जोंग की अनुभवहीनता और परिवार के दूसरे सदस्यों से उन्हें मिलने वाली चुनौती की आशंकाओं के कारण इन नतीजों पर पहुंचे थे। लेकिन तब से उनका एकछत्र शासन उत्तर कोरिया में चल रहा है। पिता ने देश को जिस लोहे की दीवार में कैद किया था, बेटे ने उसे और मजबूत ही बनाया है। किम जोंग रंगीन मिजाज के तानाशाह थे। जोंग ने 2000 लड़कियों की भर्ती की थी। इन्हें प्लैजर ग्रुपों में रखा गया था। एक सेक्सुअल सर्विसों के लिए, दूसरा मसाज और तीसरा डांसिंग और सिंगिंग के लिए। जोंग से मिलने आने वालों के लिए स्ट्रिपटीज परफार्म करती थीं। वह सिनेमा के भी जुनूनी थे। 1978 में उन्होंने दक्षिण कोरियाई प्रतिष्ठित फिल्म डायरेक्टर शिनसांग ओक और उसकी एक्ट्रेस का अपहरण कराया। दोनों को प्योंग यांग लाया गया जहां उन्हें पांच साल तक कैद रखा गया। दोनों को छोड़ा इस शर्त पर गया कि वह उत्तर कोरियाई फिल्म उद्योग के विकास में मदद करेंगे। परमाणु हथियार जुटाने की कोशिश में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से अलग-थलग पड़े किम जोंग ने अपनी हरकतों से पश्चिमी देशों की नाक में दम कर रखा था। शीतयुद्ध के बाद अपना अस्तित्व बचाए रखने वाला उत्तर कोरिया अकेला पुराने ढंग का कम्युनिस्ट देश है। वहां के राजनीतिक ढांचे ने भी नया चोला नहीं पहना और कामकाज का गोपनीय तरीका भी पुराने दौर का है। हालांकि किम जोंग के उत्तराधिकारी 28 वर्षीय किम जोंग यून को चुनौती देने की कोई खबर नहीं है। लेकिन उत्तर कोरिया में किसी भी तरह की हलचल चीन, दक्षिण कोरिया, जापान, अमेरिका और भारत के लिए महत्वपूर्ण होगी। नए शासक की परमाणु नीति दक्षिण कोरिया, जापान और अमेरिका के लिए चिन्ता का कारण बन सकती है। भारत की चिन्ता उत्तर कोरिया की पाकिस्तान के साथ परमाणु और मिसाइल रिश्ते को लेकर होगी। बेनजीर भुट्टो के दूसरे कार्यकाल में यह रिश्ता परवान चढ़ा था और तब से जारी है। पाकिस्तान की अधिकतर मिसाइलें उत्तरी कोरियाई मूल की हैं। सवाल यह है कि क्या किम जोंग यून इस रिश्ते को कायम रखते हैं या इससे आगे कोई रिश्ता बनाएंगे। सम्भावना है कि अगर किम जोंग यून नए शासक के रूप में सुरक्षित महसूस करते हैं तो वह अपने पिता की नीतियों के अनुसार चीन से करीबी रिश्ते रखेंगे और परमाणु मुद्दे पर सेना व पाकिस्तान की उम्मीदों के अनुसार काम करेंगे पर सब कुछ निर्भर करता है कि उत्तर कोरिया की सत्ता में उनकी पकड़ कितनी मजबूत है।
दुनिया में एक और तानाशाह का अन्त हो गया है। उत्तर कोरिया के 69 वर्षीय सुप्रीम नेता और वर्पर्स पार्टी ऑफ कोरिया के प्रमुख किम जोंग इल का निधन हो गया है। किम जोंग इल का निधन यूं तो 13 दिसम्बर को हुआ था पर उनकी आधिकारिक घोषणा दो दिन बाद हुई। किसी देश का नेता जब दुनिया को अलविदा कहता है तो अक्सर गम का माहौल बन जाता है लेकिन तानाशाहों के मामले में ऐसा नहीं होता। उनके जाने से दुनिया राहत की सांस लेती है। किम जोंग के बारे में भी ऐसी ही भावना बनी। जापान ने तो उनके निधन की खबर सुनने के बाद बाकायदा सुरक्षा बैठक की और पूरे देश से किसी भी हालात के लिए तैयार रहने को कहा। अमेरिका और पश्चिमी देशों ने राहत की सांस ली। उत्तर कोरिया का एक मात्र दोस्त चीन भी चिंतित है, क्योंकि प्योंग यांग की सत्ता में कोई बदलाव उसके उन समीकरणों को बिगाड़ सकता है जिसके भरोसे चीन ने जापान, वियतनाम जैसे पड़ोसियों के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है। इसमें कोई शक नहीं कि किम जोंग इल के शासन में उत्तरी कोरिया एक परमाणु शक्ति के रूप में उभरा पर इसके साथ-साथ ही यह भी सच है कि उन्हीं के शासनकाल में उत्तरी कोरिया ने इतिहास का सबसे बड़ा दुर्भिक्ष भी झेला, जिसमें लाखों लोग भूख से बेमौत मारे गए। उत्तरी कोरिया वैसे तो एक समाजवादी देश समझा जाता था लेकिन अगर गौर से देखें तो वह किसी धार्मिक कट्टर जैसा लगता है, जहां एक व्यक्ति और उसका परिवार देश का पर्याय बन जाता है। 1994 में पिता के निधन के बाद वह आसानी से अपने देश के सर्वोच्च नेता बन गए। तब लगता था कि वह ज्यादा दिन शासन नहीं चला पाएंगे। पश्चिमी विशेषज्ञ दरअसल किम जोंग की अनुभवहीनता और परिवार के दूसरे सदस्यों से उन्हें मिलने वाली चुनौती की आशंकाओं के कारण इन नतीजों पर पहुंचे थे। लेकिन तब से उनका एकछत्र शासन उत्तर कोरिया में चल रहा है। पिता ने देश को जिस लोहे की दीवार में कैद किया था, बेटे ने उसे और मजबूत ही बनाया है। किम जोंग रंगीन मिजाज के तानाशाह थे। जोंग ने 2000 लड़कियों की भर्ती की थी। इन्हें प्लैजर ग्रुपों में रखा गया था। एक सेक्सुअल सर्विसों के लिए, दूसरा मसाज और तीसरा डांसिंग और सिंगिंग के लिए। जोंग से मिलने आने वालों के लिए स्ट्रिपटीज परफार्म करती थीं। वह सिनेमा के भी जुनूनी थे। 1978 में उन्होंने दक्षिण कोरियाई प्रतिष्ठित फिल्म डायरेक्टर शिनसांग ओक और उसकी एक्ट्रेस का अपहरण कराया। दोनों को प्योंग यांग लाया गया जहां उन्हें पांच साल तक कैद रखा गया। दोनों को छोड़ा इस शर्त पर गया कि वह उत्तर कोरियाई फिल्म उद्योग के विकास में मदद करेंगे। परमाणु हथियार जुटाने की कोशिश में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से अलग-थलग पड़े किम जोंग ने अपनी हरकतों से पश्चिमी देशों की नाक में दम कर रखा था। शीतयुद्ध के बाद अपना अस्तित्व बचाए रखने वाला उत्तर कोरिया अकेला पुराने ढंग का कम्युनिस्ट देश है। वहां के राजनीतिक ढांचे ने भी नया चोला नहीं पहना और कामकाज का गोपनीय तरीका भी पुराने दौर का है। हालांकि किम जोंग के उत्तराधिकारी 28 वर्षीय किम जोंग यून को चुनौती देने की कोई खबर नहीं है। लेकिन उत्तर कोरिया में किसी भी तरह की हलचल चीन, दक्षिण कोरिया, जापान, अमेरिका और भारत के लिए महत्वपूर्ण होगी। नए शासक की परमाणु नीति दक्षिण कोरिया, जापान और अमेरिका के लिए चिन्ता का कारण बन सकती है। भारत की चिन्ता उत्तर कोरिया की पाकिस्तान के साथ परमाणु और मिसाइल रिश्ते को लेकर होगी। बेनजीर भुट्टो के दूसरे कार्यकाल में यह रिश्ता परवान चढ़ा था और तब से जारी है। पाकिस्तान की अधिकतर मिसाइलें उत्तरी कोरियाई मूल की हैं। सवाल यह है कि क्या किम जोंग यून इस रिश्ते को कायम रखते हैं या इससे आगे कोई रिश्ता बनाएंगे। सम्भावना है कि अगर किम जोंग यून नए शासक के रूप में सुरक्षित महसूस करते हैं तो वह अपने पिता की नीतियों के अनुसार चीन से करीबी रिश्ते रखेंगे और परमाणु मुद्दे पर सेना व पाकिस्तान की उम्मीदों के अनुसार काम करेंगे पर सब कुछ निर्भर करता है कि उत्तर कोरिया की सत्ता में उनकी पकड़ कितनी मजबूत है।
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Thursday, 22 December 2011

लोकपाल बिल पर टकराव की पूरी सम्भावना है

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 23rd December 2011
अनिल नरेन्द्र
सरकार और अन्ना हजारे का टकराव अब होना सम्भावित लग रहा है। सरकार ने साफ कर दिया है कि न तो उसे टीम अन्ना से कोई डर है और न ही अब वह उसके सामने झुकने को तैयार है। वह टीम अन्ना से लम्बी लड़ाई लड़ने को तैयार है। अब तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी मैदान में आ गई हैं और उन्होंने कमान सम्भाल ली है। सोनिया गांधी न लोकपाल को आधार बनाते हुए अन्ना हजारे और विपक्षी दलों को सीधी चुनौती दे दी है। सरकारी लोकपाल बिल का समर्थन करते हुए उन्होंने बुधवार को कहा कि इसे अब अन्ना और विपक्ष को स्वीकार कर लेना चाहिए। यदि वे ऐसा नहीं करते तो कांग्रेस पांच राज्यों के आगामी चुनाव में इन दोनों चुनौतियों से निपटने तथा लम्बी लड़ाई लड़ने को तैयार है। बुधवार को कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में आक्रामक तेवर दिखाते हुए सोनिया ने पहली बार लोकपाल पर अपने विचार रखे। सरकार और संगठन के बीच किसी भी मतभेद को दरकिनार करते हुए सोनिया गांधी ने कहा कि यह बिल बहुत अच्छा बना है और इसे पारित कराने में विपक्ष को अड़चन पैदा नहीं करनी चाहिए और अन्ना हजारे को भी इसे स्वीकार कर लेना चाहिए पर अन्ना हजारे को वर्तमान स्वरूप में लोकपाल बिल स्वीकार्य नहीं है। सबसे बड़ा मतभेद सीबीआई और ग्रुप सी की ब्यूरोकेसी को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने को है। अन्ना ने अपना अभियान तेज करते हुए कहा कि सीबीआई को लोकपाल के दायरे से बाहर रखने के पीछे सरकार की मंशा नेताओं को बचाने की है। यदि सीबीआई (लोकपाल से) बाहर रहेगा तो लोकपाल कैसे मजबूत होगा? यदि सीबीआई लोकपाल के आधीन आ जाती है तो (गृहमंत्री) पी. चिदम्बरम जेल के अन्दर होंगे। आप भ्रष्ट नेताओं को बचा रहे हैं और कह रहे हैं कि यह मजबूत लोकपाल है। उन्होंने कहा कि यह सरकार लोगों को धोखा दे रही है। जनता उसे सबक सिखा देगी। उन्होंने कहा कि अगले साल उत्तर प्रदेश और जिन चार अन्य राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं वहां संप्रग के खिलाफ अभियान चलाएंगे। विधेयक को खारिज करते हुए अन्ना ने कहा कि अलग से सिटीजन चार्टर विधेयक लाने के लिए भी सरकार ने जनता के हितों को नजरंदाज किया है। आम आदमी को अपनी शिकायत के निवारण के लिए प्रस्तावित तंत्र के तहत बेमतलब यहां से वहां दौड़ना पड़ेगा। यह लोगों से धोखा है। उधर सरकार ने मंगलवार को भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए अपनी रणनीति के तहत लोकसभा में सिटीजन चार्टर बिल पेश कर दिया। विधेयक में हर नागरिक को समयबद्ध तरीके से सामान और सेवाओं की उपलब्धता के साथ-साथ शिकायतों के निवारण का अधिकार दिया गया है यानि सरकारी महकमों में कौन-से काम कितने दिनों में होंगे। इसके लिए कौन जिम्मेदार है, यह पहले से बताना होगा। ऐसा न होने पर संबंधित अधिकारी के खिलाफ शिकायत की जा सकेगी। हमें नहीं लगता कि लोकसभा में इसी सत्र में यह बिल पास हो सकेगा? क्रिसमस की छुट्टी के बाद सदन की कार्यवाही 27, 28 और 29 दिसम्बर तक बढ़ाने को लेकर सांसदों में भारी विरोध है। क्रिसमस के बाद सदन चलाने को लेकर खासतौर से केरल और अरुणाचल प्रदेश के सांसदों का विरोध इसलिए है कि उन्होंने पहले से ही साल के अन्त में परिवार के साथ छुट्टियां मनाने का प्रोग्राम बना रखा है। उनमें से कई विदेश भी जाना चाह रहे हैं। उधर भाजपा सहित अन्य विपक्षी दलों का भी सरकारी लोकपाल बिल पर स्टैंड स्पष्ट नहीं। लोकपाल के कई प्रावधानों पर अब भी सहमति नहीं है। सरकारी प्रवक्ता कह रहे हैं कि सिर्प दो दिन में ही लोकपाल पारित हो सकता है बशर्ते विपक्ष साथ दे और पारित कराने में सहयोग दे। लेकिन सरकारी मसौदा देखने से पहले विपक्ष खासतौर से भाजपा कोई भी आश्वासन देने को तैयार नहीं था। दूसरे विपक्षी दल भी तेवर बनाए हुए हैं। ऐसे में 23 दिसम्बर तक विस्तृत चर्चा के बाद लोकपाल पारित कराना सम्भव नहीं लगता। अगर संसद में विधेयक को लेकर आम सहमति न बनी तो आगे क्या होगा? सम्भव है कि विधेयक को सिलैक्ट कमेटी को सौंप दिया जाए। इससे सभी पक्षों का स्टैंड बरकरार रहेगा।
Anil Narendra, Anna Hazare, BJP, CBI, Daily Pratap, Lokpal Bill, P. Chidambaram, Sonia Gandhi, Vir Arjun

रूस में आखिर क्यों हो रहा है भगवत गीता का विरोध?

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 22nd December 2011
अनिल नरेन्द्र
यह अत्यन्त दुख की बात है कि रूस में भगवत गीता जैसे महान धार्मिक ग्रंथ को कुछ लोग एक उग्रवादी ग्रंथ बताकर उस पर पतिबंध लगवाने का पयास कर रहे हैं। रूस के साइबेरिया में तोस्सक की अदालत में इस्कॉन के संस्थापक एसी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद द्वारा लिखित भगवत गीता यथारूप के रूसी अनुवाद पर पतिबंध लगाने के लिए जून माह से ही मामला चल रहा है। इस मामले में अदालत द्वारा सोमवार को फैसला दिया जाना चाहिए था। अब यह फैसला 28 दिसम्बर तक के लिए टल गया है। अदालत में यह तर्क भी दिया जा रहा है कि इसका कथ्य सामाजिक वैमनस्य फैलाने वाला है। रूस के लोकपाल औम्बुसचैन ब्लादिमीर लुकिन ने अपना बयान जारी करके घोषणा की थी कि इस्कॉन के संस्थापक एसी भक्तिवेदांत स्वामी द्वारा लिखित `भगवत गीता एज इट इज' विश्वभर में पतिष्ठित पुस्तक है और रूस में इस पर पतिबंध लगाने की मांग अस्वीकार्य है। उधर रूस में रह रहे भारत, बांग्लादेश, मारिशस, नेपाल आदि देशें के हिंदुओं ने आपातकालीन बैठक में अपने हितों की रक्षा के लिए `हिंदू काउंसिल ऑफ रूस' बनाया है। इधर भारत में सड़कों से लेकर संसद में यह मुद्दा गरमाया हुआ है। लोकसभा में जब इस मुद्दे पर बहस चल रही थी तो पतिबंध के विरोध में एक ऐसे नेता खड़े हुए जिनसे कभी भी यह उम्मीद नहीं थी कि वह इस पतिबंध का विरोध करेंगे। मैं राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू पसाद यादव की बात कर रहा हूं। सोमवार को लोकसभा में गीता और गंगा पर चल रही बहस के दौरान लालू सरकार पर विफर पड़े। धुर समाजवादी लालू पर अचानक धर्म का रंग चढ़ जाने से उनके विरोधी भी दंग रह गए और कुछ ने तो चुटकी भी ली। भाजपा ने कहा कि जनता ने उन्हें रिटायर कर दिया है इसलिए अब उन पर आध्यात्मिक रंग चढ़ गया है। हालांकि काफी सदस्यों ने रूस में पतिबंध का विरोध किया पर लालूजी का अंदाज सबसे जुदा रहा। उन्होंने गीता के विरुद्ध रूस में चलाई जा रही मुहिम को हफ्ता भरी साजिश बताया। सदस्यों द्वारा इस बारे में रोष पकट किए जाने के दौरान लालू बीच-बीच में बोलो कृष्ण भगवान की जय का उद्घोष करते रहे। इस मसले को लालू के साथ ही मुलायम सिंह और भाजपा के वरिष्ठ नेता डा. मुरली मनोहर जोशी ने बेहद गम्भीर बताते हुए पधानमंत्री से हस्तक्षेप करने की मांग की। हंगामे के कारण लोकसभा दो घंटे तक स्थगित रही। लेकिन लालू इस मामले को सदन के बाहर सरकार पर दबाव बनाने के लिए अपने विरोधियों को साधते नजर आए। मीडिया से भी उन्होंने सहयोग मांगा। जब उनसे पूछा गया कि लालू जी आप तो समाजवादी नेता हैं। गीता पर आप इस कदर उद्धेलित क्यों हैं, फिर क्या था लालू भाजपा पर विफर पड़े। कहा कि भगवान कृष्ण, राम और गीता-रामायण भाजपा का ट्रेड मार्प है क्या? उन्होंने कहा कि कृष्ण और गीता तो यदुवंशियों से जुड़ी है। वे हमारे आराध्य हैं। भाजपा वाले राम और कृष्ण को भूल चुके हैं। लालू जी ने ठीक कहा कि भगवान कृष्ण, भगवान राम, गीता-रामायण हमारे आराध्य हैं और हजारों वर्षों से भारतीय संस्कृति का हिस्सा रहे हैं। इन पर हमला भारत की संस्कृति, भारत के जीवनशैली पर हमला है। पर यहां एक बात जो मुझे लगती है कि रूस में जो विरोध हो रहा है वह स्वामी पभुपंत के अनुवादित भगवत गीता का हो रहा है। हो सकता है कि रूस में एक वर्ग इस अनुवादित गीता से सहमत न हो। उन्होंने संस्कृत और हिंदी में गीता का विरोध नहीं किया। मुझे यकीन है कि जो ग्रंथ सदियों से मानव के मार्गदर्शक रहे हैं उन पर यह अनुचित विवाद जल्द समाप्त हो जाएगा। खुद रूसी सरकार इस विरोध को नाजायज मान रही है और निश्चित रूप से रूसी अदालत भी इस विरोध को खारिज कर देगी। जय श्रीकृष्ण। फिर मुझे विश्वास ही नहीं यकीन है कि हमारे रूसी भाई उस कट्टरपंथ की ओर देश को फिर नहीं ले जाना चाहेंगे जिसे उन्होंने इतनी मेहनत, मशक्कत से निकाला है।
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सोनिया गांधी का ड्रीम पोजेक्ट खाद्य सुरक्षा विधेयक

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi
Published on 22nd December 2011
अनिल नरेन्द्र
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का एक ड्रीम पोजेक्ट हकीकत होने जा रहा है। सोनिया गांधी के वीटो से खाद्य सुरक्षा विधेयक को केन्द्राrय मंत्रिमंडल ने मंजूर कर लिया है। पधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई केन्द्राrय मंत्रिमंडल की बैठक में इस विधेयक पर ज्यादा चर्चा नहीं हुई। इस विधेयक को लेकर पूरी सरकार पर इतना ज्यादा दबाव था कि बैठक में इस पर तुरत-फुरत सहमति की मुहर लग गई। खाद्य मंत्री शरद पवार एवं दूसरे सहयोगी दलों की चिंताओं को भी संपग अध्यक्ष का `ड्रीम' बताते हुए इसे अब न रोकने के लिए मनमोहन सिंह ने सभी सहयोगियों को मना लिया। हम सोनिया जी की भावना की कद्र करते हैं। देश में लगभग 47 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और हर साल हजारों लोगों की मौत कुपोषण और भुखमरी की वजह से होती है। पिछले दिनों आई संयुक्त राष्ट्र की मानवविकास रिपोर्ट बताती है कि भारत में पति व्यक्ति आय तो बढ़ी है मगर इसी के साथ भूखे लोगों की तादाद भी बढ़ी है। इस गम्भीर समस्या के मद्देनजर अगर सरकार ने देश के लगभग 63.5 फीसदी आबादी यानि गांव और शहर के लगभग 80 करोड़ गरीब लोगों को भोजन का बुनियादी अधिकार दिलाने वाला कानून बनाने की दिशा में पहल करते हुए बहुपतिष्ठित खाद्य सुरक्षा विधेयक को मंजूरी दी है तो इसका एक लोक कल्याणकारी कदम माना जाएगा और इसका इस हद तक स्वागत किया जाना चाहिए। परन्तु नेक इरादे रखना और उन्हें हकीकत में बदलना आसान नहीं होता। पहली बात तो यह है कि इतना रुपया आएगा कहां से? इस कानून को लागू करने में सरकार पर पहले साल 95,000 करोड़ रुपए की सब्सिडी का बोझ आएगा। यह तीसरे साल तक 1.50 लाख करोड़ हो जाएगा। वर्तमान में सरकार 31,000 करोड़ रुपए खाद्य सब्सिडी पर खर्च कर रही है। इसके अतिरिक्त तीसरे साल देश के कृषि उत्पादों के भंडारण के लिए गोदाम बनाने के लिए 50,000 करोड़ रुपए की अतिरिक्त राशि की आवश्यकता होगी। हमारी मौजूदा व्यवस्था में हमारे पास इतने गोदाम नहीं कि गेंहू और सब्जियों के भंडारों को सुरक्षित रखा जाए। किसान अपनी फसलें नष्ट करने के लिए मजबूर हैं। वैसे भी ग्रामीण आंचल में हर व्यक्ति को दो वक्त की रोटी तो मिल ही जाती है। एक हकीकत हमारे देश की यह भी है कि सरकार द्वारा चलाई जा रही कोई भी योजना का लाभ उस उपभोक्ता को नहीं पहुंचता जिसके लिए यह लागू की गई है। ध्वस्त राशन पणाली पर खाद्य सुरक्षा विधेयक का बोझ डालने का कहीं यह मतलब न निकले कि खाद्य सब्सिडी में लूट दोगुनी हो जाए? सरकार इसी बीमार राशन पणाली व पब्लिक डिस्ट्रीव्यूशन के भरोसे देश की तीन चौथाई जनता को रियायती मूल्य पर अनाज बांटने की योजना इतनी आसान नहीं होगी। अनाज की यह लूट भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के गोदामों से लेकर राशन के दुकानदारों तक होती है। राशन पणाली में फिलहाल 35 करोड़ लोगों को सस्ता खाद्यान्न वितरित किया जाता है (?) पस्तावित विधेयक में जब 80 करोड़ लोगों को राशन देने का पावधान है। जाहिर है कि मौजूदा राशन पणाली के लिए यह बड़ा बोझ होगा। इसके बावजूद सरकार ने राशन पणाली में मामूली सुधार करने का बहुत जोर कभी नहीं दिया गया। जब तक सार्वजनिक वितरण पणाली को चुस्त-दुरुस्त नहीं किया जाता हमें नहीं लगता कि सोनिया जी अपने मकसद में कामयाब हो सकेंगी। यह कम आश्चर्य की बात नहीं कि जब सरकार, विपक्ष और टीम अन्ना के बीच लोकपाल विधेयक को लेकर होने वाली खींचतान के शोर शराबे में देश डूबा था तब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी अपने `खाद्य सुरक्षा विधेयक' को लेकर सबसे ज्यादा गम्भीर थीं। क्या यह इसलिए लाया गया ताकि लोकपाल से बड़ी लकीर खींची जा सके या फिर इसलिए लाया गया कि उत्तर पदेश के सियासी दंगल में राहुल को खाद्य सुरक्षा विधेयक का अस्त्र मुहैया कराया जाए ताकि आगामी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी को इसका सियासी लाभ मिल सके?
Anil Narendra, Congress, Daily Pratap, Food Security Bill, Manmohan Singh, Sonia Gandhi, Vir Arjun

Wednesday, 21 December 2011

Zardari's return will add fuel to fire

- Anil Narendra
Rumours about Zardari fleeing the country have proved to be wrong and baseless. In fact, it was being said that under the pressure from military, Zardari has fled to Dubai, from where he will go to London. Zardari is not ill at all. He has proved everybody wrong and has returned to Pakistan from Dubai. In a statement by the President House, the Sopokesman, Eijaz Durrani has said, 'Zardari has been treated of his illness and now, his health is fine. He will remain in Karachi for a few days, before leaving for Islamabad and very soon he will be active politically.' Though with the return of Zardari, all rumours about a coup has been laid to rest, but it has been seen that in the past, most of the Pak leaders had returned empty handed, whenever they had gone out of country. We have two such examples. First example is of Benazir Bhutto, who had gone in exile to Dubai, when the President sacked her government for allegations of corruptions and she had to face defeat in 1997 elections. Similarly, Parvez Musharraf, who had been the President of Pakistan from 2001 to 2008, resigned and left for London, just before he was to be impeached. He is still in London, though he has been telling people that he will be returning to Pakistan in January 2012. Zardari's return is not likely to quell the political tremors being felt in the country. Now this is an open secret that after memogate, the Pak military is after Zardari and his government. ISI chief, Ahmed Shuja Pasha had gone to a secret visit to Gulf Countries after the killing of Osama bin Laden. By then, he had prepared his scheme of dethroning Zardari and he had taken these countries into confidence and secured their agreement to his plans. The Americn national of Pak origin, Mansoor Eijaz disclosed about this on his blog in May. He had claimed in his blog that suddenly Shuja Pasha disappeared after the killing of Osama bin Laden on May 2, he had, in fact, left for Arab countries. Eijaz had also made public the confidential letter written by Zardari seeking America's help, in view of apprehension of a military coup. Geo Channel gave this information quoting Journaist, Omen Waraich of British newspaper, The Independent. Meanwhile, the Pakistan Army Chief, Ashfaq Parvez Kayani, accepting the existence of secret memorandum document (memogate) said that it was a conspiracy against Pak military and national security. A thorough investigation of this issue must be carried out. Kayani said this in the affidavit submitted in the Supreme Court. All told, nine petitions calling for investigation into this matter have been file in the Supreme Court. The Court had directed President Asif Ali Zardari and nine others to submit their replies by 15th Dec.
Apprehending military coup in the wake of killing of Osama bi Laden by American commandos in Abbotabad, Zardari had written a letter to the US President seeking help. The coming to the light of this letter, it created storm in the Pak poitics.In his reply to this matter, Pakistan Inter- Services Intelligence, ISI Chief Ahmed Shuja Pasha said that he is not satisfied with the evidence provided by the American businessman of Pak origin, Mansoor Eijaz in support of the secret memo, whereas Kayani has demanded that whole truth linked with the secret memo must be un-earthed. He said that this episode has adversely affected the morale of his troops. There has, however, no reply filed on behalf of Zardari so far. The government wants that the petitions seeking investigations into the matter must be rejectd, as it has already constituted a Parliamentar Committee to investigate the memogate issue. Tensons due to the memogate continues in Pakistan. Pak Prime Minister Yousuf Raza Gillani has said that conspiracies are being hatched against his government to install the Senate elections due next year. Talking to reporters in Lahore in a personal chat, Gillani said that all these conspiracies aim at installing Senate elections. He declared that there is no place for martial law in Pakistan. Though he did not clarified abour the origin of these conspiracies, but he was raising finger towards the military.
These political tremors are not going to end. This is a fight between military and the elected government of Zardari. Some other political parties are also secretly supporting the Army. Nawaz Sharif and Imran Khan want to further their own interests. Pakistani Army is bent upon to dismiss the Zardari & Co, as such nothing can be said that how the matter turns out in days ahead? Pakistan is once again standing at the cross-roads.