Tuesday, 31 July 2012

अन्ना के आंदोलन को पब्लिक रिस्पांस की कमी?


                                Published on 1 August, 2012                             
अनिल नरेन्द्र

जन्तर-मन्तर पर अनशन कर रही टीम अन्ना के समर्थकों में लगातार कमी आ रही है, कम से कम अनशन स्थल पर भीड़ का अभाव है। भीड़ के लिए तरसते अन्ना के आंदोलन में थोड़ी जान बाबा रामदेव ने आकर पूंकी। रामदेव के साथ पहुंचे करीब 2000 लोगों ने माहौल थोड़ी देर के लिए जरूर बदल दिया लेकिन अन्ना के समर्थन में जैसी भीड़ रामलीला मैदान में इकट्ठी हुई थी वैसे अब नहीं आ रही। कई-कई दिन तो मुश्किल से चार-पांच सौ लोग ही आंदोलन स्थल पर नजर आए। झंडे, टोपी, टी-शर्ट बेचने वाले भी निराश हैं। उन्होंने सामान ज्यादा बना लिया है और खरीददार गायब हैं। इस दयनीय स्थिति के लिए टीम अन्ना खुद ही जिम्मेदार है। वह पहले दिन से न केवल भ्रमित दिख रही है बल्कि अपने भ्रम का प्रदर्शन भी कर रही है। बार-बार अपना स्टैंड बदलना जनता को पसंद नहीं आ रहा। पहले यह कहा गया कि जनलोकपाल के लिए आंदोलन है फिर स्टैंड शिफ्ट हो गया और केंद्र सरकार के 15 भ्रष्ट मंत्रियों को निशाने पर लाया गया। इस सूची में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को भी शामिल कर लिया गया। इससे जनता थोड़ी गुमराह हो गई और जनता में अन्ना के आंदोलन के प्रति थोड़ा मोहभंग हो गया। खुद अन्ना हजारे ने प्रणब मुखर्जी को कठघरे में खड़ा करने की अपनी और अपने सहयोगियों की कोशिश खारिज कर दी। टीम अन्ना के अरविन्द केजरीवाल के विवादास्पद बयानों ने आग में घी का काम किया। आरएसएस से लेकर भाजपा सहित लगभग सभी राजनीतिक दल आंदोलन के विरोध में उतर आए। बाबा रामदेव आए पर बाबा और अरविन्द केजरीवाल के मतभेद मंच पर ही स्पष्ट हो गए। इधर बाबा के सहयोगी बालकृष्ण की गिरफ्तारी से भी जनता का मोहभंग होना स्वाभाविक ही था। अब स्थिति यह है कि यह भी स्पष्ट नहीं कि टीम अन्ना में कितना विचारों का एका है और अन्ना और रामदेव में कितना एका है? कोई आश्चर्य नहीं कि इस सबके चलते समर्थकों में जोश का संचार नहीं हो पा रहा है। समर्थकों की जो स्थिति नई दिल्ली में देखने को मिल रही है, कुछ वैसी ही स्थिति देश के अन्य हिस्सों में भी है। कहीं भी बड़ी संख्या में लोग इस आंदोलन के साथ नहीं जुट रहे हैं। बेहतर होता कि टीम अन्ना को पहले से इसका आभास हो जाता कि बदले हुए माहौल में केवल यह शोर-शराबा करने से बात बनने वाली नहीं है, क्योंकि हर तरफ भ्रष्टाचार व्याप्त है। फिर अन्ना की टीम को यह तो साफ हो ही गया था कि कोई भी सांसद, विधायक, नौकरशाह दिल से अन्ना के आंदोलन का समर्थन नहीं करता। आम जनता इस भ्रष्टाचार से अच्छी तरह  परिचित है और इस नतीजे पर पहुंचती जा रही है कि वर्तमान राजनीतिक माहौल में कोई ठोस सुधार नहीं हो सकता। जरूरत तो इस बात की है कि टीम अन्ना खुद आत्ममंथन करे कि आखिर क्यों जनता उनके आंदोलन से उत्साहित नहीं? क्यों यह उत्साह कम होता जा रहा है? अन्ना आंदोलन में भीड़ की कमी से  बेशक सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी प्रसन्न होगी पर उसे यह नहीं समझना चाहिए कि भ्रष्टाचार का मुद्दा ही समाप्त हो गया है। भ्रष्टाचार से निपटने में यह सरकार पहले भी असफल थी और आज भी है।


पाक टीवी चैनल में हिन्दू के धर्म परिवर्तन का लाइव कवरेज


                                    Published on 1 August, 2012                           

अनिल नरेन्द्र

पाकिस्तान में बचे हुए हिन्दुओं को धर्म परिवर्तन मजबूरन करने की अकसर खबरें आती रहती हैं। गत दिनों हिन्दू लड़कियों से जबरन इस्लाम कबूल करवाने की खबर ने सारी दुनिया को चौंका दिया था पर अब तो एक पाकिस्तानी टीवी चैनल ने सारी हदें पार कर दी हैं। पाकिस्तान के एक विवादित टीवी एंकर ने एक हिन्दू लड़के से इस्लाम कबूल करने का लाइव कवरेज किया है। इस घटना से जहां देश के उदारवादियों में खलबली मच गई है वहीं अल्पसंख्यक समुदाय में चिन्ता की लहर दौड़ गई है। इस हिन्दू किशोर की पहचान सुनील के तौर पर हुई है। पाकिस्तान के एक लीडिंग टीवी चैनल `एआरवाई डिजीटल' चैनल पर माया खान की मेजबानी में रमजान पर सीधे प्रसारण में एक विशेष शो में सुनील को मौलाना मुफ्ती मोहम्मद अकमल ने इस्लाम कबूल करवाया। मंगलवार को प्रसारित शो के दौरान बच्चों और वयस्कों के एक समूह में बैठे सुनील ने कहा कि मानवाधिकार कार्यकर्ता अंसार बर्नी के गैर सरकारी संगठन के लिए काम करते हुए उसने इस्लाम कबूल करने का फैसला किया। मौलाना अकमल के एक सवाल के जवाब में उसने कहा, `दो वर्ष पहले मैंने रमजान में रोजा रखा था। इस्लाम कबूल करने के लिए मुझ पर कोई दबाव नहीं है, मैं अपनी इच्छा से इस्लाम कबूल करना चाहता हूं।' टीवी चैनल ने इसका लाइव प्रसारण किया। इस किस्से पर पाकिस्तान के एक प्रमुख अखबार ने लिखा है कि इससे साफ संकेत मिलता है कि पाकिस्तान में इस्लाम धर्म की तुलना में अन्य धर्मों को बराबरी का दर्जा नहीं मिलता है। एंकर माया खान ने शो के दौरान सुनील का नया नाम मोहम्मद अब्दुल्ला रखे जाने की घोषणा की। देश के मानवाधिकार कार्यकर्ता अंसार बर्नी ने कहा कि टीवी शो में भाग लेने के कारण उन्होंने अपने भाई को एनजीओ से हटा दिया है। इस लाइव प्रसारण पर पाक मीडिया ने भी इस शो की आलोचना की है। पाकिस्तानी अखबार डॉन ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि देश की इलैक्ट्रानिक मीडिया किसी भी चीज को चटपटा बनाने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। लेकिन यह तो हद हो गई कि अब वह धर्म के नाम पर खिलवाड़ करने लगी है। किसी की भावनाओं का मजाक बनाने लगी है। इस घटना के प्रसारण से यह साफ हो गया है कि अब मीडिया ने अपने व्यावसायिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए नैतिक मूल्यों, वैचारिक खुलापन और सामान्य ज्ञान को परे रख दिया है। एक अन्य अखबार द एक्सप्रेस ट्रिब्यून के सम्पादकीय पेज के सम्पादक उमर कुरैशी का कहना है कि माया खान का शो टीवी रेटिंग बनाने की रणनीति का हिस्सा है। इस तरह के शो कभी भी एक मुसलमान के धर्म परिवर्तन का प्रसारण नहीं करते हैं, यह अल्पसंख्यकों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार है। हिन्दू सुनील का धर्म परिवर्तन के किस्से से पहले कई और ऐसे ही किस्से हो चुके हैं। फरवरी 2012 में 19 वर्षीय रिंकल कुमारी का अपहरण किया गया फिर जबरन धर्म परिवर्तन किया गया और फिर एक पाकिस्तानी मुस्लिम से जबरन शादी की गई। इसके कुछ ही दिन बाद एक ईसाई महिला से भी यही व्यवहार किया गया। पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की कोई सुरक्षा नहीं। हालांकि कहने को वहां एक चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार है पर मजाल है वह वहां के मुल्लाओं के सामने अपनी जुबान खोलें?

 


Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi

Published on 31 July 2012
अनिल नरेन्द्र

Monday, 30 July 2012

पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट का समोसा न्याय

Vir Arjun, Hindi Daily Newspaper Published from Delhi

                                     Published on 31 July 2012                                          


अनिल नरेन्द्र



पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट पिछले काफी समय से सुर्खियों में है। राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी, प्रधानमंत्री राजा परवेज अशरफ से अदालत की खुली जंग के दौरान एक दिलचस्प किस्सा सामने आया। पाकिस्तान का सुप्रीम कोर्ट किस तरह छोटे से छोटे मामले में दखलअंदाजी कर रहा है इस केस से पता चलता है। मसला था पाकिस्तान में समोसे के बिकने के दाम का। देश की सुप्रीम कोर्ट ने समोसे की कीमतों को लेकर सरकार और दुकानदारों के बीच चल रहे संघर्ष में एक अहम फैसला दिया है। कोर्ट ने पंजाब प्रांत के उस आदेश को खारिज कर दिया है, जिसमें कहा गया था कि दुकानदार समोसे को छह रुपए (भारत के साढ़े तीन रुपए) से ज्यादा में नहीं बेच सकते। प्रांतीय सरकार के इस फैसले के खिलाफ पंजाब बेकर्स एण्ड स्वीट्स फैडरेशन ने शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया था। पाकिस्तान में समोसे बेहद लोकप्रिय हैं और रमजान के महीने में इसकी बिक्री आसमान छूने लगती है। लेकिन कुछ वर्षों से इसकी बढ़ती कीमत को लेकर  लोग नाराज थे। इस पर 2009 में लाहौर प्रशासन ने समोसे की कीमत (अधिकतम) छह रुपए तय कर दी थी और एक न्यायिक आदेश के तहत महंगा बेचने वाले दुकानदारों पर जुर्माना लगाने का प्रावधान किया गया था। पंजाब बेकर्स एण्ड स्वीट्स फैडरेशन ने उस समय भी इस फैसले के खिलाफ याचिका दायर की थी लेकिन लाहौर हाई कोर्ट ने उसे खारिज कर दिया था। तब फैडरेशन ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ली। सुप्रीम कोर्ट एक बार देश में चीनी की कीमतों को नियंत्रित करने के प्रयास भी कर चुका है, लेकिन फिर भी वह तय कीमत से ज्यादा पर बिकती है। पंजाब बेकर्स एण्ड स्वीट्स फैडरेशन ने तर्प दिया था कि समोसा पंजाब खाद्य पदार्थ (नियंत्रण) कानून 1958 की सूची में नहीं है। ऐसे में प्रांतीय सरकार इसका मूल्य तय नहीं कर सकती जबकि पंजाब सरकार के वकील का तर्प था कि जनहित में वह ऐसा कर सकती है। पाकिस्तानी मीडिया के एक वर्ग ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा समोसे का मामला संज्ञान में लेने और फैसला देने की खिल्ली उड़ाई है। अखबार `डान' ने इसे सुप्रीम कोर्ट के फैसले को `समोसा न्याय' करार दिया है। उसने अपने सम्पादकीय में  लिखा है, `दुकानदारों को तो इससे फायदा होगा, लेकिन देश के सैकड़ों अहम मामलों में इंसाफ का इंतजार कर रहे लाखों  लोगों को अपनी बारी आने की राह देखनी होगी। उसने कहा है कि आप लाहौर के किसी भी बाजार में चले जाएं, समोसा छह रुपए से ज्यादा में ही बिक रहा है। ऐसे में क्या कोर्ट को अपना कीमती वक्त समोसे में खराब करना चाहिए।' हमारा भी मानना है कि जहां देश में इतनी राजनीतिक अस्थिरता का दौर चल रहा हो, कानून व्यवस्था की गम्भीर लड़ाई चल रही हो,  देश की सर्वोच्च अदालत को ऐसे छोटे-छोटे महत्वपूर्ण मुद्दों से बचना चाहिए। हम समझ सकते थे कि अगर आटा, चावल, चीनी, दूध जैसे अत्यन्त जरूरी खाद्यान्न की कीमत पर सुप्रीम कोर्ट कीमतों को नियंत्रित करने में लगता पर समोसे जैसे स्नैक्स पर टाइम बर्बाद करना???





मायावती की मूर्तियां तोड़ने की जगह विकास, कानून व्यवस्था, समृद्ध खेती पर ज्यादा ध्यान दें


                                  Published on 31 July 2012                                


अनिल नरेन्द्र

बहुत दुख की बात है कि लखनऊ के गोमती नगर क्षेत्र में स्थित अम्बेडकर पार्प में उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और बसपा प्रमुख मायावती की मूर्ति तोड़ने का किस्सा सामने आया है। गत गुरुवार को मायावती की आदमकद संगमरमर से बनी मूर्ति को तोड़ दिया गया। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इसे प्रदेश की कानून व्यवस्था बिगाड़ने की साजिश बताते हुए मूर्ति को तुरन्त दुरुस्त करने का आदेश देकर स्थिति को और बिगाड़ने से बचा लिया। एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने सामाजिक परिवर्तन स्थल पर तैनात सुरक्षा गार्डों के हवाले से बताया कि दोपहर बाद चार-छह युवक मोटर साइकिल पर वहां पहुंचे और बड़े हथौड़े से मूर्ति पर प्रहार करना शुरू कर दिया। अनजान से संगठन नवनिर्माण सेना ने घटना के कुछ घंटे पहले ही बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस करके धमकी दी थी कि अगर 72 घंटे में लखनऊ और नोएडा से मायावती की मूर्तियां नहीं हटाई गईं तो वे उन्हें तोड़ देंगे। मूर्ति तोड़ने वाले गिरफ्तार हो चुके हैं। लेकिन यह घटना प्रदेश में दलितों के विरुद्ध फैले हुए विद्वेष, आक्रोश और नफरत का एक उदाहरण है, इसलिए जरूरी है कि आगे और भी सावधान रहा जाए। मायावती ने उत्तर प्रदेश से दलितों में एक स्वाभिमान पैदा किया जो सदियों से समाज में दबे-कुचले रहे हैं। बहन जी ने इसके लिए प्रतीकों की राजनीति की और जगह-जगह पर डॉ. अम्बेडकर, काशीराम की मूर्तियां लगवाईं, परिवर्तन स्थल और पार्प बनवाए, जहां दलित महापुरुषों के साथ खुद अपनी और अपने हाथियों की मूर्तियां भी लगवाईं। अपने कार्यकाल में मायावती ने इन पर सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च किए। यह कार्यक्रम काफी  लोगों को अच्छा नहीं लगा। इसमें ऐसे लोग भी थे, जिन्हें यह सार्वजनिक धन की बर्बादी लगी और शायद ऐसे लोग भी थे, जिन्हें दलितों का सत्ता पाना और उसका यूं प्रदर्शन करना बुरा लगा। जिन लोगों का यह तर्प था कि सार्वजनिक धन का बेहतर उपयोग विकास के कामों में हो सकता है, वे इस बात से भी सहमत होंगे कि एक बार बन जाने के बाद इन स्मारकों को हटाना या उन पर राजनीति करना न सिर्प व्यर्थ है बल्कि इससे प्रदेश व्यर्थ के मुद्दों पर उग्र और हिंसक राजनीति में फंस जाएगा। कटु सत्य तो यह है कि मुलायम सिंह यादव और मायावती के बीच छत्तीस का आंकड़ा रहा है। सपा और बसपा के समर्थकों के बीच कुछ तो वर्गगत विरोध है जबकि कुछ हद तक यही शत्रुता छनकर पहुंच रही है। यह एक तथ्य है कि सपा नेताओं ने कहा था कि सत्ता में आने के बाद वे मायावती और उनके हाथियों की मूर्तियां हटवा देंगे, हालांकि अखिलेश यादव सरकार ने अब तक कहीं भी ऐसा होने नहीं दिया है। मगर जब पार्टी के बड़े नेता अपने किसी विरोधी के बारे में नफरत का माहौल बनाते हैं तब लखनऊ के अम्बेडकर पार्प जैसी घटनाओं को रोकना मुश्किल होता है। मूर्ति तोड़ने वाला अमित जानी अपने को भले ही तथाकथित यूपी नवनिर्माण सेना का सदस्य बताता हो मगर वह सपा नेताओं से कहीं न कहीं जुड़ा जरूर रहा है। उत्तर प्रदेश काफी लम्बे वक्त तक जातिगत झगड़ों और उग्र राजनीति में वक्त गंवा चुका है। अब अखिलेश सरकार को इससे बचना चाहिए और प्रदेश में अच्छी जलवायु, समृद्ध खेती, विकास की दिशा में ज्यादा ध्यान देना चाहिए न कि इस तोड़फोड़, जातिगत संघर्ष और बदले की भावना रखने में।



Saturday, 28 July 2012

अगर मैं दोषी हूं तो मुझे फांसी पर लटका दें ः नरेन्द्र मोदी

Editorial Publish on 29 July 2012
-अनिल नरेन्द्र 

भाजपा के प्रभावी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पिछले कुछ समय से अखबारों व टीवी की सुर्खियों में पहले से ज्यादा आ रहे हैं। नरेन्द्र मोदी धीरे-धीरे अपनी नई राजनीतिक भूमिका के लिए तैयार हो रहे हैं। इसी के तहत उन्होंने अपनी राजनीति में लगे गुजरात के 2002 सांप्रदायिक दंगे के दाग-धब्बे हटाने के लिए कवायद तेज कर दी है। वे चाहते हैं कि अब उनका चेहरा किसी तरह से पूरे देश में स्वीकार्य बन जाए। दिल्ली से प्रकाशित होने वाले उर्दू के अखबार नई दुनिया के सम्पादक और समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सांसद शाहिद सिद्दीकी को दिए एक इंटरव्यू में मोदी ने उन तमाम सवालों का जवाब दिया या सफाई दी, जो पिछले 10 वर्षों से उनका पीछा नहीं छोड़ रहे। मोदी ने एक बार फिर इन दंगों को लेकर माफी मांगने से इंकार किया है और कहा है कि ऐसी मांग का अब कोई मतलब नहीं। गोधरा कांड के बाद हुए गुजरात के दंगों के बारे में उन्होंने कह दिया है कि यदि दंगों में उनकी भूमिका गुनहगार की हो तो वे फांसी पर चढ़ने को तैयार हैं। लेकिन वह गुजरात दंगों के लिए देश से माफी मांगने को तैयार नहीं। जब उनसे कहा गया कि 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों के लिए कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सिख समाज और देश से माफी मांग ली थी तो गुजरात के दंगों के लिए वे इसी तरह से माफी क्यों नहीं मांग लेते? इस सवाल पर मोदी ने यही कहा कि जब उन्होंने और उनकी सरकार ने दंगों की आग भड़काने में कोई भूमिका ही नहीं निभाई तो वे माफी क्यों मांगें? मोदी ने चुनौती देने के लहजे में कहा कि यदि उनकी भूमिका दंगों के गुनहगार की पाई जाए तो वह माफी नहीं चाहेंगे बल्कि फांसी का फंदा चाहेंगे। मोदी ने मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की माफी मांगने की राजनीतिक शैली पर तीखा कटाक्ष करते हुए कहा कि वे माफी मांगने की पाखंडी राजनीति नहीं करना चाहते। श्री नरेन्द्र मोदी से प्रश्न किया जा सकता है कि क्या सोनिया, राजीव और मनमोहन सिंह द्वारा 1984 के दंगों के लिए यह अर्थ निकलता है कि वे खुद हिंसा करने वालों में शामिल थे? अगर उन्होंने माफी मांगी तो इसके पीछे हमें दो कारण नजर आते हैं ः पहलाöउस दौरान शासन के अपने संवैधानिक कर्तव्य से मुंह मोड़ना, दूसराöआहत सिख समुदाय का भरोसा जीतना। दरअसल सरकार के निर्णायक पद पर बैठे व्यक्ति का आंकलन इस बात से होता है कि संकट की घड़ी में उसने क्या किया? असम में पिछले 10 दिनों से नस्ली हिंसा हो रही है। मुख्यमंत्री तरुण गोगोई बेशक खुद दंगे के जिम्मेदार न हों पर इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि समय रहते उन्होंने दंगा रोकने के लिए जरूरी उचित कदम नहीं उठाए और दंगा बढ़ता गया। गुजरात दंगों के साथ नरेन्द्र मोदी की भूमिका पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी यह कहने पर मजबूर हो गए थे कि मोदी को राजधर्म निभाना चाहिए। राजनीतिक हलकों में मोदी की पिछले दिनों से शुरू हुई मीडिया अभियान की चर्चा तेज हुई है। यही माना जा रहा है कि वे अगले चुनाव में पक्के तौर पर राष्ट्रीय राजनीति में अपना हाथ आजमाना चाहते हैं। इसी रणनीति के तहत वे उर्दू अखबारों को इंटरव्यू देने में परहेज नहीं कर रहे। वे यह जताना चाहते हैं कि वे वास्तव में इतने कट्टर हिन्दूवादी नहीं हैं, जितना उन्हें समझा जा रहा है या प्रचारित किया जा रहा है। कई मौकों पर वे कह चुके हैं कि अहमदाबाद सहित राज्य के कई शहरों में निवास करने वाली मुस्लिम आबादी लगातार खुशहाल हो रही है। पिछले 10 सालों में राज्य में एक भी सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ। हालांकि विपक्षी दलों ने सांप्रदायिकता की आग भड़काने के लिए कई अफवाहें भी फैलाने की कोशिशें कीं लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। सवाल यह है कि मोदी अगर कोई नई बात नहीं कर रहे और गुजरात दंगों को लेकर उनका स्टैंड और सफाई वही है तो फिर उनकी कही बातों को लेकर इतना सियासी बवाल अब क्यों मचा है? असल में असली खेल टाइमिंग का है। 2014 में वह भाजपा और एनडीए की तरफ से  प्रधानमंत्री पद के सम्भावित उम्मीदवार बनना चाहते हैं पर इसके लिए उन्हें इस साल के आखिर में गुजरात विधानसभा चुनाव में न सिर्प एक बार फिर जीत दिलानी होगी बल्कि एक  बड़ी जीत दर्ज करनी होगी। मोदी को यह परीक्षा तब देनी है जब उनका अपना दल, राज्य और गठबंधन में ही उनको लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है। वे जानते हैं कि राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा का नेतृत्व करने और अगले आम चुनाव में प्रभावी प्रधानमंत्री बनकर उभरने की उनकी महत्वाकांक्षा तभी पूरी हो सकती है जब उनकी छवि सुधरे और वह एक सर्वमान्य नेता बन सकें। अभी तो उनके नाम को लेकर संघ को छोड़ न तो भाजपा में एका है और एनडीए में तो खुली दरार है।


किंग जॉर्ज को सलामी देती नई समाजवादी पार्टी

Editorial Publish on 29 July 2012
-अनिल नरेन्द्र 

उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव सरकार के आठ जिलों के नाम बहाल करने के फैसलों की आमतौर पर सराहना हो रही है। उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी सरकार ने राज्य के आठ जिलों के नाम बदल दिए हैं। ये जिले मायावती के मुख्य मंत्रित्वकाल में सृजित किए गए थे। साथ में लखनऊ स्थित छत्रपति शाहू जी महाराज मेडिकल विश्वविद्यालय अब फिर से किंग जॉर्ज मेडिकल विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाएगा। मंत्रिपरिषद ने जनपद प्रबुद्ध नगर का नाम शामली, भीम नगर का नाम सम्भल तथा पंचशील नगर का नाम बदलकर हापुड़ करने का निर्णय किया है। इसी प्रकार जनपद महामाया नगर का नाम हथरस, जनपद ज्योतिबाफुले नगर का नाम अमरोहा, जनपद कांशीराम नगर का नाम कासगंज, जनपद छात्रपति शाहू जी महाराज नगर का नाम अमेठी तथा जनपद रमाबाई नगर का नाम परिवर्तित कर कानपुर देहात रखने का फैसला किया है। गौरतलब है कि इन जनपदों के निवासियों एवं जन प्रतिनिधियों की ओर से इस आशय की मांग की जाती रही है कि इन जनपदों के नाम से कोई शहर नहीं है, जिससे इन जनपदों की स्थिति की जनकारी नहीं हो पाती। इसके अलावा प्रदेश व प्रदेश के बाहर के लोगों को अपनी पहचान बताने, गंतव्य स्थान बताने तथा शासकीय अभिलेख बनवाने में अनेकों समस्याओं का सामना भी करना पड़ता था। इसलिए अखिलेश सरकार ने आठ जनपदों के नाम परिवर्तित  करने का निर्णय लिया। रहा सवाल छत्रपति शाहू जी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ का नाम फिर से किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय करने के फैसले पर जरूर थोड़ा विवाद हो रहा है। 70 के दशक में लोहिया का नारा उछालते हुए उत्तर प्रदेश की इस राजधानी लखनऊ में अंग्रेजी का इतना तीखा विरोध होता था कि अंग्रेजी में लिखे सारे होर्डिंग पर कालिख पोत दी जाती थी। उस दौर में समाजवादी आंदोलन के कारण हाई स्कूल में अंग्रेजी विषय को ऐच्छिक कर दिया गया था। मगर पिछले विधानसभा चुनाव में समाजवाद का चाल-चरित्र और चेहरा तीनों बदले तो दूसरे दल भी सकते में आ गए। समाजवादी पार्टी के नए चेहरे अखिलेश यादव ने टैबलेट और लैपटॉप का नया नारा दिया और पुराना रिकार्ड तोड़ बहुमत के साथ सत्ता में आए। सरकार के इस फैसले से कार्यकर्ताओं में भी चिन्ता बढ़ी है। क्योंकि यह ऐसा कोई काम नहीं था जिसे यह सरकार प्राथमिकता पर करे। खासकर बिजली से लेकर किसानों की अन्य समस्याओं को देखते हुए। रोचक तथ्य यह है कि लखनऊ के मशहूर चिड़िया घर का नाम आज भी प्रिन्स ऑफ वेल्स ज्यूलोजिकल गार्डन के नाम से जाना जाता है। न तो कभी मायावती के राज में यह बदला और न ही मुलायम के राज में। हालांकि एक तबके का मानना है कि किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय का नाम बहाल करना था तो बेहतर होता कि नया नाम आचार्य नरेन्द्र देव, एसएम जोशी, राम मनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण, मधु लिमये, सुरेन्द्र मोहन जैसे किसी भी नेता के नाम पर रखते बजाय किंग जॉर्ज के। हालांकि यह भी कहा जा सकता है कि किंग जॉर्ज अंतर्राष्ट्रीय ख्याति पा चुका है, इस दृष्टि से वही पुराना नाम सही था। पिछले चुनाव में एक तबका सपा के समर्थन में ऐसा आया जो अंतर्राष्ट्रीय चश्मे से समाज को देखता है, उसका मानना है कि अखिलेश के इस फैसले से मेडिकल क्षेत्र में फिर से राज्य की प्रतिष्ठा बहाल होगी।



Friday, 27 July 2012

राजस्थान, हरियाणा के बाद अब दिल्ली में गुटखा पर प्रतिबंध

Editorial Publish on 28 July 2012
-अनिल नरेन्द्र

दिल्ली में जल्द ही प्रतिबंधित किए जाने की बात ने हजारों करोड़ रुपए के गुटखे बाजार में भूचाल ला दिया है। ब्लैक करने वालों ने तीन दिनों के भीतर गुटखे को सही दाम से दोगुने रेट पर पहुंचा दिया है। फुटकर में एक रुपए का बिकने वाला गुटखा दो रुपए में बिक रहा है। राजस्थान और हरियाणा में गुटखे पर प्रतिबंध लग चुका है। अब अफवाह है कि दिल्ली में भी जल्द गुटखे पर बैन लगने वाला है। हालत यह है कि सेंसेक्स की तरह एक दिन में कई बार गुटखे के दाम में उछाल आ रहा है। सेंसेक्स में तो गिरावट भी दर्ज होती है पर गुटखे बाजार में तो गिरावट की बात तो दूर उछाल हो रहा है। एक दिन में कई बार दामों में बदलाव होने से गुटखा खाने वालों का सिर तम्बाकू के दाम सुनकर चकरा रहा है। हालांकि सादा पान मसाला अपने रेट पर कायम है। बाजार में एक अगस्त से गुटखे पर प्रतिबंध लगाने की बात आग की तरह फैली हुई है। पान बिकेता को एजेंसी से ही प्रिंटेड रेट से कहीं ज्यादा पैसे में गुटखा मिल रहा है जिसमें भी सुबह-शाम परिवर्तन हो रहा है। हालत यह है कि सेल्समैन से रात में गुटखा खरीदने पर कुछ तो सुबह उसी गुटखे का दाम कुछ हो जाता है। दामों के बढ़ने की वजह से खरीददार से भी खटपट होती है। उन्होंने बताया कि गुटखा एजेंसी ब्लैक करने में लगी हुई है। राजधानी में गुटखे बिक्री पर जल्द ही प्रतिबंध लग सकता है। दिल्ली सरकार आगामी कैबिनेट बैठक में इस संबंध में एक विधेयक लाने की तैयारी कर रही है। दरअसल दिल्ली में बिक रहे कई नामी कम्पनियों के गुटखे में निकोटिन पाया गया है। यह खुलासा दिल्ली के खाद्य अपमिश्रण विभाग ने एक जांच के बाद किया है। फूड एण्ड सेफ्टी एक्ट के मुताबिक बिना चेतावनी के निकोटिन युक्त पदार्थ बेचने पर दो लाख रुपए का जुर्माना या छह महीने से लेकर आजीवन कारावास हो सकता है। दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री अशोक वालिया ने बताया है कि जांच के दौरान गुटखे में निकोटिन पाया गया है। इन उत्पादों की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने के लिए सरकार एक विधेयक लाएगी। पिछले साल सितम्बर और अक्तूबर में विभिन्न इलाकों से गुटखे के छह सैम्पल एकत्रित किए गए थे। इनमें दिलबाग, संजोग, स्वागत और शिखर कम्पनियों के उत्पाद शामिल हैं। दिलबाग के दो उत्पाद लिए गए थे। इनमें से एक में 2.62 और दूसरे में 2.17 प्रतिशत निकोटिन पाया गया था। संयोग  से कम्पनी के उत्पाद में 1.41 प्रतिशत निकोटिन निकला। दिल्ली इंस्टीट्यूट ऑफ फार्मास्यूटिकल एण्ड रिसर्च के सेंटर प्रिंसिपल प्रो. एसएल अग्रवाल कहते हैं कि निकोटिनयुक्त पदार्थों के सेवन से ब्रेन स्टिम्यूलेट हो जाता है। डिप्रेशन आ सकता है। इसके अलावा शरीर में मौजूद गोगलीन ब्लॉक हो जाता है। इससे स्वचालित शारीरिक गतिविधियां मसलन दिल का धड़कना, सांस लेना जैसी क्रियाएं मंद पड़ जाती हैं। यह सही है कि गुटखा सेहत के लिए हानिकारक होता है पर शराब और सिगरेट पीना भी तो हानिकारक होता है। केवल कानून बनाने से इसकी बिक्री नहीं रोकी जा सकतती। करोड़ों-अरबों रुपए का उद्योग भी तो है जिससे सरकार को भी करोड़ों का फायदा होता है। फिर उपभोक्ता कह सकता है कि आपका फर्ज है यह बताना  कि यह हानिकारक है पर लेना या न लेना यह फैसला हम ही कर सकते हैं।

अमरनाथ यात्रा को हर लिहाज से सुरक्षित बनाया जाए

Editorial Publish on 28 July 2012
-अनिल नरेन्द्र

यह बहुत संतोष की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने अमरनाथ यात्रियों की मौतों पर असंतोष जताते हुए एक पैनल की नियुक्ति की है जिसका उद्देश्य होगा कि यात्रा के दौरान श्रद्धालुओं की बढ़ती मौतों की संख्या पर कैसे अंकुश लगाया जा सके? सरकारी आंकड़ों के अनुसार भी इस साल 98 से ज्यादा मौतें अमरनाथ यात्रा में हो चुकी हैं। गत दिनों भाजपा का एक प्रतिनिधिमंडल गृहमंत्री पी. चिदम्बरम से भी मिला। सुषमा स्वराज, अरुण जेटली के प्रतिनिधित्व में भाजपा ने एक ज्ञापन भी गृहमंत्री को सौंपा। अमरनाथ यात्रा की अवधि बढ़ाए जाने की मांग करते हुए भाजपा ने आरोप लगाया है कि इस बार वहां तीर्थ यात्रा के दौरान रिकार्ड संख्या में श्रद्धालुओं की मौत की मुख्य वजह जम्मू-कश्मीर सरकार का कुप्रबंधन और यात्रा का समय घटाना है। गृहमंत्री से मुलाकात करने के बाद सुषमा ने बताया कि उन्होंने यह मांग भी की है कि श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड में बाबा अमरनाथ में आस्था रखने वालों को ही स्थान दिया जाए। उन्होंने कहा कि अभी इस बोर्ड में 70 फीसद गैर हिन्दू हैं जो इस सिद्धांत के खिलाफ हैं कि किसी धर्म विशेष के आस्थास्थल संबंधी संचालन बोर्ड में केवल आस्था रखने वाले ही शामिल होने चाहिए। इस बार अमरनाथ यात्रा पर गए श्रद्धालुओं में से 98 की मौत हो चुकी है जो बहुत चिन्ता की बात है। उन्होंने कहा कि इस भयावह स्थिति की मुख्य वजह यह है कि बोर्ड ने न जाने किस कारण से इस बार यात्रा के दिनों को 60 से घटाकर 39 कर दिया है। एक ओर श्रद्धालुओं की संख्या बढ़कर आठ लाख हो गई है तो दूसरी ओर यात्रा की अवधि घटाकर 39 दिन किए जाने से यह भयावह स्थिति उत्पन्न हुई है। अमरनाथ यात्रा के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में `मानव समिति कतार व्यवस्था' बनाने से भी हालात बद से बदतर हुए हैं। इसके चलते ऊंची पहाड़ियों, भारी वर्षा और अत्यधिक सर्दी में श्रद्धालुओं को दो से पांच दिन तक कतार में खड़े रहना पड़ रहा है। चिकित्सकों का भी कहना है कि जलवायु अनुकूलन का अभाव, अधिक ऊंचाई से संबंधित बीमारियां, फर्जी स्वास्थ्य प्रमाण पत्र और व्यवस्था गत विफलता मौतों में वृद्धि का कारण हो सकते हैं। जम्मू-कश्मीर सुपर स्पेशियलटी अस्पताल शेर-ए-कश्मीर चिकित्सा विज्ञान संस्थान में चिकित्सा विभाग के प्रमुख परवेज कौल ने कहा कि तीर्थयात्रियों की मौत में सम्भवत जो एक प्रमुख कारण योगदान कर रहा है, वह है स्थानीय जलवायु में अनुकूलता का अभाव। अधिक ऊंचाई पर यात्रा करने से पहले जलवायु अनुकूलन हर हाल में होना चाहिए। कौल ने कहा कि तीर्थयात्रा बालाटाल और पहलगाम से उठते हैं और बगैर किसी उचित जलवायु अनुकूलन के ऊंचाइयों पर चढ़ना शुरू कर देते हैं। अधिक ऊंचाई की बीमारियां तथा उससे संबंधित समस्याओं से बचने के लिए तीर्थयात्रियों के लिए जलवायु अनुकूलन अनिवार्य होना चाहिए। तीर्थयात्रियों के लिए चिकित्सा सुविधाओं और उनके ठहरने के शिविरों का भी भारी अभाव है। दर्शन करने वालों की सुविधा के लिए पहलगाम, चन्दनवाड़ी और बालाटाल में बुनियादी सुविधाओं से लैस स्थायी यात्रा गृह  बनाए जाएं जिनमें श्रद्धालुओं को ठहराने की क्षमता हो। इसके अलावा बालाटाल और जूनावार में 200 बिस्तरों वाले और यात्रा मार्ग में जगह-जगह चार-पांच अन्य छोटे अस्पताल खोलने होंगे। अमरनाथ यात्रा हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक है जो जम्मू-कश्मीर की अर्थव्यवस्था को भी बड़ा योगदान देती है। सुरक्षा की दृष्टि से भी खतरा रहता है। उम्मीद है कि अमरनाथ यात्रा को और सुरक्षित बनाने पर सरकार पूरा ध्यान देगी। हर-हर महादेव।


हम गरीब देश हैं फिर भी सोने का इतना मोह

इस सम्पादकीय और पूर्व के अन्य संपादकीय देखने के लिए अपने इंटरनेट/ब्राउजर की एड्रेस बार में टाइप करें पूूज्://हग्त्हाह्ंत्दु.ंत्दुेज्दू.म्दस् सोने से भारतीयों का लगाव सामाजिक और सांस्वृतिक परम्परा का हिस्सा है। जब देश को सोने की चििड़या पुकारा जाता था तब इस कीमती धातु के प्राति दीवानगी समझी जा सकती थी, मगर अब भारत गरीब मुल्कों में शुमार है। ऐसे में घर पर ज्यादा खर्च करना शायद मुनासिब न हो। वह भी जब यह अनुत्पादक निवेश है और हर साल अरबों डॉलर की विदेशी मुद्रा इसके आयात पर खर्च करनी पड़ती है। इससे चालू खाते में घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है जिसका सीधा असर भारत की अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। सिर्प मानसिक संतुष्टि के लिए किए जाने वाले इस खर्च पर लगाम लगाने के लिए मानसिकता बदलने की जरूरत है।
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआईं) के डिप्टी गवर्नर केसी चव््रावता ने यह सलाह दी है। चव््रावता के मुताबिक जब देश अमीर था तब सोने के गहने पहनना सांस्वृतिक मजबूती और समृद्धि का परिचायक था। उस समय दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में भारत का हिस्सा 30 फीसद धातु के प्राति मानसिकता बदलने के लिए सामाजिक और सांस्वृतिक व््रांति की जरूरत है। देश में सोने की वुल मांग में से 90 फीसद गहनों और भगवान को चढ़ावे के रूप में इस्तेमाल होता है। मंदिरों में दी जाने वाली भेंट धार्मिक भावनाओं से जुड़ा और विश्वास का हिस्सा है। मगर इसके लिए 22 वैरेट का सोना ही क्यों इस्तेमाल किया जाए? इसके लिए दो वैरेट का सोना भी तो इस्तेमाल हो सकता है। गहने आखिर गहने हैं। भले ही वह 22 वैरेट से बने हों या दो वैरेट से। सही मायने में देखा जाए तो मौजूदा समय में इसकी वास्तविकता वुछ भी नहीं है क्योंकि सट्टेबाजी के चलते ही इसके दाम आसमान छू रहे हैं। इसी वजह से इसमें निवेश बढ़ रहा है। मगर इस निवेश से वुछ उत्पादित नहीं हो रहा है। एक दिन ऐसा भी आएगा, जब लोगों की भेड़चाल थमेगी और इसकी कीमत भरभराकर नीचे आ जाएगी। तब निवेशक कहीं के नहीं रहेंगे। सबसे ज्यादा चिन्ताजनक बात यह है कि पीली धातु में अमीरों से ज्यादा गरीब निवेश कर रहे हैं। इसी वजह से आरबीआईं ने सोने के बदले कर्ज और बैंकों द्वारा सोने के सिक्कों को बढ़ावा दिया। गरीब सोना खरीदते हैं मगर जरूरत पड़ने पर उन्हें इसे 30 फीसद तक कम मूल्य पर गिरवी रखना पड़ता है। आम लोगों में यह धारणा है कि सोने के आभूषण परिवार के लिए बुरे समय में एक सुरक्षा की वस्तु हैं। गहने गिरवी रखकर या बेचकर आर्थिक तंगी से बचा जा सकता है। इस दलील को भी नकारा नहीं जा सकता कि महिलाओं में सोने के गहनों की चाहत हमेशा रहती है। यह उनका एक शौक भी है।
आवश्यकता इस बात की है कि सोने की चाहत को कम किया जाए ताकि इस धातु की आसमान छूती कीमत पर नियंत्रण लगे।

कोकराझार में न थमने वाली हिंसा के पीछे क्या कारण है?

असम के कोकराझार और चिरांग जिलों में पिछले एक सप्ताह से जारी हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है। चिरांग जिले से तीन और शव बरामद किए गए जबकि मंगलवार रात दंगाइयों ने जिले के पांच गांवों में घरों को जला दिया। इस बीच सेना के जवानों ने तनावग्रास्त क्षेत्र में फ्लैग मार्च किया। कोकराझार और चिरांग जिलों में बोडो, जनजाति तथा अवैध रूप से बांग्लादेश से आए मुसलमानों के बीच 19 जुलाईं को शुरू हुईं हिंसा में अब तक 36 लोगों की मौत हो चुकी है जबकि एक लाख से ज्यादा लोगों ने अपने घर छोड़ दिए हैं। असम की हिंसा के चलते पूवरेत्तर राज्यों में रेल सेवा भी बुरी तरह प्राभावित हुईं है। कम से कम 26 ट्रेनों को रद्द करना पड़ा है जबकि 31 ट्रेनें रास्ते में ही विभिन्न स्टेशनों पर खड़ी हैं। इसके चलते 30 हजार से ज्यादा यात्री जहां-तहां पंसे हुए हैं। प्राधानमंत्री मनमोहन सिंह ने असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोईं को हालात पर काबू करने के लिए हर सम्भव कदम उठाने को कहा है। पीएम ने गोगोईं से फोन पर बात कर प्राभावित लोगों को राहत पहुंचाने और उनके पुनर्वास के लिए सभी जरूरी कदम उठाने को कहा है। इस हिंसा की वजह भी बहुत साफ नहीं हो पाईं पर एक रिपोर्ट के अनुसार 20 जुलाईं की रात को 4 बोडो ट्राइबल को मुस्लिम बहुल गांव (कोकराझार जिला) में तेज हथियार से काट दिया गया। इस पूरे क्षेत्र में पिछले कईं दिनों से जमीन को लेकर तनाव बन रहा था। बोडो लोगों का कहना था कि बांग्लादेश से आए अवैध तरीके से यह मुसलमान क्षेत्र की सारी जमीन पर जबरन कब्जा करते जा रहे हैं और सरकार और प्राशासन मूक दर्शक बना हुआ है। ऑल बोडोलैंड टेरीटोरियल काउंसल बहुत दिनों से इन अवैध बंगलादेशी घुसपैठ के बारे में चेतावनी देती रही है पर वोट बैंक राजनीति के चक्कर में भारत सरकार और असम सरकार इस बढ़ती समस्या को नजरअंदाज करती आ रही है। आज असम के वुछ भागों में बोडो लोग अपने ही घर से बेघर हो गए हैं, क्योंकि उनकी जमीनों पर जबरन कब्जा कर लिया गया है। पिछले लगभग 40 सालों से असम किसी न किसी समस्या को लेकर संघर्ष और टकराव की रणभूमि बनता रहा है। सत्तर के दशक में असम गण परिषद ने अपनी कईं मांगों को लेकर लम्बा आंदोलन किया था। वेंद्र के इशारे पर सुरक्षा बलों ने शांतिपूर्ण आंदोलनकारियों पर तब निर्ममता से गोलियां दागी थीं। आज भी वेंद्र और राज्य दोनों जगह कांग्रोस का ही शासन है पर समस्या सत्ता बनाम जनता न होकर जनता बनाम जनता है या यूं कहें कि क्षेत्र के बाशिंदों बनाम अवैध घुसपैठियों के बीच है। यह स्थिति ज्यादा खतरनाक है। बोडो आदिवासियों और मुस्लिम संगठनों के बीच शुरू हुईं हिंसा थमने के बजाय आग की तरह पैलती जा रही है। राज्य प्राशासन स्थिति पर काबू पाने में पेल हो गया है। वेंद्र से अर्ध सैनिक बल और सेना तक की तैनाती की है पर इसके बावजूद हिंसा रुक नहीं रही। यदि जल्द इस आग पर नियंत्रण नहीं हुआ तो यह आग पूवरेत्तर के बाकी राज्यों में भी पैल सकती है। ऐसे में वहां चीन और आईंएसआईं के घुसपैठियों को अपना खेल खेलने में आसानी हो जाएगी। दोनों इस क्षेत्र में काफी दिनों से सव््िराय हैं और ऐसे ही मौके की तलाश में हैं इसलिए वेंद्र और राज्य सरकार को जल्द समाधान निकालना होगा।

Thursday, 26 July 2012

कांग्रेस किस हद तक गठबंधन धर्म निभाने को तैयार है?

संपग सरकार की समस्याएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। एक तरफ तो सरकार के गठबंधन साथियों ने सरकार और कांग्रेस पार्टी की नाक में दम कर रखा है, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के भीतर भी अब घमासान मच गया है। राकांपा पहले से ही नाराज चल रही है और अब तो उसके नेताओं ने कांग्रेस नेतृत्व को चेतावनी देनी आरंभ कर दी है। राकांपा ने कांग्रेस को चेतावनी दी है कि यदि संपग गठबंधन के लिए समन्वय समिति और सहयोगियों के साथ उचित व्यवहार जैसी उसकी मांगों का बुधवार तक समाधान नहीं निकलता है तो वह सरकार से अलग हो सकती है। शरद पवार के नेतृत्व वाली पार्टी ने यह भी संकेत दिया है कि अगर वह केन्द्र सरकार से अलग होती है तो इसका असर महाराष्ट्र में गठबंधन पर भी पड़ेगा क्योंकि राज्य के नेता कांग्रेसनीत मंत्रिमंडल से अलग होने के पक्ष में है। राकांपा महाराष्ट्र में कांग्रेस सरकार के साथ पिछले 13 साल से गठबंधन में है। अभी सहयोगी राकांपा के साथ कांग्रेस की तकरार थमी भी नहीं थी कि पार्टी के भीतर भी बगावत शुरू हो गई है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण के खिलाफ उन्हीं के कांग्रेस विधायकों ने उनकी शिकायत पार्टी हाईकमान से की है। इनका कहना है कि चव्हाण अपनी मनमानी कर रहे हैं और वह किसी की नहीं सुन रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण और विलासराव देशमुख समर्थक 42 विधायकों ने एक शिकायत पत्र हाईकमान को लिखा है। पत्र में पार्टी हाईकमान से मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण को तत्काल पद से हटाने की मांग की गई है। क्या यह महज इत्तिफाक है कि इधर शरद पवार एंड कंपनी बगावती तेवर दिखा रही है। उधर पवार दबाव बनाने में माहिर हैं और कांग्रेस नेतृत्व में वह यही काम आजकल कर रहे हैं। कांग्रेस की मुश्किल यह होती जा रही है कि पार्टी को केन्द्राrय और पादेशिक स्तर पर परस्पर विरोधाभाषी राजनीति से जूझना पड़ रहा है। केन्द्र की सियासत कहती है कि उसे सहयोगी और समर्थक दलों से अपने रिश्ते रखने चाहिए ताकि मनमोहन सिंह सरकार की स्थिरता बनी रहे जबकि उसकी पादेशिक इकाई इसके एकदम खिलाफ है क्योंकि उन्हें वहां उन्हीं राजनीतिक दलों से दो-दो हाथ करने पड़ रहे हैं जिनको केन्द्र से आजकल बेहद दुलार मिल रहा है। इसमें पहला नंबर तृणमूल कांग्रेस के साथ का है। दिल्ली में कांग्रेस को जितनी ज्यादा तृणमूल की जरूरत है पश्चिम बंगाल की कांग्रेस इकाई को उतनी ही नफरत तृणमूल से है। उसे रात-दिन तृणमूल से अपमानित होना पड़ रहा है। पदेश कांग्रेस अध्यक्ष पदीप भट्टाचार्य तो कई बार सरेआम कह चुके हैं कि आखिर केन्द्र में सत्ता की खातिर हम कब तक तृणमूल कार्यकर्ताओं से पिटते रहेंगे? ऊपर से ममता आए दिन यह कहते नहीं थकतीं कि कांग्रेस उसका साथ कल छोड़ती हों तो आज ही छोड़ दे। अब तो ममता ने खुलेआम यह घोषणा कर दी है कि पश्चिम बंगाल का आगामी विधानसभा चुनाव वह बिना कांग्रेस के ही लड़ेंगी। पिछली बार भी टिकट बंटवारे में कांग्रेस को तृणमूल से बेहद अपमानित समझौता करना पड़ा था। महाराष्ट्र में भी कांग्रेस राकांपा को लेकर यही दुखड़ा रो रही है। वहां तो वह सत्ता में बराबर की भागीदार हैं और मलाई वाले दमदार मंत्रालय राकांपा ने अपने हाथों में रखे हैं। महाराष्ट्र की कांग्रेस इकाई को यह लग रहा है कि घोटाले पर घोटाले तो राकांपा कर रही है और खामियाजा उसे न भुगतना पड़ जाए। यही वजह है कि इकाई एक श्वेत पत्र लाने की मांग कर रही है। शरद पवार एंड कंपनी को यह डर सता रहा है कि अगर किसी किस्म का श्वेत पत्र महाराष्ट्र सरकार लाती है तो उनके घोटालों का पर्दाफाश हो जाएगा जिसका खामियाजा उसे आगामी विधानसभा चुनाव में भुगतना पड़ेगा। पृथ्वीराज चव्हाण एक ईमानदार नेता की छवि रखते हैं और वह पवार एंड कंपनी के दबाव, ब्लैकमेलिंग में नहीं आ रहे। इसलिए अब पवार का पयास है कि चव्हाण को हटवा दिया जाए। इसी तरह उत्तर पदेश कांग्रेस इकाई भी दुखी है। पदेश के सांसद कह रहे हैं कि केन्द्र सरकार दोनों हाथों से सपा को पैसा लुटा रही है। जिसका इस्तेमाल उसके ही खिलाफ होना है। यदि सपा से इसी तरह रिश्ते कांग्रेस निभाती रही तो अगले चुनाव में कांग्रेस को कोई पूछने वाला नहीं होगा। 22 की जगह वह दो सीटों तक ही सीमित हो जाएगी। कुल मिलाकर कांग्रेस हाईकमान को यह फैसला करना होगा कि केन्द्र में सत्ता की खातिर वह राज्यों में अपनी इकाइयों को कितना नुकसान पहुंचाने को तैयार है। वैसे अभी तक तो कांग्रेस हाईकमान की यही नीति रही है कि राज्य जाएं भाड़ में केन्द्र में सत्ता बरकरार रहनी चाहिए।

रासायनिक हथियार पयोग करने की असद सरकार की धमकी

सीरिया की अंदरूनी स्थिति अत्यंत विस्फोटक होती जा रही है। सीरियाई राष्ट्रपति बशर-अल-असद भले ही अपनी जिद पर कायम रहें परन्तु गुजरे दिनों जिस तरह उनके तीन सिपहसलार मारे गए उससे उनके समर्थकों को भी अब यह एहसास होने लगा है कि असद की हुकूमत का अन्त निकट है। फी सीरिया मांग जोर पकड़ती जा रही है। फी सीरिया आर्मी ने ऐलान किया है कि जो लोग तानाशाह असद का साथ नहीं छोड़ेंगे उन्हें दुश्मन माना जाएगा और नए मुल्क में उनकी कोई भूमिका नहीं होगी। हाल ही में सीरिया की राजधानी दमिश्क में एक पमुख सरकारी इमारत को निशाना बनाकर किए गए आत्मघाती हमले में रक्षामंत्री जनरल दाऊद राजा और उप रक्षा मंत्री आसिफ शौकत की मौत हो गई। शौकत राष्ट्रपति बरार अल असद के जीजा थे। राष्ट्रीय सुरक्षा पमुख हारून तुर्पमानी भी इस हमले में मारे गए। इस बीच अमेरिकी रक्षा मंत्री लियोन पैनटो ने कहा है कि सीरिया के हालात नियंत्रण से बाहर हो रहे हैं। 16 महीनों से असद शासन के खिलाफ विद्रोह चल रहा है। यह पहला मौका है कि जब इतने उच्च स्तर के लोगों को निशाना बनाकर हमला किया गया। उधर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सीरिया के खिलाफ और पतिबंध लगाने और हिंसा रोकने से जुड़ा पस्ताव पर रूस और चीन के वीटो के कारण खारिज हो गया है। इस पस्ताव को अमेरिका, ब्रिटेन, फांस, जर्मनी द्वारा लाया गया था और दूसरे दस देशों ने इसका समर्थन किया है। पाकिस्तान और दक्षिण अफीका मतदान से दूर रहे। भारत ने पस्ताव के पक्ष में वोट दिया। सीरिया में असद सरकार अब अपने आखिरी दमों पर लग रही है और वह बौखला गई है। सीरिया के विदेश मंत्रालय के पवक्ता निहाद मकपिसी ने सोमवार को यह धमकी दे डाली कि अगर सीरिया पर विदेशी आकमण होता है तो वह अपने रासायनिक हथियारों के पयोग से भी नहीं हिचकिचाएगा। अब मकपिसी ने दमिश्क में नारे देते हुए कहा कि सीरिया कभी भी रासायनिक हथियारों का पयोग आम नागरिकों के खिलाफ नहीं करेगा। उन्होंने यह भी कहा कि अमेरिका सरकार के सभी हथियार सुरक्षित हैं। सीरिया में हिंसा भड़कने के बाद से ही यह आशंका जाहिर की जा रही है कि रासायनिक हथियार या तो विद्रोहियों के हाथ पड़ सकते हैं या फिर सरकार अपने खिलाफ विद्रोहियों को दबाने के लिए भी इनका पयोग कर सकती है। सीरिया के पास बड़ी संख्या में रासायनिक हथियार सरीन एवं तकुन और मसटर्ड गैस है। यद्यपि इनकी सही संख्या ज्ञात नहीं है। अरब लीग ने राष्ट्रपति असद को देश छोड़ने का पस्ताव दिया था जिसे असद ने ठुकरा दिया है। गौरतलब है कि अरब देश लीग ने सीरिया के राष्ट्रपति बरार असद से देश को बचाने की खातिर अपना पद छोड़ने की अपील की थी। अरब लीग ने असद को देश से सुरक्षित निकालने का भी भरोसा दिया था। दोहा में विदेश मंत्रियों की बैठक में रविवार को यह घोषणा की गई। अरब लीग ने कहा कि देश में असद को सत्ता से बेदखल करने के लिए काफी खून बह चुका है ऐसे में बेहतर यही होगा कि असद अपना पद छोड़ दें। अब सभी को चिंता यह है कि बौखलाई चौतरफा घिरी असद सरकार कभी रासायनिक हथियार पयोग न करे। इसके दुष्परिणाम से पूरा देश और पड़ोसी देश तक पभावित हो सकते हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि नौबत यहां तक न आए।

Wednesday, 25 July 2012

कहीं आपकी जेब में तो जाली नोट नहीं है?

कहीं आपकी जेब में जो नोट हैं वह जाली तो नहीं हैं, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में देश में जाली नोट का कारोबार काफी बढ़ गया है। रिजर्व बैंक (आरबीआई) के मुताबिक 2011-12 में 24.7 करोड़ रुपए के नकली नोट पकड़े गए थे। यह राशि पांच वर्ष पहले के मुकाबले पांच गुना ज्यादा है। सूचना के अधिकार के तहत आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चन्द्र अग्रवाल को रिजर्व बैंक ने बताया कि नकली नोट के चलन का कोई अनुमान नहीं है। आरबीआई के मुताबिक जैसे-जैसे रुपए का अंकित मूल्य बढ़ता है, उसे बनाने की लागत घटती जाती है। उदाहरण के लिए 1000 रुपए के नोट की औसत प्रिंटिंग लागत 4.06 रुपए आती है जबकि पांच रुपए के नोट को बनाने में 50 पैसे लगता है। मगर जाली नोट में लागत कम आती है क्योंकि इसका कागज खराब होता है। नकली नोट को बैंक वापस नहीं लेता है और यदि बैंक को ऐसे नोट मिल जाते हैं तो वह उसे तुरन्त रद्द कर देता है। पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसी आईएसआई का भारत में नकली नोटों को भेजने में बहुत बड़ा हाथ है। आईएसआई के इशारे पर जाली नोट के तस्करों के लिए नेपाल सेफ जोन बन चुका है। वे करीब 1740 किलोमीटर में फैली भारत-नेपाल सीमा पर नए-नए तरीकों से इनका कारोबार करते हैं। नेपाल रायल सरकार में वन मंत्री रहे सलीम मियां अंसारी ने इसकी शुरुआत की थी। 2002 में नेपाल में पाकिस्तानी दूतावास के सचिव अरशद चीमा के पास लाखों रुपए के जाली नोटों की बरामदगी के बाद सलीम मियां प्रमुख साझेदार के रूप में उभरा। सलीम की मौत के बाद उसके बेटे यूनुस अंसारी ने कारोबार सम्भाल लिया। उसका पूरा परिवार इस धंधे में है। सलीम मियां का छोटा भाई जालिम मियां नेपाल में मुस्लिम राइट्स कमेटी का अध्यक्ष की आड़ में तो भतीजा जफर अंसारी व नासिर मियां बेतिया और मोतिहारी इलाके में जाली नोटों का कारोबार कर रहे हैं। अब तक जाली नोटों का बड़ा हिस्सा वाया कराची नेपाल पहुंचता था। अब आईएसआई दुबई, मलेशिया, हांगकांग, बैंकाक, कोलम्बो व ढाका के रास्ते इन्हें भारत में पहुंचा रहे हैं। ये नोट नेपाल पहुंचाने में महिलाओं व विकलांगों का इस्तेमाल होता है। पिछले साल अगस्त में नेपाल में अपनी व्हीलचेयर से 50 लाख रुपए के नकली नोट छिपाए एक विकलांग पाकिस्तानी मोहम्मद फारुख को गिरफ्तार किया गया था। पिछले साल 21 दिसम्बर को काठमांडू के कलकी के पास नेपाल पुलिस ने फिलीपींस के एक नागरिक सहित तीन लोगों को एक करोड़ 23 लाख के जाली नोट के साथ गिरफ्तार किया था। काठमांडू के त्रिभुवन एयरपोर्ट पर इस साल आधा दर्जन विदेशी नागरिक जाली नोटों के साथ पकड़े जा चुके हैं। भारत सरकार ने नकली नोटों के प्रवाह को रोकने और नोट की उम्र बढ़ाने के मकसद से मैसूर, कोच्चि, शिमला, जयपुर और भुवनेश्वर में एक अरब मूल्य के दस रुपए के प्लास्टिक नोट जारी करने का मन बनाया है। बैंकों को निर्देश दिए गए हैं कि काउंटर पर आने वाले सभी नोटों को मशीन से जांच के बाद ही दोबारा जारी किए जाएं। इससे जाली नोटों को आम लोगों से दूर रखने में मदद मिलेगी।

आतंकियों का फंडिंग बैंक

आतंकवादी गतिविधियों को जारी रखने के लिए आर्थिक फंडिंग बहुत जरूरी होती है। पैसे से ही सारा काम चलता है। आतंकवादी संगठन अपनी इकाइयों तक धनराशि पहुंचाने के लिए विभिन्न तरीके अपनाते हैं। इनमें हवाला और बैंक सबसे ज्यादा इस्तेमाल किए जाते हैं। आमतौर पर बैंक अपने खातेदारों पर कड़ी नजर रखते हैं पर कुछ बैंक हैं जो अपने निजी फायदे के लिए संदिग्ध अकाउंटों की गतिविधियों को नजरअंदाज कर देते हैं। काले या संदिग्ध पैसे के लेन-देन को रोकने के लिए अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोशिशें हो रही हैं। सरकारों को यह समझ आ रहा है कि काले धन का लेन-देन केवल कारोबार के लिए ही नहीं हो रहा उसका संबंध आतंकवाद और अंतर्राष्ट्रीय अपराध से भी है। अमेरिका ने पाया है कि हांगकांग बैंक (एचएसबीसी) के जरिए भारत सहित दुनियाभर के देशों तक आतंकियों और ड्रग्स माफिया तक धन पहुंचा रहा है। ऊपरी सदन सीनेट उपसमिति के चेयरमैन सीनेटर कार्ल लेविन ने 340 पेज की रिपोर्ट जारी करते हुए कहा कि एचएसबीसी ने अपने अमेरिकी बैंक द्वारा खुद से जुड़े दूसरे देश के बैंकों के ग्राहकों को डॉलर अमेरिका भेजने में मदद की। बैंक ने सउदी अरब के अल रजही बैंक के साथ भी कारोबार किया। इस बैंक के मुख्य संस्थापक को पहले अलकायदा का संरक्षण मिला हुआ था। उसने सउदी अरब और बांग्लादेश के उन बैंकों के डॉलर और बैंकिंग सेवा प्रदान की जो आतंकियों को धन उपलब्ध कराने से जुड़ रहे हैं। बैंक पर सबसे पहले शक तब हुआ जब 2007-08 के दौरान मैक्सिको से जुड़े एचएसबीसी से एचएसबीसी-यूएस को 7 अरब डॉलर भेजे गए। दूसरे मैक्सिकन बैंकों से यह राशि दोगुनी से भी ज्यादा थी। इसमें बड़ा हिस्सा ड्रग्स तस्करी का था। जांच में यह बात सामने आई कि एचएसबीसी (लंदन स्थित हैडक्वाटर सहित) के जरिए मैक्सिको, 4सउदी अरब और बांग्लादेश से अरबों डॉलर का संदिग्ध धन अमेरिका आया। जनवरी 2009 में एचएसबीसी ने अपनी हांगकांग शाखा को डॉलर के अलावा रुपया, थाई और विदेशी मुद्रा अल रहजी को आपूर्ति करने का अधिकार दिया। 2010 में एचएसबीसी ने पैसा ट्रांसफर करने के लिए नई स्कीम `एचएसबीएल फास्ट कैश' लांच की। इस स्कीम के तहत सउदी अरब के रियाद से पाकिस्तान के सबसे बड़े बैंक हबीब की किसी भी शाखा में पैसा तुरन्त ट्रांसफर किया जा सकता था। इस स्कीम के तहत पैसा पाने या भेजने वाले का किसी भी बैंक में अकाउंट होना भी जरूरी नहीं था। अमेरिकी सरकार लम्बे समय से यह कोशिश कर रही है कि आतंकवादियों को मिलने वाले पैसे के स्रोत बन्द किए जाएं। इन स्रोतों में हवाला कारोबार जैसे गैर-कानूनी तंत्र हैं, साथ ही कुछ बैंक और कुछ देश भी दोषी हैं, जहां आर्थिक नियम ढीले हैं, टैक्स चोरों के लिए जिन देशों को स्वर्ग माना जाता है, उन देशों में जो कारोबार होता है, उसमें सिर्प टैक्स बचाने वाले उद्योगपति, हथियार सौदागर और बड़े व्यापारी ही नहीं होते, आतंकवादी और संगठित अपराधी भी होते हैं। यह माना जाता है कि दाउद इब्राहिम जैसे माफिया का पैसा इन्हीं रास्तों से भारत में आता है और कानूनी धंधों में उनका निवेश होकर वह सफेद हो जाता है। इसी तरह एचएसबीसी जैसे बैंकों के अधिकारी भी ज्यादा मुनाफे के लालच में आतंकवादियों और अपराधियों, माफिया द्वारा बैंक के गलत इस्तेमाल को अनदेखा कर देते हैं। अगर भारत को भी आतंकवाद और संगठित अपराध से प्रभावी ढंग से निपटना है तो जरूरी है कि ऐसे कदम अविलम्ब उठाए जाएं जिससे संदिग्ध और गैर-कानूनी कारोबार पर अंकुश लग सके। अमेरिकी सरकार अगर धमकाती है तो एचएसबीसी जैसे संगठन चुपचाप समर्पण कर देते हैं और माफी मांगने, सजा भुगतने व जरूरी एहतियाती कदम उठाने को तैयार हो जाते हैं, वहीं भारत सरकार किसी गलत कारोबार पर नकेल कसने की सोचती है तो उसे यह डर दिखाया जाता है कि इससे विदेशी निवेश घट जाएगा, अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में बदनामी होगी पर ऐसे कदम उठाने के लिए भारत सरकार को इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करना होगा जो अब तक तो नजर नहीं आया।

Tuesday, 24 July 2012

शरद पवार की लड़ाई नम्बर दो की हैसियत की नहीं है

तमाम कोशिशों के बावजूद एनसीपी और कांग्रेस नेतृत्व के बीच आई राजनीतिक दरार कम नहीं हो पा रही है। क्योंकि इस बार एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार ने काफी अड़ियल रुख अपना लिया है। लगता अब यह है कि शरद पवार एण्ड कम्पनी अपनी राह तय कर चुके हैं। एनसीपी के प्रवक्ता डीपी त्रिपाठी के मुताबिक एनसीपी सुप्रीमो ने अभी तक इतना खुलकर सरकार के कामकाज का विरोध नहीं जताया था। इसलिए महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली तक तालमेल के स्तर पर सब कुछ नहीं सुधरा तो एनसीपी सरकार से किनारा करने का मन बना चुकी है। क्या पवार इसलिए कैबिनेट छोड़ना चाहते हैं कि कांग्रेस नेतृत्व उन्हें मनमोहन सरकार में नम्बर दो की पोजीशन देने को तैयार नहीं है? सूत्रों का कहना है कि यह तो बहाना है। असल में पवार का ज्यादा झगड़ा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण के तौर-तरीकों से है। काफी दिनों से पवार और पृथ्वीराज की तनातनी चल रही है। बताया जाता है कि पवार और उनके दल के नेताओं के हितों के खिलाफ राज्य सरकार ने जो मुहिम छेड़ रखी है उससे एनसीपी खफा है। यही वजह है कि मंत्रिमंडल में वरिष्ठता क्रम में दूसरे नम्बर की आड़ में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) ने यूपीए सरकार पर भारी-भरकम दबाव बनाकर सरकार से बाहर जाने की बात कह दी है। शरद पवार की असल नाराजगी की वजह महाराष्ट्र से है। महाराष्ट्र पवार का असली गढ़ है। जब से पृथ्वीराज चव्हाण मुख्यमंत्री बने हैं तभी से कांग्रेस और एनसीपी में तनातनी चल रही है। पवार एण्ड कम्पनी का आरोप है कि कांग्रेस ने सोची-समझी रणनीति के तहत मराठवाड़ा में एनसीपी का प्रभाव कम करने के लिए वहां की सारी ग्रामीण परियोजनाओं को दबाकर रखा हुआ है। महाराष्ट्र सरकार स्वयं श्री पवार, उनकी पुत्री सुप्रिया सुले व प्रफुल्ल पटेल के चुनाव क्षेत्रों की विभिन्न परियोजनाओं को लटकाने की रणनीति पर चल रहे हैं। महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी की मिलीजुली सरकार है। शरद पवार के भतीजे अजीत पवार वित्त मंत्री होने के बावजूद लाचार समझे जा रहे हैं। पृथ्वीराज चव्हाण सारी फाइलें दबाए बैठे हैं। यह भी पता चला है कि शरद पवार की नाराजगी की एक बड़ी वजह यह भी है कि उनके महाराष्ट्र मुख्यमंत्री के कार्यकाल के दौरान एक सिंचाई परियोजना में आवंटित बजट से 26,000 करोड़ रुपए से अधिक खर्च की भी जांच है। इस परियोजना में पवार के करीबियों को ठेके मिले थे। अब इस परियोजना पर हुए खर्च की जांच रफ्तार को जहां पवार धीमा करना चाहते हैं वहीं एक अन्य मामला महाराष्ट्र सदन घोटाले से जुड़ा है। दिल्ली में बने दूसरे महाराष्ट्र सदन के निर्माण के समय इसकी योजना राशि 52 करोड़ रुपए थी। अन्त में यह सदन भवन तैयार होते-होते इसकी राशि 152 करोड़ रुपए पहुंच गई। महाराष्ट्र सदन घोटाले की जांच की मांग को लेकर भाजपा नेता किरीट सोमैया ने हाल ही में राष्ट्रपति को भी शिकायत की थी कि इस मामले में भी महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री छगन भुजबल के करीबी रिश्तेदार को ठेका दिया गया था। महाराष्ट्र सदन में घोटाले की बात सामने आने पर खुद राष्ट्रपति ने अपने को इसके उद्घाटन कार्यक्रम से अलग कर लिया था। शरद पवार को शंका है कि जिस तरह भाजपा इस मुद्दे को उठा रही है उससे यदि मामले की जांच हुई तो उनकी पार्टी के लिए समस्या खड़ी हो सकती है। प्रफुल्ल पटेल पर भी तरह-तरह के आरोप हैं। खुद शरद पवार के कृषि मंत्री की हैसियत से खाद्यान्न आयात-निर्यात के मामले भी विवादों में हैं। इसलिए लड़ाई की जड़ नम्बर दो की हैसियत की नहीं, यह मामला ज्यादा गम्भीर है जो इतनी आसानी से शायद ही सुलझे। दरअसल शरद पवार को इस बात की भी चिन्ता है कि कहीं कांग्रेस नेतृत्व इस साल के अन्त तक लोकसभा के मध्यावधि चुनाव न करवा ले। फिर महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव भी 2014 में होने हैं। वैसे लोकसभा चुनाव अगर अपने निश्चित समय अप्रैल 2014 में होते हैं तो महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव अक्तूबर 2014 में होंगे। अगर लोकसभा चुनाव में एनसीपी की स्थिति कमजोर होती है तो इसका प्रभाव महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव पर सीधा पड़ सकता है। सवाल तो अब महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन सरकार के भविष्य को लेकर भी खड़ा हो रहा है। दूसरी ओर शिवसेना में आई दरार समाप्त हो रही है। राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे के फासले कम हो रहे हैं। अगर शिवसेना एक हो जाती है तो शिवसेना, मनसे और भाजपा महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की छुट्टी करा सकती है। इसलिए मामला ज्यादा गम्भीर है। यह लड़ाई सिर्प नम्बर दो की हैसियत की नहीं उससे ज्यादा पेचीदा है।

आचार्य बालकृष्ण की गिरफ्तारी के पीछे असल उद्देश्य क्या है?

योग बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ आगामी साझा अभियान के ठीक पहले शुक्रवार को रामदेव के खास सहयोगी आचार्य बालकृष्ण को सीबीआई ने पतंजलि योगपीठ, हरिद्वार से गिरफ्तार कर लिया। बालकृष्ण के खिलाफ फर्जी पासपोर्ट मामले में कोर्ट में हाजिर होने का सम्मन जारी किया गया था। सूत्रों ने कहा कि बालकृष्ण को शुक्रवार को सीबीआई की विशेष अदालत में हाजिर होना था लेकिन वे हाजिर नहीं हुए। इसके बाद उन्हें हरिद्वार में बाबा रामदेव के पतंजलि योग पीठ आश्रम से वहां मौजूद लोगों के विरोध के बीच गिरफ्तार कर लिया गया। फर्जी पासपोर्ट, दोहरी नागरिकता और फर्जी डिग्री मामले में सीबीआई ने पिछले साल 23 जुलाई को एफआईआर दर्ज की थी। इसी महीने 10 जुलाई को बालकृष्ण के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गई थी। अदालत ने उन्हें पेश होने के लिए 20 जुलाई तक का समय दिया था। सीबीआई ने जांच में पाया कि बालकृष्ण ने उत्तर प्रदेश के खुर्जी के संस्कृत महाविद्यालय के प्राचार्य से मिलकर फर्जी सर्टिफिकेट लिया जिससे पासपोर्ट बनवाया। दोनों के खिलाफ धोखाधड़ी सहित दूसरी धाराओं में मामले दर्ज किए गए। बालकृष्ण के खिलाफ पासपोर्ट कानून के तहत भी प्रकरण दर्ज किया गया। सम्पूर्णानन्द संस्कृत यूनिवर्सिटी से पूछताछ में पता चला कि बालकृष्ण का नाम उनके रिकार्ड में नहीं है। सीबीआई ने बालकृष्ण के सर्टिफिकेट में दिए गए नामांकन क्रमांक को संस्थान के रिकार्ड से मिलाया जिसमें यह नम्बर किसी अन्य विद्यार्थी का पाया गया। इसी यूनिवर्सिटी की फर्जी डिग्री बालकृष्ण ने बनवाई थी। बालकृष्ण की नागरिकता के बारे में भी नेपाल से जानकारी मांगी गई लेकिन वहां से कोई जवाब नहीं आया है। आचार्य के समर्थकों ने उनकी गिरफ्तारी का देहरादून और हरिद्वार में जबरदस्त विरोध किया, नारेबाजी की और उनकी कार के आगे लेट गए और पतंजलि योग पीठ के सामने हाइवे जाम कर दिया। पुलिस को स्थिति सम्भालने के लिए बल प्रयोग करना पड़ा। आचार्य बालकृष्ण की गिरफ्तारी की निन्दा करते हुए बाबा रामदेव ने कहा कि सरकार ने नौ अगस्त के आंदोलन को कुचलने के लिए साजिश के तहत आचार्य को सीबीआई के माध्यम से गिरफ्तार करवाया है। उन्होंने कहा कि आंदोलन से घबराई केंद्र सरकार ने आतंकवादियों की तर्ज पर आचार्य बालकृष्ण की गिरफ्तारी की है लेकिन इससे आंदोलन कमजोर नहीं होगा। शुक्रवार की रात सहारा ग्रेस में पत्रकारों से मुखातिब बाबा ने कहा कि पहले सीबीआई के जरिये सरकार ने नेपाल सरकार पर दबाव बनाया कि वह बालकृष्ण को नेपाली नागरिकता संबंधी प्रमाण पत्र दें। लेकिन जब नेपाल सरकार ने स्पष्ट कर दिया कि आचार्य बालकृष्ण भारत के नागरिक हैं तो फिर फर्जी उपाधि का षड्यंत्र रच कर बालकृष्ण को गिरफ्तार कर लिया। रामदेव का कहना है कि संविधान में अनपढ़ों को भी पासपोर्ट हासिल करने का अधिकार है तो आचार्य को पासपोर्ट हासिल करने के लिए फर्जी उपाधि की क्या आवश्यकता है? बालकृष्ण की गिरफ्तारी का लाभ उठाते हुए पूछताछ में रामदेव की आर्थिक व व्यापारी गतिविधियों के बारे में सीबीआई को मदद मिलेगी। इसमें जहां बदले की कार्रवाई की बू आती है वहीं असल टारगेट बाबा लगते हैं। बालकृष्ण तो महज दबाव बनाने वाले एक मोहरा हैं। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव में बहुत फर्प है। अन्ना हजारे एक फकीर हैं जो बहुत साधारण जीवन व्यतीत करते हैं जबकि बाबा हाई प्रोफाइल उद्योगपति बन गए हैं जिनका करोड़ों का कारोबार है और अरबों का साम्राज्य। असल निशाना तो बाबा रामदेव ही हैं।

Sunday, 22 July 2012

क्या राहुल गांधी प्रधानमंत्री पद सम्भालने के लिए तैयार हैं?

कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने गुरुवार को कहा कि वह पार्टी और सरकार में अब अधिक सक्रिय भूमिका निभाने के लिए तैयार हैं लेकिन यह सब कब होगा, इस बारे में अंतिम निर्णय कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री को तय करना है। राहुल पिछले दस वर्षों से भारतीय राजनीति में सक्रिय हैं पर उन्होंने यह पहली बार कहा है कि वह और सक्रिय भूमिका निभाने को अब तैयार हैं। उनका बयान कांग्रेस अध्यक्ष व उनकी मां सोनिया गांधी के यह कहे जाने के बाद आया है कि बड़ी भूमिका के बारे में निर्णय राहुल को ही लेना है। वर्ष 2014 में होने वाले आम चुनाव में प्रधानमंत्री के रूप में राहुल को पेश करने की अटकलों के बीच कांग्रेस के नेताओं ने हाल के दिनों में पार्टी को मुख्य धारा में लाने के लिए राहुल से अपील की थी। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह, केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद यह मांग कर चुके हैं पर मामले ने तूल तब पकड़ा जब सलमान खुर्शीद ने यह कह दिया कि राहुल से कोई वैचारिक निर्देश नहीं मिल रहा है और अब तक राहुल के विचारों तथा सोच का बहुत छोटा हिस्सा देखने को मिला है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को यह मालूम है कि बतौर पीएम यह उनकी आखिरी पारी है। पार्टी में भी यह आम धारणा बन चुकी है कि मनमोहन सिंह 2014 में कांग्रेस को लोकसभा चुनाव नहीं जितवा सकते। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राहुल गांधी को एक बार नहीं अनेक बार सरकार में शामिल होने का निमंत्रण दिया मगर राहुल गांधी तैयार नहीं हुए। कहा तो यहां तक जाता है कि पार्टी का एक वर्ग चाहता है कि राहुल गांधी सीधे प्रधानमंत्री की कुर्सी सम्भाले मगर राहुल गांधी में आत्मविश्वास की कमी कहें या फिर कांग्रेस की इस गठबंधन सरकार में मजबूरियों की वजह से राहुल अपने आपको बड़ी भूमिका के लिए तैयार नहीं कर पा रहे। दरअसल हमें लगता है कि उनमें आत्मविश्वास की कमी है। फिर उन्होंने बिहार, उत्तर प्रदेश व पंजाब में पार्टी का चुनाव लड़वाया तीनों जगह कांग्रेस की बुरी हार हुई। राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की मांग नई नहीं है। जब से सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद लेने से इंकार किया है और अपनी जगह मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवाया है तब से यह कहा जाता रहा है कि वे राहुल गांधी को पार्टी की बागडोर सम्भालने के लिए तैयार कर रही हैं। इसलिए इस सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि राहुल गांधी को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष या उपाध्यक्ष बनाया जाए। इस तरह सोनिया गांधी धीरे-धीरे पार्टी की बागडोर अपने पुत्र को सौंपना शुरू कर सकती हैं और वे पार्टी के संरक्षक की भूमिका में भी बनी रह सकती हैं। कांग्रेस का यह गुण हो या दोष पर यह उसकी हकीकत है कि वह नेहरू-गांधीवंश से जुड़कर ही एकजुट और मजबूत रहती है। आखिर क्या कारण है कि सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा बनाकर कांग्रेस से अलग हुए शरद पवार उस यूपीए गठबंधन में सहर्ष शामिल हो गए जिसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं? यूपीए सरकार सब तरह के भ्रष्टाचार और घोटालों में चाहे आज कितनी ही फंसी क्यों न हो पर कांग्रेसियों को भरोसा है कि कांग्रेस का आज भी कोई विकल्प नहीं है। दरअसल एक अरसे से कांग्रेस किसी न किसी करिश्मे के ही सहारे चल रही है। अस्सी के दशक में उभरी और बदलते रूपों में आज भी जारी जमीनी राजनीति के मुहावरे कांग्रेसी नेताओं की समझ में नहीं आते। गांव-मोहल्ले के स्तर का नेटवर्प खड़ा करना और लोगों के छोटे-मोटे काम करा देना उनके स्टेटस से मिल नहीं खाता। वे इसे जाति, क्षेत्र, सप्रदाय की औछी राजनीति बताते हैं, हालांकि बात बन जाने की उम्मीद हो तो खुद इनमें से कोई भी फार्मूला अपनाने से नहीं हिचकते। उनकी एक मात्र इच्छा यही रहती है कि उनके पास कोई ऐसा करिश्माई नेता और कोई चमत्कारी विचारधारा हो, जिसकी मदद से सत्ता पके हुए आम की तरह उनके मुंह में टपक जाए। जिस नेहरू-गांधी वंशवाद पर देश में इतनी बातें होती हैं उसकी जमीन इसी सोच से तैयार होती है। यूपीए गठबंधन राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनावों में बेशक एनडीए पर आंकड़ों में भारी पड़ जाए पर उससे जमीनी हकीकत का दूर-दूर तक संबंध नहीं। आज यह नहीं कहा जा सकता कि जमीनी हकीकत यूपीए या कांग्रेस के हक में है। इसलिए अगर राहुल गांधी कोई बड़ी भूमिका सम्भालते हैं तो उनका पहला काम 2014 के लोकसभा चुनावों के लिए संगठन को कारगर ढंग से खड़ा करने का होगा। राहुल गांधी यूपीए सरकार में चाहे जितनी भी बड़ी जिम्मेदारी सम्भाल लें, लेकिन महंगाई, बेरोजगारी, विकास और जनहित से जुड़े अन्य मोर्चों पर यह सरकार अपने बचे दो सालों में ऐसा कोई चमत्कार शायद ही कर पाए, जो 2014 में लोगों को इसकी वापसी के लिए पोलिंग बूथों पर लाइन लगाने को मजबूर कर दे। एक परिपक्व लोकतंत्र अपने राजनेताओं से संयम, विनम्र और दूरदर्शी होने की मांग करता है। 2009 के आम चुनावों में राहुल जब उत्तर प्रदेश से 22 एमपी अपनी स्वच्छ छवि से निकाल लाए थे, तो यह उनकी इसी अलग छवि के जरिए हासिल की गई गेम चेंजर भूमिका के चलते सम्भव हुआ था। कांग्रेस के अन्दर भी राहुल गांधी को नेतृत्व सौंपने पर सवाल खड़े हो रहे हैं। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि अभी राहुल को प्राइमरी का ज्ञान तो है नहीं और ऐसे में उन्हें देश का नेतृत्व सौंपे जाने जैसी बात बचकानी-सी लगती है। बताया जा रहा है कि वरिष्ठ कांग्रेसियों में राहुल को जिम्मेदारी सौंपने को लेकर उत्साह नहीं है। यूपी, बिहार, पंजाब में राहुल प्रचार के दौरान पार्टी की बद से बदतर स्थिति के बावजूद उनका बड़ी भूमिका सम्भालना अब समय से पूर्व की जल्दबाजी न हो जाए? पार्टी की एक लॉबी का स्पष्ट मत है कि पहले राहुल संगठन में बड़ी भूमिका लें और सरकार में कैबिनेट मंत्री बनकर सरकार चलाने का अनुभव लें। राहुल गांधी की ओर से खुद आगे आकर बड़ी जिम्मेदारी लेने की बात कहने के बाद इन सम्भावनाओं को बल मिलना स्वाभाविक ही है कि वह 2014 की लोकसभा में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हो सकते हैं। यह स्वाभाविक भी है, लेकिन बात तब बनेगी जब वह अगले चुनावों तक यूपीए-2 के बचे दो सालों के कार्यकाल के दौरान कुछ ठोस कर दिखाने में सफल होते हैं?

Saturday, 21 July 2012

Controversial decision about Indo-Pak cricket matches

--Anil Narendra

Central Government has given permission to BCCI (Cricket Control Board of India) to play three one-day and two T-20 matches with Pakistan. The decision to restore cricket ties was taken at the BCCI's Executive Committee meeting held on Monday. The Board said in a statement that it was decided to invite the Pak cricket team to play three one-day and two T-20 matches from December 2012 to January 2013. One-day matches will be played in Kolkata, Chennai and Delhi, while T-20s will be played at Bangalore and Ahmadabad. According to a senior member of the Board, Rajiv Shukla, P Chidambaram has conveyed MHA's no objection in this matter, but the Ministry has not displayed any enthusiasm about this decision. Even the Ministry of External Affairs has also given clearance to this proposal. But this decision of the Central Government and BCCI is surprising and it definitely raises certain questions. Obviously people would like to know that what positive development has taken place recently which has prompted the Government of India to allow the Pak cricket team to play in India. Just recently, it has once again been established that Pak state agencies are involved in 26/11 Mumbai attacks. Surprisingly, even after revelations by Kasab, David Hadley and Abu Jindal, the Pak Government has not initiated action against the perpetrators of 26/11. Sunil Gavaskar has openly protested against this decision of the BCCI. He has said, 'Being a Mumbaikar, I feel that when Pakistan is not cooperating in the investigation of Mumbai attacks, then why there has been unduly haste in resumption the cricket ties?' Comments by Shahnawaz Khan of BJP were very interesting. He says that Pakistan cricket team has already visited India in connection with the World Cup. Now, the team of the perpetrators of terror in India should also be invited to visit India. The SP leader Abu Azami says that how can we maintain sport ties with a country that is responsible for the Mumbai attacks. Through this column, I had suggested during the IPL matches that when Pakistani umpires can visit India, Azhar Mahmood can come to this country via London, then why Pakistani players were being barred from playing IPL? Pakistani players playing IPL can be understood, but when Indo-Pak series is played on the invitation of the Government of India, then it is another thing. Today, civilized world including India is mounting pressure on Pakistan for curbing terror activities. Will it be wise to invite them to our country to play cricket, when Pakistan is showing negative attitude towards terror? We do not know what is the logic of the Government of India behind this decision, but it certain sends a message that its policy towards Pakistan continues to be wavering like before. Government of India's policy may be wavering, but Pak's attitude towards terrorism is firm like before and there has been no change in it. What could be more disappointing than that within 24 hours of according permission to Pak cricket team to play in India, a Pakistani Court rubbishes the report of the Pak Enquiry Commission, constituted to investigate the Mumbai attacks? It leads to the old question that is Pakistan is not at all interested in bringing the perpetrators of the Mumbai attacks to the book? This question takes a more serious overtone, as the hearing against the seven persons accused of conspiring the Mumbai attacks has not yet started and there appears to be no sign of its beginning soon.

काका का आखिरी डायलॉग ः टाइम हो गया पैकअप

बॉलीवुड के पहले रोमांटिक सुपर हीरो राजेश खन्ना उर्प काका हमारे बीच नहीं रहे। राजेश खन्ना जिनका बचपन का नाम जतिन खन्ना था, के पार्थिव शरीर का बृहस्पतिवार मुंबई में अंतिम संस्कार कर दिया गया। 69 वर्षीय सुपर स्टार का निधन बुधवार को लम्बी बीमारी के बाद हुआ। उन्हें बॉलीवुड का पहला सुपर स्टार माना गया था। 1965 से राजेश खन्ना ने फिल्मों का सफर शुरू किया था। महज सात सालों में ही वे किसी चमत्कार की तरह सुपर स्टार का दर्जा पा गए थे। उन्होंने 169 फिल्मों में अभिनय किया। इनमें से 128 फिल्मों में उनकी भूमिका हीरो की रही। उनकी 15 से ज्यादा फिल्में सुपर हिट की श्रेणी की रहीं। इस तरह से राजेश ने कई नए रिकार्ड बनाए। बॉलीवुड में उनको काका कहकर पुकारा जाता था। राजेश खन्ना के डायलॉग और उन पर फिल्माए गए गीत हमेशा याद रखे जाएंगे। कुछ डायलॉग तो इतने हिट थे और हैं कि वह भुलाए नहीं जा सकते। फिल्म आनंद में न तो उनकी भूमिका को भुलाया जा सकता है, न इस डायलॉग को ः जिंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ में है जहांपनाह जिसे न आप बदल सकते हैं न मैं। हम सब तो रंग मंच की कठपुतलियां हैं जिसकी डोर ऊपर वाले के हाथ बंधी है। कौन कब कैसे उठेगा ये कोई नहीं जानता। इसी फिल्म में एक और डायलॉग था ः क्या फर्प है 70 साल और छह मिनट में। मौत तो एक पल है। आने वाले छह महीनों में जो लाखों पल ये जीने वाला हूं उसका क्या होगा। बाबू मोशाय.. जिंदगी बड़ी होनी चाहिए लम्बी नहीं। काका की जिंदगी भी बड़ी थी लम्बी नहीं। काका हमेशा अपने स्टाइल से जिए। एक के बाद एक लगातार 15 सुपर हिट फिल्में देने वाले काका का एक अलग ही स्टाइल था। यह अंदाज उन्हें अपने पहले के तमाम रोमांटिक हीरोज से अलग करता था। आंख बन्द कर एक ओर सिर झुकाकर उनकी डायलॉग बोलने की अदा दर्शकों को कुछ अलग-सी लगती थी। उनकी निश्चल मुस्कान और मोहक चेहरा भी पहले से कायम हीरो की छवि से अलग था। इस नए चेहरे और स्टाइल की वजह से लोग उनके डायलॉग और उनके स्टाइल की नकल करने लगे थे। एक तरह से वह सब उस जमाने के फैशन का पर्याय बन चुका था। उनके चाहने वालों की तादाद जितनी शहरों में थी उतनी ही गांवों में भी थी। बात अगर सिनेमा के माध्यम से समाज की आंखों में उतरने वाले सपनों की करें तो राजेश खन्ना इन सपनों के चक्रवर्ती राजा थे। बुजुर्गों ने फिल्म आनंद में उनके कैंसर से मरने के दर्दनाक सीन में जिंदगी की पहेली को समझा तो युवाओं न कटी पतंग, आराधना, अमर प्रेम जैसी फिल्मों में राजे-रजवाड़ों के जमाने के प्रेमी नायकों को भूल उनसे नए दौर के समाज का फैशनेबल रोमांटिक आइकॉन देखा। मांओं ने अपने बच्चों का नाम राजेश खन्ना रखने शुरू कर दिया। लोकप्रियता की यह हद यहां तक गई कि उस दौर में मुहावरा ही चल पड़ाöऊपर आका और नीचे काका। राजेश खन्ना एक बहुत लोनली मैन थे। वह ज्यादा मिलना-जुलना पसंद नहीं करते थे। रिश्तेदारों और दोस्तों से ज्यादा उन्होंने शराब की बोतल का सहारा लिया। वह इतने प्राइवेट पर्सन थे कि उनकी मौत का कारण भी सही से नहीं पता चल सका। फिल्मी पर्दे पर सबसे हिट जोड़ी के तौर पर राजेश ने मुमताज के साथ कई हिट फिल्में दीं। दोनों ने आपकी कसम, रोटी, अपना देश, सच्चा झूठा समेत दस सुपर हिट फिल्में दीं। अपने परिवार के साथ लंदन में रह रही मुमताज ने बताया कि उन्हें इस बात का संतोष है कि वे पिछले महीने काका से मिली थीं। उस दौरान दोनों ने कैंसर से अपनी-अपनी लड़ाई की बात की। हालांकि काका के परिवार ने कभी उनकी बीमारी की बात नहीं की। स्तन कैंसर से अपनी लड़ाई जीतने वाली मुमताज ने कहा, `उन्होंने मुझसे कहा था कि मैं बहुत मजबूत हूं और वह जानते थे कि कीमोथेरेपी के दौरान मैं किस पीड़ा से गुजरी थी। उनके लिए आर्डर किए गए बहुत सारे व्यंजनों के बारे में मजाक करने पर उन्होंने कहा था कि उन्हें भूख महसूस नहीं होती। उस दिन भी काका ने कुछ नहीं खाया पर बीमारी की इस हालत में भी वह जिंदादिल थे। मजाक करना, ठहाके लगाना, हंसना, उनकी आदत थी जो अंतिम समय तक कायम रही।' बहरहाल काका अपने पीछे सिर्प चमक और लोकप्रियता की धूम ही नहीं छोड़ गए उनका `सफर' अपने आखिरी मुकाम तक पहुंचते-पहुंचते आनंद से दुखांत में बदल गया। भले यह प्रतीकात्मक हो पर अपने हालिया विज्ञापन अवतार में लोग जब ढलती काया और कांपती आवाज में उन्हें यह कहते सुनते हैं कि मेरे फैंस को कोई मुझ से नहीं छीन सकता तो साफ लगता है कि वह अपने उजास के दिन बीत जाने के बाद भी राजेश खन्ना की तलाश उसी चौंध की थी, जो कभी उनके नाम के जिक्र मात्र से पैदा हो जाया करती थी। आज जब काका नहीं हैं तो उनके यादगार गाने और डायलॉग हमेशा याद रहेंगे। आनंद कभी मरता नहीं वह तो अमर है। बुधवार दोपहर करीब डेढ़ बजे जब अंतिम सांस ली तो उनके आखिरी शब्द थे `टाइम हो गयाöपैकअप।' अपने आनंद की याद में बेहद भावुक बाबू मोशाय यानी अमिताभ बच्चन ने देर रात ट्विटर पर यह बात शेयर की।

बच्चों को पिज्जा-बर्गर कम भारतीय व्यंजन ज्यादा दें

हर माता-पिता का फर्ज बनता है कि वह अपने बच्चों को जंक फूड से बचाएं। यह पिज्जा, बर्गर आजकल बच्चों की सबसे लोकप्रिय खाने की डिश बनती जा रही है। मैं यह नहीं कहता कि इनका सेवन बिल्कुल बन्द कर दिया जाए पर इनका रोज-रोज खाना बच्चों की सेहत के लिए हानिकारक हो सकता है। आए दिन यह सर्वे आते रहते हैं कि इस जंक फूड के कारण बच्चों में मधुमेह (डायबिटीज) बढ़ रही है। डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट के अनुसार सबसे ज्यादा नमक बर्गर, पिज्जा, फ्रेंच फ्राइज और फ्राइड चिकन में होता है। अगर आपको तेज नमक खाने की आदत है तो सचेत हो जाएं क्योंकि यह आपके दिल और शरीर के बायोकैमिकल सिस्टम को प्रभावित कर सकता है। लेडी हार्डिंग की डाक्टर मोनिका सूद के मुताबिक एक दिन में स्वस्थ व्यक्ति को 2000 मिलीग्राम से ज्यादा नमक का सेवन नहीं करना चाहिए। अमेरिकी जनरल ऑफ हाइपरटेंशन के मुताबिक फास्ट फूड्स में जरूरत से ज्यादा नमक (सोडियम) की मात्रा मौजूद होती है जिससे दिल की बीमारियों का खतरा बढ़ता है। ज्यादा नमक से हाई ब्लड प्रेशर और समय से पूर्व मृत्यु की आशंका होती है। भारत में हाई ब्लड प्रेशर और मोटापे की एक बड़ी वजह जरूरत से ज्यादा नमक का सेवन है। ज्यादा नमक खाने से रक्त धमनियों में पानी के अणुओं का बहाव बढ़ जाता है जिससे रक्त का घनत्व और दबाव बढ़ जाता है। इसके परिणामस्वरूप ब्लड प्रेशर की समस्या पैदा होती है। शरीर में जमा सोडियम मूत्र में चला जाता है। इससे किडनी पर मार बढ़ जाती है और किडनी में पत्थर बनने की आशंका बढ़ जाती है। इससे किडनी फेल होने का भी खतरा रहता है। ज्यादा नमक के सेवन से दिल कमजोर हो सकता है। शरीर में सोडियम की अधिकता होने से दिल को अपना काम करने में ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है इससे दिल में सूजन आती है और हार्ट अटैक का खतरा भी बढ़ता है। एक अध्ययन में पाया है कि पिज्जा, बर्गर से भारतीय व्यंजन बेहतर विकल्प हैं। इसके अनुसार फास्ट फूड में तय नमक से तीन गुना ज्यादा मात्रा का उपयोग किया जाता है जबकि भारतीय व्यंजन में कम नमक का प्रयोग होता है। लीवर पूल जॉन मूरेस यूनिवर्सिटी के सर्वेक्षण में पाया गया है कि पिज्जा में सबसे ज्यादा नमक की मात्रा करीब 9.45 ग्राम होती है। वहीं माइनीज फूड में औसतन 8.1 ग्राम, कबाब में 6.2 ग्राम जबकि भारतीय व्यंजनों में 4.7 ग्राम और इंग्लैंड के व्यंजनों में 2.2 ग्राम नमक की मात्रा ही होती है। अध्ययन के अनुसार पेप्पेरोनी पिज्जा में औसत 12.94 ग्राम नमक जबकि किसी फूड पिज्जा में औसत 11 ग्राम नमक की मात्रा होती है। इसके अलावा मारफेरिटा में औसतन 8.8 ग्राम नमक होता है। फास्ट फूड में नमक की मात्रा पता लगाने के लिए यह पहला अध्ययन किया गया है। इसलिए माता-पिता को चाहिए कि वह अपने बच्चों को जरूरत से ज्यादा पिज्जा, बर्गर व चाइनीज फूड न खिलाएं और भारतीय शाकाहारी व्यंजन और खाने की ज्यादा आदत डालें।

Friday, 20 July 2012

Lashkar, the most dangerous terror outfit and Pakistan, the most dangerous country

According to terrorist Hafiz Saed and recently arrested Abu Jandal, Lashkar-e-Taiba and ISI were directly behind the 26/11 Mumbai terror attacks. The presence of ISI officer, Major Sameer Ali at the Karachi Control Room during the Mumbai attack on 26th November, 2008 is sufficient to prove of Lashkar-ISI combine in abetting terrorism against India and the world. It would not be wrong to say that as on today, Lashkar-e-Taiba is more dangerous terrorist organization than al Qaeda and Pakistan has become most dangerous country of the world in this respect. A former ISI officer has also recently accepted that Lashkar-e-Taiba is the most dangerous terror outfit. Former CIA Analyst, Bruce Riddle, who is at present a Professor at Johns Hopkins School, has said that Lashkar is an independently controlled outfit in Pakistan and it continues to maintain strong operational connection with Pakistani security forces and country's spy agency. Since Riddle is working with a private institution, as such his opinion cannot be construed as the official opinion of the US administration, but the views of governments are formed on the basis of country's strategists' considered views. A few days back, Lashkar was not being considered that seriously. It was considered to be a boastful organization, active in the southern part of Pakistani Punjab, who sometimes wants jihadi flag fluttering at Lal Qila and at White House also. The US government thinks that the Lashkar is among dozens of such organizations. US is also not much worried, because it cannot attack it, but 26/11 has also forced it to change its opinion. Bruce Riddle thinks that at present, the status of Lashkar-e-Taiba among the terrorist organizations of the world is highest, because Pakistan government dare not touch it and this outfit has the support of Pakistan Army and its spy agency ISI in one form or the other. According to a report, founder of Lashkar, Hafiz Saed formally participates in the meetings of Corps Commanders of Pakistani Army. There is not a single terrorist organization in the world whose men participate in rallies brandishing their arms and even after revelation of names of its citizens in terror attacks on other country, Pakistan does not restrict its activities and to tell the truth is doesn't care also. To reach to this conclusion, Riddle has linked 26/11 with three major arrests that of Amir Ajmal Kasab, David Coleman and Abu Jindal and based his conclusion on this. One thing is clear from the statements of these three persons that ISI and some officers of the Pakistani Army were also involved in planning the 26/11 attack. Even today, Pakistan considers this attack as the action of 'non-State actors'. A Pak Minister has, recently gone to the extent saying that some persons within India had a major role in 26/11 Mumbai attack. Irrespective of denials by Pakistan, arrests one after other, prove its involvement in these attacks. True face of Pakistan is coming before the world. Bruce Riddle says that if the governments of other Gulf countries display such promptness as shown by Saudi Arabia in arresting Abu Jindal, in providing funds and protection to terror organizations like Lashkar-e-Taiba, then its back can be broken like al Qaeda's. In fact, the real problem is that the aid given to Pakistan by US finds its way to the coffers of the Lashkar-like terror organizations and so long America would not consider these organizations as headache for itself, it would not evince interest in tackling these outfits. Today, Lashkar-e-Taiba has become the most dangerous terror organization and Pakistan, the most dangerous country.

 -- Anil Narendra     

Decisive battle between Pak Supreme Court and Zardari

 The battle of check and mate between Pakistan Supreme Court and President Asif Ali Zardari is inching towards climax. Supreme Court is bent upon removing President Zardari, whereas in spite of all the odds, Zardari is still clinging to the seat of power. The latest in the related developments is that the Court has directed the present Prime Minister, Raja Parvez Ashraf to write to the Swiss Government by 25th July to reopen graft cases against President Zardari. Earlier, Yousuf Raza Gillani had been forced to relinquish the post of the Prime Minister, after which Ashraf took over as the Prime Minister of the country. The five member Bench under the chairmanship of Justice Asif Saed Khan hopes that the Prime Minister would write to the Swiss Government and would submit a report to this effect before the Court on the next hearing scheduled to be held on 25th July. The Bench has threatened to initiate action according to the Constitution against the Prime Minister, in case Court's directions are not followed. This order of Supreme Court comes in the wake of the latest bill of the Zardari Government. Before getting Court's order, President Zardari had signed a bill that provided to protect top Government leaders from contempt of court proceedings. The Contempt of Court Bill, 2012 has now become a law and this has been brought to protect Prime Minister Raja Parvez Ashraf from possible contempt of Court and it will also act as a shield to protect President Zardari also. The Spokesman of the President, Farhatullah Babbar has said that the President has also given his assent to the Court Contempt Bill, 2012 after it has been passed by both the houses of National Assembly. According to this Act, no Court will now initiate contempt proceedings against the President, the Prime Minister, Federal Ministers and Governors. President Zardari has signed this Bill, few hours before the the proceedings in connection with the reopening of graft cases against Zardari in Switzerland. This law will replace earlier two Ordinances regarding the contempt of Court promulgated by the then Military Ruler Parvez Musharraf in 2003 and 2004. This Bill was passed in the lower house i.e. National Assembly on Monday. Then, after heated discussions, it was passed on Wednesday in the upper house, Senate. The members of the ruling Pakistan People's Party are of the view that the Supreme Court is pursuing this matter with political vendetta and it is bent upon dismissing the Government. Pakistan is already fighting terrorism, the country is facing a grave power and economic crisis and it has been tolerating a sick political instability for long. There has been a massive power struggle between Pakistan's civilian government and Pakistan Army, since 2008, when Parvez Musharraf was removed from power. The new law is definitely going to face legal opposition. This whole dispute started in 2007, when the then President, Musharraf had through the National Reconciliation Ordinance closed the graft cases against about eight thousand persons. This had benefitted Zardari and Rehman Malik also. The Supreme Court annulled this law in December 2009 and directed the Government to reopen the cases against all the persons including Zardari. The Swiss administration, on the request of the Pak government, closed money laundering case against Zardari involving $ 60 million. The Pak masses have become deeply involved in this matter and to some extent have been divided also. Some of them are of the view that the Supreme Court is over zealous in this matter and working with vendetta. The Chief Justice of Supreme Court has said that he would root out corruption from the country. So far as President Zardari is concerned, he is very unpopular among masses. They want to get rid of him, but they also do not want to put an end to the democratic system in the country. They fear that the Army could take advantage of this fight between the government and the Supreme Court and usurp the reigns of power once again. There is one way out and that is mid-term elections for the Assembly. But, Zardari will not be prepared for this. He wants to adhere to power as long as he can, but it is to be seen that how long he will be able to prolong this game.

 

--Anil Narendra

भारत-पाक क्रिकेट मैचों का विवादास्पद फैसला

केंद्र सरकार ने भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) को पाकिस्तान के साथ तीन एक दिवसीय व दो टी-20 मैच आयोजित करने की हरी झंडी दे दी है। भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट संबंध बहाल करने का फैसला सोमवार को बीसीसीआई की कार्यकारी समिति ने लिया। बोर्ड ने एक बयान में बताया कि पाकिस्तानी क्रिकेट टीम को दिसम्बर 2012 से जनवरी 2013 के बीच तीन एक दिवसीय व दो टी-20 मैचों की सीरीज खेलने के लिए आमंत्रित करने का निर्णय लिया गया है। कोलकाता, चेन्नई और दिल्ली में एक दिवसीय जबकि बेंगलुरु और अहमदाबाद में टी-20 के मुकाबले होंगे। बोर्ड के वरिष्ठ सदस्य राजीव शुक्ला के मुताबिक पी. चिदम्बरम ने गृह मंत्रालय की तरफ से इस सीरीज पर किसी तरह की आपत्ति न होने की बात कही है। हालांकि मंत्रालय ने इस निर्णय के प्रति कोई खास उत्साह नहीं दिखाया है। इतना ही नहीं, विदेश मंत्रालय से भी हरी झंडी मिलने की जानकारी है। केंद्र सरकार व बीसीसीआई का यह फैसला चकित और साथ ही सवाल खड़ा करने वाला जरूर है। देश की जनता के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि आखिर इस बीच ऐसा क्या सकारात्मक हुआ है जिससे भारत सरकार ने पाकिस्तान की क्रिकेट टीम को देश में खेलने की अनुमति प्रदान कर दी? अभी-अभी तो नए सिरे से यह सामने आया है कि मुंबई हमले में पाकिस्तान की सरकारी एजेंसियों की भागीदारी थी। चौंकाने वाली बात यह है कि कसाब, डेविड हेडली और अबू जिंदाल के खुलासों के बाद भी पाक सरकार ने 26/11 के गुनहगारों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। इस फैसले का सुनील गावस्कर ने भी खुलकर विरोध किया है। गावस्कर ने कहा कि मुंबई का होने के नाते मुझे लगता है कि जब मुंबई हमले की जांच में पाकिस्तान से सहयोग नहीं मिल रहा है तो आयोजन में जल्दबाजी क्यों की गई? भाजपा प्रवक्ता शहनवाज हुसैन की टिप्पणी दिलचस्प थी। वे कहते हैं कि पाकिस्तानी क्रिकेट टीम विश्व कप मैच के लिए पहले भी भारत आ चुकी है। अब मुंबई हमले के गुनहगार आतंकियों की टीम को भी भारत बुलाया जाना चाहिए। सपा नेता अबू आजमी का कहना था कि मुंबई हमले के जिम्मेदार देश के साथ हम कैसे खेल संबंध रख सकते हैं। मैंने इसी कॉलम में आईपीएल मैचों के दौरान सुझाव दिया था कि जब पाकिस्तानी अम्पायर आ सकते हैं, अजहर महमूद लंदन के जरिए आ सकते हैं तो पाकिस्तानी खिलाड़ियों के आईपीएल खेलने पर पाबंदी क्यों? आईपीएल में पाक खिलाड़ियों का खेलना समझ आता है, क्योंकि वह भारत सरकार का टूर्नामेंट नहीं है पर भारत-पाक श्रृंखला वह भी भारत सरकार के आमंत्रण पर खेली जाए तो वह और बात बन जाती है। आज भारत सहित सभी सभ्य दुनिया का पाकिस्तानी आतंक पर अंकुश लगाने का दबाव बढ़ रहा है। ऐसे समय पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद पर नकारात्मक रुख दिखाने के बावजूद उन्हें अपने देश में बुलाना क्या उचित होगा? हमें नहीं मालूम कि इस फैसले के पीछे केंद्र सरकार की क्या सोच है पर संदेश यही जाता है कि पाकिस्तान के प्रति उसकी नीति पहले की तरह ढुलमुल बनी हुई है। बेशक भारत सरकार की नीति ढुलमुल हो पर पाकिस्तान का रवैया आतंक के प्रति वही पुराना है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं आया। इससे अधिक निराशाजनक और कुछ नहीं हो सकता कि पाकिस्तान की क्रिकेट टीम को भारत आकर खेलने की अनुमति देने के 24 घंटे के अन्दर वहीं की एक अदालत ने मुंबई हमले की जांच के लिए गठित एक आयोग की रिपोर्ट को अवैध बताते हुए सिरे से खारिज कर दिया। इससे यह पुराना सवाल नए सिरे से उठना स्वाभाविक है कि क्या पाकिस्तान मुंबई हमले की साजिश रचने वालों को दंडित करने के लिए तनिक भी इच्छुक है? यह सवाल इसलिए और भी गंभीर हो जाता है, क्योंकि मुंबई हमले की साजिश रचने के सात आरोपियों के खिलाफ सुनवाई शुरू होने का नाम ही नहीं ले रही है।

क्या दिग्विजय सिंह की छुट्टी संगठन में फेरबदल की शुरुआत है?

अब जब राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव का मामला निपट गया है, लगता है कांग्रेस और संप्रग सरकार में फेरबदल का समय आ गया है। प्राप्त संकेतों से लगता है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी अब संगठन में फेरबदल करने के मूड में आ चुकी हैं। खबर है कि कांग्रेस संगठन में कई दिग्गजों को हटाया जाएगा और कुछ के पर कतर दिए जाएंगे। कुछ को केंद्रीय मंत्रिमंडल से हटाकर संगठन में लगाया जा सकता है। संगठनात्मक फेरबदल के लिए सोनिया गांधी का वरिष्ठ सलाहकारों से सलाह मशविरा लगभग हो चुका है। यूपी और पंजाब के चुनाव में करारी हार को पार्टी पचा नहीं पा रही है। इस साल और 2013 में कई राज्यों में विधानसभा और आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भी यह जरूरी है कि कांग्रेस अपना संगठन दुरुस्त करे। क्या श्री दिग्विजय सिंह के पर कतरने से यह फेरबदल आरम्भ माना जाए? कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह को लेकर मंगलवार को अफवाहों का बाजार गर्म रहा। कहा गया कि उत्तर प्रदेश की हार की वजह से सिंह से उत्तर प्रदेश और असम का प्रभार छीन लिया गया है। एक वजह यह भी सुनने को मिली कि दिग्विजय सिंह से इन राज्यों का प्रभार उनके विवादास्पद बयानों के चलते लिया गया तो दूसरी ओर यह भी सुनने में आया कि अपनी पत्नी की बीमारी की वजह से वह स्वयं ही अपनी इस जिम्मेदारी से मुक्त हो गए हैं। बात बढ़ती देख कांग्रेस महासचिव और मीडिया विभाग के अध्यक्ष जनार्दन द्विवेदी को इन सभी बातों का खंडन करने के लिए आगे आना पड़ा। बताया गया कि दिग्विजय सिंह राष्ट्रपति चुनाव को लेकर किसी और काम में व्यस्त हैं पर उन्हें लेकर उलझन तब शुरू हुई जब सोनिया गांधी से मिलने उत्तर प्रदेश के सांसदों के साथ कांग्रेस महासचिव बीके हरिप्रसाद दस जनपथ पहुंचे जबकि राज्य के प्रभारी दिग्विजय सिंह हैं। उससे पहले इलेक्ट्रानिक मीडिया के हाथ कांग्रेस संसदीय दल का वह पत्र लग गया जिसमें सांसदों के साथ सोनिया गांधी की मुलाकात का कार्यक्रम बनाया गया था। इस पत्र और हरिप्रसाद को उत्तर प्रदेश के सांसदों के साथ जाता देखकर इस बात की ऊहापोह बढ़ गई कि क्या सचमुच दिग्विजय से उत्तर प्रदेश और असम का प्रभार ले लिया गया है। सोनिया गांधी इन दिनों कांग्रेस सांसदों से मिल रही हैं। मंगलवार को वह यूपी के सांसदों से मिलीं। खबर है कि कुछ मंत्रियों ने जिनमें ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश और स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद के नाम प्रमुख हैं, ने केंद्र सरकार में मंत्री पद से इस्तीफा देकर पार्टी की सेवा करने की इच्छा जताई है। कहा जा रहा है कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव के तुरन्त बाद दोनों केंद्रीय मंत्रिमंडल और कांग्रेस संगठन में बड़ा फेरबदल होगा। केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल के लिए कांग्रेस के सहयोगियों का भी दबाव है। श्री प्रणब मुखर्जी के जाने के बाद से वित्त मंत्री का पद भी भरना जरूरी है। लगता है कि दोनों सरकार और संगठन में फेरबदल होगा पर देखें क्या होता है?

Thursday, 19 July 2012

ओबामा की टिप्पणी इतनी बुरी क्यों लग रही है?

अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत की आर्थिक पगति को लेकर की गई टिप्पणी का भारत सरकार ने बुरा मना है। ओबामा ने देखा जाए तो कोई नई बात नहीं की। यही बात भारत की कॉरपोरेट लॉबी बहुत दिनों से कर रही है। ओबामा ने भारत में विदेशी निवेश खासतौर पर खुदरा क्षेत्र में एफडीआई पर लगी रोक पर चिंता जताई है। लगभग यही बात गत दिनों अमेरिकी पत्रिका टाइम ने भी कही थी। मनमोहन सरकार को ओबामा की टिप्पणी नागवार लगी। हैरानगी है कि इसी अमेरिकी लॉबी की नीतियों पर यह सरकार आज तक चलती आ रही है आज इन्हें बुरा क्यों लग रहा है? मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह आहलूवालिया खुद अमेरिका समर्थक हैं, आज ओबामा की बात उन्हें चुभ क्यों गई? क्या मनमोहन सिंह इस बात से इंकार कर सकते हैं कि भारत का विकास (आर्थिक) लगभग ठप पड़ा हुआ है? क्या वह इस बात से इंकार कर सकते हैं कि आर्थिक सुधार की गति रुक सी गई है? इसके साथ-साथ इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि ओबामा ने जो कहा है वह अमेरिकी कॉरपोरेट लॉबी के दबाव में कहा है। पिछले काफी समय से अमेरिका की निगाह भारत के खुदरा व्यापार पर है। कुछ माह पहले अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन भारत आई थीं। उनकी इस यात्रा का मकसद ही खुदरा व्यापार के क्षेत्र में विदेशी निवेश के लिए रास्ता साफ करना था। इसीलिए अपनी सरकारी यात्रा में उन्होंने पधानमंत्री, विदेश मंत्री, कांग्रेस पमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से भी मुलाकात की। मौजूदा सरकार खुदरा व्यापार के क्षेत्र में विदेशी निवेश को खुली छूट देने के लिए विधेयक भी लाई थी। मनमोहन सरकार ने एफडीआई लाने के लिए एक विधेयक भी लाई थी पर पूरे देश में इसके कड़े विरोध होने के कारण उसे आगे नहीं बढ़ा सकी। छोटे से लेकर बड़े व्यापारी, विभिन्न राजनीतिक दल और संगठन इसे काले कानून की संज्ञा देते हुए सड़कों पर उतर आए थे। महीनों अनशन, धरनों और जेल भरो आंदोलन चले। केंद्र को जनांदोलनों एवं राजनीतिक दलों के दबाव में उसे वापस लेना पड़ा था। दरअसल भारत में खुदरा बाजार में अनगिनित संभावनाएं अमेरिका को दिखाई पड़ रही हैं। मंदी की मार से उबरने की कोशिश कर रहे अमेरिका को अपने यहां की भीमकाम कंपनियों के माल खपाने के लिए बाजार की तलाश है। भारत इसके लिए उन्हें उपयुक्त दिखाई पड़ रहा है। वहां के तमाम उद्योग धंधे और रोजगार इस पर टिके हैं। अमेरिका को भारत से ज्यादा अपनी चिंता है। अभी ज्यादा समय नहीं बीता है जब यह खबर आई कि अमेरिकी कंपनियों ने भारत में पावर वैक्यूम की शिकायत करते हुए ओबामा के कार्यालय को एक ज्ञापन भेजा है। अब जबकि वहां ओबामा राष्ट्रपति के रूप में एक और पारी खेलने के लिए चुनावी मैदान में हैं तो उन्हें वह सारी बातें कहनी पड़ रही हैं। जिससे देश के अंदर उनका विरोध कम हो। भारत को ओबामा की सारी बातों को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए। चुनावी वर्ष में वह बहुत सी बातें अपने देश के वोटरों को रिझाने के लिए कहेंगे। आज की तारीख में जब यूरोजोन से लेकर डॉलर इकोनॉमी तक के आगे स्लोडाउन का गंभीर खतरा मंडरा रहा है तो खुलेपन की पैरोकारी करने वाली दिग्गज अर्थव्यवस्थाएं भी सुरक्षात्मक नीतियां अपनाने पर मजबूर हो रही हैं और अपनी ग्लोबल इकोनॉमिक पोजिशनिंग इस तरह कर रही है जिनमें उनके लिए अनुकूलता ज्यादा है। यही रणनीति अमेरिका की भी है कि वह अपनी कंपनियों के लिए भारत पर दरवाजे खोलने के लिए दबाव बढ़ाए। अमेरिका को अपनी चिंता है पर इससे भारतीय व्यापारियों, उद्यमियों, हस्तशिल्पियों और मजदूरों को खतरा बढ़ जाएगा। मनमोहन सरकार के लिए भारत की थमी हुई अर्थव्यवस्था में दोबारा पाण पूंकना एक चुनौती है। पर यह बात हमें अमेरिका से नहीं जाननी। मनमोहन सरकार में दरअसल इच्छाशक्ति का अभाव है। कभी गठबंधन धर्म की वजह से कभी गलत योजनाओं की वजह से यह सरकार सही फैसले नहीं कर पा रही है। अब इस सरकार की यह मुश्किल है कि वह ओबामा की टिप्पणियों के बाद कुछ ठोस कदम उठाती है तो यह धब्बा लगेगा कि यह सब अमेरिका के दबाव में हुआ। इसलिए भारत सरकार को बिना दबाव में आए अपना रास्ता खुद तय करना चाहिए।

क्या लंदन ओलंपिक में हम बीजिंग से आगे बढ़ सकेंगे?

इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि खेलों में राजनीति इतनी बढ़ गई है कि फिजूल के विवादों में उलझने की तो फुरसत है पर असल मुद्दों पर कोई ध्यान ही नहीं देता? सुरेश कलमाड़ी लंदन ओलंपिक्स जाएंगे या नहीं, सानिया मिर्जा की मां क्यों लंदन जा रही हैं इत्यादि इत्यादि समय बर्बादी के मुद्दों पर तो दिन रात बहस हो रही है पर यह कोई नहीं पूछ रहा कि लंदन ओलंपिक्स में भारत कितने मैडल जीत कर लाएगा? लंदन ओलंपिक्स में भारतीय खिलाड़ियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती क्या है? यह सवाल खिलाड़ियों, कोचों और अधिकारियों से पूछा जाए तो ज्यादातर का जवाब होगा खिलाड़ी की फार्म, भाग्य और बाकी टीमों का दमखम, लेकिन देश का एक बड़ा वर्ग कुछ और ही सोच रहा है। एक सर्वे से पता चला है कि हमारे खिलाड़ियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी बीजिंग 2008 ओलंपिक्स में जीते तीन पदकों की बराबरी लंदन में करना। खेल जानकारों के अनुसार भारत के पास इस वर्ष सुनहरा मौका है कि वह तीन की संख्या पीछे छोड़े। भारत के लिए मनोबल बढ़ाने वाली बात यह हो सकती है कि ओलंपिक ब्रिटेन की राजधानी लंदन में हो रहे हैं और ब्रिटेन की विश्व पसिद्ध रेटिंग एजेंसी पाइस वाटर हाउस कूपर्स ने अपने आंकलन में भविष्यवाणी की है कि भारत लंदन में छह पदक जीत सकता है। भारतीय खिलाड़ी इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि उनसे इस बार कितनी उम्मीदें लगाई गई हैं। लंदन ओलंपिक भारतीय खेलों की दिशा और दशा बन सकते हैं। बीजिंग से बढ़िया पदर्शन भारतीय खेलों को मीलों आगे ले जा सकता है लेकिन बीजिंग से कमजोर पदर्शन भारतीय खेलों को मीलों पीछे भी धकेल सकता है। निशानेबाजी, मुक्केबाजी, कुश्ती, तीरंदाजी, बैडमिंटन और टेनिस ऐसे खेल हैं जो ओलंपिक में भारत को पदक दिला सकते हैं। बीजिंग में जीते एक स्वर्ण ओर दो कांस्य पदक भारतीय खेलों की पगति और बदलाव की तस्वीर को लंदन में पेश करेंगे। यदि लंदन में भारत चार पदक भी जीत पाया तो यह मान लेना चाहिए कि भारतीय खेल धीरे-धीरे आगे सरक रहा है। बड़ी कामयाबी मिलती है तो साफ हो जाएगा कि भारतीय खिलाड़ियों ने पदक जीतने और बड़े मुकाबलों में सफल होने का मंत्र सीख लिया है। हालांकि मुक्केबाजी, कुश्ती, निशानेबाजी, तीरंदाजी, टेनिस और बैडमिंटन आदि खेलों में भारत के पास विश्व चैंपियन खिलाड़ी हैं किन्तु ओलंपिक के सामने किसी भी पतियोगिता के मायने नहीं हैं। यही कारण है कि बीजिंग में जीते पदक भारतीय खिलाड़ियों के लिए कड़ी चुनौती बनकर खड़े हैं। वैसे यह विडम्बना है कि हम भारत के सर्वश्रेष्ठ पदर्शन के नाम पर तीन-चार पदकों की बात करते हैं जबकि हमारा पड़ोसी देश चीन 1984 के लास एंजेलिस के तीन पदकों से 2008 के बीजिंग ओलंपिक में 51 स्वर्ण सहित 100 से ज्यादा पदक जीतकर पदक तालिका में अमेरिका को परास्त कर नंबर वन बन गया था। भारत 112 वर्षों के अपने ओलंपिक इतिहास में कुल 20 पदक ही जीत पाया है, जिसमें 11 पदक तो हॉकी के नाम हैं। खेलों में यह सिद्धांत अब कहीं पीछे छूट चुका है कि पदक जीतने से ज्यादा महत्वपूर्ण हिस्सा लेना है। खिलाड़ी भी जानते हैं ओलंपिक में कामयाबी उन्हें रातों-रात स्टार बना देगा।

Wednesday, 18 July 2012

कन्या भ्रूण हत्या रोकने हेतु खाप महापंचायत का सराहनीय फैसला

बागपत जिले की एक खाप पंचायत द्वारा महिलाओं पर ताजा पाबंदी के अजीबोगरीब फरमान से तो हंगामा होना ही था। पंचायत ने तालिबानी स्टाइल में जारी किए फरमान में 40 साल से कम उम्र की महिला के अकेले घर से निकलने पर रोक लगा दी। महिलाएं अकेले बाजार न जाएं। गांव की महिलाओं का सिर हमेशा ढंका होना चाहिए। महिलाएं घर के बाहर मोबाइल फोन का इस्तेमाल न करें। पंचायत के इस फैसले से तूफान खड़ा हो गया। पहले भी खाप पंचायतों के फैसलों पर विवाद हुआ था। चाहे मामला ऑनर किलिंग का रहा हो या कोर्ट मैरिज व न्यायपालिका के फैसलों के खिलाफ फतवे जारी करना रहा है। जब पंचायतों ने देखा कि हंगामा ज्यादा हो गया तो उन्होंने एक और फरमान जारी कर दिया। इस बार सवा सौ खाप महापंचायत कन्या भ्रूण हत्या के कड़े विरोध को लेकर खड़े हो गए। हरियाणा के जीन्द के बीबीपुर गांव में आयोजित महापंचायत में दिल्ली, राजस्थान और उत्तर प्रदेश की सवा सौ से ज्यादा खापों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। हरियाणा और राजस्थान के कुछ इलाके कन्या भ्रूण हत्या के लिए बदनाम रहे हैं। चन्द रोज पहले उत्तर प्रदेश के बागपत जिले में हुई पंचायत ने जहां महिलाओं के हितों पर कुठाराघात करने वाले प्रस्ताव पारित किए थे, वही शनिवार को ऐलान किया कि कन्या भ्रूण हत्या को अपने स्तर पर रोकने का प्रयास करेंगे और साथ ही पंचायत ने सरकार से मांग की कि वह भ्रूण हत्या करने वालों के खिलाफ हत्या का मुकदमा कायम करने का प्रावधान करे। हमें लगता है कि महिलाओं पर पाबंदी लगाने वाले फैसले पर जब पंचायतों ने रिएक्शन देखा तो अपनी बिगड़ती छवि सुधारने के लिए अविलम्ब भ्रूण हत्या का प्रस्ताव लाया गया। खाप को समझना होगा कि महिला संबंधी उनका पहला फरमान सभ्य समाज के हमारे दावे को कमजोर करने के साथ ही देश की छवि पर बट्टा भी लगाते हैं। सामाजिक सुधार की ऐसी कोई पहल कामयाब नहीं हो सकती जो महिलाओं पर पाबंदी के रूप में सामने आती है। खाप पंचायत के फैसले सामंती सोच के परिचायक हैं। ऐसे फैसलों पर अमल करने से कोई समाज-समूह आगे नहीं बढ़ सकता, लेकिन यह भी सही है कि केवल कानून के बल पर समाज की नकारात्मक सोच को नहीं बदला जा सकता। इस मामले में सबसे दुःखद यह है कि समाज और राजनीति के जिन प्रतिनिधियों को लोगों को दिशा देने और उन्हें समझाने-बुझाने के लिए आगे आना चाहिए था वे इस या उस बहाने खाप पंचायत की हां में हां मिलाते नजर आ रहे हैं। इससे पता चलता है कि दिशा दिखाने वाले खुद दिशाहीन होते जा रहे हैं। हम खाप पंचायत के ताजे फैसले का स्वागत करते हैं। महिला भ्रूण हत्या की जितनी भी निन्दा की जाए, कम है पर केवल कानूनों से ही लोगों का नजरिया नहीं बदला जा सकता। हां पंचायतों द्वारा इसके खिलाफ आवाज उठाने से माहौल और सोच, दोनों में फर्प जरूर पड़ता है। जहां तक महिलाओं के सिर ढंकने की बात है तो इस्लाम में भी पर्दा सिस्टम है, गांवों में घूंघट का रिवाज है, यह नई बात नहीं। हां तरीका यह नहीं चल सकता। कन्या भ्रूण हत्या के बढ़ते मामलों को देखते हुए महाराष्ट्र इस अपराध को हत्या की श्रेणी में लाना चाहता है। इसके लिए उसने पिछले हफ्ते केंद्र सरकार से सलाह मांगी है। यदि केंद्र राजी होता है तो गैर-कानूनी गर्भपात करने वाले डाक्टर और इसमें लिप्त लोगों (परिजन और रिश्तेदार) को हत्या का दोषी माना जाएगा। उत्तर प्रदेश में कानून बनाने को तैयार प्रदेश की नई सरकार का कहना है कि यदि धार्मिक संस्थाएं और धार्मिक नेता आगे आएं तो वे कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए कानून बनाने को तैयार हैं। पिछले महीने विधानसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए संसदीय कार्य मंत्री आजम खान ने कहा था कि वर्तमान कानून सख्त नहीं है। उन्होंने कहा कि इस जघन्य अपराध को हत्या की श्रेणी में लाया जाना चाहिए।

सरकार में नम्बर दो की लड़ाई खुलकर सामने आई

मैंने इसी कॉलम में लिखा था कि श्री प्रणब मुखर्जी के संप्रग सरकार से हटने से इस मनमोहन सरकार को चलाना अत्यंत कठिन हो जाएगा। प्रणब दा इस सरकार के संकट मोचक थे, वह हर राजनीतिक समस्या का हल निकाल देते थे। अब मनमोहन सरकार को प्रणब की कमी खलेगी। यह सिलसिला शुरू भी हो गया है। संप्रग सरकार में नम्बर दो का मामला उलझ गया है। यूपीए सरकार में नम्बर दो की हैसियत रखने वाले प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बनने के बाद उनकी `कुर्सी' के लिए जंग छिड़ गई है। प्रणब के सरकार से बाहर जाने के बाद राकांपा प्रमुख शरद पवार की जगह रक्षा मंत्री एके एंटनी को प्रधानमंत्री के बाद नम्बर दो की जगह देने का मुद्दा संप्रग गठबंधन में कलह का सबब बन गया है। बहुत सोच-समझ कर मुंह खोलने वाले मराठा सरदार पवार ने उपराष्ट्रपति चुनाव के लिए बुलाई गई बैठक से दूर रहकर विपक्ष को संप्रग की एकता पर सवाल उठाने का एक और मौका दे दिया है। एनसीपी का कहना है कि कृषि मंत्री शरद पवार यूपीए-एक और दो में कैबिनेट के वरिष्ठता क्रम में प्रणब मुखर्जी के बाद आते थे। मुखर्जी के सरकार से इस्तीफे के बाद नम्बर दो की हैसियत उन्हें ही मिलनी चाहिए। मुखर्जी के इस्तीफे के बाद हुई कैबिनेट बैठक (पहली) में पवार को प्रधानमंत्री के बगल में बिठाया गया था। प्रधानमंत्री कार्यालय की मंत्रियों के क्रम वाली वेबसाइट से भी उनका नाम दूसरे नम्बर पर था। मगर बाद में वेबसाइट ने सूची ही हटा दी गई। उधर बैठक के दो दिन बाद कैबिनेट में मंत्रियों के वरिष्ठता क्रम में बदलाव करते हुए रक्षा मंत्री एके एंटनी को सरकार में नम्बर दो बना दिया गया। इसके विरोध में एनसीपी ने शनिवार को उपराष्ट्रपति का उम्मीदवार तय करने के लिए बुलाई गई यूपीए की बैठक में हिस्सा लेने से इंकार कर दिया। एनसीपी के एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक आजादी के बाद यह पहला मौका है जब कैबिनेट के वरिष्ठताक्रम में बदलाव किया गया है। इस नेता ने कहा कि एनसीपी ऐसी पार्टी नहीं है जो छोटे-छोटे मुद्दों पर हंगामा करती रहती है पर ऐसा रवैया हमारा अपमान है और हम यह अपमान बर्दाश्त करने को कतई तैयार नहीं हैं। एनसीपी ने कभी भी इससे पहले कैबिनेट मीटिंग का बहिष्कार या बायकाट नहीं किया, यह पहला मौका है और वजह है शरद पवार का अपमान। विपक्ष ने इसे संप्रग में बिखराव का एक और संकेत करार दिया है। भाजपा महासचिव मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा, `कांग्रेस गठबंधन धर्म का पालन करने में असफल रही है। हमें लगता है कि राष्ट्रपति चुनाव के बाद संप्रग टूट जाएगा और देश को मध्यावधि चुनाव का सामना करना पड़ेगा।' शिवसेना नेता संजय राउत ने कहा, `शरद पवार का अनुभव और वरिष्ठता प्रणब मुखर्जी के बराबर है।' एनसीपी के एक नेता ने कहा कि इस मुद्दे पर औपचारिक रूप से पार्टी अपनी तरफ से कांग्रेस से कोई बात नहीं करेगी पर जो हुआ वह बेहद आपत्तिजनक है।