Wednesday 15 August 2012

अलविदा लंदन अब 2016 में रियो में फिर मिलेंगे


 Published on 15 August, 2012

अनिल नरेन्द्र

लंदन में पिछले 17 दिनों से चल रहे 30वें ओलंपिक खेल संगीत की सुर लहरियों, संस्कृति की बानगी पेश करते रंगारंग कार्यक्रम और आसमान में चकाचौंध करने वाली आतिशबाजी के बीच जमा दुनियाभर के खिलाड़ियों ने रविवार को लंदन को अलविदा कर दिया। अब 2016 में रियो में फिर मिलेंगे। तीसरी बार ओलंपिक की मेजबानी करने वाले एकमात्र शहर लंदन में हुए इन खेलों में 204 देशों के 10500 खिलाड़ियों ने भाग लिया। अमेरिका और चीन ने एक बार फिर अपना दबदबा कायम रखते हुए पहले और दूसरे स्थान पर कब्जा किया जबकि ब्रिटेन अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए तीसरे स्थान पर रहा। यूं तो लंदन ओलंपिक में हर जीतने वाला हीरो है पर कुछ एक खिलाड़ियों का नाम खास उभरकर आया। लंदन ओलंपिक में चार खिलाड़ी असल में चैंपियन बनकर उभरे। इस जीत के लिए किसी ने गम्भीर बीमारी  को हराया तो किसी ने प्रैक्टिस और कठिन चुनौतियों को बौना कर दिया। इनका संघर्ष मिसाल है जज्बे की लगन की। लंदन ओलंपिक के सबसे तेज धावक बने जमैका के उसेन बोल्ट। बोल्ट ने तीन स्वर्ण जीते, 100, 200 और 4द्ध100 रिले। बोल्ट बचपन में क्रिकेट के दीवाने थे। वे दुनिया का सबसे तेज बाल फेंकने का सपना देखते थे। उनके हीरो थे पाकिस्तानी तेज गेंदबाज वकार यूनुस। हाई स्कूल में बोल्ट को बालिंग रन अप पर दौड़ते देख वहां के एथलेटिक्स कोच पाब्लो मैक्नील ने उन्हें 200 मीटर रेस के लिए चुना। लेकिन उन्हें तो दो सौ मीटर रेस का ग्लैमर पसंद था। कोच से इच्छा जाहिर की तो जवाब मिला पहले 200 मीटर रेस जीतकर दिखाओ। जुलाई 2007 में बोल्ट ने 200 मीटर में राष्ट्रीय रिकार्ड बनाया। फिर पहले ही ओलंपिक में 100 मीटर रेस उन्होंने 10.33 सैकेंड में जीतकर सभी को चौंका दिया। अमेरिका के माइकल फैल्प्स ने बीजिंग और लंदन के दोनों ओलंपिक में 20 मैडल जीते हैं जो आज तक का रिकार्ड है। वे रात को अंधेरे में तैराकी करते सिर्प इसलिए ताकि वे गिन सकें कि कितने हाथ मारने से पूल की लम्बाई तय हो रही है ताकि बिना देखे ही दीवार छूकर वापस लौट सकें। स्पर्धा के दौरान तैरते हुए पूल का छोर देखना समय नष्ट करना था। ये थ्यौरी बीजिंग ओलंपिक में काम आ गई। कम ही लोग जानते हैं कि यहां उन्होंने 200 मीटर बटर फ्लाई का वर्ल्ड रिकार्ड अंधेपन की स्थिति में बनाया। दरअसल इस स्पर्धा के फाइनल के दौरान उनके चश्मे में पानी भर आया। ऐसे में ब्लाइंड प्रैक्टिस काम आ गई। अमेरिका की सान्या रिचर्ड रॉस बीजिंग ओलंपिक की 400 मीटर रेस में कांस्य पदक ही जीत पाई थीं। पिछले चार वर्षों में रॉस को उनकी नाकामी के डिप्रेशन के अलावा बेरोटस सिंड्रोम से भी जूझना पड़ा। जिससे उनके मुंह में दर्दनाक छाले हो जाते और जोड़े दर्द करने लगते। 2010 में लम्बे इलाज के बाद वे दोबारा ट्रैक पर लौटी। उनकी वापसी में नेशनल बास्केट बाल लीग खिलाड़ी और उनके पति एरॉन रॉस ने साथ दिया। रॉस कहते हैं, यह वापसी शारीरिक से ज्यादा मानसिक थी। लंदन में उन्होंने 400 मीटर की रेस में अमेरिका को 28 साल बाद स्वर्ण पदक दिलवाया। अमेरिकी तैराक डाना वोलचर की कहानी भी दिलचस्प है। 2003 में उनके दिल की धड़कनें सामान्य से चार गुना तेज होने लगीं। डाना की हार्ट सर्जरी हुई। लेकिन डाक्टरों ने चेतावनी दी कि डाना को कभी भी हार्ट अटैक आ सकता है। डाना ने इसकी कभी परवाह नहीं की। ऐसा जताया मानों कुछ नहीं हुआ है। हमेशा डिफ्रिबिलेटर (हार्ट अटैक के बाद शॉक देने वाली मशीन) लिए साथ मौजूद रहतीं। 2004 में एथेंस ओलंपिक में जब उन्होंने पहला गोल्ड जीता तब भी मां दर्शकों में उस मशीन के साथ मौजूद थीं। लंदन में भी यही हुआ। यूं तो सैकड़ों कहानियां हैं, मैंने केवल तीन-चार का जिक्र किया है। अब बात करते हैं भारत की। मेरी व्यक्तिगत राय में भारत का प्रदर्शन अच्छा रहा। बेशक हम इतने मैडल नहीं जीत सके पर हम इन खेलों को केवल मैडलों के साथ नहीं तोल सकते। हमें यह समझना चाहिए कि जितने भी खिलाड़ी भाग लेते हैं वे सभी मैडल जीतना चाहते हैं और उन्होंने वर्षों से इसके लिए ट्रेनिंग की है। हर खिलाड़ी के लिए यह जरूरी है कि वे फिटनेस के सर्वोच्च स्तर पर रहें, क्योंकि स्वर्ण पदक जीतने वाले और रजत पदक जीतने वाले के बीच अकसर बेहद कम फर्प होता है। आमतौर पर हर खेल में चार-पांच ऐसे प्रतियोगी होते हैं, जो एक दूसरे के लगभग बराबर होते हैं, इसलिए फैसला बहुत थोड़े फर्प से होता है। एक अंक के फर्प से हार-जीत तय होती है। मैं भारत के लिए लंदन ओलंपिक को इसलिए ऐतिहासकि मानता हूं कि हमने अपने ओलंपिक इतिहास में सबसे ज्यादा 6 मैडल जीते हैं। हालांकि बहुत सारे खेल प्रेमियों को अमेरिका और पड़ोसी चीन की मैडल्स तादाद देखकर थोड़ी मायूसी हो सकती है, लेकिन ग्लोबल स्पोर्ट्स समझे जाने वाले गेम्स तीरंदाजी, शूटिंग, कुश्ती, बाक्सिंग में हमारे पास कम से कम 20 ऐसे खिलाड़ी हैं जिन्हें वर्ल्ड के टॉप-20 खिलाड़ियों में रखा जा सकता है। ग्वांगझू में 2010 में हुए एशियाड के एथलेटिक्स (ट्रैक एंड फील्ड इवेंट्स) में भारत ने 5 गोल्ड सहित कुल 12 मैडल हासिल किए थे और चीन के बाद दूसरे नम्बर पर रहा। इन इवेंट्स में तो कोरिया और जापान जैसे देश हमसे पीछे रहे। विशेष बात यह रही कि भारत ने जो भी मैडल जीते वह व्यक्तिगत प्रतियोगिता में जीते। कुश्ती, बैडमिंटन, शूटिंग व बाक्सिंग। हम किसी भी टीम इवेंट में नहीं जीत सके। सबसे खराब प्रदर्शन हाकी में रहा जब हम अंतिम स्थान पर रहे। बाक्सिंग में हम और मैडल जीत सकते थे पर हमारे साथ बेइमानी हुई और जबरन हमारे बाक्सरों को हरा दिया गया। लंदन में मेरी राय में सबसे सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन सुशील कुमार का रहा जो लगातार दो ओलंपिक मैडल जीते और नया इतिहास बनाया। कठिन राउंड होने के बावजूद योगेश्वर दत्त की जीत कमाल थी। बैडमिंटन में चीन के वर्चस्व को आज तक कोई नहीं तोड़ सका। सायना ने पहली बार चीन को चुनौती दी। हमने कभी यह कल्पना नहीं की होगी कि लंदन ओलंपिक में पहली बार महिलाओं की मुक्केबाजी में मैरीकाम कांस्य पदक लाएंगी। शूटिंग में जहां अभिनव बिन्द्रा, सोढ़ी का अच्छा प्रदर्शन नहीं रहा वहीं विजेन्द्र सिंह से बाक्सिंग में उम्मीदों पर पानी फिर गया। टेनिस और तीरंदाजी में हमें बहुत उम्मीद थी पर वह खरे नहीं उतर पाए। इस बार हमारे 81 खिलाड़ियों ने ओलंपिक में हिस्सा लिया जिनकी संख्या पिछली बार केवल 56 थी। क्या यह बड़ा सुधार नहीं है। एथलीटों की संख्या करीब 25 फीसदी बढ़ी और कुल पदकों की संख्या 100 प्रतिशत बढ़ी। अब हमें 2016 के ओलंपिक जो ब्राजील के शहर रियो में होंगे पर ध्यान देना चाहिए और इस ओलंपिक में हमने कहां-कहां चूक की उस पर पोस्टमार्टम कर आगे बढ़ना है। लंदन ओलंपिक निसंदेह एक निहायत सफल आयोजन था। हालांकि विवादों से नहीं बच सका पर कुल मिलाकर अच्छा ही रहा। मैंने पूरे 17 दिन ओलंपिक का पूरा मजा उठाया। अलविदा लंदन अब रियो का इंतजार रहेगा।


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