Sunday 26 August 2012

दो दिन की बैंक हड़ताल आखिर नुकसान किसको होगा?


 Published on 26 August, 2012

अनिल नरेन्द्र

सरकारी क्षेत्र के बैंकों की दो दिन की देशव्यापी हड़ताल से देशभर में व्यापार बुरी तरह प्रभावित हुआ। बेशक निजी बैंकों के कर्मचारियों का हड़ताल में शामिल न होने से कुछ हद तक उपभोक्ता प्रभावित नहीं हुए और कुछ ने एटीएम से काम चलाया पर निजी क्षेत्र या सार्वजनिक क्षेत्र के आर्थिक लेन-देन पर इसका प्रभाव पड़ा और करोड़ों रुपए का नुकसान भी हुआ है। बैंकों में कामकाज ठप रहने से नकदी हस्तांतरण, चेक क्लीयरिंग, विदेशी मुद्रा लेन-देन सहित तमाम बैंकिंग सेवाएं बाधित हुईं। समय पर चेक क्लीयर न होने से बड़ी संख्या में सौदों का भुगतान अटक गया। नकदी का प्रवाह थम जाने से शेयर बाजारों में भी सुस्ती रही। इसमें कोई दो राय नहीं कि हड़ताल का दायरा काफी व्यापक रहा। इसके जरिए सरकारी क्षेत्र के 24 और कुछ निजी बैंकों के 10 लाख कर्मचारियों ने अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया। आर्थिक क्षेत्र में एक या दो दिन की देरी भी हजारों करोड़ रुपए की हो सकती है। इस हड़ताल का प्रभाव इतना ही सीमित नहीं होगा। पिछला हफ्ता काफी सारी छुट्टियों वाला था। स्वतंत्रता दिवस के एक दिन बाद शनिवार-रविवार आ गया और सोमवार को ईद की छुट्टी हो गई यानि 15 अगस्त के बाद कुल दो पूरे कामकाजी दिन थे। हड़ताल के बाद शुक्रवार आ गया और सप्ताहांत शुरू हो गया। इस तरह लगभग डेढ़ हफ्ते का कामकाज प्रभावित हुआ। बैंक कर्मचारी बैंकिंग सुधारों के लिए गठित खंडेलवाल कमेटी की सिफारिशों और बैंकिंग कानून संशोधन विधेयक को वापस लेने की मांग कर रहे हैं। यूनियनों की दलील है कि इस विधेयक से छोटे बैंकों का विलय होगा और लाखों लोगों की नौकरी खतरे में पड़ जाएगी। यूनियनों की मांगों में  बेशक दम हो पर उन्हें यह भी समझना चाहिए कि किसी भी संकट के समाधान के लिए हड़ताल कभी कारगर हथियार साबित नहीं हुई है। उद्योग क्षेत्र में अब तक जितनी भी हड़तालें हुई हैं, उनमें मालिकानों की तुलना में श्रमिक ज्यादा प्रभावित हुए हैं। देश में कार बनाने वाली सबसे बड़ी कम्पनी मारुति सुजुकी के मानेसर कारखाने का विवाद इसकी ताजा मिसाल है। जहां कभी तीन शिफ्टों में छह हजार से ज्यादा श्रमिक काम करते थे, एक महीने की तालाबंदी के बाद यहां महज 300 श्रमिकों को ही काम पर लगाया गया है। इस घटना में कम्पनी को भले ही अरबों का नुकसान उठाना पड़ा लेकिन जिन लोगों का काम छिन गया, उनके समक्ष इस महंगाई के दौर में क्या हालात होंगे, इसका अन्दाजा लगा पाना मुश्किल है। बैंक कर्मचारियों के मामले में यूनियनों का टकराव तो सीधे सरकार से है। दरअसल देश में छोटे-छोटे मुद्दों पर हड़ताल, सड़क जाम और तोड़फोड़ की एक परिपाटी-सी बन गई है। यदि इसके दुष्परिणामों पर नजर डालें तो अंतत इसका नुकसान अन्त में जनता को ही भुगतना पड़ता है। बैंकों की दो दिन की हड़ताल पर ही गौर करें तो देश की अर्थव्यवस्था पर 30 हजार करोड़ से ज्यादा का नुकसान हुआ है। बैंक कर्मचारी पिछले दिनों कई बार हड़ताल कर चुके हैं। बुनियादी बात यह है कि उदारीकरण के बाद बदले हुए माहौल में बैंकों के कामकाज में सुधार की कोशिशें की गईं और बैंक कर्मचारी आमतौर पर उनके खिलाफ हैं। हो सकता है कि इन तमाम कोशिशों में कुछ ऐसे भी कदम हों जिसका असर उनके कुछ जायज हितों पर पड़ता हो लेकिन यह तो स्वाभाविक है कि कोई भी संस्थान उसी पुराने ढर्रे पर लगातार नहीं चल सकता। बदले हुए माहौल में खर्च कम करने और उत्पादन बढ़ाने की कोशिशें की ही जाएंगी और हड़तालें उन्हें कुछ वक्त ही टाल सकती हैं। रविवार और त्यौहारों को मिलाकर अगस्त माह में बैंकों में अब तक सात दिन कामकाज नहीं हुआ है। ऐसे में कर्मचारी नेताओं के दो दिन की हड़ताल के फैसले को क्या उचित ठहराया जा सकता है? निजी क्षेत्र के बैंकों से वैसे भी सरकारी बैंक सुविधाएं और सर्विस में पिछड़ रहे हैं, क्या इन हड़तालों से यह बेहतर होंगी? बैंक कर्मचारियों को अपनी बातें मनवाने के लिए अन्य विकल्पों पर भी विचार करना चाहिए था। हड़ताल से कौन-सी समस्या का समाधान हुआ है? इन्हें ठंडे दिमाग से गौर करना चाहिए कि आखिर हड़ताल के जरिए देश को क्या मिलेगा, क्या इससे आम जनता को लाभ होगा? हमारे लोकतंत्र में आंदोलन और हड़ताल की आजादी है लेकिन हमें देश और जनता के प्रति अपने कर्तव्यों को नहीं भूलना चाहिए, खासकर बैंकों को जिनका वास्ता आम जनता से पड़ता है।

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