Thursday 23 August 2012

ममता अपनी परिपक्वता का परिचय कब देंगीं?


 Published on 23 August, 2012  

अनिल नरेन्द्र


बेशक इसमें संदेह नहीं कि तृणमूल कांग्रेस मुखिया ममता बनर्जी लगभग साढ़े तीन दशक के वाममोर्चे को पश्चिम बंगाल से उखाड़ने में सफल रहीं मगर मुख्यमंत्री बनने के बाद बेशक उनका सपना पूरा तो हुआ पर बतौर मुख्यमंत्री के उन्होंने पिछले सवा साल में शायद ही कभी अपनी परिपक्वता का परिचय दिया हो। उनके हिटलरी अन्दाज में नम्रता आने की जगह और आक्रामकता आ गई और असहमति के स्वरों को दबाने के लिए वे कठोर से कठोर कदम उठाने से नहीं हिचकिचातीं। लेकिन मुश्किल तब खड़ी होती है जब वे ऐसे मुद्दों पर अपनी राय दे देती हैं जिससे जनतंत्र की जड़ें कमजोर होती हैं। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि भ्रष्टाचार आज देश की सबसे बड़ी समस्या है और इससे कोई-सा भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा। यहां तक कि न्यायिक क्षेत्र में भी अब यह बीमारी आ गई है। गत सप्ताह विधानसभा में आयोजित एक कार्यक्रम में बोलते हुए ममता ने न्यायपालिका पर जिस तरह के आक्षेप लगाए, उससे उनकी व्यवस्थागत समस्याओं की समझ और अपनी जिम्मेदारी के प्रति गंभीरता पर स्वाभाविक ही सवाल उठे। उन्होंने बेहद हल्के अन्दाज में कहा कि ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि अदालतों में पैसे के बदले मनमुताबिक फैसले दिए जाते हैं। गौरतलब है कि इससे एक दिन पहले राज्य मानवाधिकार आयोग ने ई-मेल पर व्यंग्य चित्र भेजने के विवाद में गिरफ्तार एक प्रोफेसर और उनके पड़ोसी की गिरफ्तारी को गलत बताते हुए राज्य सरकार को उन दोनों को पचास-पचास हजार रुपए मुआवजा देने की सिफारिश की थी। तब भी ममता बनर्जी ने आयोग के अध्यक्ष अशोक गांगुली पर निशाना साधते हुए कहा कि वे ऐसे आदेश कर रहे हैं, मानो राष्ट्रपति या सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश हों। इससे पहले सिंगूर में टाटा मोटर्स को आबंटित जमीन लौटाने के लिए ममता सरकार ने जो नया कानून बनाया था, उसे कोलकाता हाई कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया था। सवाल यह है कि अगर ममता की नाराजगी अपने खिलाफ आए कुछ फैसलों से है तो अपने पक्ष में आए फैसलों पर उनका क्या कहना है? अनुशासन नाम की चीज ममता के लिए कोई मायने शायद नहीं रखती। शासकीय दमन के विरोध का नारा देकर ही वे पश्चिम बंगाल की सत्ता में आईं। यह विरोध करने की मानसिकता उन्होंने पद संभालने के बाद भी त्यागी नहीं। संप्रग सरकार के लिए सबसे बड़ी सिरदर्द ममता ही हैं। कांग्रेस रणनीतिकारों के नाक में दम कर रखा है ममता ने। उन्हें यह समझ नहीं आता कि ममता को आखिर कैसे टैकल किया जाए। कभी रास न आने वाले अखबारों को सरकारी पुस्तकालयों से बाहर करना तो कभी वाम विरोध के नाम पर पाठ्यपुस्तकों को मनमाने बदलाव का फरमान सुना देना, बलात्कार की घटनाओं को बनावटी करार देना या अपने किसी कार्यकर्ता को पुलिस की हिरासत से छुड़ाने के लिए खुद थाने में जाकर हंगामा मचा देना उनके व्यक्तित्व को लेकर सवाल खड़े करता है। ममता को अपने काम में ज्यादा ध्यान देना चाहिए।


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