Friday, 10 August 2012

क्या कहना चाहते हैं आडवाणी जी?



  Published on 10 August, 2012 

अनिल नरेन्द्र

भाजपा के वरिष्ठ नेता श्री लाल कृष्ण आडवाणी एक बहुत सुलझे हुए अनुभवी राजनेता हैं जो हर बात नपी-तुली करते हैं। आमतौर पर वह कोई भी बयान बिना सोचे समझे, बिना किसी ठोस उद्देश्य से नहीं देते पर हाल में उन्होंने अपने ब्लाग में ऐसी बात लिखी है जिससे न केवल कांग्रेस व भाजपा में ही हलचल मच गई है बल्कि अन्य राजनीतिक दलों में भी उसकी प्रतिक्रिया हो रही है। श्री आडवाणी ने अपने ब्लाग में लिखा कि अगले लोकसभा चुनाव के बाद देश में सरकार भले ही किसी भी गठबंधन की बने लेकिन प्रधानमंत्री कांग्रेस या भाजपा से बनने की संभावना नहीं है। उन्होंने विश्लेषकों के हवाले से अगले चुनाव में कांग्रेस की सीटें सौ से भी कम रह जाने की भी संभावना जताई। अपने ब्लाग में आडवाणी जी ने लिखा कांग्रेस या भाजपा के समर्थन वाली सरकार का नेतृत्व किसी गैर-कांग्रेसी या गैर-भाजपाई प्रधानमंत्री द्वारा किया जाना संभव है। ऐसा अतीत में भी हुआ है। आडवाणी जी के इन विचारों से विवाद खड़ा होना स्वाभाविक ही है। इस पर आश्चर्य नहीं कि भाजपा और सहयोगियों के अनेक नेता आडवाणी की मान्यता से सहमत नजर नहीं आ रहे हैं। दरअसल उन्हें लगता है कि आडवाणी के विचार पार्टी को कमजोर स्थिति में रेखांकित करने वाले हैं। इसका राजनीतिक अर्थ यह भी लगाया जा रहा है कि आडवाणी चाहते हैं कि अगले चुनावों के बाद राजग की सरकार बनने की सूरत में वह भाजपा से इतर किसी पार्टी के नेता का प्रधानमंत्री बनना पसंद करेंगे। आडवाणी को भाजपा में खासा समर्थन प्राप्त है और हो सकता है कि भाजपा के कुछ नेता उनके साथ हो जाएं। दरअसल भाजपा की बुनियादी दिक्कत यह है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बेहद आक्रामक तरीके से अपनी दावेदारी पेश की है। पार्टी नेतृत्व भी चाहे-अनचाहे मोदी के दबाव में आ गया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी मोदी को आगे बढ़ा रहा है। नापसंद करते हुए भी संघ को यह  लग रहा है कि प्रधानमंत्री पद के तगड़े दावेदार मोदी ही हो सकते हैं, इसलिए संघ समर्थित अध्यक्ष नितिन गडकरी भी नरेन्द्र मोदी के आगे झुक गए हैं। पार्टी के कई केंद्रीय नेता मोदी के खिलाफ हैं। कई मुख्यमंत्री भी मोदी के वर्चस्व को पसंद नहीं करते, क्योंकि उन्हें यह लगता है कि बतौर प्रशासक और नेता उनकी उपलब्धियां भी नरेन्द्र मोदी से कम नहीं हैं। दूसरी ओर अनेक भाजपा नेता आडवाणी की मान्यता से असहज नजर आ रहे हैं कुछ ने तो उनके विचारों पर नाराजगी भी जताई है। दरअसल उन्हें लगता है कि आडवाणी के विचार पार्टी की कमजोर स्थिति को रेखांकित करने वाले हैं। निसंदेह एक हद तक ऐसा है भी। उनके विचारों से यह स्पष्ट है कि भाजपा इतनी समर्थ नहीं कि वह अपने नेतृत्व में केंद्रीय सत्ता तक पहुंच सके। यह समझना कठिन है कि आडवाणी जी इस नतीजे पर क्यों पहुंचे, क्योंकि उनकी ओर से यह भी कहा गया है कि कांग्रेस का तेज गति से होता पतन भाजपा को लाभ पहुंचाएगा, जिसने कर्नाटक को छोड़कर बाकी राज्यों में अच्छा शासन पेश किया है। इस आंकलन में कुछ विरोधाभास भी नजर आता है। सवाल यह है कि यदि कांग्रेस का पतन भाजपा को लाभ पहुंचाएगा तो फिर वह अपने नेतृत्व में सरकार क्यों नहीं बना सकेगी? क्या वह यह कहना चाहते हैं कि कांग्रेस के पतन से भाजपा को मामूली लाभ ही होगा? इन सवालों का जवाब जो भी हो, इसकी अनदेखी भी नहीं की जा सकती कि एक तो भाजपा एकजुट नहीं नजर आती और दूसरा उसके पास ऐसे सहयोगी दलों का अभाव है जो उसे केंद्रीय सत्ता तक पहुंचा सकें। राजग की सरकार को सत्ता से बेदखल हुए और अटल बिहारी वाजपेयी को सक्रिय राजनीति से हटे हुए लगभग आठ साल हो गए हैं, लेकिन भाजपा में शक्ति संतुलन स्थापित नहीं हो पाया है। वाजपेयी के बाद लाल कृष्ण आडवाणी सर्वसम्मत एकमात्र नेता हो सकते थे, लेकिन रणनीति के तहत उन्हें कमजोर कर दिया गया। इस बीच अब पार्टी की दूसरी पंक्ति के कई नेता हैं जो शिखर पर पहुंचना चाहते हैं। इसी बीच संघ ने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए कुछ और नेताओं को महत्वपूर्ण बना दिया और इससे नेतृत्व की दौड़ कहीं ज्यादा अराजक हो गई। इस प्रक्रिया में पार्टी भी अपनी दिशा तय नहीं कर पाई है। भाजपा का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि इतना अच्छा वातावरण होने के बावजूद वह स्थिति का फायदा नहीं उठा पा रही है और अंदरूनी घमासान में ही अपना सारा समय बर्बाद कर रही है।

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