Wednesday 29 August 2012

मुख्य न्यायाधीश कपाड़िया के दो बयान


 Published on 29 August, 2012

अनिल नरेन्द्र 

भारत के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एसएच कपाड़िया ने हाल में दो बयान ऐसे दिए हैं जिनका अर्थ निकालना आसान नहीं है। कुछ दिन पहले जस्टिस कपाड़िया ने इस खतरे के प्रति सरकार को चेताया था कि न्यायिक सुधार के नाम पर न्यायपालिका की स्वतंत्रता से छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए। सीजेआई की टिप्पणी को सीधे-सीधे उस न्यायिक मानक एवं जवाबदेही विधेयक से जोड़कर देखा जा रहा है जो लोकसभा में पारित हो चुका है और अब इस पर राज्यसभा की मुहर लगनी बाकी है। इसके एक विवादास्पद प्रावधान में कहा गया है... `कोई भी न्यायाधीश किसी भी संविधान और विधिक संस्थान या अधिकारी के खिलाफ खुली अदालत में मामले की सुनवाई के दौरान अवांछित टिप्पणी नहीं करेगा।' पिछले कुछ सालों में कई ऐसे मामले सामने आए हैं, जिसमें सुप्रीम कोर्ट से लेकर हाई कोर्ट तक ने सीधे-सीधे सरकारी कामकाज के तरीके पर तल्ख टिप्पणी की है। तल्खी का यह स्तर यहां तक गया है कि कहा गया कि अगर स्थिति नहीं सम्भलती तो सरकार गद्दी क्यों नहीं छोड़ देती। अब जस्टिस कपाड़िया ने ताजा बयान दिया है कि न्यायधीशों को देश का शासन नहीं चलाना चाहिए और न ही नीतियां विकसित करनी चाहिए। न्यायधीशों को `सोने के अधिकार' को मूल अधिकार बनाने जैसे कुछ फैसलों पर व्यवहारपरक कसौटी का इस्तेमाल करना चाहिए। न्यायपालिका के कामकाज पर कुछ स्पष्ट आत्ममंथन करते हुए न्यायमूर्ति कपाड़िया ने सवाल किया कि यदि कार्यपालिका न्यायपालिका के उन निर्देशों का पालन करने से मना कर दे जो लागू करने योग्य न हों, तो क्या होगा? उन्होंने कहाöहमने कहा है कि जीवन के अधिकार में पर्यावरण सुरक्षा और मर्यादा के साथ जीने का अधिकार है। अब हमने उसमें सोने का अधिकार भी शामिल कर दिया, हम कहां जा रहे हैं? यह आलोचना नहीं है, क्या यह लागू करने योग्य है? जब आप अधिकार का दायरा बढ़ाते हैं तो न्यायाधीश को उसके अमल की व्यवहारपरकता की सम्भावना भी तलाशनी चाहिए। उन्होंने सवालिया लहजे में कहा कि न्यायधीशों को खुद से सवाल करना चाहिए कि क्या ऐसे फैसले लागू योग्य हैं। उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों को देश का शासन नहीं चलाना चाहिए। जब कभी आप कानून प्रतिपादित करें तो उसे शासन में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। हम जनता के प्रति जवाबदेही नहीं हैं। संविधान के मूल सिद्धांतों में निहित वस्तुनिष्ठता एवं यथार्थवाद को महत्व देना होगा। हम मुख्य न्यायधीश की बातों को ठीक से समझ नहीं पाए। एक तरफ तो वह सरकार को चेता रहे हैं कि वह न्यायपालिका के काम में हस्तक्षेप न करें वहीं वह जजों से कह रहे हैं कि आप शासन चलाने की कोशिश न करें। यह सही है कि पिछले कुछ सालों से सत्तारूढ़ सरकारों ने बहुत से अहम फैसले खुद न करके सुप्रीम कोर्ट पर छोड़ दिए हैं ताकि वह वाहवाही तो लूट सकें और जब वह सुप्रीम कोर्ट रिजैक्ट कर दे तो सारा दोष अदालतों पर लगा दें। संविधान में न्यायपालिका और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्रों को स्पष्ट तौर पर परिभाषित किया गया है पर फिर भी कई ऐसे मुद्दे देखने में आए हैं जब सरकार और अदालतें आमने-सामने आ जाती हैं। इस टकराव से बचना सभी के हित में है। सरकार को अपना काम करना चाहिए और न्यायपालिका को अपना। शासन चलाना सरकार का काम है और कानूनों का उल्लंघन रोकना अदालत का। सरकार को अगर अदालत से टकराव से बचना है तो वह कानूनों को तोड़-मरोड़ कर अपने राजनीतिक हितों को साधने से परहेज करे। अगर सरकार में दम है तो बाकायदा कानून पास करवा ले। अगर कानून बन जाता है तो अदालतों को उस पर ऐतराज नहीं होगा। जस्टिस कपाड़िया खुलकर कुछ नहीं कह रहे कि आखिर अन्दरखाते उन्हें पीड़ा किस बात की है।

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