Tuesday 2 July 2013

क्या सरकार पिंजरे में बन्द तोते सीबीआई को कभी रिहा करेगी?


 Published on 2 July, 2013 
 अनिल नरेन्द्र 
हालांकि सुप्रीम कोर्ट की कड़ी फटकार के बाद यूपीए सरकार ने सीबीआई को राजनीतिक दबाव से मुक्त करने की बात तो की है पर क्या वाकई ही सरकारी पिंजरे में बन्द तोता सीबीआई रिहा होगी? चन्द दिनों के अन्दर सुप्रीम कोर्ट के सामने वह रिपोर्ट रखी जानी है जिसमें इस प्रतिष्ठित जांच एजेंसी को सरकार खासकर राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करने के प्रावधानों की चर्चा है। सरकार की सिफारिशें बहुत आश्वस्त तो नहीं करतीं। इसी आधार पर सरकार को सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देना है और इस पर सुनवाई के बाद ही तस्वीर पूरी तरह साफ होगी। सरकार की ओर से सीबीआई को स्वतंत्र बनाने के लिए जो मुख्य सुझाव सामने आए हैं उनके मुताबिक प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और देश के प्रधान न्यायाधीश का कालेजियम सीबीआई निदेशक की नियुक्ति करे, इसके कामकाज पर सेवानिवृत जजों का पैनल निगरानी रखे और वित्तीय फैसले लेने में कार्मिक मंत्रालय पर इसकी निर्भरता कम की जाए। बेशक यह व्यवस्था पहले से बेहतर होगी क्योंकि सरकार या सत्ताधारी दल अब अपना मनपसंद कैंडिडेट इस संवेदनशील कुर्सी पर नहीं थोप पाएंगे। जांच कार्यों पर निगरानी रखने के लिए पहली बार रिटायर्ड जजों की तीन सदस्यीय कमेटी बनाने का प्रस्ताव भी अच्छा है, वह एजेंसी पर बाहरी खासकर राजनीतिक हस्तक्षेप का सामना कम करेगा। इस प्रस्ताव में हालांकि एक पेंच भी दिख रहा है। सीबीआई जब कोर्ट के आदेश के तहत कोई जांच चलाती है तब उसकी रिपोर्ट केवल संबंधित कोर्ट के सामने ही रखी जा सकती है। ऐसे में यह कमेटी कैसे अपनी जिम्मेदारी निभाती है, यह देखने की बात होगी। एक और बात इतने भर से सीबीआई की सरकार पर निर्भरता खत्म नहीं हो सकती, क्योंकि उसकी अभियोजन शाखा तो कानून मंत्रालय के अधीन रहकर ही काम करती है। अभी यह स्थिति है कि सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति से लेकर वित्तीय जरूरतों और अभियोजन से जुड़ी प्रक्रिया तक में सरकार का सीधा दखल होता है। कहने को सीबीआई जिन मामलों में जांच कर रही है उससे संबंधित प्रगति रिपोर्ट वह सिर्प अदालत को ही दे सकती है, लेकिन कोल ब्लॉक आवंटन के मामले में देखा जा चुका है कि इस एजेंसी के कामकाज में किस तरह दखलअंदाजी की गई। यह बात शीर्ष अदालत के संज्ञान में आने और उसके निर्देश देने के बाद ही सरकार की ओर से सीबीआई को आजाद करने की पहल की गई है। भाजपा प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने कहा कि हमारा मानना है कि सरकार द्वारा सीबीआई को स्वायत्तता देने का प्रयास देर से भी है और दुरुस्त भी नहीं है। उन्होंने कहा कि कैबिनेट द्वारा मंजूर प्रस्ताव से साफ है कि एक बार पुन सीबीआई को वास्तविक स्वतंत्रता देने का उद्देश्य पूर्ण होता नहीं दिख रहा है। सुधांशु ने कहा कि प्रस्तावित प्रारूप में भी सीबीआई के अधिकारियों की नियुक्ति, प्रतिनियुक्ति का अधिकार सरकार अपने पास रखने जा रही है। उच्चपदस्थ अधिकारियों एवं मंत्रियों के विरुद्ध जांच में भी सीबीआई को वास्तविक स्वतंत्रता दिए जाने की सम्भावना नहीं दिख रही है। कटु सत्य तो यह है कि यूपीए ही नहीं पूरे राजनीतिक वर्ग की मंशा साफ होती तो सीबीआई की आज यह स्थिति न होती। सरकार पर उसके राजनीतिक इस्तेमाल के आरोप लगते हैं तो उसकी वजह भी दिखाई देती है। मसलन यूपीए को बाहर से समर्थन दे रहे मुलायम सिंह यादव ने तो खुले तौर पर आरोप लगाया कि सरकार सीबीआई के जरिए उन पर दबाव बनाती है। मगर हकीकत तो यह है कि विपक्ष भी सीबीआई के बहाने राजनीतिक हमले करने में पीछे नहीं रहता। जांच कार्यों में कानून मंत्रालय का दखल सीबीआई के आगे एक बड़ा अवरोध बना हुआ है। मुकदमा चलाने या इसकी दिशा तय करने से लेकर अभियोजन पक्ष का नेतृत्व कौन करेगा जैसे संवेदनशील मामलों में कानून मंत्रालय का हथौड़ा चला करता है। सीबीआई पर नियंत्रण का यह सबसे सशक्त हथियार है। सीबीआई की एक बड़ी मजबूरी यह भी है कि इसे अपने कार्यकलाप उधार के अधिकारियों से चलाने पड़ते हैं। सीबीआई में काम करने वाले अधिकतर अफसर विभिन्न राज्यों से डेपुटेशन पर आते हैं और एक सीमित अवधि तक काम कर वापस लौट जाते हैं। ऐसे अधिकारियों पर राजनेता और नौकरशाह दबाव बनाने में सफल हो जाते हैं। इस सिलसिले में सीबीआई काडर के अधिकारियों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया है और आरोप  लगाया है कि संसदीय समितियों की सिफारिशों के बावजूद सरकार जानबूझ कर देश की इस प्रतिष्ठित जांच एजेंसी का अपना काडर नहीं बनने देती। आरोप है कि पिछले 15 वर्षों में यूपीएससी के जरिए एक भी अधिकारी की नियुक्ति सीबीआई काडर में नहीं हुई है। सीबीआई को राजनीतिक दबावों से मुक्त करने के लिए जरूरी है कि उसे भी निर्वाचन आयोग या नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) की तरह सम्पूर्ण रूप से स्वायत्त बनाया जाए। इसके लिए एक व्यापक राजनीतिक सहमति जरूरी है जो फिलहाल दिखाई नहीं दे रही।

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