Published on 7 July,
2013
अनिल नरेन्द्र
आपदा के तीन हफ्ते बाद भी उत्तराखण्ड में राहत कार्य
व्यवस्थित ढंग से शुरू नहीं हो पाया है। ऐसा नहीं कि देश में सहायता करने वालों की
कोई कमी है, सहायता तो बहुत आ रही है पर वह उन जरूरतमंद लोगों तक नहीं पहुंच रही है
जो आज हैरान-परेशान हैं, जिन्हें जीवन जीने के लाले पड़े हुए हैं। ट्रक भर-भर के खाद्य
सामग्री ऋषिकेश और देहरादून पहुंच रही है। करोड़ो रुपए पधानमंत्री, मुख्यमंत्री व विभिन्न
आपदा कोषों में पहुंच रहे हैं पर खाद्य सामग्री के सही वितरण का कोई पबंध नहीं हो रहा
है यह सामग्री सड़ने लगी है। दूसरी ओर राहत की आस लगाए पीड़ित भूखों मरने पर मजबूर
हैं। पधानमंत्री राहत कोष, मुख्यमंत्री राहत कोष में पैसे का क्या उपयोग हो रहा है
किसी को नहीं पता चलता। केन्द्र सरकार ने उत्तराखण्ड सरकार को 1000 करोड़ राहत के लिए
उपलब्ध कराया है अभी तक यह पता नहीं चल सका है कि इसका उपयोग किस-किस कार्य में किन-किन
योजनाओं में किया जाएगा। उत्तराखण्ड के आपदाग्रस्त इलाके में कहीं राहत सामग्री पहुंच
रही है कहीं अब भी इंतजार है। बड़ी संख्या में लोग अब भी वंचित हैं। न ठीक से गांवों
का आंकलन किया जा सका है, न उनकी जरूरतों का। जिन्हें टेंट की जरूरत है उन्हें बिस्किट
बांटे जा रहे हैं और जहां पानी की दिक्कत है वहां अनाज दिया जा रहा है। कई जगह तो शासन-पशासन
का कोई पतिनिधि अब तक नहीं पहुंचा। हाल यह है कि चमोली जिले की निजदुला घाटी में लोग
अब भी उबले आलू खाकर भूख मिटा रहे हैं। रूद्रपयाग जिले में आपदाग्रस्त इलाकों में गांवों
के लोग दाने-दाने को मोहताज हैं। लोगों का धैर्य टूट चुका है। वह अब गांव छोड़कर श्रीनगर
या अन्य जगह अपने रिश्तेदारों के यहां शरण लेने को मजबूर हैं। उत्तरकाशी के आपदा पभावित
डुंडा पखण्ड में कई परिवार स्कूल में शरण लिए हुए हैं। पशासन यहां राहत के नाम पर पानी
की बोतलें और बिस्किट देने गया जिसे ग्रामीणों ने लौटा दिया। राहत की तस्वीर का एक
पक्ष यह भी है कि जहां तक सड़क पहुंची वहां जाकर सब-कुछ बांट दिया, बाकी रामभरोसे।
चमोली जिले के गोविंद घाट से आगे लामदगढ़ के लोग जंगलों में रात बिता रहे हैं। काले
बादलों की आमदरफ्त उन ढाई सौ गांवों के लोगों का कलेजा बैठा रही है जिनके पास अभी तक
कोई सरकारी मदद नहीं पहुंची है। अभावों से जूझ रहे इन गांवों के लोग खुद के जुटाए संसाधनों
से जैसे-तैसे समय काट रहे हैं। पिथौरागढ़ में 15 हजार लोगों के भुखमरी के कगार पर पहुंचने
की खबर है। दैनिक हिन्दुस्तान के मनजीत नेगी ने एक सनसनीखेज रिपोर्ट पेश की है। वह
1 जुलाई को केदारनाथ के हालात देखने पहुंचे। लंबी और अत्यंत कठिन यात्रा करने के बाद
जब वह केदारनाथ पहुंचे तो उन्होंने क्या पाया, उन्हीं की जुबानी। हम केदारनाथ के ऊपर
गांधी सरोवर के पास पहुंच चुके थे। गांधी सरोवर बिल्कुल खाली हो चुका है। इस रास्ते
से आगे चलकर 11.30 बजे सुबह हम लोग केदारनाथ मंदिर पहुंच चुके थे। हमने 22 जून और
1 जुलाई के दौरान मंदिर में कोई बदलाव नहीं पाया। 22 जून को हम हेलीकाप्टर से केदारनाथ
पहुंचे थे। मंदिर की अभी तक सफाई नहीं हुई है। नियमित पूजा शुरू नहीं हो सकी है। पुलिस
पशासन की ओर से मंदिर में तैनात कोई नहीं था। हमें एक व्यक्ति जरूर मिला जिसने खुद
को दिल्ली की एक संस्था का पतिनिधि बताया। वह लाशों को जलाने में लगा था। एक महिला
स्वयंसेवक मिली जो खुद को पेटा की सदस्या बता रही थी। मंदिर में सफाई की मशीन लगी थी
लेकिन सफाई का काम नहीं हो रहा था। एनडीआरएफ की ओर से गिराया गया कई टन राशन बर्बाद
हो रहा था। इस राशन को जानवर खा रहे थे। हमने राशन को बचाया और इसी से भोजन तैयार किया।
हमने सोमवार की रात वहीं गुजारी। आपदा के पश्चात सरकारी राहत के तौर-तरीकों से हम परिचित
हैं इसीलिए हमने (श्री देवोत्थान सेवा समिति) तय किया कि हम बेशक थोड़ी ही मात्रा में
पर खुद खाद्य सामग्री ले जाएंगे और स्वयं अपने हाथों से उन गांव वालों को बांटेंगे
जो पूरी तरह तबाह हो चुके हैं। हमने छोटा लक्ष्य रखा 500 परिवारों को राहत पहुंचाने
का। हमने 500 पैकेट अलग-अलग बनाए जिनमें दो किलो आटा, एक किलो चावल, एक किलो दाल, एक
किलो चीनी, चायपत्ती, मसाले, नमक, 5 मोमबत्ती, माचिस का बड़ा पैकेट था। हमारे जुझारू जवान-विजय शर्मा, मलविन्द्र सिंह `बिल्ला',
पूजा बजाड़ सहित 11 मेम्बरों की टीम पताप भवन से दोपहर 1.00 बजे रवाना हुई। रात हरिद्वार
में ठहरी जहां पर हमारे साथी श्री वीरेन्द्र गोयल, कौशिक इत्यादि के साथ बैठक कर अगले
दिन की रणनीति तय हुई। सुबह जब चले तो हरिद्वार में बारिश हो रही थी पर ऋषिकेश तक पहुंचते
थम गई। ऋषिकेश में हमारे काफिले को रोक लिया गया। साइड लगाकर अधिकारियों ने पहले कहा
कि आप आगे नहीं जा सकते पर जब विजय शर्मा और साथियों ने उन्हें समझाया कि हम मीडिया
से हैं, हम जाएंगे और हमें शूट भी करना है तो वह इस शर्त पर माने कि पहले आप अपने टाटा
ट्रक का वजन कराओ। वजन साढे चार टन निकला। फिर उन्होंने उसकी अनुमानित कीमत लगाई पांच
लाख रुपए। फिर सभी टीम का सदस्यें के नाम-पता
नोट किया। जब हमारी टीम ने पूछा कि आप यह क्यों करते हो तो उन्होंने बताया कि
आप आगे जा रहे हो कुछ भी हो सकता है, आप मर भी सकते हो। कल को हमें आपके परिवार वालों
को मुआवजा देना पड़े तो कैसे देंगे, इसलिए यह सब नोट हो रहा है। हमारा काफिला आगे बढ़ा।
पकृति की मार झेल रहे उत्तराखण्ड के श्रीनगर स्थित भक्तसाना गांव के लोग तब हैरान हुए
जब हमारी टीम दिल्ली से राहत सामग्री लेकर उनके घरों तक पहुंची। अलकनंदा, भागीरथी के
तट पर बसे इस गांव की त्रासदी इतनी भयावह थी कि यहां के लोगों के मकान करीब दो-दो मंजिल
तक दल-दल में डूब चुके थे। इस इलाके के लोग व मवेशी जलजले की रात कहां खो गए उनका भी
अभी तक पता नहीं चल सका था। स्थानीय लोगों का कहना है कि देश के कोने-कोने से राहत
सामग्री आ जरूर रही है लेकिन वह जा कहां रही है इसका कोई पता नहीं। आश्चर्यजनक बात
यह है कि इस आपदा में अपना सब-कुछ उजड़ने के बाद भी भक्तसाना, शिव विहार, नर्सरी रोड,
अलकनंदा मार्ग के लोग राहत सामग्री का पैकेट लेने के लिए ईमानदारी निभा रहे थे, यदि
एक पैकेट दिया जा रहा था तो वह एक पैकेट से ही सब्र कर रहे थे। लेकिन हैरानी की बात
यह थी कि इस गांव के लोगों की पूछ के लिए कोई भी नेता या सरकारी अमला नहीं आया। हालांकि
बद्री-केदार के राष्ट्रीय राजमार्ग को खोलने का काम जरूर किया जा रहा है। लेकिन लोगों
को पानी तक उपलब्ध नहीं हो सका। गांव के लोगों ने हजारों दुआएं श्री देवोत्थान सेवा
समिति की ओर से बांटी गई राहत सामग्री के लिए दां। एक व्यक्ति ने रोते-रोते हुए बताया कि पानी का सैलाब
इतनी तेजी से आया कि आंगन में बंधी मैं अपनी पांच गायों को भी नहीं खोल सका। इमारतें
दस-दस फुट नीचे धंसी हैं। कितने लोग मरे इसका भी अभी तक पता नहीं चल सका। मैंने यह
सारी बातें इसलिए की हैं कि राहत सामग्री या
नकद दान देना काफी नहीं, यह सुनिश्चित भी करें कि वह उन जरूरतमंद लोगों तक पहुंच सके
जो भुखमरी की कगार पर हैं।
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