Published on 3 July,
2013
अनिल नरेन्द्र
भाजपा की लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने
उत्तराखंड सरकार पर जमकर हल्ला बोला है। सुषमा ने तो विजय बहुगुणा की सरकार को बर्खास्त
तक करने की मांग कर डाली है। बर्खास्त तो क्या करेंगे पर इतना जरूर है कि उत्तराखंड
त्रासदी से सबक लेना जितना जरूरी है उतना ही जरूरी है इसके जिम्मेदार लोगों को सबक
सिखाना। इस हादसे को प्रकृति के माथे मढ़कर पल्ला झाड़ने वालों से हिसाब नहीं लेंगे
तो देश उन हजारों अभागों का गुनहगार बनकर रह जाएगा जो एक निर्मम और असफल व्यवस्था के
शिकार बनकर असमय जिन्दगी से हाथ धो बैठे हैं। उत्तराखंड में आई तबाही के बाद राज्य
सरकार समेत मौसम विभाग और राष्ट्रीय आपदा कार्यवाही बल यानि एनडीआरएफ अपनी-अपनी सफाई
पेश करने में लगे हुए हैं। राज्य के मौसम विभाग का दावा है कि त्रासदी के दो दिन पहले
से तमाम सरकारी विभागों को सम्भावित तबाही को लेकर चेतावनी जारी कर दी थी और कहा था कि चार धाम यात्रा को तत्काल
रोक दिया जाए। इस चेतावनी में दो टूक कहा गया था कि जो तीर्थ यात्री पहुंच चुके हैं
उन्हें तुरन्त सुरक्षित ठिकानों पर पहुंचाया जाए। मौसम विभाग की यह चेतावनी राज्य के
मुख्य सचिव से लेकर तमाम आला अधिकारियों को यहां तक कि दिल्ली स्थित मौसम विभाग के
मुख्यालय तक लगातार भेजी जा रही थी। लेकिन न तो राज्य और न ही केंद्र सरकार की नींद
टूटी। इतना भी नहीं हुआ कि जब 16 जून को बारिश शुरू हुई तो ऋषिकेश में ऊपर जाने वाले
यात्रियों को रोक लिया जाए। माता वैष्णों देवी भक्त बताते हैं कि जब भवन में बहुत भीड़
हो जाती है तो यात्रियों को कई दिन कटरा में रुकना पड़ता है और जब कटरा फुल हो जाता
है तो जम्मू से ही आगे नहीं जाने दिया जाता। अगर ऋषिकेश में ही यात्रियों को आगे बढ़ने
से रोक दिया जाता तो मरने-लापता होने वालों की संख्या इतनी न होती। यह सरासर लापरवाही
है। अब मुख्य सचिव मौसम विभाग की खिल्ली उड़ा रहे हैं जब वह यह कहते हैं कि ऐसी चेतावनी
तो बरसों से देखी-सुनी जा रही है। यही नहीं काश! अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के
25 दिन पहले जारी किए गए सेटेलाइट चित्रों के संकेत को भांप लिया जाता तो केदारनाथ
घाटी में आई तबाही से शायद बचा जा सकता था। नासा ने जो चित्र जारी किए थे उनसे साफ
हो रहा है कि किस तरह केदारनाथ के ऊपर मौजूद चूराबारी व कंपेनियन ग्लेशियर की कच्ची
बर्प सामान्य से अधिक मात्रा में पानी बनकर रिसने लगी है। लेकिन भारतीय वैज्ञानिक यह
भांपने में नाकाम रहे कि तेजी से पिघल रहे ग्लेशियर ऐसी भीषण तबाही का कारण बन सकते
हैं। चेतावनी के आलोक में कदम उठाने की बात तो दीगर यात्रियों को सावधान करने की कोई
कोशिश नहीं की गई। राज्य की शासन व्यवस्था से यह कौन पूछेगा कि ऐसी बर्बादी और हजारों
मौतों की जिम्मेदारी उन पर कितनी बनती है? स्थानीय पुलिस और प्रशासन के कुछ अधिकारियों
ने बेशक अपने स्तर पर यात्रियों को बचाने का प्रयास किया। गौरीपुंड के चौकी इन्चार्ज
हेमराज रावत ने समय रहते खतरे को भांप लिया और अपने अफसरों को लगातार आगाह करते रहे।
कुछ न बना तो खुद लाउड स्पीकर लेकर यात्रियों को चेतावनी देने में जुट गए। लेकिन शासन
ने न तो उन्हें गम्भीरता से लिया और न ही यात्रियों से जेब भर रहे होटल, धर्मशालाओं
ने उनकी सुनी। इसका नतीजा कितना भयावह और दुखद था यह तो केदारनाथ मंदिर परिसर में भरे
आठ-दस फुट के मलबे को हटाने के बाद ही मालूम होगा। रुद्रप्रयाग के जिला प्रशासन ने
केदार घाटी में बिखरे पड़े शवों की सुरक्षा और वहां की आपदा और महामारी को देखते हुए
लोगों के गौरीपुंड से आगे जाने पर रोक लगा दी है। 13 दिन बीत जाने के बाद भी इन शवों
को नहीं उठाए जाने से घाटी में महामारी जैसे हालात हैं। वर्तमान त्रासदी भारत की सबसे
बड़ी त्रासदियों में से एक है। 1993 के लातूर
में भूकम्प से 20 हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे और हजारों घायल हुए थे।
2001 के गुजरात में भूकम्प से 30 हजार लोगों की मौत हुई थी और एक लाख 67 हजार लोग घायल
हुए थे। 2004 की सुनामी में दस हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे। केदारनाथ त्रासदी में
कितने लोग मरे, इसका शायद ही कभी पता चले पर इतना जरूर है कि यह संख्या हजारों में
होगी। नुकसान का तो अनुमान ही नहीं। हैरानगी की बात यह भी है कि इस तबाही को लेकर अभी
तक उत्तराखंड सरकार ने किसी तरह की जांच का ऐलान नहीं किया है। जांच होने पर यह बात
सामने आ जाएगी कि इस त्रासदी की मुख्य वजह क्या रहीं? प्रशासनिक चूक कहां हुई और भविष्य
में इससे क्या सबक सीखा जा सकता है।
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