Saturday 20 July 2013

मासूम बच्चे तो बस स्कूल गए थे उनकी मौत का जिम्मेदार कौन?

प्रकाशित: 20 जुलाई 2013
बुधवार को जब केंद्रीय मंत्री गुलाम नबी आजाद बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर सरकार की एक नई योजना का शुभारम्भ कर रहे थे उसी समय बिहार के छपरा जिले में हा-हाकार मचा हुआ था। छपरा के एक प्राइमरी स्कूल में जहरीले भोजन ने 23 बच्चों को मौत के घाट उतार दिया जबकि दो दर्जन से अधिक बच्चे अस्पतालों में जिन्दगी के लिए जंग कर रहे हैं। दिल दहला देने वाली इस घटना के तुरन्त बाद ऐसा ही हादसा राज्य के मधुबनी के एक अन्य स्कूल में घटा, जहां इसी प्रकार दोपहर के भोजन खाते ही 15 बच्चे बेहोश हो गए। मधुबनी के इस हादसे में बच्चों के भोजन में छिपकली मिलने की बात कही गई। छपरा में भी बच्चों के खाने में जहरीला कीटनाशक मिलने की शंका जताई गई है। इन दोनों दिल दहलाने वाली घटनाओं में चौंकाने वाली समानताएं हैं। दोनों सरकारी स्कूल हैं, गांव-कस्बों से संबंध रखते हैं और पढ़ने वाले बच्चे गरीब परिवारों से हैं। सारण के धर्मसती गांव में मौत का सन्नाटा है। जिस गांव में कल तक बच्चों की किलकारियां गूंजती थीं आज वहां मातम पसरा है। मंगलवार देर रात से ही बच्चों के शव आने और उन्हें दफनाने का सिलसिला शुरू हो गया था। बुधवार शाम तक मिड डे मील के शिकार हुए तमाम बच्चों के शव दफनाए जा चुके थे। विडम्बना यह है कि जिस स्कूल में वह पढ़ते-लिखते, खेलते व कूदते थे उसी स्कूल के सामने के मैदान में उन्हें दफनाया गया है। एक बच्चे के शव को तो लगभग स्कूल के गेट के बाहर ही दफनाया गया। बुधवार को धर्मसती गांव में किसी भी घर का चूल्हा नहीं जला। हर घर से रोने-बिलखने की आवाज आती रही। इस घटना ने एक महत्वपूर्ण योजना के प्रति बरती जा रही आपराधिक लापरवाही को ही उजागर किया है। वह बच्चे स्कूल में पढ़ने गए थे, लेकिन हमारी सड़ी-गली व्यवस्था ने उनके सपनों को परवान चढ़ने से पहले ही ध्वस्त कर दिया। दुखद यह है कि मध्याह्न भोजन में मरी छिपकली होने या उसके किसी तरह से विषाक्त होने की शिकायतें आती रही हैं और पहले भी कुछ जगहों पर कुछ बच्चों की विषाक्त भोजन से मौत तक हुई है इसके बावजूद शिक्षा के बुनियादी अधिकार को आधार देने वाली इस योजना को लेकर चौतरफा बेरुखी बरती जा रही है, यह तो जांच से ही पता चलेगा कि उन अभागे बच्चों को दिए गए भोजन में कीटनाशक मिला हुआ था या कोई और जहरीला पदार्थ, मगर जिस तरह से स्कूलों में मध्याह्न भोजन तैयार किया जाता है और बच्चों को परोसा जाता है उस पूरी व्यवस्था में ही गड़बड़ी है। उद्देश्य तो सही था। स्कूलों में दोपहर का भोजन सीधे देश की गरीबी से ताल्लुक रखता है। सरकार का मानना था कि स्कूलों में भोजन की व्यवस्था से लोग अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित होंगे। यह भी सोचा गया था कि बच्चों को ऐसा भोजन दिया जाए जो उनके शारीरिक व मानसिक विकास के लिए आवश्यक पोषक तत्व मुहैया करवा सके। लेकिन जैसा अपने देश में प्रचलन है, ऐसी योजनाओं के पीछे गरीबों या देशहित की चिन्ता कम होती है, राजनीतिक लाभ-हानि और योजना के पैसों की लूट से जुड़ी होती है। गरीबों के नाम पर इन योजनाओं में करोड़ों-अरबों के वारे-न्यारे होते हैं और बिचौलियों का खेल चलता  रहता है। विश्वास न हो तो पता लगा लीजिए कि इन मिड डे मील योजनाओं में किनकी ठेकेदारी चल रही है और स्कूलों के हैड मास्टरों के तार कहां-कहां तक जुड़े हैं? ऐसे में गरीब बच्चों की जान की किसको पड़ी है। जिन माताओं का आंचल उजड़ गया है वो तो शायद रो-धो कर लाख-दो लाख का मुआवजा  लेकर चुप हो जाएंगे। रही बात देश के भविष्य की तो इसकी चिन्ता करने का समय किसके पास है। मासूम बच्चों की मौत पर भी राजनीतिक बहस छिड़ गई है। राजनेताओं को अपनी-अपनी रोटियां सेंकने की पड़ी है। एक तरफ जहां आम आदमी प्रभावित परिवार के दुख-दर्द से पीड़ित है वहीं राजनीतिक पार्टियों द्वारा एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं। इस मिड डे मील योजना पर ही प्रश्न चिन्ह खड़ा हो गया है। अभिभावकों के अन्दर इस बात को लेकर दहशत है कि कहीं खिचड़ी खाने से मेरा बच्चा बीमार न पड़ जाए। यह घटना केवल बिहार की नहीं बल्कि पूरे देश की घटना बन चुकी है। बिहार सरकार से लेकर भारत सरकार के प्रति लोगों में आक्रोश व्याप्त है। गांव से लेकर शहर तक सभी लोग इस बात से आशंकित हैं कि आखिर इतनी बड़ी घटना के बाद भी प्रशासन प्रभावी कदम क्यों नहीं उठा रहा। पीड़ित परिवार कराहता रहा और नेता लोग बयानबाजी करते रहे। यदि प्रशासन द्वारा त्वरित कार्रवाई की गई होती तो शायद मासूमों को बचाया जा सकता था।

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