प्रकाशित: 16 जुलाई 2013
वोट बैंक की राजनीति पर कोर्ट ने कड़ा प्रहार किया है। गुरुवार को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सियासी दलों की जातिगत रैलियों पर रोक लगा दी। इससे पहले बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने दागी नेताओं पर कड़ा फैसला सुनाया था। जस्टिस उमानाथ सिंह और महेन्द्र दयाल की इलाहाबाद बैंच ने याचिकाकर्ताओं की उस दलील को मान लिया जिसमें कहा गया था कि जातिगत रैलियां संविधान के खिलाफ हैं और यह समाज को बांटने का काम करती हैं। हाई कोर्ट के फैसले का असर देशभर में हो सकता है। इसे आधार बनाकर दूसरे राज्यों के हाई कोर्ट में भी अर्जी दाखिल की जा सकती है। ऐसे में बाकी राज्यों में भी जातिगत रैलियों पर इसी प्रकार के आदेश आ सकते हैं। जाति आधारित रैलियों पर रोक का राष्ट्रीय दल खुलकर न सही लेकिन इसे अपने लिए वरदान और बड़े राजनीतिक फैसले लेने के लिए मैंडेट जरूर मान रहे हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, झारखंड व महाराष्ट्र में क्षेत्रीय दलों का जबरदस्त प्रभुत्व है। चुनावी राजनीति में जाति हमेशा से एक अहम मुद्दा रही है। सामाजिक तौर पर गम्भीर समस्या के रूप में मौजूदा जातियों का प्राय पार्टियां चुनावों में अपनी जीत सुनिश्चित का जरिया बनाती हैं। यूपी में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी और प्रमुख विपक्षी बहुजन समाज पार्टी, दोनों ने कुछ महीनों में ब्राह्मण रैलियों का आयोजन किया। ब्राह्मण रैलियों के अलावा राजनीतिक दलों ने क्षेत्रीय रैली और वैश्य सम्मेलन जैसे नामों से अन्य कई जातियों को लेकर भी रैलियां कीं या करने की घोषणा की। मुलायम सिंह यादव की अगुवाई वाली समाजवादी पार्टी पिछड़ी जाति के वर्चस्व वाली पार्टी मानी जाती है वहीं बसपा मायावती के नेतृत्व में एक अनुसूचित जाति विशेष के आधार वाली मानी जाती है। भाजपा मूलत सवर्णों और हिन्दुओं की पार्टी मानी जाती है जिसमें उच्च जातियों और वैश्यों का जोर है। झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसी पार्टियां भी हैं जो आदिवासियों की सियासत करती हैं। बिहार में नीतीश कुमार का जनता दल (यू) अति पिछड़ा वर्ग का विशेष समर्थक बताई जाता है। बिहार की ही राजद जिसके सुप्रीमो हैं लालू प्रसाद यादव मध्यवर्ती और पिछड़ी जाति केंद्रित पार्टी मानी जाती है। सबसे ज्यादा 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में जातिगत समीकरणों के चलते बीते डेढ़ दशक से भाजपा और कांग्रेस जैसे दो बड़े राष्ट्रीय दल हाशिए पर हैं और राज्य की सत्ता दो क्षेत्रीय दलों सपा व बसपा में बंटी हुई है। चाहे नामकरण हो, मूर्तियां लगवाने का अभियान या सार्वजनिक छुट्टियों की घोषणा, यूपी में नेताओं ने वोट बैंक लुभाने का हर यत्न किया है। मंडल-कमंडल के दौर से परवान चढ़ा यह अभियान अब शाबाब पर है। इन जातियों की बेहतरी से बहुत मतलब न रखा गया हो लेकिन प्रतीकात्मक टोटकों के जरिए जातीय स्वाभिमान की लौ को खूब जलाया रखा गया। डॉ. भीमराव अम्बेडकर को महज दलितों का नेता बनाने का अभियान बेशक पुराना है लेकिन पिछले कुछ समय से इनको महज दलितों का उद्धारक बनाया जा रहा है। जाति के गौरव तलाशने का अभियान पिछड़े डेढ़ दशक से तेजी से चला। सामाजिक आंदोलनों में अहम भूमिका निभाने वाले छत्रपति शाहूजी महाराज, नारायण गुरु, ज्योतिबा फुले आदि को जाति से जोड़कर याद कराने की कोशिशें हुईं। उनके नाम पर स्मारक, पार्प और मूर्तियों का निर्माण हुआ, कई योजनाएं और किलों का नामांकरण भी जाति को ध्यान में रखकर महापुरुषों के नाम पर किया गया। सपा सरकार ने बसपा राज में बने छत्रपति शाहूजी महाराज जिले को अमेठी नाम दिया। बसपा ने किंग जॉर्ज मेडिकल विश्वविद्यालय भी छत्रपति शाहूजी के नाम पर किया तो सपा सरकार ने इसे बदल दिया। ब्राह्मणों को लुभाने के लिए यूपी में भगवान परशुराम जयंती और सिंधियों को लुभाने के लिए चेटीचन्द के नाम पर सरकारी छुट्टी तय हुई। पिछड़ों के लिए विश्वकर्मा जयंती, वैश्य समुदाय के लिए अग्रसेन जयंती, कायस्तों के लिए चित्रगुप्त जयंती की छुट्टियां तय हुईं। हाई कोर्ट का यह फैसला वैसे तो उत्तर प्रदेश तक सीमित है लेकिन इसका असर अन्य राज्यों पर भी पड़ेगा। राष्ट्रीय दलों को चुनौती दे रहे तमाम क्षेत्रीय दलों की असली ताकत क्षेत्रीय जातीय समीकरण या क्षेत्रीय अस्मिता की भावनाओं पर बना माहौल है। दोनों में ही जाति काफी अहम भूमिका में है। यूपी और बिहार में जातीय समीकरणों से प्रभावित दलों ने भाजपा व कांग्रेस को तो सिकौड़ा ही है, वामपंथी दलों को भी लगभग बाहर कर दिया है। दक्षिण के राज्यों-आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु व केरल में भी क्षेत्रीय दलों की ताकत काफी हद तक उनका नेतृत्व करने वाले नेताओं की अपनी जाति है। लोकसभा की 300 सीटें ऐसी हैं, जहां जातिगत समीकरणों की वजह से ही क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व है। यह फैसला कितने प्रभावी ढंग से लागू होता है यह समय बताएगा। चुनावी मौसम में यह पार्टियां इसका भी कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेंगी। सम्भव है कि जातीय रैलियां सामाजिक संगठनों की ओर से हों। कुल मिलाकर यह एक दूरगामी अत्यंत महत्वपूर्ण फैसला है पर इसे लागू करना उतना ही मुश्किल साबित हो सकता है
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