Tuesday 12 April 2016

शनि शिंगणापुर मंदिर में 400 साल पुरानी परंपरा टूटी

नवरात्र के पहले दिन महिलाओं को पूजा के हक में चल रहे कई दिनों से संघर्ष में अंतत जीत हासिल हो गई। महाराष्ट्र के अहमद नगर स्थित शनि शिंगणापुर मंदिर में 400 साल पुरानी परंपरा शुक्रवार को टूट गई। अब पुरुषों के साथ महिलाओं को भी चबूतरे पर पूजा करने की इजाजत मिल गई है। पाबंदी के बावजूद पुरुषों के चबूतरे पर प्रवेश के बाद ट्रस्ट के महासचिव दीपक दादा साहेब ने कहा कि हमने संविधान का सम्मान करते हुए सबको पूजा करने की अनुमति दे दी है। ट्रस्ट की अध्यक्ष अनीता शेटे ने कहा कि महिलाओं पर कोई रोकटोक नहीं होगी। यह स्वागत योग्य है कि नवरात्र के पहले दिन ही शनि शिंगणापुर मंदिर में महिलाओं को पूजा करने की अनुमति प्रदान कर दी गई और उन्होंने वहां विधिपूर्वक पूजा-अर्चना कर भी ली। मंदिर ट्रस्ट ने समझदारी भरा फैसला किया है। हालांकि हो सकता है कि यह फैसला उसे परिस्थितियों के दबाव में करना पड़ा हो। भारतीय नववर्ष को महाराष्ट्र में गुडीपाड़वा के रूप में मनाया जाता है और मराठी संस्कृति में इस पर्व का विशेष महत्व है। इस दिन अदालत के फैसले की अवहेलना करते हुए स्थानीय पुरुष उस चबूतरे पर पहुंच गए, जहां शनि की प्रतिमा है और उन्होंने प्रतिमा को दूध व तेल से नहलाया। गुडीपाड़वा के दिन की यह स्थानीय रस्म रही होगी, लेकिन इससे विवाद होने की आशंका थी, इसलिए शायद मंदिर ट्रस्ट ने महिलाओं को भी चबूतरे पर चढ़ने की इजाजत दे दी। कारण जो भी हो, यह फैसला पहले ही हो जाना चाहिए था, क्योंकि यह वक्त की जरूरत है। वैसे यह अच्छा नहीं हुआ कि महिलाओं को इस मंदिर में पूजा करने की अनुमति उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद मिली। यह एक ऐसा मामला नहीं था कि जिसमें न्यायालय को दखल देने की जरूरत पड़ती। जिस तरह उच्च न्यायालय को महिलाओं को पूजा करने देने की अनुमति प्रदान करने के साथ यह टिप्पणी करनी पड़ी कि ऐसा कोई कानून नहीं है जो महिलाओं को किसी धर्मस्थल में जाने से रोकता हो। उससे कुल मिलाकर समाज को यही संदेश गया कि अगर न्यायपालिका सक्रिय नहीं होती तो शायद शनि शिंगणनापुर मंदिर में महिलाओं को पुरुषों की तरह पूजा करने की सुविधा मिलने में और समय लगता। ज्यादातर धार्मिक स्थलों पर लिंग, जाति, धर्म वगैरह को लेकर जिस तरह की पाबंदियां हैं उन्हें परंपरा और शास्त्र-सम्मत् बताया जाता है, लेकिन अगर इतिहास और परंपरा को ध्यान से परखा जाए तो ऐसा नहीं है। यह देखा गया है कि अक्सर शुरू में धार्मिक स्थलों पर सबको जाने की आजादी होती है। धीरे-धीरे कर्मकांड ज्यादा विस्तृत होने लगते हैं और साथ-साथ तरह-तरह के नियम भी बदले चले जाते हैं जिनमें लिंग और जाति वगैरह के आधार पर भेदभाव भी शामिल हैं। शास्त्रों में महिलाओं को विशेष स्थान दिया गया है। चाहे आप राम-सीता की बात करें, शंकर-पार्वती की बात करें, विष्णु-लक्ष्मी की बात करें या माता की बात करें हर भगवान के साथ उनकी अर्द्धांगिनी जरूर पाएंगे। फिर मंदिरों में यह पाबंदी कैसी? शनि शिंगणापुर मंदिर या मुंबई की हाजी अली दरगाह के प्रबंधकों को यह नहीं सोचना चाहिए कि इस मामले में उन्हें विशेष रूप से निशाना बनाया जा रहा है। किसी वक्त में दलितों के मंदिर प्रवेश को लेकर आंदोलन चला था। क्योंकि वह वक्त की मांग थी। वैसे ही आज नहीं तो कल, धर्म के नाम पर परंपरा के नाम पर, शास्त्रों के नाम पर स्त्री-पुरुष भेदभाव के खिलाफ आवाज तो उठती ही। यह एक संयोग माना जाना चाहिए कि शनि शिंगणापुर मंदिर उसका प्रतीक बन गया। अच्छा हो कि शनि शिंगणापुर मसले पर संत समाज चेते और स्वेच्छा से यह देखे कि मंदिरों में पूजा-अर्चना के मामले में किसी तरह का भेदभाव न हो। यह वक्त समाज को एकजुट करने और बीच में न तो जाति, क्षेत्र या लिंग आए और जो आर्टिफिशियल दीवारें खड़ी की गई हैं उन्हें ढहा दिया जाए।

-अनिल नरेन्द्र

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